चैत्र प्रतिपदा से नवीन संवत्सर आरम्भ होता है एवं हमारा नया विक्रमी वर्ष भी। साथ ही नवरात्रि का पावन पर्व भी इस दिन से आरम्भ होकर रामनवमी के दिन समाप्त होता है। हमारे ऋषिगण की विद्वता का सुदृढ़ साँस्कृतिक दैनन्दिनी संरचना का प्रमाण है यह कि बसंत पर्व से जब शिशिर की ठिठुरन समाप्त होने लगती है, एक विलक्षण प्रकृतिगत परिवर्तन का क्रम नवरात्रि समापन तक चलता है। सूक्ष्म जगत को अपना कार्य क्षेत्र बनाने वाली ऋषि चेतना ने अपनी मनीषा के माध्यम से वर्ष के एक दिन-एक-एक दिन को उल्लास बना दिया है एवं प्रत्येक प्रकृतिगत परिवर्तन को गणितीय माध्यम से ऐसा सुव्यवस्थित बनाया है कि उसके सुनियोजित एवं व्यष्टि चेतना पर प्रभावोत्पादकता को देखकर आश्चर्य चकित होकर हर जाना पड़ता है। बसन्त से ठीक चौबीस दिन बाद महाशिवरात्रि आती है एवं इसके सोलह दिन बाद होली का पावन पर्व आता है। चालीस दिन का यह समय प्रकृति में सूक्ष्म स्तर पर तीव्रगति से हो रहे परिवर्तनों का समय है। इस अवधि में वातावरण में क्रमशः गर्मी की तपन बढ़ने लगती है एवं शरीर गर्मी की तपन बढ़ने लगती है एवं शरीर पर उसका प्रभाव पर्व आरम्भ हो जाता है जो कि शक्ति उपासना का पर्व है। जो कार्य सामान्य साधना के माध्यम से साधारणतया काफी दिनों में सिद्ध कर पाते हैं, वह इन 9 दिनों की अवधि में बड़ी आसानी से सध जाता है, इसी कारण चैत्र-आश्विन इन दोनों ही नवरात्रियों को विशेष महत्व दिया जाता रहा है।शक्ति की मातृभाव से उपासना दुर्गा शक्ति की पूजा आराधना तथा विशिष्ट अनुष्ठान परक साधना द्वारा आत्मबल का संचय इन नौ दिनों में बड़ी सरलता से हो सकता है। ऋग्वेद के अदिति सूक्त में शक्ति का मातृभाव वाला स्वरूप देखा जाता है, जबकि ऊषा सूक्त में कुमारी भाव, सूर्यादेवी सूक्त में कुमारी भाव, देवी सूक्त एवं वाक्सूक्त में शुद्ध शक्तिभाव के चिन्ह मिलते हैं। ऋग्वेद में भी पृथ्वी की स्तुति गायी गयी है एवं उन्हें पिता द्यौ के साथ वर्णित किया गया है। “समुद्र वसने देवि पर्व स्तन मण्डले। विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्श क्षमस्वमे” अर्थात् समुद्र ही जिनके वस्त्र हों, पर्वत जिनके स्तन हों, ऐसी विष्णु पत्नी पृथ्वी देवी को पैर से स्पर्श करने की त्रुटि हेतु मैं क्षमा चाहता हूँ।” हमारे ऋषियों की यह मान्यता “शक्ति” स्वरूपा पृथ्वी में गति है। पृथ्वी-प्रकृति-मातृसत्ता सी हमारे यहाँ शक्ति के पर्याय हैं। इनकी उपासना हेतु नवरात्रि साधना को इसलिए महत्व दिया जाता रहा है।
नवरात्रि दो ऋतुओं का मिल काल है। विशेष रूप से आज की युगसंधि की वेला में यह संधि मिलन वेला विशेष महत्व रखती है। यह मिलन वेला सर्दी और गर्मी की ऋतु के मिलन की भी है एवं पुराने वर्ष की विदाई एवं नये वर्ष के आगमन वाली हर्षोत्सव के पर्व वाली भी। जब 24 घण्टे के चक्र में रात्रि और दिन के मिलन को इतना अधिक महत्व “संध्या” के रूप में प्राप्त है तो दो ऋतुओं के मिलन को तो अध्यात्मवेत्ता और भी अधिक महत्वपूर्ण मानकर इन दिनों विशिष्ट आध्यात्मिक पुरुषार्थ करने की बात कहते आए हैं। इस ऋतु परिवर्तन की वेला में सूक्ष्म जगत में अनेकानेक प्रकार की हलचलें होती हैं।शरीर से लेकर समष्टिगत चेतना जगत में ज्वार-भाटे जैसी हलचलें उत्पन्न होती देखी जाती हैं। जीवनीशक्ति प्रयासपूर्वक देह में जमी हुई विकृतियों को निकाल बाहर करने का प्रयास करती है एवं सूक्ष्म अंतरिक्षीय प्रवाह शरीर-मन-अंतःकरण का कायाकल्प करने को तत्पर रहते हैं। कायचक्र के सूक्ष्म ज्ञाताओं ने प्रकृति के अन्तराल में चल रहे विशिष्ट उभारों को ध्यान में रखते हुए यह सोचा कि इन दिनों की गयी आध्यात्मिक साधनाएँ विशेष रूप से सफल होती हैं। तदनुसार ही चैत्र और आश्विन के शुक्लपक्ष आरम्भ होते ही नौ-नौ दिन के नवरात्रि पर्व मनाए जाते हैं।
यों सारा समय भगवान का है और सभी दिन पवित्र हैं। शुभ कर्म करने की हर घड़ी शुभ मुहूर्त्त है और अशुभ कर्म हेतु काल-राहु दिशाशूल, योगिनी और विपरीत चन्द्रमा जैसे अनेकानेक बन्धन प्रतिरोध हैं, किन्तु वस्तुतः ऐसा है नहीं। सामान्य या विशेष उपासना करने पर कोई प्रतिबन्ध हमारे ऋषियों ने कभी लगाया नहीं। शुभ कर्म के लिए कभी कोई मुहूर्त्त देखने की आवश्यकता नहीं। फिर भी कालचक्र की प्रतिक्रिया से लाभ उठाने में बुद्धिमत्ता ही है। नवरात्रि पर्व में विभिन्न उपासनाएँ चलती हैं। रामभक्त उन दिनों रामायण का परायण और कृष्ण भक्त गीता या श्रीमद्भागवत का पारायण करते हैं। देवी उपासकों में दुर्गापाठ के विभिन्न उपचार चलते हैं। तपस्वी इन दिनों व्रत उपवास करते हैं। तंत्र विधान में शव साधना, कुमारी पूजन, कुण्डलिनी जागरण चक्रवेधन आदि की साधनाएँ विशेष रूप से इन्हीं दिनों सम्पन्न की जाती हैं। मध्यकाल में तंत्र प्रयोजनों की बहुत मान्यता थी इसलिए दैवी आराधना के विभिन्न उपचारों के लिए इन्हीं दिनों वैयक्तिक एवं सामूहिक रूप से विशेष क्रिया-कृत्य किये जाते थे। अब वह समय नहीं रहा, न ही सौम्य स्तर की तंत्र साधना करने वाले साधक। अपेक्षित उच्चस्तरीय मार्गदर्शन के अभाव में आत्मघाती प्रयोग करने की अपेक्षा बल सम्वर्धन की-आस्था सम्वर्धन की एवं स्वयं के आध्यात्मिक कायाकल्प की अति सौम्य चौबीस हजार मंत्र जप वाली नौ दिन की अनुष्ठान साधना कर लेना ही ठीक है।
वैदिक साहित्य में नवरात्रियों का सुविस्तृत वर्णन है। ऋषियों ने इसकी व्याख्या विवेचन करते हुए कहा है कि इसका शाब्दिक अर्थ तो नौ रातें ही है पर इनका गूढ़ार्थ कुछ और है। नवरात्रि का तात्पर्य यह है कि मानवी कायारूपी अयोध्या में नौद्वार अर्थात् नौ इन्द्रियाँ हैं। अज्ञानतावश दुरुपयोग के कारण उनमें जो अन्धकार छा गया है, से अनुष्ठान करते हुए एक-एक रात्रि में एक-एक इन्द्रिय के ऊपर विचारना, उन पर संयम स्थापित करना तथा सन्निहित क्षमताओं को उभारना ही वस्तुतः नवरात्रि की साधना कहलाती है। रात्रि का अर्थ ही है-घोर निबिड़ अन्धकार। जो मनुष्य इन नौ द्वारों से-नौ इन्द्रियों के विषयों से जागरुक रहता है, उनमें लिप्त नहीं होता और ओजस् तेजस् और वर्चस् को गँवाता है, वस्तुतः उसे बढ़ाता ही है।
“अनुष्ठान” शब्द की परिभाषा” यदि दी जाय तो वह इस प्रकार होगी-” अतिरिक्त आध्यात्मिक सामर्थ्य उत्पन्न करने के लिए संकल्पपूर्वक नियत संयम-प्रतिबन्धों एवं तपश्चर्याओं के साथ विशिष्ट उपासना।” इन नवरात्रियों में सर्वसाधारण से लेकर योगी, यती, तपस्वी, भी अपने-अपने स्तर की संयम साधना एवं संकल्पित अनुष्ठान करते हैं। इस अवधि की प्रत्येक अहोरात्रि बड़ी महत्वपूर्ण मानी जाती है और उन प्रत्येक क्षणों को साधक अपनी चेतना को परिष्कृत-परिशोधित करने-उत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ाने में लगाता है।
नवरात्रि साधना एक संकल्पित साधना है। इसमें ऋषियों ने उपासना क्रम का निर्धारण कुछ ऐसा किया है कि जिसका पालन कर सकना सभी के लिए सुलभ है। इस अवधि में सत्ताईस माला प्रतिदिन करते हुए चौबीस हजार गायत्री महामंत्र का लघु गायत्री अनुष्ठान भी सम्पन्न हो जाता है। श्रेयपथ के पथिकों के लिए ऋषिगणों ने चौबीस सहस्र जप की संकल्पित साधना ही नवरात्रि हेतु सर्वश्रेष्ठ बतायी है। गायत्री परम सतोगुणी,शरीर के लिए भी व आत्मा के लिए भी दिव्य तत्वों का आध्यात्मिक विशेषताओं का अभिवर्धन करने वाली महाशक्ति है। यही आत्म कल्याण का मार्ग है। गायत्री साधकों को यही साधना इन नौ दिनों में करनी चाहिए। असमंजस मन में हो सकता है कि नवरात्रि को दुर्गा उपासना से जोड़ कर रखा गया है, फिर गायत्री अनुष्ठान वस्तुतः दुर्गा महाकाली भी गायत्री महाशक्ति का एक रूप है। दुर्गा कहते हैं-दोष-दुर्गुणों, कषाय-कल्मषों को नष्ट करने वाली महाशक्ति को। नौ रूपों में माँ दुर्गा की उपासना इसलिए की जाती है कि वह हमारी इन्द्रिय चेतना में समाहित दुर्गुणों को नष्ट कर दे। मनुष्य की पापमयी वृत्तियाँ ही महिषासुर हैं। नवरात्रियों में उन्हीं प्रवृत्तियों पर मानसिक संकल्प द्वारा अंकुश लगाया और संयम द्वारा दमन किया जाता है। संयमशील आत्मा को ही दुर्गा, महाकाली, गायत्री की शक्ति से सम्पन्न कहा गया है। प्राण चेतना के परिष्कृत होने पर यही शक्ति महिषासुर-मर्दिनी बन जाती है।
नवरात्रि अनुष्ठान में मन को एकाग्र तन्मय बनाने के साथ ज पके साथ ध्यान की प्रक्रिया को सशक्त बनाया जाता है। मातृभाव में ध्यान तुरंत लग जाता है व जप स्वतः होठों से चलता रहता है। ध्यान तब माला की गिनती की ओर नहीं जाता। उँगलियों से माला के मन के बढ़ते जाते हैं, ध्यान मातृसत्ता का अनन्त स्नेह व ऊर्जा देने वाले पयपान की ओर लगा रहता है। इस अवधि में आत्मचिन्तन विशेष रूप से करना चाहिए। मन को चिन्ताओं से जितना खाली रखा जा सके-अस्तव्यस्तता से जितना मुक्त हुआ जा सकें, उसके लिए प्रयासरत रहना चाहिएं आत्मचिन्तन में अब तक के जीवन की समीक्षा करके उसकी भूलों को समझने और प्रायश्चित के द्वारा परिशोधन की रूपरेखा बनानी चाहिए। वर्तमान की गतिविधियों का नये सिरे से निर्धारण करना चाहिए। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्त्तव्य अपने क्रियाकलापों में अधिकतम मात्रा में कैसे जुड़ा रह सकता है, उसका ढांचा स्वयं ही खड़ा करना चाहिए और उसे दृढ़तापूर्वक निबाहने का संकल्प करना चाहिए। भावी जीवन की रूपरेखा ऐसी निर्धारित की जाय जिसमें शरीर और परिवार के प्रति कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हुए आत्मकल्याण के लिए कुछ करते रहने की गुंजाइश बनी रहे। साधना-स्वाध्याय-संयम-सेवा, यही है आत्मोत्कर्ष के चार चरण। इनमें एक भी ऐसा नहीं है, जिसे छोड़ा जा सके और एक भी ऐसा नहीं है जिस अकेले के बल पर आत्मकल्याण का लक्ष्य पूरा किया जा सके। अस्तु मनन और चिन्तन द्वारा इन्हें किस प्रकार कितनी मात्रा में अपनी दिनचर्या में सम्मिलित रखा गया, इस पर अति गम्भीरतापूर्वक विचार करते रहना चाहिए। यदि इससे भावी जीवन की कोई परिष्कृत रूपरेखा बन सकी और उसे व्यवहार में उतारने का साहस जग सका तो समझना चाहिए कि उतने ही परिमाण में गायत्री माता का प्रसाद तत्काल मिल गया। यह सुनिश्चित मानना चाहिए कि श्रेष्ठता भरी गतिविधियाँ अपनाते हुए ही भगवान की शरण में पहुँच सकना और उनका अनुग्रह प्राप्त करना सम्भव हो सकता है।
गायत्री परम सतोगुणी-शरीर और आत्मा में दिव्य तत्वों का आध्यात्मिक विशेषताओं का अभिवर्धन करने वाली महाशक्ति है। वर्ष की दो नवरात्रियों को गायत्री माता के दो आयातित वरदान मानकर हर व्यक्ति द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए। इस अवधि में उनका कोमल प्राण धरती पर प्रवाहित होता है, वृक्ष वनस्पति नवलल्लव धारण करते हैं, जीवन-जन्तुओं में नई चेतना इन्हीं दिनों आती है। विधिपूर्वक सम्पन्न नवरात्रि साधना से स्वास्थ्य की नींव तक हिल जाती हैं एवं असाध्य बीमारियाँ तक इस नवरात्रि अनुष्ठान से दूर होती देखी गयी हैं।
इन नौ दिनों में दिनचर्या एवं मनःस्थिति ऐसी रखी जाय मानो यह अवधि ऋषि जीवन जीने के लिए नियत हो। अपने स्वभाव में घुसी हुई बुरी आदतों में से जितनी जिस मात्रा में छोटी या घटाई जा सके उसके लिए भरसक प्रयास किया जाना चाहिए। इसी प्रकार सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन की आवश्यकता अनुभव होती है उनकी कार्यान्वित करने के लिए इन दिनों तो प्रयत्न करना ही चाहिए। अनुष्ठान काल में अनेक प्रकार के विधि निषेधों का नियम पालन की की परम्परा है। इसमें अपनी ओर से कुछ बातें छोड़ने और कुछ अपनाने का संकल्प करना चाहिए। घर को तपोवन बनाने और दिनचर्या में संत जीवन का समावेश करने का प्रयोग इन दिनों जितनी अच्छी तरह जितनी सफलतापूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है, उतना अन्य किसी अवसर पर नहीं। नवरात्रि पर्व के नौ दिनों में हर साधक को अपने लिए स्वयं अनुशासन स्थापित करने और उनको निबाहने के लिए अपनी अंतःप्रेरणा से स्वयं ही संकल्प करना चाहिए। इस प्रयोग से प्रस्तुत अनुष्ठान का महत्व और अधिक बढ़ जाता है।
प्रस्तुत नवरात्रियों का महत्व इसलिए भी अधिक है कि ये युगसंधि काल की नवरात्रियाँ है। इस समय एक सहस्राब्दी बदल रही है एवं हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर रहे हैं युगसंधि की नवरात्रियों में अदृश्य लोकों से देवतत्व की अतिरिक्त वर्षा होती है जो विशेष रूप से देवमानवों में प्रखरता का अनुपात बढ़ाने के लिए होती है। नवयुग सुजन की प्रेरणाओं को क्रियान्वित करने तथा उस दिशा में कदम बढ़ाने का यही शुभ मुहूर्त्त है। प्रज्ञा युग की प्रेरणा को अपनाने और विधि व्यवस्था को चरितार्थ करने के लिए यों हर घड़ी पवित्र और महत्वपूर्ण है। किन्तु इस प्रयोजन के लिए नवरात्रि पर्व की अत्यधिक गरिमा मानी गयी है। प्रत्येक वर्ष जो 2001 से 2005 तक की अवधि तक का माना जा सकता है, नवरात्रि की एक-एक दिवस की अवधि के समान है। इसके एक-एक पल का उपयोग मात्र महाकाल के निमित्त हो, यही इन दिनों का युगधर्म है। यों युगसंधि की इस परिवर्तन वेला में अनिष्ट के परिमार्जन तथा सृजन के सम्वर्धन को लक्ष्य में रखकर जो बारह वर्षीय योजना गुरुसत्ता द्वारा 1989 में बनायी गयी एवं जिसकी प्रथम पूर्णाहुति अभी-अभी नवम्बर 95 में गुरुग्राम आँवलखेड़ा में मनायी गयी, उसे युगसंधि महापुरश्चरण नाम दिया गया है। 240 करोड़ गायत्री का लक्ष्य 6 वर्ष में ही पारकर के 2400 करोड़ तक पहुंच गया, एवं अब आगे के छह वर्षों में 24000 करोड़ गायत्री जप, भगवान्नाम जप एवं मंत्र लेखन का लक्ष्य पूरा करने का संकल्प लिया गया है। कल्पना की जाती है कि अधिकाधिक साधक इस नैष्ठिक अभियान में जुड़ेंगे एवं अपनी श्रद्धाँजलि अन्ततः 2001 में युग देवता के चरणों में द्वितीय पूर्णाहुति में अर्पित करेंगे। प्रस्तुत नवरात्रि पर्व बड़ी ही विषम वेला में संधिकाल की अवधि में इस वर्ष चैत्र नवरात्रि के रूप में 20 मार्च से 28 मार्च की समयावधि में आया है। गायत्री परिवार की जहाँ भी शाखाएं प्रज्ञामण्डल, स्वाध्याय मण्डल, प्रज्ञा संस्थान छोटे व बड़े रूप में मनायें। सामूहिकता में बड़ी शक्ति होती है। एक साथ संकल्पित साधक जब इस अनुष्ठान प्रक्रिया में जुड़ेंगे तो निश्चित ही सूक्ष्मजगत के संशोधन एवं जीवन-मरण के संघर्ष के लिए जूझ रही असुरता से मोर्चा लेने में मदद मिलेगी। युग देवता ने इस पुनर्गठन वर्ष विशिष्ट संस्कार सम्पन्न दैवी अंशधारी आत्माओं से साधना द्वारा आत्मबल उपार्जन हेतु न्यूनतम पाँच चौबीस चौबीस हजार के अथवा दो या तीन सवा लक्ष के गायत्री अनुष्ठान करने की प्रेरणा दी है। उसका शुभारम्भ यदि अभी तक न हुआ हो तो इस नवरात्रि से आरम्भ कर दिया जाना चाहिए। यह नवरात्रि सभी के लिए उज्ज्वल सम्भावनाएँ लेकर आए, यही शांतिकुंज परिवार की मंगल कामनाएँ हैं।
विदाई की घड़ियाँ और गुरुदेव की व्यथा वेदना-3
गुरुसत्ता के अंतःस्थल की पीड़ा को समझना हो तो प्रस्तुत लेख, जिसके कुछ महत्वपूर्ण अंश मात्र यहाँ दिए जा रहे हैं, को पढ़कर समझा जा सकता है। जनवरी 1969 में छपे लेखों से आरम्भ किया यह क्रम विगत दो माह से जारी है। अब मार्च महा में भी फरवरी 69 की अखण्ड ज्योति के इसी शीर्षक के भाव से लिखे गए लेख के अंश पुनः प्रस्तुत हैं।
(हमारा अपना आंतरिक ढाँचा एक विचित्र का बन चुका है और उसे आग्रहपूर्वक वैसा ही बनाए रहेंगे। सहृदयता, ममता, स्नेह, आत्मीयता की प्रवृत्ति हमारे रोम-रोम में कूट-कूट कर भरी है। यह इतनी सरस व सुखद है किसी भी मूल्य पर इसे छोड़ने की बात तो दूर, घटना भी सम्भव न हो सकेगा।
तृष्णा और वासना से छुटकारा पाने का नाम हम मुक्ति मानते रहे हैं। सो उसे प्राप्त कर चुके। उच्च आदर्शों के अनुरूप जीवन पद्धति बनाए रहने, दूसरों में केवल अच्छाई देखने और सबमें अपनी ही आत्मा देखकर असीम प्रेम करने की तीन धाराओं का संयुक्त स्वरूप हम स्वर्ग मानते रहे हैं। सो उसका रसास्वादन चिरकाल से हो रहा है। अब न स्वर्ग जाने की इच्छा है, न मुक्ति पाने की।
ऐसा वैराग्य जिसमें स्नेह सौजन्य से-अनन्त आत्मीयता से वंचित होना पड़े, हमें तनिक भी अभीष्ट नहीं। हमारी ईश्वर भक्ति पूजा-उपासना से आरम्भ होती है और प्राणी मात्र को अपनी ही आत्मा के समान अनुभव करने और अपने ही शरीर के अंग अवयवों की तरह अपनेपन की भावना रखते हुए अनन्य श्रद्धा चरितार्थ करने तक व्यापक होती चली जाती है।
जिनका स्नेह-सद्भाव, सहयोग, अनुग्रह अपने ऊपर रहा है, उनकी ओर से तनिक भी मुख मोड़ा जाय, उनके प्रति उदासीनता और उपेक्षा अपनाई जाय, कोई कृतघ्न ही ऐसा सोच सकता है।
रोटी ने नहीं-भावभरी आत्मीयता के अनुदान जहाँ-तहाँ से हमें मिल सके हैं, उन्हीं ने हमारी नस−नाड़ियों में जीवन भरा है और उसी के सहारे हम इस विशाल संघर्ष से भरे जीवन में जीवित रह सकने और कुछ कर सकने लायक कार्य कर सकने में समर्थ रहे हैं।
लोगों की आँखों से हम दूर हो सकते हैं पर हमारी आँखों से कोई दूर न होगा। जिनकी आँखों में हमारे प्रति स्नेह और हृदय में भावनाएं हैं, उन सबकी तस्वीरें हम अपने कलेजे में छिपाकर ले जायेंगे और उन देव प्रतिभाओं पर निरन्तर आओ का अर्घ्य चढ़ाया करेंगे ।...लोग हमें भूल सकते हैं, पर हम अपने किसी स्नेही को नहीं भूलेंगे।
कोई माता विवशता में यहीं चली जाती है, तो चलते समय अपने बच्चों को बार-बार, लौट-लौट कर देखती और ममता से भरी गीली आंखें आँचल से पोछती आगे बढ़ती है। ऐसा ही कुछ उपक्रम अपना भी बन रहा है। सोचते हैं, जिन्हें अधूरा प्यार किया अब उन्हें भरपूर प्यार कर लें। जिन्हें छाती से नहीं लगाया, जिन्हें गोदी में नहीं खिलाया, जिन्हें पुचकारा दुलारा नहीं, उस कमी को अब पूरा कर लें। किसी को कुछ अनुदान, आशीर्वाद देना अपने हाथ में न हो तो दुलार देना तो अपने हाथ में है।
अब आने वाली विषम घड़ियाँ यों एक बारगी कलेजे को कपड़ा निचोड़ने की तरह ऐंठती है और अनायास की रुलाई से कण्ठ भर देती हैं, फिर भी इसके पीछे कोई विवशता नहीं है। महान उद्देश्य के लिए-लोकमंगल के लिए, नव-निर्माण के लिए, तिल-तिल करके अपने को गला देने में हमें असीम सन्तोष, अपार आनन्द और उच्चकोटि का गर्व है।
कोई चमड़ी उधेड़ कर देख सके तो भीतर माता का हृदय लगा मिलेगा, जो करुणा, ममता स्नेह और आत्मीयता से हिमालय की तरह निरन्तर गलते रहकर गंगा-यमुना बहाता रहता है।
प्यार, प्यार, प्यार यही हमारा मंत्र है। आत्मीयता ममता, स्नेह, और श्रद्धा यही हमारी उपासना है। सो बाकी दिनों अब अपनों से अपनी बातें ही नहीं कहेंगे-अपनी सारी ममता भी उन पर उढेलते रहेंगे। शायद इससे परिजनों को भी यत्किंचित् सुखद अनुभूति मिले।
प्रतिफल और प्रदान की आशा किए बिना हमारा भावना प्रवाह तो अविरल जारी ही रहेगा। परिजनों से परिपूर्ण स्नेह-यही इन पिछले दिनों का हमारा उपहार है, जिसे कोई भुला सके तो भुला दे ।हम तो जब तक मस्तिष्क में स्मृति और हृदय में भावना स्पन्दन विद्यमान है, आजीवन उसे याद ही रखेंगे।