पहिले बताया जा चुका है कि आसनों के दो प्रयोजन हैं। एक व्यायाम दूसरा आत्म साधना के लिए सुख पूर्वक बैठना। साधना में चित्त को निमग्न कर देने के लिए स्नायुओं को ढीला करने की आवश्यकता होती है जब तक मांस पेशियां ढीली न होंगी चित्त शान्त अवस्था को न पहुंच सकेगा। निद्रा तभी आती है जब पेशियां ढीली पड़ जाती हैं यदि वे अकड़ी रहीं तो निद्रा का आना असंभव है। अनिद्रा रोग का प्रधान कारण पेशियों का तनाव है, निद्रा लाने वाली दवाओं में पेशियां को ढीला करने का ही गुण होता है। तात्पर्य यह है कि किसी साधना में तन्मयता पूर्वक चित्त लगाने से पूर्व पेशियों को ढीला करने की आवश्यकता है जो इस तैयारी में जितना ही आगे बढ़ जायगा उसे मानसिक अभ्यासों में उतनी ही सहायता मिलेंगी। शारीरिक क्रियाओं को सुसंचालित रखने में मस्तिष्क का बहुत बड़ा भाग काम करता रहता है, खास तौर से लघु मस्तिष्क का जो कि ध्यान और धारणा का प्रधान उपकरण है।
एक स्थान पर जब कि शक्तियां व्यय हो रही हैं, तो दूसरे स्थान पर लगाने के लिए बहुत कम अंश बचेगा। यही कारण है जब कि शारीरिक उत्तेजना बढ़ रही होती है कोई ऐसा दिमागी काम नहीं हो सकता जिसमें एकाग्रता की आवश्यकता है। संध्या पूजा, भजन, जप, ध्यान आदि कार्यों के लिए एकान्त, शान्ति पूर्ण स्थान तलाश किये जाते हैं ताकि मस्तिष्क को दूसरी तरफ न लगना पड़े। इसी प्रकार सुखकर आसन पर बैठने का विधान है ताकि शरीर सुविधा पूर्ण स्थिति में रहे और मानसिक विक्षेप उत्पन्न न होने पावे। आसन का अर्थ बिछौना भी है यह बिछौना नरम, कोमल, गुदगुदा, स्वच्छ, सुखकर ही होना चाहिए। साथ ही बैठने का तरीका भी ऐसा हो जिसमें शरीर को किसी प्रकार की अड़चन न पड़े वह तरीका ऐसा होना चाहिए जिसमें देह पूर्ण आराम एवं विश्राम अनुभव करे और पेशियां आसानी से ढीली हो जायं।
ध्यानावस्थित योगियों के बहुत से चित्र हमारे देखने में आते हैं। गौतम बुद्ध, की मूर्तियां और तस्वीरें पद्मासन पर विराजमान हैं। योगेश्वर शंकर भी पद्मासन पर बैठे दिखाई देते हैं। इन प्रतिमाओं के नेत्रों की ओर ध्यान देने से प्रतीत होता है कि वे अधखुले से तन्द्रावस्था में हैं, जिसे योग निद्रा कहते हैं। ध्यान के लिए यह बहुत अच्छा आसन है। पालथी मारकर दोनों हाथ गोदी में रख लेने चाहिए, मेरुदंड को सीधा रखकर शरीर को ढीला छोड़ देना चाहिए। चित्त को बाहर से हटाकर अन्तर्मुखी बनाना चाहिए और नेत्रों को अधखुले रखकर ऐसी मुद्रा बनानी चाहिए, मानों तन्द्रावस्था में चले गये हैं। इस स्थिति में शरीर को रखकर ध्यान करने में बहुत आसानी होती है और इच्छित विषय में खूब चित्त लगता है।
* शवासन *
शब्द का अर्थ है लाश। मृत व्यक्ति की लाश जिस प्रकार पड़ी रहती है उसी प्रकार निःचेष्ट होकर शरीर को ढीला छोड़ देना शवासन कहा जाता है। समाधि अवस्था में पेशियां अत्यन्त शिथिल हो जाती हैं और मन इतना लय हो जाता है कि देह को कुछ भी ज्ञान नहीं रहता। चित्त देह चेतना में से हटकर ध्यान चेतना में पूर्ण रूप से चला जाता है। शवासन द्वारा उसी समाधि अवस्था की आंशिक रूप से प्राप्ति हो जाती है। जब कोई व्यक्ति मर जाता है तो उसका देह से बिलकुल संबंध विच्छेद हो जाता है। लाश अलग पड़ी रहती है और जीव अलग उड़ जाता है। शवासन में इसी प्रकार की साधना करनी पड़ती है, यह पेशियां ढीली करने का सबसे उत्तम तरीका है। चित्त को जितना ही शरीर से दूर हटाया जाता है उतना ही वे निर्जीव और शिथिल होने लगती है। शिथिलता इस आसन का प्रधान गुण होने से शवासन का दूसरा नाम शिथिलासन भी रखा गया है।
समतल भूमि पर चटाई बिछाकर पीठ के बल सीधे लेट जाना चाहिए। शिर के नीचे एक पतली सी साफी या तकिया रखा जा सकता है। यदि मक्खी मच्छरों की अधिकता हो तो मलमल का पतला कपड़ा ऊपर डाल लेना चाहिए। शरीर को इस प्रकार ढीला छोड़ना चाहिए मानो वह बिलकुल निर्जीव हो गया है। मन ही मन ऐसी भावनाएं करनी चाहिए कि ‘‘मेरा प्राण शरीर से बिलकुल अलग हो रहा है।’’ यह भावना जितनी ही दृढ़ होती जाती है, उतनी ही निःचेष्टता बढ़ती जाती है। तनाव कम होने के कारण हाथ, पांव, गरदन इधर उधर ढुलक जाते हैं। इस आसन से कुछ देर पड़े रहने पर चित्त को बहुत शान्ति मिलती है और मन वश में होने लगता है।
पाश्चात्य आध्यात्म विद्या विशारदों ने इस शवासन या शिथिलासन पर बहुत जोर दिया है और उसके लाभों की बहुत बड़ी विरुदावली वर्णन की है। डाक्टर युक्लिन अपने आत्म विद्या सीखने वाले शिष्यों को सबसे पहले शिथिलासन का अभ्यास कराते हैं। उनका कहना है कि किसी भी मानसिक साधना के लिए पेशियों को शिथिल करने की अनिवार्य आवश्यकता है, बिना इसके चित्त का एक स्थान पर ठहरना नहीं हो सकता। और जब तक मानसिक स्थिरता न हो तब तक इस दिशा में आशा जनक फल नहीं मिल सकता। डाक्टर पा. आ. वैनिट शिकागो के प्रसिद्ध मैस्मरेजम तत्ववेत्ता हैं उन्होंने मैस्मरेजम सीखने वालों को प्रारंभिक साधन शिथिलासन ही बताया है। पाश्चात्य विद्वान इस आसन को जमीन पर लेटकर करना अच्छा नहीं समझते उनका अनुभव है कि आराम कुर्सी पर लेटकर करने से सुविधा रहती हैं। सुविधा का ध्यान रखते हुए यदि आरामकुर्सी पर इसका अभ्यास किया जाय तो कुछ बुरा नहीं है।
पेरिस के ‘मैन्टल हीलिंग इंस्टीट्यूट’ में मनोवैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति से अनेक रोगियों की चिकित्सा होती है। वहां रोगी भर्ती कर लिये जाते हैं और उन्हें शिथिलासन करने का आदेश दिया जाता है। जब एक दो दिन में वह इस क्रिया को ठीक तरह करना सीख लेता है तब उसपर प्रयोग आरंभ किये जाते हैं। उपरोक्त संस्था की संचालिका श्रीमती पाक्सले का कथन है कि बिलकुल अजनबी के ऊपर मानसिक प्रभाव डालने में हमें जितना परिश्रम करना पड़ता है उससे एक तिहाई में ही उन बीमारों को प्रभावित किया जा सकता है जो शिथिलासन के अच्छे अभ्यासी हो गये हैं। स्वयं डॉक्टर मैस्मर भी शिथिलीकरण की उपयोगिता पर बहुत जोर दिया करते थे और इस आसन की सफलता को मैस्मेरिज्म की आधी सफलता बताया करते थे।
शिथिलीकरण क्रिया आत्मिक साधनाओं के लिए अच्छा आरंभ तो है ही, इसके अतिरिक्त थकान मिटाने का उसमें अद्भुत गुण है। जब शरीर या मन थक कर चूर हो रहा हो थोड़ी देर के लिए आराम कुर्सी पर लेटकर शिथिलासन कर डालें। जरा सी देर के लिए पेशियां ढीली कर देने से एक नवीन चेतना और स्फूर्ति का संचार होता है और थकावट सहज ही उतर जाती है। राबर्ट क्लाइव और नेपोलियन के संबंध में यह प्रसिद्ध है कि वे युद्ध क्षेत्र में कई कई दिन रात बिना सोये बिता देते थे। आश्चर्य होता है कि इस प्रकार वे अपने स्वास्थ्य को ठीक रखते होंगे? उपर्युक्त दोनों महानुभावों के निद्रा जीतने के संबंध में कई पुस्तकों में चर्चा मिलती है। नेपोलियन के एक साथी का कथन है कि युद्ध कार्य में दिन रात व्यस्त रहते हुए भी नेपोलियन घोड़े की पीठ पर कुछ देर सुस्ता लेता था और फिर चैतन्य हो जाता था। राबर्ट क्लाइव भी बन्दूकों का सहारा लेकर इसी प्रकार सुस्ता लिया करता था। अनेक अनुभवों ने इस बात को प्रमाणित किया है कि शरीर को शिथिल करने की क्रिया द्वारा आश्चर्य जनक रीति से थकान मिट जाती है।
पद्मासन धार्मिक विधि विधानों के लिए पूजा पाठ, जप आदि के लिए ठीक है। ध्यान करने के लिए, आत्म चिन्तन के लिए, चित्त को एकाग्र करने के लिए, और अपने ऊपर किसी अन्य द्वारा आध्यात्मिक प्रभाव ग्रहण करने के लिए शिथिलासन उत्तम है। जिन्हें आराम कुर्सी की सुविधा हो वे उसका उपयोग करें जिन्हें न हो वे चटाई पर लेट कर इसे कर सकते हैं। पद्मासन और शिथिलासन करीब करीब एक से ही हैं और एक ही आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।
पद्मासन के कई प्रकार देखने में आते हैं। इनमें से साधारण रीति से पालथी मारकर हाथों को घुटनों पर रखकर बैठने की क्रिया पद्मासन है। दूसरे प्रकार व्यायाम संबंधी हैं। दोनों पैरों को दोनों जांघों के ऊपर रखना फिर दोनों हाथों को पीठ के पीछे लेजाकर दाहिने हाथ से बाएं पैर का अंगूठा पकड़ना और बाएं हाथ से दाहिने पैर का अंगूठा पकड़ना यह भी पद्मासन के नाम से प्रसिद्ध है परंतु इसे ध्यान या आत्म साधना के काम में नहीं लाया जा सकता क्योंकि कई अंगों पर इससे बहुत अधिक तनाव पड़ता है और अधिक देर आसानी के साथ इस दशा में नहीं बैठा जा सकता। इस प्रकार की क्रिया तो व्यायाम की ही आवश्यकता पूर्ति कर सकती है।
उपर्युक्त पंक्तियों में पद्मासन के तीन प्रकारों की चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त जो अनेक भेद उपभेद हैं उनको अनावश्यक समझकर यहां चर्चा नहीं की जा रही है। स्मरण रखना चाहिए कि मेरुदंड सीधा रखकर, पालथी मार कर, हाथों को घुटनों पर रखकर, अधखुले नेत्रों से शान्ति पूर्वक बैठने का साधारण सुखासन, संध्या, अनुष्ठान, कर्मकांड, जप, प्राणायाम आदि के योग्य पद्मासन है, इसे सिद्धासन भी कहते हैं। शवासन या शिथिलासन जिनमें शरीर को बिलकुल निःचेष्ट छोड़ दिया जाता है उच्चकोटि की आध्यात्मिक साधनाओं के लिए उपयुक्त है। ध्यान, आत्म दर्शन, समाधि, मैस्मेरिज्म, शक्तिपात, योग निद्रा, तन्मयता आदि के लिए पद्मासन की यही प्रक्रिया सर्वोत्तम है। हाथों को पीठ पीछे लेजाकर जांघों पर रखे हुए पांव के पंजे को पकड़ना यह व्यायाम की एक आवश्यकता पूरी करने वाला पद्मासन है इसे बद्ध पद्मासन भी कहते हैं। इन तीनों का यथा अवसर सुविधानुसार उपयोग करना चाहिए। सम्पूर्ण आसनों में पद्मासन की उपयोगिता आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत बढ़ी चढ़ी है। साधना करने के लिए बैठने में आसन की आवश्यकता सबसे पहले पड़ती है इसलिए उसकी जानकारी भी पाठकों को आरंभ में ही प्राप्त कर लेनी चाहिए।