अतीन्द्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि

पूर्वाभास और अतीन्द्रिय दर्शन के वैज्ञानिक आधार

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सामान्यतः वर्तमान में घटित होने वाली घटनायें ही उसमें जीवित प्रतीत होती हैं। भूतकाल में जो कुछ घटित हो चुका वह स्मृतियों में शेष रह जाता है। और भविष्य में क्या होने वाला है, उसका अनुमान अनुभव नहीं होता क्योंकि वह अनागत है। सत्य और साक्षात् वही लगता है जो सामने है तथा वर्तमान है। भूतकाल में भी जो कुछ घटित हुआ वह सत्य तो है पर वर्तमान में उसका कोई अस्तित्व नहीं है इसलिए भूत और भविष्य का सामान्य व्यक्ति के लिए उसका कोई अस्तित्व नहीं है पर वस्तुतः काल चेतना में ऐसा कोई भेद नहीं है। वहां ने भूत है न वर्तमान और न भविष्य। इस प्रकार का कोई विभाजन काल चेतना में है ही नहीं। समग्र काल चेतना अपने आप में एक सम्पूर्ण इकाई है।

इस तथ्य को अब विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है। पहले वैज्ञानिक दृष्टि से इस प्रकार के मान्यताओं का कार्य कैसा उड़ाया जाता था और इन्हें वास्तविक निराधार कहा जाता था। अब वैज्ञानिक भी नये शीघ्र प्रयासों के द्वारा प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर अपनी मान्यताओं में परिवर्तन करने लगे हैं। यह तो पहले भी माना जाता रहा है कि आवश्यक नहीं कि जो बात एक समय सही मानी जाती है वही दूसरे समय भी उसी प्रकार मानी जाती रहे, इसी प्रकार यह भी आवश्यक नहीं कि जिस बात को आज अप्रमाणिक माना जाता है उसे भविष्य में भी वैसा ही समझा जाय। उदाहरण के लिए अपने समय के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक गैलीलियो ने ब्रह्माण्डीय गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त मानने से इनकार किया था। वे पृथ्वी की आकर्षण शक्ति को तो मानते थे, पर यह स्वीकार नहीं करते थे कि एक ग्रहपिण्ड की आकर्षण शक्ति दूसरों को भी प्रभावित करती है और इसी आधार पर वे एक दूसरे के साथ बंधे हुए हैं। न्यूटन तक ने ग्रहों के आपस में बंधे रहने वाले गुरुत्वाकर्षण को बहुत पीछे और बड़ी कठिनाई के बाद स्वीकार किया था, पर आज वे विरोध ठण्डे पड़ गये और ग्रहों के बीच गुरुत्वाकर्षण की बंधन-श्रृंखला की वास्तविकता स्वीकार करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं है। मात्र एक महत्वपूर्ण खोज किस तरह विज्ञान में कई प्रतिष्ठित मान्यताओं को गलत सिद्ध कर देती है, यह सुविदित तथ्य है। हमारा यह विश्व कब अस्तित्व में आया, इसके बारे में कुछ वर्ष पहले तक खगोलविदों की मान्यता थी कि इस विश्व की उम्र लगभग 10 अरब वर्ष है, पर 1971-72 में दूरस्थ ज्योति-पुंजों के प्रकाश को ग्रहण करने वाले यन्त्रों द्वारा ऐसा प्रकाश ग्रहण किया गया, जो अपने स्रोत स्थान से 20 अरब वर्ष पहले चला था। इससे स्पष्ट हुआ कि ज्ञेय विश्व कम से कम 20 अरब वर्ष पुराना है। इसी से यह भी स्पष्ट है कि कोई भी नई जानकारी किसी भी क्षण इस मान्यता को लांघ सकती है विश्व सचमुच कितना पुराना तथा कितना बड़ा है, यह अज्ञात एवं अनिश्चित है।

इस समय विश्व की उत्पत्ति के बारे में वैज्ञानिकों की मुख्य-मुख्य परिकल्पनाएं ये हैं—

एक परिकल्पना के अनुसार अरबों वर्ष पूर्व सम्पूर्ण विश्व का द्रव्य एक पुंजीभूत महापिंड के रूप में था। नाभिकीय कणों का सघन सम्पुंजन किया जाए तो एक घन सेन्टीमीटर स्थान में करोड़ों टन द्रव्य समा सकता है। इसीलिए सम्पूर्ण विश्व द्रव्य का महापिण्ड में सम्पुंजन सम्भव है।

इस महापिंड का विस्फोट हुआ और विस्तार होने लगा। उसी से मन्दाकिनियां—नीहारिकाएं—बनी ग्रह-नक्षत्र बने, यह विस्तार अभी जाती है। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि दूरस्थ आकाशगंगाएं हम से लगातार दूर भाग रही है। उनमें पृथ्वी से दूर हटने की गति पृथ्वी से उनका दूरी के अनुपात में है। इससे स्पष्ट है कि ब्रह्माण्ड का विस्तार हो रहा है।

मन्दाकिनियों के लगातार दूर भागने की बात की पुष्टि विख्यात वैज्ञानिक प्रो. फ्रेड हायल के एक परीक्षण से हुई है। सुदूरस्थ आकाश गंगाओं से पृथ्वी तक आने में प्रकाश-तरंगों का कम्पन बढ़ जाता है। दूर से आने वाले प्रकाश का झुकाव, वर्णपट प्राप्त करने पर, नीले रंग की ओर होता है और दूर जाने वाले प्रकाश स्रोत के प्रकाश का झुकाव लाल रंग की ओर होता है।

आकाशगंगाओं से आने वाली प्रकाश तरंगों के प्रकाश का वर्णपट प्राप्त करने पर, उस वर्णपट का झुकाव लाल रंग की ओर पाया गया। इससे पता चला कि आकाशगंगाएं दूर जा रही हैं। माउन्ड पोलोयर वेघशाला की दूरबीन से भी आकाश गंगाओं की दूर हटने की प्रक्रिया देखी गई। एक सिद्धांत यह है कि विश्व जैसा अभी है, वैसा ही आरम्भ से है। आकाशगंगाएं दूर भाग रही हैं, तो पास भी आ रही होंगी, जो अभी हमें दीखती नहीं। वस्तुतः यह सिद्धान्त प्रो. हायल का है, जिसे ‘समतुलित अवस्था सिद्धान्त’ कहते हैं। प्रो. फ्रेड हायल ने ही सर्वप्रथम यह खोजा था कि आकाशगंगाएं पृथ्वी से दूर हट रही हैं। इससे जहां कुछ वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि ब्रह्माण्ड का विस्तार हो रहा है। लेकिन स्वयं प्रो. हायल का निष्कर्ष यह था कि पुरानी मन्दाकिनियां, जो दूर भागती दीखती हैं, अस्तित्वहीन होती रहती हैं और मन्दाकिनियां जन्म लेती रहती हैं। इससे ब्रह्माण्ड की पिंड संख्या स्थिर रहती है और घनत्व अपरिवर्तित।

टामस गोल्ड हर्मन वांडो, वेरोजोफ, वेल्मामिनोफ आदि भी इसी सिद्धांत को मानते हैं।

एक मत यह है कि प्रारम्भ प्लाज्मा रूप में विश्व का समस्त द्रव्य एकत्र था। वह सन्तुलन की स्थिति थी। धीरे-धीरे असन्तुलन का आरम्भ हुआ। प्लाज्मा के कणों तथा प्रतिकणों के विस्फोट हुए। इससे फोटोन—कण निकले। फोटोन कणों यानी प्रकाश के कणों से परमाणु बने। समय बीतने पर परमाणु बादल बने, उन्हें से क्रमशः विविध आकाशीय पिंड अस्तित्व में आए। यह परिकल्पना आल्फवेन तथा क्लाइन की है। इसका आधार कणों तथा प्रतिकणों की खोज है।

कणों तथा प्रतिकणों के ही आधार पर द्रव्य और प्रतिद्रव्य की धारणा परिकल्पित की गई है। गोल्डहारन ने एक परिकल्पना प्रस्तुत की है कि पुंजीभूत द्रव्य का महापिंड विखण्डित होते ही दो विश्वों में बंट गया—एक द्रव्यमय विश्व, दूसरा प्रति द्रव्यमय विश्व।

गोल्डहानर व अन्य कुछ वैज्ञानिक एक सर्वथा भिन्न प्रति द्रव्यमय विश्व की परिकल्पना करते हैं। तो कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार इसी ज्ञेय विश्व में प्रतिद्रव्य वाली आकाश गंगाएं अस्तित्व में हैं, किन्तु हमें उनका ज्ञान अभी सम्भव नहीं क्योंकि हम तो मात्र आकाशीय पिंडों से उत्सर्जित विकिरण द्वारा ही उन पिंडों के बारे में जान पाते हैं और द्रव्य तथा प्रतिद्रव्य का विकिरण एक जैसा ही होता है, इसलिए हम उसे अलग से पहचानने में असमर्थ हैं।

विज्ञा फेनयन मां के अनुसार ब्रह्माण्डव्यापी प्रति पदार्थ के अति सूक्ष्म घटक—पाजिट्रोन—काल से पीछे की ओर भी चलते हैं और उनका प्रवाह भविष्य की ओर न होकर भूतकाल की ओर लौटता है। ठीक इसी प्रकार अन्तरिक्ष वेत्ता फ्रैडहायल का कथन है कि समय आमतौर पर जिस प्रकार सिद्धान्तः वह भूतकाल की ओर गतिशील हो सकता है।

अन्तरिक्ष विज्ञान के शोधकर्त्ता इस तथ्य का समर्थन कर रहे हैं कि अपने सौरमण्डल में तो नहीं पर अनन्त आकाश में ऐसे कितने ही ग्रह हैं जो पदार्थ से नहीं ‘प्रति पदार्थ’ से बने हैं वहां भरे हुए परमाणुओं को ‘टेकयोन’ नाम दिया गया है। उनकी चाल प्रकाश में भी तीव्र तथा गति भविष्य की ओर न होकर भूतकाल की ओर चल रही है।

साधारणतया हम वर्तमान को भविष्य के साथ जोड़ते हैं। भविष्य की तैयारी के लिए वर्तमान को नियोजित करते हैं। कल्पनाएं और योजनाएं भविष्य निर्धारण के लिए जुटी रहती हैं। आकांक्षाओं की पूर्ति आगे चल कर होने की ही बात सोची जाती है और उसी पर विश्वास किया जाता है। अपनी परिस्थितियों में यही संभव भी है। जल की धारा जिस दिशा में बह रही हो—हवा जिस ओर उड़ रही हो उसी में प्रगति की उपलब्धियों की आशा करना सहज स्वाभाविक है। भूतकाल से तो इतना ही लाभ लिया जाता है कि उसके आधार पर संग्रह किये गये अनुभवों से लाभ उठाया जाय और भावी गति विधियों के निर्धारण में उनका ध्यान रखा जाय। मीठी कड़ुई स्मृतियां संजोये रह कर उनके दृश्य चित्रों से अठखेलियां करते रहने के अतिरिक्त और कोई बड़ा प्रयोजन उनके द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता।

किन्तु तथ्य इससे भिन्न भी है। समय की गति पीछे की दिशा में लौट सकने की बात आज तो ठीक से समझ में भी नहीं आती और उस पर विश्वास करने को भी जी नहीं करता इतने पर भी तथ्य तो अपने स्थान पर बने ही रहेंगे। अन्य प्राणी वर्तमान तक ही सीमित रहते हैं। उनकी भविष्य कल्पना आज का आधार पाने के सम्बन्ध में कुछ अनुमान भर लगा सकती है। वे हमारी तरह भविष्य कल्पना नहीं कर सकते ठीक इसी प्रकार हम भी भूतकाल की कुछ अधिक प्रभावोत्पादक घटनाओं की स्मृति तक ही सीमित रहते हैं। यदि भविष्य कल्पना में भूतकाल के अनुभव अपना समुचित योगदान दें सकें तो भविष्य निर्धारण सही भी होगा और सरल भी। किन्तु भूत के अनुभवों का लाभ तो हम यत्किंचित् ही उठा पाते हैं।

मोटर और रेलगाड़ी प्रायः आगे की ओर ही चलती हैं, पर उन्हें पीछे की दिशा में लौटाते हुए भी कोई विशेष कठिनाई नहीं होती। इसी प्रकार समय का आगे की तरह पीछे लौट सकना भी सम्भव हो सकता है। आमतौर से नदी में प्रवाह की दशा में ही तैरा और बहा जाता है किन्तु कुशल तैराक के लिए यह भी सम्भव है कि वह उल्टी दिशा में धारा को चीरता हुआ तैर सके। विज्ञातुं ने तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि भूत भी सर्वथा नहीं हो जाता। वह मस्तिष्क स्मृतिपटलों की तरह धुंधला भर होता है, अपना अस्तित्व बनाये ही रहता है। इसी प्रकार भूत गुजर भले ही गया है, पर उसका अस्तित्व इस ब्रह्माण्ड में अपनी सत्ता अक्षुण्ण रखे हुए है। राम और हनुमान के शरीर अब नहीं रहे, पर उनका व्यक्तित्व और कर्तृत्व अभी भी इस संसार में मौजूद है। यदि कोई मार्ग खोजा जा सके तो हम उलटी दिशा में तैरने वाले तैराक की तरह उन महामानवों के सम्पर्क का उसी प्रकार लाभ उठा सकते हैं, जैसा कि उनके सहचर उठाया करते थे।

समय फैलता व सिकुड़ता है

अभी तक तो यह अनुभव में आता कि धन पदार्थ ही फैलते व सिकुड़ते हैं परन्तु वैज्ञानिक संवेदनाओं द्वारा अब यह सिद्ध हो चुका है कि न केवल पदार्थ ही सिकुड़ता है, वरन् समय भी फैलता और सिकुड़ता है। मालूम तो यही पड़ता है कि समय बिना किसी की प्रतीक्षा किये अपने ढंग से—अपने क्रम से व्यतीत होता चला जाता है, पर अब इस सम्बन्ध में नये सिद्धान्त सामने आये हैं कि गति की तीव्रता होने पर समय की चाल घट जाती है। मोटेतौर से इसका परिचय हम द्रुतगामी वाहनों पर सवारी करके आसानी से देख सकते हैं। एक घण्टे में पैदल चलने पर तीन मील का सफल होता है, पर मोटर से 80 मील पार कर लेते हैं। यह समय व्यतीत होने की चाल का घट जाना भी कहा जा सकता है।

यह तो मोटा उदाहरण हुआ। वैज्ञानिक अनुसन्धान ने समय की गति सिकुड़ने से लेकर उसकी स्थिरता तक को एक तथ्य के रूप में सिद्ध किया है। यद्यपि वैसा अभी प्रत्यक्ष नहीं हो सका, पर वे सभी सिद्धान्त प्रामाणिक ठहराये जा चुके जिनके सहारे समय की गति को शिथिल अथवा अवरुद्ध होने की बात सम्भव कही जाने लगी है।

आइन्स्टीन ने अपनी क्लिष्ट गणनाओं के आधार पर इस सम्भावना को पूर्णतया विश्वस्त बताया है। वे कहते हैं गति में वृद्ध होने पर समय की चाल स्वभावतः घट जायेगी। यदि 1,86000 मील प्रति सैकिंड प्रकाश की चाल से चला जा सके तो समय की गति इतनी न्यून हो जायगी कि उसके व्यतीत होने का पता भी न चलेगा। इस चाल के किसी राकेट पर बैठकर सफर किया जाय तो जिन ग्रह-नक्षत्रों पर घूमकर वापिस लौटने पर अपने वर्तमान गणित के हिसाब से एक हजार वर्ष लगेंगे, उस विशिष्ट गणित के हिसाब से एक महीने से भी कम समय लगेगा। ऐसा व्यक्ति पृथ्वी पर लौटेगा तो देखेगा कि यहां हजार वर्ष बीत गये और ढेरों पीढ़ियां तथा परिस्थितियां बदल गईं। इतने पर भी उस लौटे हुए व्यक्ति की आयु तनिक भी अन्तर दिखाई न पड़ेगा, वह तरुण का तरुण ही प्रतीत होगा।

पुराणों में ऐसी कथाएं मिलती हैं जिनमें समय की सापेक्षता की कल्पना की गई है। भागवत पुराण में वर्णन है कि पाताल लोक के राजा रेवत अपनी पुत्री रेवती के लिए उपयुक्त वर तलाश न कर सके तो उस कठिनाई को हल करने के लिये ब्रह्माजी के पास गये। उस समय वहां एक संगीत कार्यक्रम चल रहा था। ब्रह्माजी उसी में व्यस्त थे, अस्तु रेवत को प्रतीक्षा में बैठना पड़ा। सभा समाप्त हुई तो राजा ने ब्रह्माजी को अपना मनोरथ बताया तो उनने हंसकर कहा—इतनी देर में तो पृथ्वी में सत्ताईस चतुर्युगी व्यतीत हो गईं। जो लड़के तुम्हें पसन्द आये थे वे सब मर खप गये अब उनके वंश, गोत्रों तक का पता नहीं है। इन दिनों नारायण के अंशावतार बल्देव की विद्यमान हैं उन्हें ही अपनी कन्या दान करदो।

समय और चेतना से परे

हम देश के यथार्थ को क्यों नहीं समझ पाते? महा अणु विज्ञानी आइन्स्टीन अपने सापेक्षवाद सिद्धान्त (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) के द्वारा उत्तर देते हैं—‘‘हमारे साधारण विचार, समय और पदार्थमय हो गये हैं (आर वाउण्ड टु टाइम एण्ड स्पेश)। हम इनसे मुक्त नहीं हो पा रहे। किन्तु हमारा समय और स्थान या पदार्थ से बंध जाना समस्त प्रकृति या विराट् जगत का दर्शन कराने में असमर्थ हैं। हम प्रकृति की वास्तविकता को तभी पहचान सकते हैं जब समय और स्थान (टाइस मण्ड स्पेश) से हम ऊपर उठ जायें।’’

समय और स्थान क्या हैं? यह वास्तव में कुछ भी नहीं हैं, हमारे मस्तिष्क की कल्पना या रचना मात्र है। लोग कहा करते हैं कि—मैं आठ बजकर आठ मिनट पर घर से निकला, मेरी सगाई 2 जुलाई को सांय सात बजे हुई, राम और श्याम में परसों दोपहर 12 बजे लड़ाई हो गई, किशोर ने मई 1955 में हाईस्कूल में परीक्षा दी आदि आदि। इन वाक्यों को ध्यान से कई बार पढ़ें तो हमें मालूम होगा कि प्रत्येक समय किसी न किसी घटना से जुड़ा हुआ है। समय दरअसल कोई वस्तु ही नहीं है। यदि कोई घटना या क्रिया न हुई होती तो हमारे लिये समय का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। आठ बजकर आठ मिनट, सात बजे, मई सन 1957, परसों—यह सब घटनाओं की सापेक्षता (रिलेटिविटी) मात्र है। जिसे हम 1957 कहते हैं उसे हम सम्वत 2015 भी कह सकते हैं। शक सम्वत के हिसाब से वह कोई और ही तिथि होगी, आर्य सम्वत प्रणाली के अनुसार वह और ही कुछ होगा क्योंकि वे लोग समय की माप उस अवस्था से करते हैं जब से यह पृथ्वी या पृथ्वी में जीवन आस्तित्व में आया। कल्पना करें कि पृथ्वी का अस्तित्व ही न होता तब हमारे लिये समय क्या रह जाता—कुछ भी तो नहीं। यदि हम घटनाओं से परे हो जायें तो समय नाम की कोई वस्तु संसार में है नहीं। ऐसी कल्पना तभी हो सकती है जब हम सारा चिन्तन, क्रिया-कलाप छोड़कर मस्तिष्क बन जायें या मस्तिष्क में केन्द्रीभूत हो जायें अर्थात् समय मस्तिष्क की रचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जब हम अपने आपको समय के ऊपर उठकर देखते हैं तो हमें अपनी मस्तिष्कीय चेतना के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता, तब हमारा सही रूप से एक भिन्न व्यक्तित्व होता है। तब हम लगातार विचार, ज्ञान अनुभूति या प्रकाश की किरण के समान हो जाते हैं और स्थूल शरीर के प्रति अपना मोह भाव समाप्त हो जाता है। मांडूक्य कारिका (2।14) में इसी बात को शास्त्रकार ने यह शब्द दिये हैं—

चित्तकाला हि येऽन्तस्तु द्वय कालाश्च ये बहिः । कल्पित एव ते सर्वे विशेषो नान्यहैतुकः ।।

‘‘हे शिष्य! यह संसार वास्तव में चित्त की अनुभूति और घटनाओं की सापेक्षता मात्र है, सब कुछ कल्पित है। दृश्य संसार में विशेष कुछ भी नहीं है।’’ महर्षि पातंजलि ने यही तथ्य इस तरह प्रतिपादित किया है—

क्षण तत्क्रमयोः संयमाद विवेकजं ज्ञानम् । —पातंजलि योग दर्शन 3।52

जब हम अपना ध्यान समय के अत्यन्त छोटे टुकड़े क्षण में जमाते हैं तभी संसार की सही स्थिति का निरीक्षण कर सकते हैं। समय की भांति ही मनुष्य के सामने आने वाली सभी वस्तुयें भी सापेक्ष हैं। भौतिक पदार्थ साधारणतया कोई अपरिवर्तनीय (ओब्सोल्यूट) मूल्य नहीं रखते वरन् चुने गये प्रसंग के अनुसार आप जिसे मिट्टी कहते हैं, यदि उसे आप किसी रसायनज्ञ के पास ले जायें तो वह उस ढेले का रासायनिक विश्लेषण (केमिकल एनालिसिस) करेगा और बतायेगा इसमें इतना भाग इस धातु के कण, इतना नमक है, इतना पानी और अमुक अमुक गैसों के समूल कण। इस तरह हमें दिखाई देने वाले सभी भौतिक पदार्थ वैज्ञानिकों की दृष्टि में कार्बनिक (आर्गेनिक) या अकार्बनिक (इनार्गेनिक) कण मात्र होते हैं। उन्हीं से यह सारा संसार बना है।

. संसार परमाणुमय है। परमाणुओं के मिलने से पदार्थ बनते हैं और पदार्थों से मिलकर स्थान, देश और ब्रह्माण्ड बने। इस ब्रह्माण्ड को ही हम पदार्थों के रूप में खाते हैं, पहनते हैं, उसी में रहते हैं। हमारा शरीर भी तो पदार्थ या परमाणुओं से बना हुआ है। यह भी एक प्रकार का ब्रह्माण्ड ही है। आइन्स्टीन ने सम्भवतः शरीर रूपी पदार्थ जगत (स्पेश) में एक मस्तिष्कीय सतर्कता होने के विश्वास स्वरूप अपना यह मत व्यक्त किया था कि प्रत्येक ब्रह्माण्ड को एक सतर्कता (सेन्टीमेन्ट) नियन्त्रण करती है अर्थात् पृथ्वी की प्रत्येक ग्रह-नक्षत्र की अपनी एक स्वतन्त्र चेतना या अहंभाव है और वह मनुष्य के समान ही गणितीय आधार पर (इन दि मैथेमेटिक वे) काम करती रहती है अर्थात् संसार मस्तिष्क द्वारा पदार्थों की रचना के अतिरिक्त कुछ हैं ही नहीं।

हम जब तक अपने स्थूल रूप से देखते हैं तब तक संसार की स्थूलता दृष्टिगोचर होती है लेकिन यहां भी किसी प्रकार की सत्यता नहीं है। प्रत्येक परमाणु संसारमय है अर्थात् हम परमाणु की रचना एक भरे-पूरे संसार जैसी है उसमें पूरे के पूरे संसार के दर्शन कर सकते हैं और उस पर भी मस्तिष्क (सतर्कता) बैठा हुआ होता है। वैज्ञानिक पद्धति से विश्लेषण करने से पता चलता है कि परमाणु भी अन्तिम सत्य नहीं है वह और भी सूक्ष्म आवेशों—इलेक्ट्रान, प्रोट्रॉन, पाजिट्रान और न्यूट्रॉन से बना होता है। यों समझाने के लिये इन्हें बिन्दु के रूप में दिखाया जाता है किन्तु इलेक्ट्रान पदार्थ नहीं, तरंग रूप (वेविकल शेप) में है। अर्थात् हम जिन पदार्थों को देख रहे हैं, यदि अपने देखने की स्थूलता हटा दें और केवल मस्तिष्क से हटा दें तो वह एक तरंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है अर्थात् हम जिस संसार को स्थूल रूप में देख रहे हैं व हतो हमारा दृष्टिदोष है। क्वान्टम सिद्धान्त [थ्योरी आफ लाइट क्वान्टम] के अनुसार जो वस्तु कण के रूप में है वह उसी प्रकार से तरंग के रूप में है। साधारण अवस्था में हम उसे ठीक तरंग रूप में नहीं देख पाते। उसका और कोई कारण नहीं वरन् हमारे मस्तिष्क का पदार्थ से बंधे रहना मात्र होता है। इस सब जानकारी का उद्देश्य मनुष्य को विभ्रमित या आश्चर्यचकित करने का नहीं है वरन् उसके दृष्टिकोण को चौड़ा करना है, जिससे वह अपने शाश्वत स्वरूप को समझाने की चेष्टा कर सकता है। हम अपने आपको कितना ही धोखा दें कितना ही शरीर, समय और स्थान में बंधे हुए देखकर हमारा विशुद्ध ‘अहंभाव’ [शाश्वत स्वरूप] तो अपने नियमों से विचलित होने वाला है नहीं। तब फिर हमारे लिये अपने आपको पदार्थों की सीमा में बांधना कहां तक उचित होगा? कहां तक हम अपने मनुष्य-जीवन में आने के लक्ष्य को न पहचानने की भूल करते रहेंगे?

पदार्थ या स्थान और समय में कोई सत्यता नहीं है। कोई भी निश्चित एक ब्रह्मांड नहीं है, जिसमें कि संसार समा सके। अनेक ब्रह्मांड हैं और वह सब मस्तिष्क में समाये हुए हैं। एक कण प्रकृति का एक अहंभाव, चेतनता या परमेश्वर का दो ही अनादि तत्व हैं। उनका विस्तृत ज्ञान जब तक नहीं जिसमें मनुष्य इसे सांसारिक भूल-भुलैया में ही गोते लगाता रहेगा। क्योंकि हम जिस सुख-शांति, सन्तोष और आनन्द की खोज में है वह पदार्थ में मस्तिष्क की अपनी अनुभूति है इसलिए यथार्थ आनन्द की प्राप्ति भी स्थान और समय से ऊपर उठकर ही प्राप्त की जा सकती है। कोई मूलभूत समय भी नहीं है जिसमें कोई घटना घटित हुई हो। निरीक्षण के अनुभव ही समय की रचना करते हैं और इसी समय से हम ब्रह्माण्ड को, स्थान को, अपने जीवन को नापते हैं। यदि हम अपने मस्तिष्क को समय से ऊपर उठा दें तो अपने अमरत्व की अनुभूति ही नहीं पदार्थ और ब्रह्मांडों के स्वामी बनते चले जा सकते हैं। हमारा मस्तिष्क अर्थात् हम स्वयं ही सदैव ही जागरूक रहते हैं। परिवर्तनीय तो यह जड़ या प्राकृतिक परमाणु ही हैं और जब तक हम अपने आप में समाहित नहीं होते, प्रकृति पर न तो नियन्त्रण कर सकते हैं और न ही उसका उपयोग।

उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन अल्बर्ट आइन्स्टीन के सापेक्षवाद [थ्योरी आफ रिलेटिविटी] की व्याख्या मात्र है। इसे उन्होंने गणित के द्वारा सिद्ध किया है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि एक सरल रेखा का सरल या सीधा होना आवश्यक नहीं। संसार अण्डाकार है। ब्रह्मांड सीमारहित है किन्तु अनन्त नहीं और भी ब्रह्मांड है जिनका ज्ञान पाना मानवीय बुद्धि के लिये सम्भव नहीं है। प्रकाश-कणों में भार होता है, जबकि भार पदार्थ में ही सम्भव है शक्ति में नहीं (स्मरण रहे—प्रकाश पदार्थ नहीं, शक्ति माना गया है) मस्तिष्क प्रकाश से बना है। इस तरह यह साबित होता है कि इस संसार में प्रकृति और परमात्मा, प्रकाश और पदार्थ, मस्तिष्क और चेतना दोनों अभिन्न हैं। मनुष्य-शरीर एक छोटा ब्रह्मांड और अपना मस्तिष्क छोटा परमात्मा—हमारी अपने ज्ञान और स्थूलता के आधार पर उन्हीं से यह सारा संसार बना है।

संसार परमाणुमय है। परमाणुओं के मिलने से पदार्थ बनते हैं और पदार्थों से मिलकर स्थान, देश और ब्रह्मांड बने। इस ब्रह्मांड को ही हम पदार्थों के रूप में खाते हैं, पहनते हैं, उसी में रहते हैं। हमारा शरीर भी तो पदार्थ या परमाणुओं से बना हुआ है। यह भी एक प्रकार का ब्रह्मांड ही है। आइन्स्टीन ने सम्भवतः शरीर रूपी पदार्थ जगत् (स्पेश) में एक मस्तिष्क सतर्कता होने के विश्वास स्वरूप अपना यह मत व्यक्त किया था कि प्रत्येक ब्रह्मांड को एक सतर्कता (सेन्टीमेन्ट) नियन्त्रण करती है अर्थात् पृथ्वी की या प्रत्येक ग्रह-नक्षत्र की अपने एक स्वतन्त्र चेतना या अहंभाव है और वह मनुष्य के समान ही गणितीय आधार पर (इन दि मैथेमेटिक वे) काम करती रहती है अर्थात् संसार मस्तिष्क द्वारा पदार्थों की रचना के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। महर्षि वशिष्ठ ने इसी तथ्य को इस प्रकार कहा है—

‘‘हे शिष्य! यह संसार वास्तव में चित्त की अनुभूति और घटनाओं की सापेक्षता मात्र है, सब कुछ कल्पित है। दृश्य संसार में विशेषता कुछ भी नहीं है।’’
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