यज्ञ आवश्यक है।

January 1954

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>

यज्ञ भारतीय संस्कृति का आदि प्रतीक है हमारे धर्म में जितनी महानता यज्ञ को दी गई हैं उतनी और किसी को नहीं दी गई। हमारा कोई भी शुभ-अशुभ धर्म कृत्य यज्ञ के बिना पूर्ण नहीं होता। जन्म से लेकर अन्त्येष्टि तक 16 संस्कार होते हैं इनमें अग्निहोत्र आवश्यक है। जब बालक का जन्म होता है तो उसकी रक्षार्थ सूतक निवृत्ति तक घरों में अखण्ड अग्नि स्थापित रखी जाती है। नामकरण, यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कारों में भी हवन अवश्य होता है। अन्त में जब शरीर छूटता है तो उसे अग्नि को ही सौंपते हैं। अब लोग मृत्यु के समय चिता जलाकर यों ही लाश को भस्म कर देते हैं शास्त्रों में देखा जाय, तो वह भी एक यज्ञ हैं। इसमें वेद मन्त्रों से विधिपूर्वक आहुतियाँ चढ़ाई जाती हैं और शरीर को यज्ञ भगवान को अर्पण किया जाता है।

सभी साधनाओं में हवन अनिवार्य है। जितने भी पाठ, पुरश्चरण, जप, साधन किये जाते हैं, वे चाहें वेदोक्त हों चाहे तान्त्रिक, हवन उनमें किसी न किसी रूप में अवश्य करना पड़ेगा। गायत्री उपासना में भी हवन आवश्यक है। अनुष्ठान या पुरश्चरण में जप से दसवाँ भाग हवन करने का विधान है। परिस्थितिवश दसवाँ भाग आहुतियाँ न दी जा सके तो शताँश (सौ वाँ भाग) आवश्यक है। गायत्री को माता और यज्ञ को पिता माना गया है। इन्हीं दोनों के संयोग से मनुष्य का आध्यात्मिक जन्म होता हैं जिसे ‘द्विजत्व’ कहते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को द्विज कहते हैं। द्विज का अर्थ है दूसरा जन्म। जैसे अपने शरीर को जन्म देने वाले माता-पिता की सेवा-पूजन करना मनुष्य का नित्य कर्त्तव्य है उसी प्रकार गायत्री माता और यज्ञ पिता की पूजा भी प्रत्येक द्विज का आवश्यक धर्म कर्त्तव्य है।

यज्ञ किसी भी प्रकार घाटे का सौदा नहीं हैं। साधारण रीति से किये हुए हवन में जो धन व्यय होता है वह एक प्रकार से देवताओं की बैंक में जमा हो जाता है और वह सन्तोषजनक ब्याज समेत लौटकर अपने को बड़ी महत्वपूर्ण आवश्यकता के समय पर वापिस मिलता हैं। विधिपूर्वक, शास्त्रीय पद्धति एवं विशिष्ट उपचारों एवं विधानों के साथ किये हुए हवन तो ओर भी महत्वपूर्ण हैं। ऐसे यज्ञ एक प्रकार के दिव्य अस्त्र हैं। दैवी सहायताएं प्राप्त करने के अचूक उपचार हैं। यज्ञ समस्त ऋद्धि-सिद्धियों का पिता है। यज्ञ को वेदों ने ‘कामधुक्’ कहा है वह मनुष्यों के अभावों का पूरा करने वाला और बाधाओं को दूर करने वाला है। यज्ञ एक महान विद्या है। पांचों तत्वों का यज्ञ में एक वैज्ञानिक संमिश्रण होता है जिससे एक प्रचण्ड दुर्वर्ष शक्ति का आविर्भाव होता है। यज्ञ की इस प्रचण्ड शक्ति को ‘द्वि नासिक , सप्त जिह्वा, उत्तर मुख, कोटि द्वादश मूर्त्या, द्विपञ्चशत्कला युतम’ आदि विशेषणों युक्त कहा गया है। इस रहस्यपूर्ण संकेतों में यह बताया गया है कि यज्ञाग्नि की मूर्धा भौतिक और आध्यात्मिक दोनों हैं। इससे दोनों क्षेत्र सफल बनाये जा सकते हैं। स्थूल और सूक्ष्म प्रकृति यज्ञ की नासिका है उस पर अधिकार प्राप्त किया जा सकता है, सातों प्रकार की संपदाएं यज्ञाग्नि के हाथ हैं, वाममार्ग और दक्षिण मार्ग ये दो मुख हैं। हवा सातों लोक जिह्वाएँ हैं, इन सब लोकों में जो कुछ भी विशेषताएं हैं वे यज्ञाग्नि के मुख में मौजूद हैं। उत्तर ध्रुव का चुम्बकत्व केन्द्र अग्नि मुख है। यज्ञ की 52 कलाएं ऐसी हैं जिनमें से कुछ को प्राप्त करके ही रावण इतना शक्तिशाली हो गया था। यदि यह सभी कलाएं उपलब्ध हो जायें तो मनुष्य साक्षात् अग्नि रूप हो सकता है और विश्व के सभी पदार्थ उसके करतलगत हो सकते हैं। यज्ञ की महिमा अनन्त है। उसका थोड़ा आयोजन भी फलदायक होता है। गायत्री उपासकों के लिए तो यह पिता तुल्य पूजनीय है।


<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118