यज्ञ द्वारा अमृतमयी वर्षा

January 1954

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यज्ञ से वर्षा का घनिष्ठ सम्बंध है। कहते हैं कि यज्ञ से इन्द्रदेव प्रसन्न होते हैं और वर्षा की कमी नहीं रहने देते। पूर्व काल में जब इस पुण्य भूमि में पर्याप्त यज्ञ होते थे तो खूब वर्षा होती थी और अन्न, वनस्पति, पशु, दूध आदि से यह देश सदा भरा पूरा रहता था। वर्षा का जल कृषि के लिए सर्वश्रेष्ठ हैं क्योंकि उसमें आकाशस्थ अनेक खाद्य सम्मिश्रित हो जाते हैं जिससे अन्न वनस्पति बढ़ते भी खूब हैं और उनमें पौष्टिक तत्व भी अधिक होते हैं। नहर आदि के पानी से सींचने पर पौधों की उतनी वृद्धि नहीं होती, जितनी कि वर्षा के जल से होती है। इस प्रकार जो विटामिन, क्षार एवं पौष्टिक तत्व वर्षा से सींचे हुए पेड़ के फल बीजों में होता है वह अन्य प्रकार की सिंचाई से नहीं होता। वर्षा का जल स्वच्छता की दृष्टि से बहुत उच्चकोटि का होने के कारण स्वास्थ्य के लिए भी लाभप्रद होता है। वर्षा की नमी हवा में रहने से पशु-पक्षी आदि भी प्रसन्न एवं परिपुष्ट होते हैं। इसी नम हवा से रज वीर्यों में प्रजनन शक्ति बढ़ती है कुत्ते आदि अनेक पशु वर्षा के उपरान्त ही गर्भ धारण करते हैं। वर्षा की उपयोगिता अनेक दृष्टियों से है।

वर्षा को देवाधीन समझा जाता है। क्योंकि मनुष्य की इच्छा एवं क्रिया द्वारा उसको चाहे जब नहीं बरसाया जा सकता। वर्षा की इस अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए ऋषियों ने प्रयत्न और अन्ततः यज्ञ द्वारा अभीष्ट वर्ग करने में सफलता प्राप्त की। यज्ञ द्वारा वर्षा करना और रोकना उनके लिए सरल था। अपनी इसी सफलता का उद्घोष करते हुए उन्होंने यज्ञ कि महत्ता गाई और कहा :-

अन्नेनभूता जीवन्ति, यज्ञं सर्वं प्रतिष्ठितम्।

पर्जन्यो जायते यज्ञात सर्व यज्ञमयं ततः॥

कालिका पुराण 32। 8

अन्न से ही प्राणी जीते हैं। वह अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है और वर्षा यज्ञ द्वारा होती है। यह सम्पूर्ण विश्व यज्ञमय ही है।

यज्ञेनाऽऽप्याग्यिता देवा बुष्टयु त्सर्गेण मानवाः । आप्यायनं वै कुर्वन्ति यज्ञाः कल्याणं हेतवः।

-पद्मपुराण सृष्टि खण्ड।124

यज्ञ से देवता परिपुष्ट होते हैं। यज्ञ से वर्षा होती है और मनुष्यों का पालन होता है। यज्ञ ही कल्याण का हेतु है।

यज्ञैराप्यायिता देवा वृष्टयुत्सर्गेण वै प्रजाः।

आप्यायन्ते तु धर्मज्ञ यज्ञाः कल्याण हेतवः॥

विष्णु पुराण 6 । 1। 8

यज्ञ से देवताओं का अभिवर्धन होता है। यज्ञ वर्षा होने से प्रजा का पालन होता है। हे धर्मज्ञ यज्ञ ही कल्याण के हेतु हैं।

अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ कर्म समुद्भवः॥

गीता 3।14

समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा यज्ञ से होती है और वह यज्ञ कर्म से होता है।

अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्य भुपतिष्ठते।

आदित्या ज्जायते वृष्टिवृष्टेरन्नं ततः प्रजाः।

मनु 3 । 76

अग्नि में विधि विधान पूर्वक दी हुई आहुति सूर्य को प्राप्त होती है, उससे वर्षा होती है। वर्षा से अन्न होता है और अन्न से प्राणी की उत्पत्ति होती है।

उपरोक्त मंत्र में बताया गया है कि अग्नि में डाली हुई आहुति प्राणियों को प्राप्त होती है और वह वर्षा तथा अन्नोत्पत्ति का कारण बनती है। विज्ञान से सिद्ध है कि अग्नि जलने से कार्बन डाइऑक्साइड गैस बनती है। इस गैस का पृथ्वी पर एक पर्त फैला रहता है। जिसका काम यह है कि सूर्य की किरणों की गर्मी को पृथ्वी पर रोके रखे। यदि यह पर्त पतला होगा तो गर्मी ठहरेगी नहीं और भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जायगी। रेगिस्तान में यह पर्त पतला होता है फलस्वरूप दिन में कितनी ही धूप पड़े रात को वहाँ की जमीन तथा वायु ठण्डी होती है। ऐसी स्थिति में वहाँ कृषि एवं वृक्ष, वनस्पति नहीं उगते, वर्षा करने वाले बादलों को पकड़ने में भी उस प्रदेश का वायुमण्डल असमर्थ रहता है इसलिए वहाँ वर्षा की सदा कमी रहती है। जिन प्रदेशों में कार्बन डाइऑक्साइड गैस की पर्त पृथ्वी की सतह पर मोटी होती है वहाँ सूर्य की किरणों द्वारा पृथ्वी पर आने वाली उर्वरा शक्ति एवं गर्मी सुरक्षित एवं सुग्रहीत रहती है और उस भूमि में वृक्ष, वनस्पति खूब होते हैं।

काँच में यह गुण है कि सूर्य की किरणों की गर्मी को अपने में से भीतर आने देता है। पर उल्टी वापिस नहीं निकलने देता। जिन कमरों में काँच के रोशनदान लगे होते हैं वहाँ थोड़ी सी धूप जाकर भी कमरे में अपना पूरा प्रभाव कर सकती है। किन्हीं-किन्हीं नर्सरियों में ऐसे पौधे होते हैं, जिनको अधिक गर्मी चाहिए, उनके लिए काँच के ढक्कन घर बना दिये जाते हैं। जिनमें होकर धूप भीतर तो घुस जाय पर बाहर न निकले। फलस्वरूप उन पौधों को पर्याप्त गर्मी प्राप्त होती रहती है और वे उष्ण प्रदेश में ही जीवित रहने वाले पौधे शीत प्रदेशों में भी जीवित रहते हैं। सूर्य की किरण की गर्मी को भीतर घुस जाने देना पर बाहर न निकले देने तक जो कार्य काँच करता है वही कार्य पृथ्वी पर फैला हुआ कार्बन डाइऑक्साइड गैस की पर्त भी करती है। यह पर्त जितनी ही मोटी और मजबूत होगी, पृथ्वी को सूर्य की बहुमूल्य उर्वरा शक्ति को अपने में धारण करने और सुरक्षित रखने में सुविधा होगी।

ज्वालामुखी पहाड़ों से यह कार्बन गैस निकलती है। उस प्रदेश में उसका एक मोटा पर्त जमीन पर फैल जाता है। फलस्वरूप ज्वालामुखी पर्वतों के आस-पास वृक्ष वनस्पतियों का बाहुल्य रहता है और वहाँ वर्षा भी अधिक होती है। फ्राँस में यूबरीन नामक एक चश्मा है जिसमें से प्रायः कार्बन निकलती रहती है। इस चश्मे के आस-पास का क्षेत्र सदा हरियाली से हरा भरा रहता है। इसलिए यह यज्ञ से उत्पन्न कार्बन पृथ्वी को उर्वरा बनाती है और अन्न, फल तथा वनस्पतियों से हमें भरा पूरा रखती है।

यह सोचना ठीक नहीं कि अग्नि जलाने से ऑक्सीजन वायु खर्च होती है और कार्बन उत्पन्न होती है इसलिए हवन स्वास्थ्य के लिए अहितकर होगा। हवन में ऑक्सीजन खर्च ही कितनी होती है। उससे कहीं ज्यादा जो कल कारखानों, रेल, मोटर आदि में हो जाती है। फिर यदि थोड़ी ऑक्सीजन जले और कार्बन बने भी तो उसकी पूर्ति उन वृक्षों, वनस्पतियों से हो जाती है, जो हवन द्वारा उत्पन्न होती है। वृक्ष पौधों से दिन भर स्वच्छ प्राण प्रद वायु निकलती रहती है। हवन की कार्बन का हानिकारक तत्व नष्ट करने के लिए तो पहले से ही कलश आदि की स्थापना कर ली जाती है।

‘वैज्ञानिक लोग बादलों से बर्फ का चूरा हवाई जहाजों से छिड़क कर उड़ते हुए बादलों को भारी करते हैं और उससे वर्षा कराने का प्रयत्न करते हैं। कृत्रिम वर्षा का यह प्रयोग अभी सफल नहीं हो सका है। पर यज्ञ द्वारा वर्षा कराने के प्रयोग बहुधा सफल होते हैं।

बादल जब पोले होते हैं। तो हवा उनमें भीतर भर जाती है और उन्हें इधर से उधर उड़ा ले जाती हैं। यदि यह बादल अपेक्षाकृत सघन हो जाते हैं या कोई ऐसा कारण बन जाता है कि वायु उनके भीतर न घुस पावे तो यही बादल भारी होकर बरसने लगते हैं। हवन द्वारा यह आवश्यकता इस प्रकार पूरी होती है कि होमा हुआ घी सूक्ष्म बनकर वायु द्वारा बादलों तक पहुँचता है और उसकी चिकनाई की एक पर्त बादलों के ऊपर चढ़ जाता है। जो वायु को उनके भीतर जाने से रोकता है फलस्वरूप बादल भारी होकर बरसने लगते हैं।

पानी में चिकनाई डाली जाय तो वह उसके भीतर नहीं ठहरती वरन् ऊपर आकर पर्त की तरह फैल जाती है। यह हवन का धुँआ बादलों के ऊपर एक चिकनाई की पर्त चढ़ा देता है हवा चिकनाई को पार नहीं कर पाती। देखा जाता है, कि जाड़े के दिनों में बहुत से लोग चेहरे पर वैसलीन, मक्खन आदि मल लेते हैं जिससे ठण्डी वायु त्वचा तक नहीं पहुँचती और चेहरे की चमड़ी फटने की दिक्कत नहीं होती। जिस प्रकार वैसलीन चेहरे की त्वचा तक हवा पहुँचाने से रोकती है वैसे ही बादलों के ऊपर फैली हुआ हवन के धुँए की पर्त ऐसे ढाल का काम करती है जो हवा के बादलों के भीतर घुस कर उन्हें उड़ा देने से रोकती है। यह रोक ही वर्षा का कारण बन जाती है।

एक कटोरी में पानी, एक में घी भर कर आग पर गम किया जाय तो पानी में बुलबुले उठने लगेंगे घी यद्यपि जलेगा तो अवश्य, पर उसमें बुलबुले न उठेंगे। बुलबुले उठने का कारण यह हैं कि पानी के गर्म होने पर हवा उसके भीतर प्रवेश करती है, इसके विपरीत घी को भेद कर हवा कटोरी के पेंदे में नहीं पहुँच पाती और बुलबुले नहीं उठते। यह इस बात का प्रमाण है कि चिकनाई को पार करके हवा भीतर नहीं जाती। हवन द्वारा बादलों के ऊपर चिकनाई का आवरण चढ़ा कर उन्हें हवा द्वारा इधर-उधर उड़ा दिये जाने से रोकता है और वर्षा होने लगती है। चिकनाई ठण्ड पाकर जमती है और अपने साथ पानी का भी जमा देती है। जाड़े के दिनों में जब घी जमता है तो उसका जलाँश भी जम जाता है। हवन का घी बादलों को घना करता है, जमाता है और उन्हें बरसने के लिए विवश करता है।

वर्षा कराने और रोकने में अतिवृष्टि और अनावृष्टि रोकने में यज्ञों की सामर्थ्य अद्भुत है।

“निकामे निकामें पर्जन्यो वर्षतु॥”

इच्छानुसार वर्षा कराना, वर्षा पर मानुषी आधिपत्य कराना यज्ञ भगवान के हाथ में है। केवल जल वर्षा ही नहीं, यज्ञ से उस प्राण की वर्षा भी होती है, जो समस्त प्राणियों को स्वस्थ, सजीव और चिरस्थाई बनाता है। उस प्राण से ही यह पृथ्वी स्थिर है अमृत प्राण जो यज्ञ का प्रधान उपहार है इस धरती माता को हरी भरी बनाये हुए है। इसी से कहा गया है-

“यज्ञाः पृथिवीं धारयन्ति”

-अथर्व

“यज्ञ ही इस पृथ्वी को धारण किये हुए है।”


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