धर्म परिवर्तनशील है या अपरिवर्तनशील?

May 1957

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(सुश्री लीलारानी)

विद्वानों और महात्माओं ने धर्म को संसार का सर्वश्रेष्ठ तत्व बतलाया है। उनका कहना है कि संसार की स्थिति धर्म के आधार पर ही है और जिस मनुष्य में धर्म का अभाव है उसकी कोई गिनती ही नहीं। इसमें सन्देह नहीं कि अभी तक संसार के इतिहास में सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति धर्म की ही रही है। इसी के प्रभाव से मनुष्य क्रमशः पशु की सी अवस्था से निकल कर एक सज्ञान और सामाजिक प्राणी की स्थिति तक पहुँच सका है।

इतना होने पर भी धर्म के संबंध में जितना मतभेद पाया जाता है उतना अन्य किसी विषय में देखने में नहीं आता। भिन्न-भिन्न देशों के लिये अलग-अलग धर्म प्रवर्तकों का होना तो समझ में आ सकता है, क्योंकि सब देशों की परिस्थितियाँ एक-सी नहीं होती, और परिस्थितियों का प्रभाव धार्मिक विधियों पर अवश्य पड़ता है। पर एक ही देश में बार-बार नये-नये धर्म क्यों चलाये जाते हैं? क्या धर्म थोड़े ही दिन ठहरने वाली वस्तु है? यदि धर्म इसी प्रकार बदल सकता है, तो धर्म में भी अनिश्चितता है। फिर धर्म की दुहाई देना भी व्यर्थ है। जिसे आज धर्म कहते हैं, वही कल धर्म न रहेगा। ऐसी अवस्था में किसी भी धर्म प्रवर्तक के उपदेश को कैसे स्वीकार किया जाय?

यथार्थ में धर्म के दो अंग होते हैं। एक तो नित्य अथवा अपरिवर्तनशील और दूसरा अनित्य अथवा परिवर्तनशील। सदाचार या सद्गुण तो नित्य या अपरिवर्तनशील धर्म। उन सद्गुणों के अनुसार बर्ताव करने, इन गुणों को बढ़ाने का प्रयत्न करने, और आपस में व्यवहार करने की विधियाँ समय-समय पर बदलती रहती हैं। जैसे-जैसे मनुष्य का मानसिक विकास होता है, ये विधियाँ पहले से अच्छी निकलती आती हैं। नये-नये धर्म प्रवर्तकों का कार्य पहले से अधिक श्रेयस्कर अथवा बदली हुई परिस्थिति के अनुकूल विधियाँ बनाने का होता है ।

उदाहरण के लिये देखिये कि सत्य, दया, न्यायप्रियता, उदारता आदि सद्गुण अपरिवर्तनशील हैं। कोई धर्म इनको कभी बुरा न कहेगा। ये प्रायः सभी धर्मों में पाये जायेंगे। कोई धर्म-प्रवर्तक इनका निषेध न करेगा। इसलिये ये नित्य-धर्म हैं। लेकिन सत्य, दया, उदारता आदि के सूक्ष्म रूप, जैसे-जैसे मनुष्य की बुद्धि तीव्र होती जायेगी वैसे-वैसे प्रकट होंगे। जैसे कोई तो झूँठ बोलने को ही सत्य का उल्लंघन समझे। दूसरा ऐसे सभी कार्यों को भी झूँठ समझे जिनको उसे छिपाना पड़े, या मन में किसी अनुचित इच्छा को लाना भी सत्य का उल्लंघन समझे। यह उस मनुष्य के विचारों की सूक्ष्मता पर निर्भर है। इस प्रकार सत्य-धर्म में तो कोई परिवर्तन नहीं हुआ, पर उसके प्रयोग में विकास अथवा उन्नति अवश्य हुई।

सद्गुणों की वृद्धि करना, अध्ययन, दान, तीर्थाटन आदि भिन्न-भिन्न जातियों, देशों व समयों में भिन्न-भिन्न होता है। यह सब धर्म के अंग होते हुये भी परिवर्तनशील हैं। इनके उद्देश्य से कार्य करने वाले मनुष्यों की कार्य प्रणाली पृथक्-पृथक् होती है। इसी प्रकार जन समुदायों अथवा सम्प्रदायों की धार्मिक शैलियाँ भिन्न हो सकती हैं। और एक ही जाति में महापुरुष नई-नई शैलियों का आविष्कार करते हैं। इसी प्रकार धार्मिक संस्कार पृथक-पृथक और परिवर्तनशील होते हैं तो सभी जातियाँ, सभी देशों, सभी समयों में। मनुष्य जब प्राकृतिक शक्तियों को अपने से बहुत अधिक प्रबल देख कर उन में देवताओं की कल्पना करता है, तो उन शक्तियों को प्रसन्न करने के लिये पूजा करना, उन को भेंट चढ़ाना, बलिदान करना, आवाहन करना स्वाभाविक ही है, जिससे वे प्रसन्न होकर मनुष्यों का अनहित न करें, और उसके लिये सुखकारी सिद्ध हों। यही धार्मिक संस्कारों का मूल है। पर देश-काल के अनुसार हमारी प्रणाली बदलती रही है और आगे भी बदलती रहेगी। उदाहरणार्थ किसी विधि में किसी ठण्डे देश में ऊनी वस्त्र पहिने जाते हैं और फिर यदि वे ही लोग किसी गर्म देश में आ बसें तो ऊनी वस्त्रों के स्थान में सूती वस्त्र पहनने लगेंगे अथवा यदि किसी समय किसी पूजा में मिट्टी की साधारण सी मूर्ति बनाकर रखने की प्रथा हो और फिर वे मूर्तियाँ सुन्दर पत्थर की बनने लगें तो मिट्टी की मूर्ति की जगह पत्थर की मूर्तियों का प्रचलन हो जायगा। लगभग पचास साठ वर्ष पहले ही महाराष्ट्र में गणपति पूजन के अवसर पर शास्त्रानुकूल वेषभूषा की मूर्तियाँ बनती थीं, पर अब हमने देखा कि वे मूर्तियां अंग्रेजी, फौजी, अफसर के भेष में, राष्ट्रीय नेताओं के भेष में, फैशनेबल जैंटिलमैनों के भेष में बनाई जाने लगी हैं।

धार्मिक संस्कारों का मूल चाहे कुछ हो परन्तु उनका प्रभाव विशेष रूप से पड़ता ही है। उस अवसर का महत्व संस्कार करने वाले के मन पर अंकित हो जाता है। संस्कार के साथ जिस क्रिया को मनुष्य करता है उसे बिना सोचे समझे, हँसी-खेल के समान नहीं करता वरन् उसकी समानता उसके हृदय पर जम जाती है। इस प्रकार अनेक धार्मिक संस्कार धार्मिक भावों अथवा सद्गुणों की बढ़ती करने वाले होते हैं।

पर जैसे-जैसे समय बीतता जाता है परिवर्तित परिस्थितियों के प्रभाव से धार्मिक संस्कारों तथा अन्य धार्मिक कर्मकाँडों की विधि कोरा दिखावा या आडम्बर मात्र रह जाती है। जिन सद्गुणों को उनके द्वारा बढ़ाना अभीष्ट होता है उसके विपरीत उनके कारण दुर्गुणों की वृद्धि होने लगती है। लोग उसके सार को भूल कर बाहरी स्वरूप पर ही जोर देने लगते हैं। कभी-कभी वह विधि इतनी पेचीदा और लम्बी चौड़ी होती है कि साधारण मनुष्य न तो उसे समझ सकता है न याद रख सकता है। ऐसी अवस्था में पंडितों या पुजारियों की एक श्रेणी बन जाती है जो उसे कराने के अधिकारी समझे जाते हैं। ये पुजारी जब अपने अधिकार को दृढ़ता के साथ स्थापित देखते हैं तो वे भी उस विधि के पूर्ण अध्ययन की चिंता नहीं करते, वरन् उसके द्वारा अधिक से अधिक धन प्राप्त करने को ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं। परिणाम यह होता है जो धार्मिक कृत्य मानव-कल्याण के लिये प्रचलित किये गये थे वे ही फिर स्वार्थ-साधन, अभिमान, द्वेष आदि के उत्पत्ति करने वाले बन जाते हैं। संसार में धर्म के नाम पर जो अनर्थ हुये हैं, उसका मूल कारण यही हैं।

ऐसी अवस्था देखकर किसी महापुरुष का हृदय सहानुभूति और करुणा से द्रवित हो जाता है। वह ऐसे पुजारियों और ऐसे आडम्बर का विरोध करने लगता है। जब किसी धार्मिक कृत्य से सद्गुणों के बदले दुर्गुण बढ़ने लगे तो वह त्याज्य हो जाता है। इसलिये फिर से सार-धर्म की आवश्यकता होती है। कभी-कभी पुजारियों का गुरुडम मिटाने को धार्मिक कृत्यों की पेचीदा विधियों को दूर करके साधारण व्यक्तियों के समझने और आचरण कर सकने योग्य रास्ता बताना आवश्यक होता है। इस प्रकार धार्मिक व्यवस्था में महान परिवर्तन हो जाता है । परन्तु धर्म का सार रूप, सद्गुणों का आचरण अब भी वैसा ही महत्वपूर्ण रहता है जैसा कि पहले था। अथवा यह कहना चाहिये कि वह पहले से भी अधिक आवश्यक हो जाता है, क्योंकि उसी की रक्षा के लिये बाहरी विधियों और क्रियाओं में परिवर्तन किया जाता है। इस प्रकार नित्य धर्म की रक्षा के लिये ही महापुरुषों द्वारा धर्म के ऊपरी रूप में परिवर्तन किया जाता है जिसे सामान्य व्यक्ति नवीन धर्म अथवा सम्प्रदाय की स्थापना का रूप दे देते हैं।


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