बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका

अध्याय- ८ व्यक्तित्व विकास के महत्वपूर्ण तथ्य -शिष्टाचार

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१. शिष्टाचार
एक व्यक्ति दूसरे के साथ जो सभ्यतापूर्ण व्यवहार करता है, उसे शिष्टाचार कहते हैं। यह व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि अपने रहन- सहन तथा वचनों से दूसरों को कष्ट तथा असुविधा न हो। शिष्टाचार दिखावटी नहीं होना चाहिए, वह सच्चा होना चाहिए। शिष्टाचार सदाचार का ही एक अंग है। प्रत्येक देश एवं समाज के शिष्टाचार के नियम कुछ पृथक- पृथक होते हैं। बचपन में ही इन नियमों को जान लेना चाहिए और इनके पालन का स्वभाव बना लेना चाहिए।

क. बड़ों का अभिवादन
१. बड़ों को कभी ‘तुम’ मत कहो, उन्हें ‘आप’ कहो और अपने लिए मैं का प्रयोग मत करो ‘हम’ कहो।
२. जो गुरुजन घर में है, उन्हें सबेरे उठते ही प्रणाम करो। अपने से बड़े लोग जब मिलें/जब उनसे भेंट हो उन्हें प्रणाम करना चाहिए।
३. जहाँ दीपक जलाने पर या मन्दिर में आरती होने पर सायंकाल प्रणाम करने की प्रथा हो वहाँ उस समय भी प्रणाम करना चाहिए।
४. जब किसी नये व्यक्ति से परिचय करया जाय, तब उन्हें प्रणाम करना चाहिए। सौंफ- इलायची या पुरस्कार अगर कोई दे तब उस समय भी उसे प्रणाम करना चाहिए।
५. गुरुजनों को पत्र व्यवहार में भी प्रणाम लिखना चाहिए।
६. प्रणाम करते समय हाथ में कोई वस्तु हो तो उसे बगल में दबाकर या एक ओर रखकर दोनों हाथों से प्रणाम करना चाहिए।
७. चिल्लाकर या पीछे से प्रणाम नहीं करना चाहिए। सामने जाकर शान्ति से प्रणाम करना चाहिए।
८. प्रणाम की उत्तम रीति दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाना है। जिस समाज में प्रणाम के समय जो कहने की प्रथा हो, उसी शब्द का व्यवहार करना चाहिए। महात्माओं तथा साधुओं के चरण छूने की प्राचीन प्रथा है।
९. जब कोई भोजन कर रहा हो, स्नान कर रहा हो, बाल बनवा रहा हो, शौच जाकर हाथ न धोये हों तो उस समय उसे प्रणाम नहीं करना चाहिए। उसके इन कार्यों से निवृत्त होने पर ही प्रणाम करना चाहिए।

ख. बड़ों का अनुगमन
१. अपने से बड़ा कोई पुकारे तो ‘क्या’, ‘ऐं’, ‘हाँ’ नहीं कहना चाहिए। ‘जी हाँ’ ‘जी’ अथवा ‘आज्ञा’ कहकर प्रत्युत्ता देना चाहिए।
२. लोगों को बुलाने, पत्र लिखने या चर्चा करने में उनके नाम के आगे ‘श्री’ और अन्त में ‘जी’ अवश्य लगाओ। इसके अतिरिक्त पंडित, सेठ, बाबू, लाला आदि यदि उपाधि हो तो उसे भी लगाओ।
३. अपने से बड़ों की ओर पैर फैलाकर या पीठ करके मत बैठो। उनकी ओर पैर करके मत सोओ।
४. मार्ग में जब गुरुजनों के साथ चलना हो तो उनके आगे या बराबर मत चलो उनके पीछे चलो। उनके पास कुछ सामान हो तो आग्रह करके उसे स्वयं ले लो। कहीं दरवाजे में से जाना हो तो पहले बड़ों को जाने दो। द्वार बंद है तो आगे बढ़कर खोल दो और आवश्यकता हो तो भीतर प्रकाश कर दो। यदि द्वार पर पर्दा हो तो उसे तब तक उठाये रहो, जब तक वे अंदर न चले जायें।
५. सवारी पर बैठते समय बड़ों को पहले बैठने देना चाहिए। कहीं भी बड़ों के आने पर बैठे हो तो खड़े हो जाओ और उनके बैठ जाने पर ही बैठो। उनसे ऊँचे आसान पर नहीं बैठना चाहिए। बराबर भी मत बैठो। नीचे बैठने को जगह हो तो नीचे बैठो। स्वयं सवारी पर हो या ऊँचे चबूतरे आदि स्थान पर और बड़ों से बात करना हो तो नीचे उतर कर बात करो। वे खड़े हों तो उनसे बैठे- बैठे नहीं बल्कि खड़े होकर बात करो। चारपाई आदि पर बड़ों को तथा अतिथियों को सिरहाने की ओर बैठाना चाहिए। मोटर, घोड़ा- गाड़ी आदि सवारियों में बराबर बैठना ही हो तो बड़ों की बांयीं ओर बैठना चाहिए।
६. जब कोई आदरणीय व्यक्ति अपने यहाँ आएँ तो कुछ दूर आगे बढ़कर उनका स्वागत करें और जब वे जाने लगें तब सवारी या द्वार तक उन्हें पहुँचाना चाहिए।

ग. छोटों के प्रति
१. बच्चों को, नौकरों को अथवा किसी को भी ‘तू’ मत कहो। ‘तुम’ या ‘आप’ कहो।
२. जब कोई आपको प्रणाम करे तब उसके प्रणाम का उत्तर प्रणाम करके या जैसे उचित हो अवश्य दो।
३. बच्चों को चूमो मत। यह स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। भारत की स्नेह प्रकट करने की पुरानी रीति है मस्तक सूँघ लेना और यही उत्तम रीति है।
४. नौकर को भी भोजन तथा विश्राम के लिए उचित समय दो। बीमारी आदि में उसकी सुविधा का ध्यान रखो। यदि भोजन- स्नान आदि में लगा हो तो पुकारो मत। किसीको भी कभी नीच मत समझो।
५. आपके द्वारा आपसे जो छोटे हैं, उन्हें असुविधा न हो यह ध्यान रखना चाहिए। छोटों के आग्रह करने पर भी उनसे अपनी सेवा का काम कम से कम लेना चाहिए।
घ. महिलाओं के प्रति
१. अपने से बड़ी स्त्रियों को माता, बराबर वाली को बहिन तथा छोटी को कन्या समझो।
२. बिना जान पहचान के स्त्री से कभी बात करनी ही पड़े तो दृष्टि नीचे करके बात करनी चाहिए। स्त्रियों को घूरना, उनसे हँसी करना उनके प्रति इशारे करना या उनको छूना असभ्यता है, पाप भी है।,
३. घर के जिस भाग में स्त्रियाँ रहती हैं, वहाँ बिना सूचना दिये नहीं जाना चाहिए। जहाँ स्त्रियाँ स्नान करती हों, वहाँ नहीं जाना चाहिए। जिस कमरे में कोई स्त्री अकेली हो, सोयी हो, कपड़े पहन रही हो, अपरिचित हो, भोजन कर रही हो, वहाँ भी नहीं जाना चाहिए।
४. गाड़ी, नाव आदि में स्त्रियों को बैठाकर तब बैठना चाहिए। कहीं सवारी में या अन्यत्र जगह की कमी हो और कोई स्त्री वहाँ आये तो उठकर बैठने के लिए स्थान खाली कर देना चाहिए।
५. छिपकर, अश्लील- चित्र, पोस्टर आदि देखना बहुत बुरा है। स्त्रियों के सामने अपर्याप्त वस्त्रों में स्नान नहीं करना चाहिए और न उनसे स्त्री पुरुष के गुप्त रोगों की चर्चा करनी चाहिए।
६. यही बातें स्त्रियों के लिए भी हैं। विशेषतः उन्हें खिड़कियों या दरवाजों में खड़े होकर झाँकना नहीं चाहिए। और न गहने पहनकर या इस प्रकार सजधज कर निकलना चाहिए कि लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो।
ङ सर्वसाधारण के प्रति
१. यदि किसी के अंग ठीक नहीं कोई काना, अंधा लंगड़ा या कुरूप है अथवा किसी में तुतलाने आदि का कोई स्वभाव है तो उसे चिढ़ाओ मत। उसकी नकल मत करो। कोई स्वयं गिर पड़े या उसकी कोई वस्तु गिर जाये, किसी से कोई भूल हो जाये, तो हँसकर उसे दुखी मत करो। यदि कोई दूसरे प्रान्त का तुम्हारे रहन- सहन में, बोलने के ढंग में भूल करता है। तो उसकी हँसी मत उड़ाओ।
२. कोई रास्ता पूछे तो उसे समझाकर बताओ और संभव हो तो कुछ दूर तक जाकर मार्ग दिखा आओ। कोई चिट्ठी या तार पढ़वाये तो रुक कर पढ़ दो। किसी का भार उससे न उठता हो तो उसके बिना कहे ही उठवा दो। कोई गिर पड़े तो उसे सहायता देकर उठा दो। जिसकी जैसी भी सहायता कर सकते हो, अवश्य करो। किसी की उपेक्षा मत करो।
३. अंधों को अंधा कहने के बदले सूरदास कहना चाहिए। इसी प्रकार किसी में कोई अंग दोष हो तो उसे चिढ़ाना नहीं चाहिए। उसे इस प्रकार बुलाना या पुकारना चाहिए कि उसको बुरा न लगे।
४. किसी भी देश या जाति के झण्डे, राष्ट्रीय गान, धर्म ग्रन्थ अथवा सामान्य महापुरुषों को अपमान कभी मत करो। उनके प्रति आदर प्रकट करो। किसी धर्म पर आक्षेप मत करो।
५. सोये हुए व्यक्ति को जगाना हो तो बहुत धीरे से जगाना चाहिए।
६. किसी से झगड़ा मत करो। कोई किसी बात पर हठ करे व उसकी बातें आपको ठीक न भी लगें, तब भी उसका खण्डन करने का हठ मत करो।
७. मित्रों, पड़ोसियों, परिचतों को भाई, चाचा आदि उचित संबोधनों से पुकारो।
८. दो व्यक्ति झगड़ रहे हों तो उनके झगड़े को बढ़ाने का प्रयास मत करो। दो व्यक्ति परस्पर बातें कर रहे हों तो वहाँ मत आओ और न ही छिपकर उनकी बात सुनने का प्रयास करो। दो आदमी आपस में बैठकर या खड़े होकर बात कर रहे हों तो उनके बीच में मत जाओ।
९. आपने हमें पहचाना। ऐसे प्रश्न करके दूसरों की परीक्ष मत करो। आवश्यकता न हो तो किसीका नाम, गाँव, परिचय मत पूछो और कोई कहीं जा रहा हो तो ‘‘कहाँ जाते हो? भी मत पूछो।’’
१०. किसी का पत्र मत पढ़ो और न किसी की कोई गुप्त बात जानने का प्रयास करो।
११. किसी की निन्दा या चुगली मत करो। दूसरों का कोई दोष तुम्हें ज्ञात हो भी जाये तो उसे किसी से मत कहो। किसी ने आपसे दूसरे की निन्दा की हो तो निन्दक का नाम मत बतलाओ।

१२. बिना आवश्यकता के किसी की जाति, आमदनी, वेतन आदि मत पूछो।
१३. कोई अपना परिचित बीमार हो जाय तो उसके पास कई बार जाना चाहिए। वहाँ उतनी ही देर ठहरना चाहिए जिसमें उसे या उसके आस पास के लोगों को कष्ट न हो। उसके रोग की गंभीरता की चर्चा वहाँ नहीं करनी चाहिए और न बिना पूछे औषधि बताने लगना चाहिए।
१४. अपने यहाँ कोई मृत्यु या दुर्घटना हो जाये तो बहुत चिल्लाकर शोक नहीं प्रकट करना चाहिए। किसी परिचित या पड़ोसी के यहाँ मृत्यु या दुर्घटना हो जाये तो वहाँ अवश्य जाना व आश्वासन देना चाहिए।
१५. किसी के घर जाओ तो उसकी वस्तुओं को मत छुओ। वहाँ प्रतीक्षा करनी पड़े तो धैर्य रखो। कोई आपके पास आकर कुछ अधिक देर भी बैठै तो ऐसा भाव मत प्रकट करो कि आप उब गये हैं।
१७. किसी से मिलो तो उसका कम से कम समय लो। केवल आवश्यक बातें ही करो। वहाँ से आना हो तो उसे नम्रतापूर्वक सूचित कर दो। वह अनुरोध करे तो यदि बहुत असुविधा न हो तभी कुछ देर वहाँ रुको।
च. अपने प्रति
१. अपने नाम के साथ स्वयं पण्डित, बाबू आदि मत लगाओ।
२. कोई आपको पत्र लिखे तो उसका उत्तर आवश्यक दो। कोई कुछ पूछे तो नम्रतापूर्वक उसे उत्तर दो।
३. कोई कुछ दे तो बायें हाथ से मत लो, दाहिने हाथ से लो और दूसरे को कुछ देना हो तो भी दाहिने हाथ से दो।
४. दूसरों की सेवा करो, पर दूसरों की अनावश्यक सेवा मत लो। किसी का भी उपकार मत लो।
५. किसी की वस्तु तुम्हारे देखते, जानते, गिरे या खो जाये तो उसे दे दो। तुम्हारी गिरी हुई वस्तु कोई उठाकर दे तो उसे धन्यवाद दो। आपको कोई धन्यवाद दे तो नम्रता प्रकट करो।
६. किसी को आपका पैर या धक्का लग जाये तो उससे क्षमा माँगो। कोई आपसे क्षमा माँगे तो विनम्रता पूर्वक उत्तर देना चाहिए, अकड़ना नहीं चाहिए। क्षमा माँगने की कोई बात नहीं अथवा आपसे कोई भूल नहीं हुई कहकर उसे क्षमा करना / उसका सम्मान करना चाहिए।
७. अपने रोग, कष्ट, विपत्ति तथा अपने गुण, अपनी वीरता, सफलता की चर्चा अकारण ही दूसरों से मत करो।
८. झूठ मत बोलो, शपथ मत खाओ और न प्रतीक्षा कराने का स्वभाव बनाओ।
९. किसी को गाली मत दो। क्रोध न करो व मुख से अपशब्द मत निकालो।
१०. यदि किसी के यहाँ अतिथि बनो तो उस घर के लोगों को आपके लिये कोई विशेष प्रबन्ध न करना पड़े ऐसा ध्यान रखो। उनके यहाँ जो भोजनादि मिले, उसकी प्रशंसा करके खाओ। वहाँ जो स्थान आपके रहने को नियत हो वहीं रहो। भोजन के समय उनको आपकी प्रतीक्षा न करनी पड़े। आपके उठने- बैठने आदि से वहाँ के लोगों को असुविधा न हो। आनको जो फल, कार्ड, लिफाफे आदि आवश्यक हों, वह स्वयं खरीद लाओ।
११. किसी से कोई वस्तु लो तो उसे सुरक्षित रखो और काम करके तुरंत लौटा दो। जिस दिन कोई वस्तु लौटाने को कहा गया हो तो उससे पहले ही उसे लौटा देना उत्तम होता है।
१२. किसी के घर जाते या आते समय द्वार बंद करना मत भूलो। किसी की कोई वस्तु उठाओ तो उसे फिर से यथास्थान रख देना चाहिए।

छ. मार्ग में
१. रास्ते में या सार्वजनिक स्थलों पर न तो थूकें, न लघुशंकादि करें और न वहाँ फलों के छिलके या कागज आदि डालें। लघु शंकादि करने के नियत स्थानों पर ही करें। इसी प्रकार फलों के छिलके, रद्दी कागज आदि भी एक किनारे या उनके लिये बनाये स्थलों पर डालें।
२. मार्ग में कांटे, कांच के टुकड़े या कंकड़ पड़े हो तो उन्हें हटा दें।
३. सीधे शान्त चलें। पैर घसीटते सीटी बजाते, गाते, हँसी मजाक करते चलना असभ्यता है। छड़ी या छत्ता घुमाते हुए भी नहीं चलना चाहिए।
४. रेल में चढ़ते समय, नौकादि से चढ़ते- उतरते समय, टिकट लेते समय, धक्का मत दो। क्रम से खड़े हो और शांति से काम करो। रेल से उतरने वालों को उतर लेने दो। तब चढ़ो। डिब्बे में बैठे हो तो दूसरों को चढ़ने से रोको मत। अपने बैठने से अधिक स्थान मत घेरो।
५. रेल के डिब्बे में या धर्मशाला में वहाँ की किसी वस्तु या स्थान को गंदा मत करो। वहाँ के नियमों का पूरा पालन करो।
६. रेल के डिब्बों में जल मत गिराओ। थूको मत, नाक मत छिनको, फलों के छिलके न गिराओ, कचरा आदि सबको डिब्बे में बने कूड़ापात्र में ही डालो।
७. रेल में या किसी भी सार्वजनिक स्थान पर धू्रमपान न करो।
८. बाजार में खड़े- खड़े या मार्ग चलते कुछ खाने लगना बहुत बुरा स्वभाव है।
९. जहाँ जाने या रोकने के लिए तार लगे हों, दीवार बनी हो, काँटे डाले गये हों उधर से मत जाओ।
१०. एक दूसरे के कंधे पर हाथकर रखकर मार्ग में मत चलो।
११. जिस ओर से चलना उचित हो किनारे से चलो। मार्ग में खड़े होकर बातें मत करो। बात करना हो तो एक किनारे हो जाओ।
१२. रास्ता चलते इधर- उधर मत देखो। झूमते या अकड़ते मत चलो। अकारण मत दौड़ो। सवारी पर हो तो दूसरी सवारी से होड़ मत करो।
ज. तीर्थ स्थल सभा स्थल में
१. कहीं जल में कुल्ला मत करो और न थूको। अलग पानी लेकर जलाशय से कुछ दूर शौच के हाथ धोओ तथा कुल्ला करो और मल मूत्र पर्याप्त दूरी पर त्यागो।
२. तीर्थ स्थान के स्थान पर साबुन मत लगाओ। वहाँ किसी प्रकार की गंदगी मत करो। नदी के किनारे टट्टी- पेशाब मत करो।
३. देव मंदिर में देवता के सामने पैर फैलाकर या पैर पर पैर चढ़ाकर मत बैठो और न ही वहाँ सोओ। वहाँ शोरगुल भी मत करो।
४. सभा में या कथा में परस्पर बात चीत मत करो। वहाँ कोई पुस्तक या अखबार भी मत पढ़ो। जो कुछ हो रहा हो उसे शान्ति से सुनो।
५. किसी दूसरे के सामने या सार्वजनिक स्थल पर खांसना, छींकना या जम्हाई आदि लेना पड़ जाये तो मुख के आगे कोई वस्त्र रख लो। बार- बार छींक या खाँसी आती हो या अपानवायु छोड़ना हो तो वहाँ से उठकर अलग चले जाना चाहिए।
६. कोई दूसरा अपानवायु छोड़े खांसे या छींके तो शान्त रहो। हँसो मत और न घृणा प्रकट करो।
७. यदि तुम पीछे पहुँचे हो तो भीड़ में घुसकर आगे बैठने का प्रयत्न मत करो। पीछे बैठो। यदि तुम आगे या बीच में बैठे हो तो सभा समाप्त होने तक बैठे रहो। बीच में मत उठो। बहुत अधिक आवश्यकता होने पर इस प्रकार धीरे से उठो कि किसी को बाधा न पड़े।
८. सभा स्थल में या कथा में नींद आने लगे तो वहाँ झोंके मत लो। धीरे से उठकर पीछे चले जाओ और खड़े रहो।
९. सभा स्थल में, कथा में बीच में बोलो मत कुछ पूछना, कहना हो तो लिखकर प्रबन्धकों को दे दो। क्रोध या उत्साह आने पर भी शान्त रहो।
१०. किसी सभा स्थल में किसी की कहीं टोपी, रूमाल आदि रखी हो तो उसे हटाकर वहाँ मत बैठो।
११. सभा स्थल के प्रबंधकों के आदेश एवं वहाँ के नियमों का पालन करो।
१२. किसी से मिलने या किसी सार्वजनिक स्थान पर प्याज, लहसुन अथवा कोई ऐसी वस्तु खाकर मत जाओ जिससे तुम्हारे मुख से गंध आवे। ऐसा कोई पदार्थ खाया हो तो इलायची, सौंफ आदि खाकर जाना चाहिए।
१३. सभा में जूते बीच में न खोलकर एक ओर किनारे पर खोलो। नये जूते हों तो एक- एक जूता अलग- अलग छिपाकर रख दो।

झ. विशेष सावधानी
१. चुंगी, टैक्स, किराया आदि तुरंत दे दो। इनको चुराने का प्रयत्न कभी मत करो।
२. किसी कुली, मजदूर, ताँगे वाले से किराये के लिए झगड़ो मत। पहले तय करके काम कराओ। इसी प्रकार शाक, फल आदि बेचने वालों से बहुत झिकझिक मत करो।
३. किसी से कुछ उधार लो तो ठीक समय पर उसे स्वयं दे दो। मकान का किराया आदि भी समय पर देना चाहिए।
४. यदि कोई कहीं लौंग, इलायची आदि भेंट करे तो उसमें से एक दो ही उठाना चाहिए।
५. वस्तुओं को धरने उठाने में बहुत आवाज न हो ऐसा ध्यान रखना चाहिए। द्वार भी धीरे से खोलना बंद करना चाहिए। दरवाजा खोलो तब उसकी अटकनें लगाना व बंद करो तब चिटकनी लगाना मत भूलो। सब वस्तुएँ ध्यान से साथ अपने- अपने ठिकाने पर ही रखो, जिससे जरूरत होने पर ढूंढना न पड़े।
६. कोई पुस्तक या समाचार पत्र पढ़ना हो तो पीछे से या बगल से झुककर मत पढ़ो। वह पढ़ चुके तब नम्रता से माँग लो।
७. कोई तुम्हारा समाचार पत्र पढ़ना चाहे तो उसे पहले पढ़ लेने दो।
८. जहाँ कई व्यक्ति पढ़ने में लगे हों, वहाँ बातें मत करो, जोर से मत पढ़ो और न कोई खटपट का शब्द करो।
९. जहाँ तक बने किसी से माँगकर कोई चीज मत लाओ, जरूरत हो तभी लाओ व उसे सुरक्षित रखो और अपना काम हो जाने पर तुरंत लौटा दो। बर्तन आदि हो तो भली भाँति मांजकर तथा कपड़ा, चादर आदि हो तो धुलवाकर वापस करो।
१०. किसी भी कार्य को हाथ में लो तो उसे पूर्णता तक अवश्य पहुँचाओ, बीच में/अधूरा मत छोड़ो।
ञ. बात करने की कला
अपनी बात को ठीक से बोल पाना भी एक कला है। बातचीत में जरूरी नहीं है कि बहुत ज्यादा बोला जाय। साधारण बात भी नपे- तुले शब्दों में की जाए तो उसका गहरा असर होता है।
अपनी बात को नम्रता पूर्वक, किन्तु स्पष्ट व निर्भयता वे बोलने का अभ्यास करें। जहाँ बोलने की आवश्यकता हो वहाँ अनावश्यक चुप्पी न साधें। स्वयं को हीन न समझें। धीरे- धीरे, गम्भीरता पूर्वक, मुस्कराते हुए, स्पष्ट आवाज में, सद्भावना के साथ बात करें। मौन का अर्थ केवल चुप रहना नहीं वरन उत्तम बातें करना भी है। बातचीत की कला के कुछ बिन्दु नीचे दिये गये हैं इन्हें व्यवहार में लाने का प्रयास करें।
१. बेझिझक एवं निर्भय होकर अपनी बात को स्पष्ट रूप से बोलें।
२. भाषा में मधुरता, शालीनता व आपसी सद्भावना बनी रहे।
३. दूसरों की बात को भी ध्यान से व पूरी तरह से सुनें, सोचें- विचारें और फिर उत्तर दें। धैर्यपूर्वक किसी को सुनना एक बहुत बड़ा सद्गुण है। बातचीत में अधिक सुनने व कम बोलने के इस सद्गुण का विकास करें। सामने देख कर बात करें। बात करते समय संकोच न रखें, न ही डरें।
४. बोलते समय सामने वाले की रूचि का भी ध्यान रखें। सोच- समझ कर, संतुलित रूप से अपनी बात रखें। बात करते हुए अपने हावभाव व शब्दों पर विशेष ध्यान देते हुए बात करें।
५. बातचीत में हार्दिक सद्भाव व आत्मीयता का भाव बना रहे। हँसी- मज़ाक में भी शालीनता बनाए रखें।
६. उपयुक्त अवसर देखकर ही बोलें। कम बोलें। धीरे बोलें। अपनी बात को संक्षिप्त और अर्थपूर्ण शब्दों में बताएँ। वाक्यों और शब्दों का सही उच्चारण करें।
७. किसी बात की जानकारी न होने पर धैयपूर्वक, प्रश्न पूछकर अपना ज्ञान बढ़ाएँ।
८. सामने वाला बात में रस न ले रहा हो तो बात का विषय बदल देना अच्छा है।
९. पीठ पीछे किसी की निन्दा मत करो और न सुनो। किसी पर व्यंग मत करो।
१०. केवल कथनी द्वारा ही नहीं वरन करनी द्वारा भी अपनी बात को सिद्ध करें।
११. उचित मार्गदर्शन के लिए स्वयं को उस स्थिति में रखकर सोचें। इससे सही निष्कर्ष पर पहुँच सकेंगे। किसी की गलत बात को सुनकर उसे तुरंत ही अपमानित न कर, उस समय मौन रहें। किसी उचित समय पर उसे अलग से नम्रतापूर्वक समझाएं।
१२. दो लोग बात कर रहे हों तो बीच में न बोलें। बिन मांगी सलाह न दें। समूह में बात हो रही हो तो स्वीकृति लेकर अपनी बात संक्षिप्त में कहना शालीनता है।
१३.प्रिय मित्र, भ्राता श्री, आदरणीया बहनजी, प्यारे भाई, पूज्य दादाजी, श्रद्धेय पिताश्री, वन्दनीया माता जी आदि संबोधनों से अपनी बात को प्रारंभ करें।
१४. मीटिंग के बीच से आवश्यक कार्य से बाहर जाना हो तो नम्रता पूर्वक इजाजत लेकर जाएँ। बहस में भी शांत स्वर में बोलो। चिल्लाने मत लगो। दूर बैठे व्यक्ति के पास जाकर बात करो, चिल्लाओ मत।
१५. बात करते समय किसी के पास एकदम सटो मत और न उसके मुख के पास मुख ले जाओ। दो व्यक्ति बात करते हों तो बीच में मत बोलो।
१६. किसी की ओर अंगुली उठाकर मत दिखाओ। किसी का नाम पूछना हो तो आपका शुभ नाम क्या है। इस प्रकार पूछो किसी का परिचय पूछना हो तो, आपका परिचय? कहकर पूछो। किसी को यह मत कहो कि आप भूल करते हैं। कहो कि आपकी बात मैं ठीक नहीं समझ सका।
१७. जहाँ कई व्यक्ति हो वहाँ काना फूसी मत करो। किसी सांकेतिक या ऐसी भाषा में भी मत बोलो जो आपके बोलचाल की सामान्य भाषा नहीं है और जिसे वे लोग नहीं समझते। रोगी के पास तो एकदम काना फूँसी मत करो, चाहे आपकी बात का रोगी से कोई संबंध हो या न हो।
१८. जो है सो आदि आवृत्ति वाक्य का स्वभाव मत डालो ।। बिना पूछे राय मत दो।
१९. बहुत से शब्दों का सीधा प्रयोग भद्दा माना जाता है। मूत्र त्याग के लिए लघुशंका, मल त्याग के लिए दीर्घशंका, मृत्यु के लिए परलोकगमन आदि शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।


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