मनुष्य अपनी स्थिति और क्षमताओं को देखते हुए जितना परिपूर्ण दिखाई देता है, सृष्टि का अन्य कोई जीव भी कम परिपूर्ण नहीं है। यह बात अलग है कि मनुष्य को उपहार के रूप में कई विभूतियाँ प्राप्त हुई हैं जो अन्य प्राणियों के पास नहीं है, जो अन्य प्राणियों के पास नहीं है, लेकिन उन विभूतियों के साथ उत्तरदायित्वों की शर्त भी जुड़ी हुई है। यह नहीं सोचना चाहिए कि परमात्मा ने उसे किसी पक्षपात के कारण विभूतियाँ प्रदान की हैं और न यही यह मानकर इतराते फिरना चाहिए कि उसके जैसा बुद्धिमान और क्षमता वाला प्राणी अन्य कोई नहीं है। वरन् वास्तविकता यह है कि विश्व के अगणित जीवन-जन्तुओं में विविध प्रकार की क्षमताएँ पायी जाती हैं जिनसे मनुष्य बहुत पिछड़ा हुआ सिद्ध होता है।
उदाहरण स्वरूप प्रवासी पक्षियों को ही लिया जाय तो वे प्रति वर्ष लाखों की संख्या में हजारों मील की यात्रा करते हैं। इनमें सर्वाधिक दूरी की यात्रा “टर्न-अर्थात्-कुररी नामक समुद्री पक्षी करते हैं। ये पक्षी अधिकांशतः ध्रुव प्रदेशों के अतिशीत वाले स्थानों जैसे उत्तरी ध्रुव की ओर उड़ान भरते हैं जहाँ उस समय ग्रीष्म ऋतु हुआ करती है। वे दक्षिणी ध्रुव में 74 डिग्री अक्षांश तक जा पहुँचते हैं। हवाई मार्ग से यह अन्तर 17600 किलोमीटर का है, किन्तु असहाय समझे जाने वाले ये प्राणी अपने लिए दाना पानी और आवास की सुविधा जुटाने तथा ऋतु काल में संतति वृद्धि आदि के लिए 64000 किलोमीटर तक दूरी प्रतिवर्ष अपने छोटे-छोटे डैनों के सहारे पूरी करते हैं। एक शताब्दी पूर्व तक हवाई यात्रा मानव के लिए एक कल्पना मात्र थी, पर आज इतनी वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद से पौन लाख किलोमीटर की दूरी पार करने के लिए मनुष्य को क्या-क्या और कितने साधन जुटाने पड़ेंगे और वह भी इतनी बड़ी संचा के लिए ? जबकि पक्षियों में यह प्रक्रिया सहज भाव से अनादि काल से होती आ रही है। न ईंधन की समस्या, न आवास की और न प्रदूषण की समस्या, पर आज तो मानवकृत समस्याओं का अम्बार लगा हुआ। कुररी, हंस फ्लेमिंगों आदि बड़े पक्षियों के प्रवास की तुलना में मात्र एक इंच से भी छोटी दो पंखों के बीच के अन्तर वाली अति स्वल्प पीली तितलियाँ प्रति वर्ष अफ्रीका से लेकर ब्रिटिश द्वीप समूहों तक 600 मील या एक हजार किलोमीटर की उड़ान भरती हैं। इन्हें रास्ते खाने पीने की भी कोई विशेष सुविधा नहीं रहती। मात्र फूलों के पराग के अतिरिक्त कुछ और आहार न लेने के कारण वे शारीरिक दृष्टि से पक्षियों जितनी समर्थ भी नहीं होतीं जहाँ कहीं फूल नहीं होते वहाँ वे अपने शरीर में एकत्रित वसा का उपयोग करते हुए आगे बढ़ती है। प्राणिशास्त्रियों का कहना है कि उन दिनों उड़ान के समय इनमें सर्वाधिक शक्ति की मात्रा खपत होती है। लेकिन प्रकृति ने पता नहीं उन्हें कौन सी अजीब क्षमता प्रदान की है कि इन उड़ानों में ये तितलियाँ अपने शरीर के वजन के केवल एक प्रतिशत वजन की वसा का ही प्रतिघंटा उपयोग करती हैं, जबकि मक्खियों को स्टार्च वाले पदार्थों का 35 प्रतिशत भाग प्रति घंटा उपयोग करना पड़ता है। प्रकृति प्रदत्त इस अद्भुत क्षमता के आगे वैज्ञानिक भी नतमस्तक हैं।
प्रवासी पक्षी प्रति वर्ष उन्हीं स्थानों की ओर उड़ान भरते हैं जहाँ उनके लिए आहर-विहार की सुविधा है। नर पक्षी मादाओं से पूर्व किसी एकाँत सुविधापूर्ण स्थान की तलाश करते हैं और वहाँ अपना अधिकार जमाते हैं। अन्य पक्षी भी मर्यादाओं का पालन करने में सहयोग देते हैं। केवल मनुष्य ही है जो अमर्यादित व्यवहार करने पर उतारू होता है और खोखला होकर मर्यादाहीनता को तो एक शान समझा जाने लगा है। वह डार्विन की मान्यता समर्थन करते देखे जाते हैं जिसे देखकर सारस, हंस, कौआ जैसे आजीवन एक पति और पत्नीव्रतधारी पक्षी भी लजा जाते हैं फलतः स्वच्छंद और अमर्यादित यौनाचार के कारण यौन रोगों से शिकार होने वाले मनुष्यों की संख्या असाधारण रूप से बढ़ रही है।
परिवार केवल मनुष्य ही नहीं बसाते, पशु-पक्षियों में भी पारिवारिकता पायी जाती है। प्रणय, नृत्य शृंगार सज्जा, उनके नृत्य आदि देखते ही बनते हैं। प्राणिशास्त्रियों के अनुसार प्रकृति ने पक्षियों को उनके आकार-प्रकार के अनुरूप न्यूनतम 450 से लेकर अधिकतम 25216 तक पंख दिये हैं। आकार में सर्वाधिक छोटा पक्षी मधुमक्खी की तरह गुजारा करने वाला “हमिंग बर्ड” होता है जो चोंच से लेकर पूँछ तक मात्र साढ़े पाँच सेन्टीमीटर का ही होता है। जो ओस्ट्रिच अर्थात् शुतुरमुर्ग की तुलना में एक बटा एक लाखवें भाग के बराबर हुआ करता है और इसका आकार उसकी आँख जितना होता है पेन्गुइन जैसे उड़ान न भरने वाले पक्षियों को छोड़कर वजन में सबसे भारी गूँगा-”म्युटस्वान” होता है जिसका वजन 23 किलो ग्राम से भी अधिक होता है। प्रवासी पक्षियों की तरह “ईल” मछलियों जैसे कितने ही जलचर जीव भी इसी प्रकार लम्बे प्रवास प्रति वर्ष करते हैं। छोटे-छोटे जीव-जन्तु भी ऐसे प्रवास करते देखे गये हैं। इनमें से रंग-बिरंगी तितलियों के बड़े-बड़े झुँड का प्रवास देखना अति मनोहारी दृश्य होता है। कहा जा चुका है कि ये प्राणी आकार में छोटे होते हैं फिर भी बड़े-बड़े पक्षियों को अपनी क्षमता में पीछे छोड़ देते हैं। छोटी तितलियाँ “तीड़ो” के बारे में वैज्ञानिकों ने उल्लेख किया है कि सन् 1958 के अक्टूबर माह में इन छोटे-छोटे रंग बिरंगे जीवों से इथियोपिया में एक हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र भर गया था। इसी प्रकार नाइजीरिया में उनसे सूरज तक ढक गया था। इसी प्रजाति की तितलियाँ अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, दक्षिण चीन, फिलीपीन्स, श्रीलंका आदि देशों में पायी जाती हैं। इन तितलियों को भारत में सर्व प्रथम देखे जाने की घटना सन् 1902 की है। सुप्रसिद्ध कीट विज्ञानी सी.बी. विलियम्स ने इनके दक्षिण किया है। ये जीवनधारी एक देश से दूसरे देश को प्रवास तो करते ही हैं, एक ही देश के प्रान्तों में भी बड़ी संख्या में इन्हें प्रवास करते देखा जाता है। “फौना ऑफ ब्रिटिश इण्डिया” नामक ग्रंथ में जी. तालबोट ने लिखा है कि कुछ तितलियों को भीगी ऋतु अधिक प्रिय होती है, तो कुछ सितम्बर-अक्टूबर जैसे उतार-चढ़ाव वाले मौसम से घबराती और उत्तर भारत से दक्षिण भारत में जलवायु की ओर दीर्घकाल प्रवास पर निकल जाती हैं। जब दखिण भारत में स्थिति अधिक अनुकूल होती है उस समय इनके झुँड के झुँड वहाँ जा बसते हैं और अपनी वंश वृद्धि करते हैं।
हंस और कौआ के सम्बन्ध में कितनी ही लोक गाथाएँ प्रचलित हैं। इनके वार्तालाप को केवल मनोरंजन और गप्प माना जाता है, लेकिन जीवनशास्त्रियों के गहन अध्ययन से अब यह सिद्ध हो गया है कि यह ‘विहेविअरल साइन्स’ को अलंकारिक भाषा समझ सकते हैं। एक अन्य कथानक में पक्षियों को बहुत चालाक बताया गया है। उसके अनुसार ‘कपिल’ नामक एक हंस अपने साथियों के साथ सुदूर देशों के प्रवास के लिए चला था। रास्ते में “उपद्रवी” नामक कौवे से भेंट हो गयी। वह अकारण ही कहने लगा कि तुम लोग यदि लम्बे प्रवास की श्रेष्ठता का अभिमान करते हो तो चला हमारी तुम्हारी प्रतिद्वन्द्विता हो जाय। हंसों के कुछ उत्तर न देने पर भी उपद्रवी बगल में उड़ने लगा। अभी कुछ ही दूर उड़ा होगा कि कौवे के पंख ढीले पड़ गये। अपने ही कृत्य पर उसकी आँखें डबडबा आयीं। हंसों में से एक ने से अपनी पीठ पर बिठा लिया और उसको गंतव्य स्थान तक पहुँचा दिया। इस घटना से प्राचीन लोगों की यह मान्यता ही सत्यापित होती है कि हंस सरल और निष्कपट होता है, जबकि कौआ चालाक और कपटी हुआ करता है। इतने पर भी वह अपनी बिरादरी का बहुत हितैषी होता है। पक्षी विशेषज्ञों का कहना है कि आहार देखकर कौआ कभी अकेला उसे नहीं खायेगा। वरन् सभी साथियों को पहले बुलाएगा और तब खायेगा। जब किसी कौए की मृत्यु हो जाती है तो सारी बिरादरी एकत्रित हुए बिना नहीं रहती। मृतक के प्रति इतना गहरा शोक प्रदर्शित करने में मनुष्य भी पीछे छूट जाता है।
अपने मस्तिष्कीय क्षमता और हस्तकौशल से विभिन्न प्रकार के यंत्र उपकरण या औजार बना लेने पर यदि मनुष्य अपने को बुद्धिमान तथा सृष्टि के इतर प्राणियों को बुद्धिहीन माने तो यह उसकी वज्र मूर्खता ही कही जायगी। इतनी प्रगति कर लेने पर भी वह वह एक छोटी सी चिड़िया “बया” की कुशलता तक को प्राप्त नहीं कर सका है। बया पक्षी अपने घोंसले के लिए प्रसिद्ध है। इसी तरह ओवन पक्षी-जिसे कुम्हार पक्षी भी कहा जाता है, अपनी चोंच से घड़े जैसा मिट्टी का गोल घोंसला बना लेता है। बुद्धिमत्ता से मिश्र में पाया जाने वाला गिद्ध जाति का पक्षी सबसे आगे है। यह पक्षी शुतुरमुर्ग के अंडों का बहुत शौकीन है। लेकिन इसके अण्डे का कवच इतना कठोर होता है कि उसकी चोंच तो टूट जाती है, पर कवच नहीं टूटता। अतः वह अपनी चोंच में एक पत्थर लेकर उसे इस प्रकार से अण्डे पर दे मारता है कि अण्डा फूट जाता है। कठफोड़वा पक्षी तो अपनी चोंच से घड़े जैसा मिट्टी का गोल घोंसला बना लेता है। बुद्धिमत्ता में मिश्र में पाया जाने वाला गिद्ध जाति का पक्षी सबसे आगे है। यह पक्षी शुतुरमुर्ग के अण्डों का बहुत शौकीन है, लेकिन इस अण्डे का कवच इतना कठोर होता है कि उसकी चोंच तो टूट जाती है, पर कवच नहीं टूटता। अतः वह अपनी चोंच तो टूट जाती है, पर कवच नहीं टूटता। अतः वह अपनी चोंच में एक पत्थर लेकर उसे इस प्रकार से अण्डे पर दे मारता है कि अण्डा फूट जाता है। कठफोड़वा पक्षी तो अपनी चोंच से कुशल बढ़ई का काम कर लेता है। विकासवादी वैज्ञानिक डार्विन ने भी गलपगा द्वीप में “फ्लिन्थ” नाम एक बुद्धिमान प्राणी का वर्णन किया है जो दरारों में छिपे हुए कीड़ों को निकलने के लिए लकड़ी की टहनियों का उपयोग करता था। अमेरिका में कुछ गिलहरियां ऐसी भी पायी जाती हैं जो पेड़ों पर तो चढ़ ही लेती हैं अवसर आने पर आकाश में भी उड़ लेती हैं मलाया आदि देशों में छिपकलियों एवं साँपों की कुछ प्रजातियाँ हवा में उड़ने के लिए विश्व विख्यात हैं। इसी तरह पेलमीक मछलियाँ भी आकाश में उड़ने के लिए प्रसिद्ध है। इतना ही नहीं, उड़ते समय वे स्थान विशेष पर ठहरना चाहें तो अपने पंखों को हवा में लहराते हुए ठहर भी जाती हैं। इतनी उन्नत किस्म की उड़ान भरने वाले विमान तो अभी मनुष्य ने भी नहीं बनाये हैं।
जन्तु जगत में सांप को सर्वाधिक जहरीला प्राणी माना जाता है तो पदार्थों में पोटेशियम साइनाइड को, किन्तु जापान में पाई जाने वाली “फ्युग” मछली का विष पोटेशियम सायनाइड से भी 245 गुना अधिक तेज होता है। पिछले दस वर्षों में अकेले जापान में इसे खाने से 200 से अधिक लोग मर चुके हैं। इसकी विशेषता यह है कि जब भी इसे खतरे का आभास होता है वह अपनी फोम जैसी पारदर्शी त्वचा में हवा और पानी भरकर एकदम बड़ी गेंद या फुटबाल जैसी आकृति बना लेती है। खतरा टलने का आभास मिल मिलते ही हवा और पानी को बाहर निकाल देती और फिर से सामान्य आकार ग्रहण कर लेती है। गेंदनुमा आकार वाली इस मछली का स्पर्श कष्टप्रद मौत को आमंत्रण देता है। स्पर्श करने वाले के हाथ पैर सुन्न हो जाते हैं। उसके सोचने की क्षमता तो पूर्ववत् रहती है पर वह व्यक्ति बोल नहीं पाता। जापान का शिमोनेस्की नगर तो फ्युग नगर के नाम से ही जाना जाता है जहाँ इन मछलियों की खरीद फरोख्त होती है। यहाँ के बहुत से सार्वजनिक उद्यानों फ्युग मछलियों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इसी तरह मिश्र में ईसा से 2700 वर्ष पूर्व के राजाओं के मकबरे पर भी इन मछलियों के चित्र मिलते हैं। मनुष्येत्तर प्राणियों की यह विशेषताएं बताती हैं कि स्रष्टा ने छोटे-छोटे इन प्राणियों को जो विशेषताएं दी हैं, उनकी तुलना में मनुष्य अभी भी पिछड़ा हुआ है। यह पक्षपात का नहीं, वरन् ईश्वर की न्यायप्रियता का द्योतक है।