‘‘आपके चेहरे पर खिन्नता के चिह्न!’’ आगंतुक ने सरस्वती नदी के तट पर, आश्रम के निकट बैठे हुए मनीषी के मुखमंडल पर छाए भावों को पढ़ते हुए कहा। इधर विगत कई दिनों से वह व्यथित थे। नदी के तट पर बैठकर घंटों विचारमग्न रहना, शून्य की ओर ताकते रहना, उनकी सामान्य दिनचर्या बन गई थी। आज भी कुछ उसी प्रकार बैठे थे।
आगंतुक के कथन से विचार-शृंखला टूटी। ‘‘अरे! देवर्षि आप?’’ चेहरे पर आश्चर्य व प्रसन्नता की मिली-जुली अभिव्यक्ति झलकी।
‘‘पर आप व्यथित क्यों हैं?’’ उन्होंने पास पड़े आसन पर बैठते हुए कहा-पीड़ा-निवारक को पीड़ा, वैद्य को रोग? कैसी विचित्र स्थिति है?’’
‘‘विचित्रता नहीं विवशता कहिए। इसे उस अंतर्व्यथा के रूप में समझिए, जो पीड़ा-निवारक को सामने पड़े पीड़ित को देखकर, उसके कष्ट हरने में असफल होने पर होती है। वैद्य को उस समय होती है, जब वह सामने पड़े रोगी को स्वस्थ कर पाने में असफल हो जाता है।’’