जहाँ आज की तुलना में पूर्वकाल में साधनों का इतना बाहुल्य नहीं था वहाँ तब इस संसार में इतने दुःखों, दोषों, द्वन्द्वों तथा द्वेषों के साथ रोग-शोक तथा सन्तापों का भी बाहुल्य नहीं था। आज जैसे अभाव असन्तोष, अल्पता, असहनीयता, अहंकार, अबोधता, असत्य अथवा शोषण, छल-कपट, छीना-झपटी, स्वार्थ एवं संकीर्णता का बोल-बाला पूर्वकाल में रहा है-इसके भी प्रमाण उपलब्ध नहीं होते। जीवन-साधनों की प्रचुरता के बीच भी मनुष्य का जीवन आज जितना अशांत एवं अभाव-ग्रस्त है, उतना पहले कभी नहीं रहा। साधनों की न्यूनता एवं अल्पता में भी लोग आज की अपेक्षा कहीं अधिक प्रसन्न, पुष्ट तथा सुखी थे।
इस विपर्य अथवा विरोधाभास का क्या कारण हो सकता है ? इसका कारण हो सकता है ? इसका कारण यही है कि मनुष्य ज्यों-ज्यों भौतिकता को प्रमुखता देकर बाह्य साधनों की दासता स्वीकार करता गया है, त्यों-त्यों उसका मानसिक पतन होता चला गया है, वह सहज मानवीय गुणों से रिक्त होकर मशीन बनता चला गया है। वह प्रेम, सौहार्द तथा मानसिक पुनीतताओं के प्रति निरपेक्ष होकर संकीर्ण एवं स्वार्थी, लोभी तथा लोलुप बन गया है। इस प्रकार की दूषित मनःस्थिति में सुख, सन्तोष तथा हँसी-खुशी की सम्भावना हो भी किस प्रकार सकती है ? आज जहाँ एक ओर राजनीतिक, सामाजिक शैक्षणिक, सामयिक तथा औद्योगिक प्रगति की ओर शक्तियों तथा साधनों को केन्द्रित किया जा रहा है, वहाँ मानसिक क्षेत्र की सर्वथा उपेक्षा की जा रही है। मानसिक विकास, मनोन्नति अथवा हार्दिक पवित्रता की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। आधिभौतिक तथा औद्योगिक अथवा आर्थिक योजनाओं को जितना महत्व दिया जा रहा है, यदि उसका कुछ अंश मनोविकास की ओर, मनोभूमि को शुद्ध तथा समतल बनाने की ओर दिया जाने लगे तो कोई कारण नहीं कि रोग-भोग और शोक संतापों की समस्या दूर तक हल न हो जाये।
जीवन की वास्तविकता प्रसन्नता तथा हंसी-खुशी के के लिए जाने वाले बाह्य उद्योगों के साथ-साथ यदि मानसिक विकास की योजना का गठबन्धन कर दिया जाये तो आज के सारे साधन मनुष्य की प्रसन्नता बढ़ाने में चार-चाँद की भूमिका प्रस्तुत करने लगें। अन्यथा यह बढ़े हुये भौतिक साधन लोभ, लालच, तृष्णा और आवश्यकताओं की वृद्धि करने के अतिरिक्त मनुष्य जिस प्रकार आज, उसी प्रकार आगे भी इनकी चमक-दमक में प्रसन्नता पाने के लिये इनके पीछे उसी प्रकार पागल होकर भागता रहेगा जिस प्रकार कस्तूरी मृग-नाभि में ही तत्व होने पर भी वन के वृक्ष, लता, द्रुम तथा तृणों को सूँघता फिरता है और अपने इसी भ्रम में व्यस्त रहकर जीवन को यातना के रूप में बदल लेता है। भौतिक विकास के साथ-साथ जब तक मानसिक विकास की योजना नियोजित नहीं की जायेगी, मनुष्य के लिये वास्तविक प्रसन्नता पा सकना सम्भव नहीं। साधनों की एकाँगी बढ़ोत्तरी मनुष्य को अधिकाधिक आलसी, प्रमादी, अकर्मण्य, ईर्ष्यालु तथा स्वार्थी बनाने के साथ-साथ अतृप्त एवं तृष्णाकुल बना देगी। साधनों के साथ-साथ मनुष्य की कामनाएँ तथा मनुष्य की कामनाएँ तथा आवश्यकताएं बढ़ेंगी, जिनकी पूर्ति सम्भव नहीं और तब ऐसी दशा में उसका क्षुब्ध एवं असंतुष्ट रहना स्वाभाविक ही है। मानसिक अरोग्य नष्ट हो जाने पर भूमि से लेकर स्वर्ग तक के साधन मनुष्य को हंसी, खुशी देने में कृतकृत्य न हो सकेंगे। साधनों से आवश्यकताओं की संतुष्टि नहीं, वृद्धि होती है, तभी मनुष्य को वह प्रसन्नता वह हँसी-खुशी नसीब हो सकती है, जिसकी उसे खोज है और जिसे पाने के लिये उसने इतने साधन इकट्ठे कर रखे हैं।
जिसने अपने अभ्यास एवं प्रयास से मानसिक स्वास्थ्य एवं विकास की ओर प्रगति कर ली है, उसकी स्थिति में साधनों का होना न होना कोई भी महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत नहीं कर सकते। मानो स्वास्थ्य सम्पन्न व्यक्ति के लिये साधनों अथवा सहारों की अपेक्षा नहीं होती। उसकी मनोजन्य हंसी-खुशी उसके जीवन में चाँदनी की तरह प्रकाश एवं शीतलता बिछाये ही रहती है। जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं और रहन-सहन के कतिपय साध नहीं उसको स्वर्गीय सुख देने के लिये पर्याप्त होते हैं। बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें, ऊँची-ऊँची कोठियाँ, मोटर, जहाज और हवाई जहाज और हवाई जहाज उसके लिये कोई महत्व नहीं रखते। वह बैंक की ओर तृष्णा भरी आँखों से नहीं देखता, उस आत्म तुष्ट योगी और मानसिक महारथी को न तो अभाव सताता है और न साधन ललचाते हैं। उसका अपेक्षित वैभव उसके स्वस्थ मानस में प्रसन्नता बनकर यों ही बिना किसी हेतु के जगमगाते रहते हैं। जो वस्तु, जो सम्पदा और जो वैभव हमारी एक मनोवृत्ति पर निर्भर है, जिसका निवास हमारे भीतर है और जिसको हम बिना साधनों के अनायास ही पा सकते हैं, उसके लिये आकाश-पाताल के कुलावे मिलाते रहना, साधनों और सुविधाओं के लिए मिमियाते रहना अथवा उनके लिये जीवन का दाँव हार बैठना बुद्धिमानी की बात नहीं कही जा सकती। अपनी समस्याओं का समाधान साधनों में नहीं, अपने अन्दर खोजिये, अपने मानसिक स्वास्थ्य में अन्वेषण कीजिये। वह वहीं है और आप अवश्य प्राप्त कर लेंगे।
अनेक ऐसे लोग भी होते हैं जो वास्तविक प्रसन्नता का निवास सांसारिक साधनों में तो नहीं मानते किन्तु यह अवश्य मानते हैं कि इस संसार से अलग कोई एक ऐसा स्थान अवश्य है, जहाँ पर मनुष्य जीवन की सफलता एवं प्रसन्नता के भण्डार भरे पड़े हैं- और वह स्थान है ‘स्वर्ग’। किसी प्रकार यदि स्वर्ग को प्राप्त कर लिया जावे तो वास्तविक प्रसन्नता, सुख एवं सौख्य अनायास ही सदा सर्वदा को मिल जायेगा। तब न तो कुछ करना होगा और न संघर्ष की आवश्यकता पड़ेगी, नितान्त निष्क्रिय रूप से वे यों ही बैठे-बैठे सब प्रकार के आनन्दों का भोग करते रहेंगे। अपनी इस धारणा के आधार पर वे संसार से ही रूठ बैठते हैं और अँधेरे में तीर चलाने की तरह एक अनदेखे तथा अनजाने स्वर्ग का अन्वेषण किया करते हैं। मनुष्य की यह धारणा भी बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कही जा सकती। उनका सारा जीवन और सारी शक्तियां यों ही किसी काल्पनिक स्वर्ग की खोज में नष्ट हो जाती हैं, किन्तु हाथ कुछ भी नहीं लगता। तब अन्त में उन्हें पश्चाताप के साथ अपनी भूल पर खेद करते हुये महाप्रयाण करना पड़ता है।
अच्छा हो यदि मनुष्य अपने मस्तिष्क से इस धारणा का निर्वासित कर दे कि संसार के बाहर स्वर्ग नाम का कोई ऐसा स्थान, लोक अथवा क्षेत्र है, जिसको प्राप्त कर लेने पर उसकी स्थायी प्रसन्नता की समस्या सदा-सर्वदा के लिये हल हो जायेगी। स्वर्ग इस संसार से बाहर अन्यत्र कहीं नहीं है, वह यहीं इसी संसार में आप के मनोमन्दिर में विराजमान् है। उसे कभी भी अपने वाँछित प्रयत्नों से बाहर प्रतिबिम्बित किया जा सकता है। जहाँ प्रेम, पवित्रता, सदाशयता, सहयोग, त्याग एवं उदारता का वातावरण मौजूद है, वहाँ स्वर्ग नहीं तो और क्या है ? जिसका हृदय में असन्तोष, ईर्ष्या-द्वेष, पाप एवं पश्चाताप की चिताएं जल रही हैं, वासनाओं तथा वितृष्णाओं का धुंआधार हो रहा है, आँखों पर भौतिकता की चमक चढ़ी हुई, साधनों लोभ भरा हुआ है तो हम उस सार्वत्रिक स्वर्ग को कैसे तो अनुभव कर सकते हैं और किस प्रकार देख सकते हैं। अपने मानसिक मलों को दूर करिये, दृष्टि पथ से लोभ एवं स्वार्थ के अवरोधों को दूर करिये, अपने मस्तिष्क में दैवी भावनाओं की कृषि कीजिये, अपने चारित्रिक विकास से देवों की स्थिति प्राप्त करिये, अपने मस्तिष्क में दैवी भावनाओं की कृषि कीजिये, अपने चारित्रिक विकास से देवों की स्थिति प्राप्त करिये और तब देखिये कि स्वर्ग आप में और आप स्वर्ग में ही निवास कर रहे हैं। यहीं इसी संसार में आपकी समस्या का समाधान आपको हस्तगत हो गया है। न कहीं दूर जाने की आवश्यकता पड़ेगी और न संसार से रूठ कर विमुख होकर अपने को लजाने-सताने की आवश्यकता। निश्चय मानिये कि आप स्वर्ग में ही निवास कर रहे हैं। किन्तु आपके मनोविकारों, स्वार्थों और संकीर्णता ने उसके सुख सौंदर्य को उसी प्रकार निष्प्रभाव कर दिया है जिस प्रकार किसी भी सर्व सुन्दर कमरे को जूते की लगी हुई थोड़ी-सी गन्दगी अपावन एवं नारकीय बना देती है। शुद्धि एवं सात्विकता का विकास कीजिये और यथास्थान एवं स्थिति में स्वर्गीय सुख-शांति का प्रसाद पाइये।
यह भूल जाइये कि वास्तविक सुख-शांति का निवास भौतिक साधनों की प्रचुरता में है, किन्तु यह याद रखिये कि उसका निवास मानसिक उत्कर्ष में ही है कि अपनी मनोभूमि को अतिशयताओं के घास-फँस व कुश कंटक से आवृत्त न होने दीजिये। जो कुछ आपको प्राप्त है, उसमें संतुष्ट रहिये और अधिक पाने की चेष्टा करते रहिये, अतिकामनाओं अथवा अतिशयता के अभिशाप से अपनी रक्षा कीजिये, जीवन के प्रति रुचि संतोष और आस्था की भावना रखिये और अभाव के भाव को अपने निकट मत फटकने दीजिये। सभी के साथ प्रेम एवं सहानुभूति का व्यवहार कीजिये और श्रद्धापूर्वक अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुये जीवन यापन करिये और देखिये कि आपकी प्रसन्नता आपके पास विराजमान है।
वाङ्मय गुजराती-अंग्रेजी में वाङ्मय जो परम पूज्य गुरुदेव के जीवन का निचोड़ है, सत्तर खण्डों में प्रकाशित हो रहा है। हिन्दी में प्रकाशित इस वाङ्मय ने वर्ल्ड बुक फेयर से लेकर सारे भारतवर्ष में धूम मचा दी है। अब इसे तुरंत अंग्रेजी व गुजराती में अनूदित करना है। 40 खण्ड छपकर तैयार हैं। परिजनों में से या प्रोफेशनल अनुवादकों में से जो पाठकगणों के परिचित ऐसे सज्जन हैं जो भावानुवाद कर सकें तुरंत उनके नाम-पते टेलीफोन या फैक्स नंबर शांतिकुंज हरिद्वार के पते पर भेज दें। यह प्रकाशन एक वर्ष के अंदर ही अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा द्वारा किया जाएगा।