१. स्वयं निर्धारित गणवेश में रहें। व्यक्तित्व सरल, सौम्य, शालीन एवं आकर्षक हो।
२. जो बच्चों को सिखाना है, उसका स्वयं भी अभ्यास करें।
३. प्रतिदिन स्वाध्याय अवश्य करें। प्रशिक्षण विषय की पूर्व तैयारी अवश्य करें।
४. बच्चों को सिखाने, संस्कारित करने हेतु स्वयं का चरित्र सबसे प्रभावी माध्यम है।
५. पाठ्यक्रम बच्चों को मानसिक बोझ न लगे, इस हेतु उसकी रोचक- प्रेरणाप्रद प्रस्तुति करें तथा सहयोगी बनें, शासकनहीं।
६.
पाठ्य वस्तु ऐसी हो, जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं
आध्यात्मिक (नैतिक, सांस्कृतिक एवं संवेदनात्मक)
विकास हो।
७. सप्ताह में एक निश्चित दिन व समय पर कक्षा लें।
८. कक्षा प्रारंभ होने से दस मिनट पूर्व अनिवार्य रूप से उपस्थित रहें।
९. बालक- बालिकाओं को अलग- अलग पंक्तियों में बैठायें एवं उपस्थिति लें।
१०. प्रस्तुत पाठ्यक्रम ६ से १३ वर्ष के बच्चों के लिए है।
११.
माह में एक बार बच्चों के माता- पिता से संपर्क करें या
अभिभावकों की गोष्ठी का आयोजन कर बच्चों के विकास एवं
घर के वातावरण को परिष्कृत बनाने हेतु चर्चा करें।
१२. संस्कारशाला के बालक- बालिकाओं पर अपनी दृष्टि रखें ( Under Observation) जो मूल्यांकन में सहयोगी होगी।
१३. मूल्यांकन का आधार केवल बौद्धिक न होकर भावनात्मक एवं चारित्रिक विकास और आचरण की सभ्यता हो।
१४.
केवल लिखित परीक्षा ही आवश्यक नहीं, अपितु आचार्य, माता- पिता,
पास- पड़ोस, समाज एवं सहपाठियों का अभिमत तथा अवलोकन आदि
भी मूल्यांकन का आधार रहे।
१५. सप्ताह में पड़ने वाले जन्म दिन(बच्चों के), महापुरुषों की जयन्ती एवं त्यौहारों का संक्षिप्त आयोजन अवश्य करें।
१६. उपस्थिति पंजिका में बालकों के जन्मदिन भी अवश्य अंकित करें।
१७. शैक्षणिक परिभ्रमण वर्ष में एक या दो बार।
१८. बालकों को अपनी आध्यात्मिक डायरी लिखने हेतु प्रेरित करें।
१९. बालकों में जिज्ञासा जगाने हेतु परिस्थिति निर्माण कर प्रश्न पूछें एवं समाधान करें।
२०. कक्षा में विषयों की समयावधि सांकेतिक है, इसे विवेकानुसार
एवं
आवश्यकतानुसार घटाया- बढ़ाया जा
सकता है।
२१. वार्षिक सत्र पूरा होने पर निम्र लिखित विषयानुसार परीक्षा एवं मूल्यांकन की व्यवस्था बनाएँ।
क्र. विषय अंक
१. संस्कार ४०
२. स्वास्थ्य १५
३. शिक्षा (ज्ञान) १५
४. खेलकूद १५
५. सेवा भाव १५
कुल अंक १००