अपने आज के विकास पर गुमान क्यों है मानव को ?

March 1996

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मनुष्य ने भौतिक क्षेत्र में अब इतनी प्रगति कर ली है कि सौर मंडल के समीप एवं दूरवर्ती ग्रहों तक उसके मानव रहित यान पहुँच चुके है। मनुष्य का किन्हीं अदृश्य लोकों तक पहुँच चुके हैं। मनुष्य का किन्हीं अदृश्य लोकों तक पहुँचना और लोक- लोकान्तरों के बुद्धिमान प्राणियों का मानव सभ्यता के साथ संपर्क बनाने के लिए दौड़ लगाना आश्चर्यजनक तो लगता है, पर सर्वथा अविश्वस्त भी नहीं है। समझा जा रहा है कि आगामी कुछ ही वर्षों में संभवतः इक्कीसवीं सदी के आरंभ में संभवतः इक्कीसवीं सदी के आरंभ में ही अपने सौरमंडल के अतिरिक्त अन्य ग्रह-गोलकों की सभ्यता का सरलतापूर्वक पता लगाया जा सकेगा। इस संदर्भ में पिछले दिनों फ्राँस के टोलोज शहर में अन्तरिक्ष विज्ञानियों का एक सम्मेलन भी हुआ था जिसमें विश्व भर के लगभग साढ़े तेरह हजार मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने भाग लिया था। उद्देश्य था-”एस. ई. टी. आई.”- ‘सर्च फॉर एक्स्ट्रा टेरिस्ट्रियल इन्टेलिजेन्ट लाइफ’। उनका निष्कर्ष है कि कहीं न कहीं अंतर्ग्रही सभ्यता सभ्यता विद्यमान एवं तकनीकी जानकारी धरती के निवासियों से भी काफी पीछे है।

जीव विकास के नवीनतम सिद्धान्तों के प्रतिपादन कर्ताओं के मतानुसार मानवी सत्ता किसी अन्य लोक से आई है। अन्य लोकवासी भी अपनी उत्सुकता को मनुष्यों की तरह रोक नहीं पा रहे हैं और यहाँ की अधिक खोज-खबर लेकर तद्नुरूप अधिक सघन संपर्क बनाने की कोई योजना तैयार कर रहे हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण संसार भर में उड़न तश्तरियों के अस्तित्व सम्बन्धी जहाँ-तहाँ मिलने वाली घटनायें हैं। सुप्रसिद्ध विज्ञान वेत्ता एरिकवान डेनिकन ने अपने जीवन का अधिकतर भाग इसी खोज में बिताया है। प्रागैतिहासिक काल में धरती पर किसी अन्य लोक से आयी सभ्यता के अवशेषों को वे संग्रहित करते रहे हैं। अपनी प्रसिद्ध कृति-”चैरियट आफ गाड्स” में उनने एक चित्र प्रकाशित किया है जिसमें एक उड़नतश्तरी के निचले भाग से ज्वालायें निकलती हुई दिखा गया है। वस्तुतः ये चित्र किसी फोटोग्राफर के लिए हुए नहीं है, वरन् हजारों वर्ष पूर्व अफ्रीका में सोलेदाद की गुफाओं में वे चित्रित पाये गये हैं। अनेकानेक खोज कर्ताओं ने भी इस बात की पुष्टि की है।

इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध जीवशास्त्री जे. मेसन वेलेन्टाइन ने गहन खोजबीन की है। उनका कहना है कि इस प्रकार के चित्रों में काफी समानता है। इतना ही नहीं फ्राँस, उत्तरी अफ्रीका, आस्ट्रेलिया के सहारा एवं बाजा की गुफाओं में तो इन देवों के विमानों से उतरने वाले अन्तरिक्ष यात्रियों के चित्र भी पाये गये हैं। इन चित्रों में अन्तरिक्ष यात्री अपने सिर पर ऐसे टोप पहन हुए हैं जिनमें ऐन्टिना के आकार के चित्र पाये जाते हैं। इतना ही नहीं इन तैल चित्रों के पास साँकेतिक भाषा में कुछ शब्द भी खुदे हुए हैं जो अति प्राचीन काल की भाषा बताई जाती है। इन्हीं गुफाओं में एक एक गुफा की छत पर करीब 25-30 फीट की ऊँचाई पर एक तैल चित्र बना हुआ है जिसका आधा भाग काले रंग का और आधा भाग लाल रंग का है। उनके उठाते हुए हाथ मानो किसी का अभिवादन कर रहे हैं। ऐन्टिनायुक्त टोपियाँ अन्तरिक्ष यान से संदेश ग्रहण करने की ओर इशारा करती है। अन्य स्थानों में पायी जाने वाली प्राचीन गुफायें-जैसे कि दक्षिण आस्ट्रेलिया के केपयोर्क में भी ऐसे भित्ति चित्र पाये गये हैं। वैज्ञानिकों की धारणा है कि इस तरह के तैल चित्रों में ऐन्टिनायुक्त हेडड्रेस का चित्रण यह इंगित करता है कि मानवी सभ्यता किसी अन्य लोक से आई हुई है। इस तथ्य की पुष्टि जीव विज्ञानी भी करने लगे हैं।

इस सम्बन्ध में अमेरिका के ख्यातिलब्ध आरचियोलॉजिस्ट श्री करटीज शाफमान का कहना है कि आस्ट्रेलिया, अफ्रीका एवं दक्षिण अमेरिका की गुफाओं में जिनने भी ये भित्ति-चित्र बनाये होंगे, निश्चय ही उनका अदृश्य लोकोत्तर वासियों से सम्बन्ध स्थापित करना रहा होगा। उनके अनुसार सबसे बड़ी आश्चर्य की बात तो यह है कि सभी गुफाओं के चित्र हूबहू एक जैसे हैं जो यह बताते हैं कि इन जगहों में निवास करने या ठहरने वाले प्राणी किसी एक खास सभ्यता से सम्बन्धित रहे होंगे या फिर उनमें दूर संवेदन जैसी अतीन्द्रिय क्षमतायें विकसित रही होंगी। इस रहस्यात्मक तथ्य पर गहरी छान-बीन करने पर जो निष्कर्ष सामने आये हैं उसके अनुसार आस्ट्रेलिया के ताँत्रिक आज भी एक निश्चित समय पर जिसे “ड्रीमटाइम” कहते हैं, उस समय न केवल वे ीत एवं वर्तमान काल में कहीं पर भी घटित घटनाओं की झाँकी भी देख सकते हैं। अमेरिका के ही नृतत्त्ववेत्ताओं का कहना है कि दक्षिण अमेरिका के कुछ आदि निवासी इसी प्रकार ‘ड्रीम टाइम’ के माध्यम से भविष्य कथन करते हैं जो एक दम सही पाया जाता है।

‘स्ट्रेन्ज हैपनिंग्स” नामक अपनी कृति में पाँल बैमिस्टर ने इस तरह की अनेक आश्चर्यजनक घटनाओं एवं रचनाओं का वर्णन किया है जो यह बताती है कि धरती पर सभ्यता का अवतरण किसी अन्य ग्रह या देव लोक से हुआ है। दक्षिण अमेरिका के ‘जेसुआईट’ नामक आदि निवासियों ने अपने रिकार्डों में इस तथ्य का उल्लेख किया है कि प्राचीन समय के निवासियों में एक जाति जिन्हें “पान्जिनास” कहते थे, वे एक ऐसे धर्म का पालन करते थे जो आसमान से आये देवताओं की पूजा करते थे। इस प्रकार की धारणा के अतिरिक्त एक अन्य मान्यता भी इस प्रकार की है कि प्रागैतिहासिक काल में पृथ्वी सात महाद्वीपों में बंटी हुई थी। इसमें भारत को “जम्बू द्वीप” नाम दिया गया था। जर्मन के प्रख्यात मौसम विज्ञजन आलफ्रेड वेगनर ने भी सन् 1914 में सप्त महाद्वीपों की धारणा की पुष्टि की थी और एक नक्शा भी बनाया था जिसमें सर्वप्रथम दो बड़े खण्डों में पृथ्वी दिखाई गयी जिसे लोरेशिया एवं गोन्डवाना लैण्ड नाम दिया गया था। लोरेशिया के पश्चिम में उत्तरी अमेरिका एवं पूर्व में योरोप और एशिया को दर्शाया गया है, जबकि गोन्डवाना लैण्ड के पाँच भाग इस तरह बताये गये हैं (1) पश्चिम में दक्षिण अमेरिका (2) अफ्रीका (3) अंटार्टिका (4) दक्षिण भारत और (5) आस्ट्रेलिया। सन् 1960 तक यह धारणा हास्यास्पद मानी जाती रही, लेकिन आधुनिक टोपोग्राफी एवं भी रचना के आधार पर वेगनेर की धारणा को आधारभूत माना जाने लगा है। इस आधार पर दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका का भू-भौगोलिक आकार आज भी ऐसा है जो यदि सिमट कर नजदीक आ जाय तो एक इकाई से अलग हुए दो टुकड़े आपस में स्पष्ट रूप से ऐक्य प्रदर्शित करेंगे। इसी तरह अंटार्टिका, दक्षिण भारत का तिकोना प्रदेश और आस्ट्रेलिया की भी एकरूपता स्पष्ट दिखाई देगी।

रामायण में रावण की पत्नी मंदोदरी को मयासुर की पुत्री बताया गया है। मयासुर काल में अति विकसित सभ्यता का नाम ही मय संस्कृति या मय सभ्यता पड़ गया था। दक्षिण अमेरिका में आज भी इस सभ्यता के भग्नावशेष बहुत अधिक संख्या में विद्यमान हैं। इसी तरह मध्य अमेरिका में “इन्का” संस्कृति के अनेकों स्थापत्य एवं सैकड़ों मील लम्बी सुरंगें खोज निकाली गयी हैं। एरिकवान डेनीकन ने अपनी पुस्तक ‘गोल्ड आफ गाड्स’ में कुछ ऐसी ही सुरंगों का उल्लेख किया है जो दक्षिण अमेरिका में स्थित हैं और हजारों मील लम्बी हैं। ये सुरंगें कहाँ से कहाँ तक गयी हैं इसका कोई पता नहीं लगाया जा सका है। कारण देखने में ये जितनी सुँदर हैं अन्दर जाने पर उतनी ही भयावनी लगती हैं। पेरु स्थित इन सुरंगों में कितनी ही बार खोजी दल अंदर जा चुके हैं, पर इनके अन्त का पता नहीं लगा पाये और न ही यह जान पाये कि इनके बनाने का ध्येय क्या था ? इन सुरंगों का निर्माण किन उद्देश्यों को लेकर किया गया, यह तो नहीं जाना जा सका, पर उसकी विचित्रता का अवलोकन करने का अवसर अवश्य इन खोजी दलों का मिला। देखा गया है कि हजारों मील लम्बी इन सुरंगों के नीचे 250 से लेकर 500 फीट नीचे भी दोहरी-तिहरी अंतरंग सुरंगें विद्यमान है। ऊपरी सुरंगों के बीच-बीच में भी कई बाहरी द्वार देखे गये हैं।

खोजकर्ताओं के अनुसार इन इन सुरंगों की दीवारों पर विभिन्न रंगों में अलग-अलग चित्र बने हुए हैं। पत्थरों पर खोदे गये अथवा धातुओं की प्लेटों से विनिर्मित इन चित्रों का निर्माण किन्हीं उद्देश्यपूर्ण प्रयोजनों के लिए किया गया है। डेनिकन का कहना है कि धातु प्लेटों पर इतने संकेत लिखे हुए हैं कि सुरंग की अभी जितनी यात्रा की जा सकी है, उस भाग के संकेतों को ही यदि संकलित किया जाय तो एक विशाल लाइब्रेरी बन सकती है। उनके अनुसार उन सुरंगों में प्रवेश करने वालों का सबसे बड़ा आश्चर्यजनक अनुभव यह रहा कि सिर पर हेलमेट में लगी प्रकाश बैटरियाँ सुरंग में घुसते ही बुझ जाती थीं। किसी एक-दो व्यक्तियों की ही नहीं, वरन् सभी खोजकर्ताओं की बैटरियाँ खराब हो गयी थीं। फोटोग्राफी के लिए ले जाये गये कैमरे जैसे उपकरण भी उस जगह अपना काम बंद कर देते थे। इसका कारण उन सुरंगों के भीतर सतत् होते रहने वाली विकिरण प्रक्रिया को माना गया है जिसकी वजह से न तो वहाँ कोई वैद्युतीय यंत्र-उपकरण।

इन विचित्र सुरंगों को किन्हीं सामान्य मनुष्यों ने बनाया होगा, यह नहीं कहा जा सकता। कारण ये सुरंग नहीं, वरन् एक तरह के राजप्रासाद या अनुसंधानशाला से लगते हैं। सुरंगों के बगल में कहीं-कहीं कमरे नुमा गैलरियाँ बनी हुई हैं तो कहीं-कहीं बहुत बड़े कमरे एवं हॉल भी हैं। ऐसे ही एक हॉल की लम्बाई 183 गज एवं चौड़ाई 164 गज है। इन कमरों का क्या उपयोग होता होगा, यह अभी तक नहीं जाना जा सका है। इन बड़े हॉलों में 12-13 हजार व्यक्ति आसानी से बैठ सकते हैं। ऐसे ही एक हॉल में विद्वान लेखक एरिकवान डेनिकन ने अपनी यात्रा के समय एक नर-कंकाल पड़ा देखा था। उस कमरे में प्रकाश की कोई व्यवस्था न होने पर भी कमरे में अंधकार नहीं था। नर-कंकाल इस ढंग से रखा हुआ था जैसे किसी मेडिकल कालेज की प्रयोगशाला में छात्रों के अध्ययन के लिए रखा जाता है। कुछ कमरों में पत्थरों से बनी मेज कुर्सियाँ भी देखी गयीं। देखने पर तो वह सनमाइका की तरह चिकनी और चमकदार लगती थी, पर उठाने पर पत्थर या पत्थर जैसी किसी धातु की बनी प्रतीत होती थी। कुर्सियों के पीछे दीवारों पर कई तरह के प्राणियों के चित्र बन हुए थे जो देखने पर सुन्दर और सजीव मालूम पड़ते थे। एक हॉल में तो सोने, चाँदी, पीतल आदि धातुओं के करीब ढाई से तीन हजार तक पत्तरें देखी गयीं जिनकी मोटाई लगभग एक मिली मीटर थी। ये पत्तरें 32 इंच लम्बे एवं 19 इंच चौड़े थे। एक ही साइज में बने, कटे इन पत्तरों पर प्राचीन भाषा में कुछ लिखा हुआ था। इस प्रकार की लिपि अभी तक संसार में खोजी नहीं जा सकी हैं।

किन्हीं-किन्हीं पत्तरों पर गोलाकार पृथ्वी पर खड़ी मानव आकृतियाँ भी चित्रित की गयीं थीं। अभी तक जो भी इतिहास उपलब्ध है, लगता है उनका निर्माण इससे पहले हुआ हो और इसके बाद की कड़ी लुप्त हो गयी हो जिससे इन सुरंगों का उपयोग और उद्देश्य अभी तक नहीं ज्ञात हो सका।

संसार में एक बढ़कर एक आश्चर्य भरे पड़े हैं और उसका निर्माण उस युग में हो चुका है जिसे हम समझते हैं कि तब लोग गुफाओं में रहते थे और पशुओं का सा जीवन जीते थे। पिछड़े और अविकसित लोग हर युग में हर समाज में रहते हैं, पर उनके आधार पर तत्कालीन समाज व सभ्यता का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। अब जब कि अति प्राचीन काल में विनिर्मित विभिन्न स्थापत्य एवं सुरंगों के ऐसे विस्मयकारी अवशेष प्राप्त होते रहे हैं, तो हमें सृष्टि का सर्वाधिक विकसित, उन्नत और बुद्धिमान मनुष्य होने की घोषणा करना तथा स्वयं ही उसकी प्रसन्नता मना लेना अपने आपको धोखा देने अथवा मिथ्या आडम्बर ओढ़ने के सिवा और कुछ नहीं है।


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