(श्री कमलेश्वर प्रसाद, विशारद)
संसार में सबसे बड़ा भय मृत्यु का माना गया है। फाँसी का दण्ड इसीलिये सबसे बड़ा माना जाता है कि उससे डर कर लोग अपराध करने से हिचकें। वैसे भी कहावत है कि “मरता क्या न करता” अर्थात् जब आदमी के सर मृत्यु का भय आ पहुँचता है तो फिर उसके लिये कोई बाधा नहीं रह जाती। मृत्यु के भय से संसार के कितने लोग कर्तव्य पालन से विमुख हो जाते हैं इसकी गिनती कर सकना कठिन है।
भय के संबंध में तत्व की बात तो यह है कि जो सब विषय हम लोगों के इच्छाधीन या शक्ति के भीतर हैं उन्हीं के प्रयोग पर हम लोगों की भलाई या बुराई निर्भर करती है। पर जो विषय हम लोगों के इच्छाधीन या शक्ति के भीतर नहीं है-जो अनिवार्य हैं, जिनसे हम पार नहीं पा सकते- वे हम लोगों के लिये अच्छे भी नहीं और बुरे भी नहीं हैं। इस विवेचन के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि- “जो सब विषय हम लोगों के इच्छाधीन नहीं हैं उनके विषय में निडर रहना चाहिये, और जो हम सब लोगों के इच्छाधीन हैं, अर्थात् जिनको हम अपनी मर्जी से करें चाहे न करें-उन्हीं के लिये भय करना चाहिये।” यदि किसी प्रकार की बुरी वासना के कारण हमको बुरा कहा जाता है तो हमको उसी से बच कर रहना चाहिये। पर जो विषय हमारी शक्ति से बाहर है, जो हमारी इच्छा के वश में नहीं हैं उस के संबंध में डरना या भागने की कोशिश करना मूर्खता है।
पर खेद है कि अधिकाँश मनुष्य ऐसी ही विपरीत बुद्धि का परिचय दिया करते हैं। वे हिरन की तरह व्यर्थ में भयभीत होकर आफत में आ फंसते हैं। हिरन को जब भय होता है और वह डर कर भागने की चेष्टा करता है तो वह सुरक्षित समझ कर किस जगह का आश्रय लेता है? वह प्रायः उस जगह जाता है जहाँ शिकारी ने जाल फैला रखा है और वह उसी जाल में फंस कर प्राण गंवा बैठता है। इसका कारण यह है कि वह नहीं जानता कि कहाँ भय करना चाहिये और कहाँ नहीं करना चाहिये। हम लोग भी बिना जाने बूझे साधारणतः ऐसी बातों में भयभीत हुआ करते हैं जो हमारी इच्छा-शक्ति के परे है। और जो विषय हमारी इच्छा के वश में हैं उनसे हम भय नहीं करते। किसी प्रकार के लोभ या मोह में पड़ कर कोई लज्जाजनक या निन्दनीय काम करना वास्तविक भय का विषय है, और चाहें तो इनसे दूर भी रह सकते हैं। पर हम इन्हीं से न डर के खोटे मार्ग पर चलते रहते हैं।
इसके विपरीत मृत्यु, जो अटल है और किसी मनुष्य के वश में नहीं है तथा अन्य दुःख जिनका टालना हमारी शक्ति के बाहर है, उन्हीं से हम लोग डरते हैं और डर कर भागने की कोशिश करते हैं। वास्तव में मृत्यु और दुःख भयंकर नहीं होते वरन् उनका भय ही भयंकर है। इसीलिये किसी कवि ने कहा है-
“मृत्यु से मत भूल कर भी तुम डरो।
कायरों की मृत्यु का ही भय करो॥”
मृत्यु से डरना नासमझी की बात है। हम लोग मृत्यु और कष्टों से भागते हैं पर वे क्या चीज हैं? सुकरात इन विषयों को ‘हौआ’ कहा करते थे। कारण यह कि विकराल चेहरा केवल अबोध बालकों को ही भीषण और डरावना मालूम होता है। यह “हौआ” देख कर छोटे बच्चे जिस प्रकार डर जाते हैं वैसे ही साँसारिक जन भी संसार की किसी-किसी घटना से विह्वल हो जाते हैं। मृत्यु क्या है? एक “हौआ” है। चाहे शीघ्र हो या देर से हो, एक दिन यह शरीर आत्मा से अलग होगा ही-पहले भी हो चुका है। यह काल चक्र का भ्रमण है और इसका चलते रहना ही आवश्यक है।