अग्नि की शिक्षा तथा प्रेरणा

January 1954

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अग्नि भगवान के स्थूल रूप का पूजन करने के लिए सुन्दर-सुन्दर हवन सामग्रियों से कुण्ड रूपी मुख्य में आहुतियाँ दी जाती है। सूक्ष्म पूजन के लिए अग्नि रूपी तेजस्वी भगवान को अपने अन्तःकरण में धारण करना होता है और उनके गुणों को अपनाकर स्वयं अग्नि रूप बनना होता है।

अग्नि भगवान से ऐसी ही प्रार्थना यजमान करता है कि-

ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेद स्तेन इध्मस्व वर्धस्व च इद्धय वर्धय।

आश्वलायन गृह्य सूत्र 1।10।18

“हे अग्नि देव! आप प्रदीप्त होओ और हमें भी प्रदीप्त करो। जो गुण आप में है उन्हें ही धारण करें” ऐसी प्रार्थना इस मंत्र में दी गई है। अग्नि यज्ञ का सच्चा उपासक वही कहा जाएगा, जो अपने इष्टदेव में तन्मय होकर उसके समान गुणों वाला बनने का स्वयं भी प्रयत्न करे।

स्थूल अग्नि की स्थापना और पूजन का स्थान हवन कुण्ड ही है, साथ ही उस यज्ञ की सूक्ष्म महत्ता को स्थापित करने का वास्तविक स्थान हृदय अन्तःकरण है। उस अग्नि में स्वत्व गुण के धारण करके अपने अग्नि रूप-अग्नि गुण सम्पन्न बनाने का प्रयत्न ज्ञानी लोग अपनी ज्ञान बुद्धि द्वारा करते हैं तभी उनका जीवन अग्नि रूप यज्ञमय बनता है।

अविदन्ते अतिहितं यदासीत यज्ञस्यधाम परमं गुह्यात्। ऋग्. 1।811

यज्ञ का वास्तविक निवास स्थान हृदय रूपी गुफा में है। वह अत्यन्त गुप्त है परन्तु ज्ञानी सत्पुरुष उसे प्राप्त कर लेते हैं।

यज्ञ को अग्निहोत्र कहते हैं। अग्नि ही यज्ञ का प्रधान देवता है। हवन सामग्री को अग्नि के मुख में ही डालते हैं। अग्नि के ईश्वर रूप मानकर उसकी पूजा करना ही अग्निहोत्र है। अग्नि रूपी परमात्मा की निकटता का अनुभव करने से उसके गुणों को भी अपने में धारण करना चाहिए एवं उसकी विशेषताओं को स्मरण करते हुए अपने आपको अग्निवत् होने की दिशा में अग्रसर बनना चाहिए। नीचे अग्नि देव से प्राप्त होने वाली शिक्षा तथा प्रेरणा का कुछ दिग्दर्शन कर रहे हैं।

(1) अग्नि का स्वभाव उष्णता है। हमारे विचारों और कार्यों में भी तेजस्विता होनी चाहिए। आलस्य, शिथिलता, मलीनता, निराशा, अवसाद यह अंध तामसिकता के गुण है, अग्नि के गुणों से यह पूर्ण विपरीत हैं। जिस प्रकार अग्नि सदा गरम रहती है कभी भी ठण्डी नहीं पड़ती, उसी प्रकार हमारी नसों में भी उष्ण रक्त बहना चाहिए, हमारी भुजाएँ काम करने के लिए फड़कती रहें, हमारा मस्तिष्क प्रगति शील बुराई के विरुद्ध एवं अच्छाई के पक्ष में उत्साह पूर्ण कार्य करता रहे।

(2) अग्नि में जो भी वस्तु पड़ती है उसे वह अपने समान बना लेती है। निकटवर्ती लोगों को अपना गुण-ज्ञान एवं सहयोग देकर हम भी उन्हें जैसे ही लकड़ी कोयला आदि साधारण वस्तुएँ भी अग्नि बन जाती हैं, हम अपनी विशेषताओं से निकटवर्ती लोगों को भी वैसा ही सद्गुणी बनाने का प्रयत्न करें।

(3) अग्नि जब तक जलती है तब तक उष्णता को नष्ट नहीं होने देती। हम भी अपने आत्मबल से ब्रह्म तेज को मृत्यु काल तक बुझने न दें।

(4) हमारी देह “भस्मान्तं शरीरम्” है वह अग्नि का भोजन है। न मालूम किस दिन यह देह अग्नि की भेंट हो जाय इसलिए जीवन की नश्वरता को समझते हुए सत्कर्म के लिए शीघ्रता करें और क्षणिक जीवन के क्षणिक सुखों के निमित्त दुष्कर्म की मूर्खता से बचें। जीवन की गतिविधि ऐसी रहे कि किसी समय मृत्यु सामने आ खड़ी हो, देह अग्नि को भेंट करनी पड़े तो किसी प्रकार का पछतावा न हो। अग्नि रूपी यमराज का हम नित्य दर्शन एवं पूजन करते हुए उसके साथ आत्मज्ञात होने की तैयारी करते रहें।

(5) अग्नि पहले अपने में ज्वलन शक्ति धारण करती है तब किसी दूसरी वस्तु को जलाने में समर्थ होती है। हम पहले स्वयं उन गुणों को धारण करें, जिन्हें दूसरों में देखना चाहते हैं। उपदेश देकर नहीं वरन् अपना उदाहरण उपस्थित करके ही हम दूसरों को कोई शिक्षा दे सकते हैं। जो गुण हममें होंगे वैसे ही गुण वाले दूसरे लोग भी हमारे समीप आवेंगे और वैसा ही हमारा परिवार बढ़ेगा। इसलिए जैसा वातावरण हम अपने चारों ओर देखना चाहते हों पहले स्वयं वैसे बनने का प्रयत्न करें।

(6) जैसे अग्नि मलीन वस्तुओं को स्पर्श करके स्वयं मलीन नहीं बनती वरन् वस्तुओं को भी अपने समान पवित्र बनाती है। वैसे ही दूसरों की बुराइयों से हम प्रभावित न हों। स्वयं बुरे न बनने लगें वरन् अपनी अच्छाइयों से उन्हें प्रभावित करके पवित्र बनावें।

(7) अग्नि जहाँ रहती है वहीं प्रकाश फैलाती है हम भी ब्रह्म अग्नि के उपासक बनकर ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलावें। अज्ञान के अंधकार को दूर करें। तमसो मा ज्योतिर्गमय- हमारा प्रत्येक कदम अन्धकार से निकलकर प्रकाश की ओर चलने के लिए पड़े।

(8) अग्नि की ज्वाला सदा ऊपर को उठती रहती है। मोमबत्ती की लौ को नीचे की तरफ उलटें तो भी वह ऊपर की ओर ही उलटेगी। इसी प्रकार हमारा लक्ष्य, उद्देश्य एवं कार्य सदा ऊपर की ओर ही रहे, अधोगामी न बने।

(9) अग्नि में जो वस्तु डाली जाती है उसे वह अपने पास नहीं रखती वरन् उसे सूक्ष्म बनाकर वायु को देवताओं को बाँट देती है। हमें जो वस्तुएँ सम्पदाएँ ईश्वर की ओर से-संसार की ओर से मिलती हैं उन्हें केवल उतनी ही मात्रा में ग्रहण करें जितने से जीवन रूपी अग्नि को ईंधन प्राप्त होता रहे। शेष का परिग्रह, संचय या स्वामित्व का लोभ न करके उसे लोकहित के लिए ही अर्पित करते रहें। अग्नि में चाहे करोड़ों रुपयों की सामग्री होगी, जब वह अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कुछ नहीं चुराती और पीछे के लिए संग्रह नहीं करती है वरन् तत्क्षण उस सामग्री को सूक्ष्म बनाकर वायु को लोकहित के लिये बाँट देती है। वैसे ही हमें जो ज्ञान, बल, बुद्धि, विद्या आदि उपलब्ध हैं उनका उपयोग स्वार्थ के लिए नहीं, परमार्थ के लिये ही करें।

(10) जैसी अग्नि हवन कुण्ड में जलती है वैसी ही ज्ञानाग्नि अन्तःकरण में, तप अग्नि इन्द्रियों में, काम अग्नि देह में प्रज्वलित रहनी चाहिए। यहाँ यज्ञ का आध्यात्मिक स्वरूप है।

हम यज्ञ करके अग्नि देवता से शिक्षा एवं दीक्षा ग्रहण करें। उससे प्रकाश ग्रहण करें और उसका अनुगमन करके आत्म कल्याण तथा परमार्थ साधना में संलग्न हों।


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