प्रज्ञा का अवलम्बन ही एकमात्र समाधान

March 1996

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विज्ञान चाहे माने या न माने पर दार्शनिकों-तत्वविद् आध्यात्मवेत्ताओं ने इसे करीब-करीब स्वीकार ही कर लिया है कि अब बुद्धि का चरमोत्कर्ष जा पहुँचा है। उनका कहना है कि अब यदि आगे भी मनुष्य बुद्धिवाद पर ही आश्रित रहा तो दुनिया का सर्वनाश सुनिश्चित है। इसलिए अनेक दार्शनिकों ने बुद्धि की बढ़ी कटु आलोचना की है। आरंभ में इस क्षेत्र में आलफ्रेड नार्थ हृइटहेड और महर्षि अरविन्द जैसे मनीषी थे। वे दोनों ही समकालीन थे। एक ने पाश्चात्य विचारधारा और दूसरे ने पूर्व की विचारधारा के माध्यम से बुद्धि के स्थान पर अंतः प्रज्ञा द्वारा रचनात्मक दर्शन का विकास किया। बाद में अन्य मनीषियों में मूर्धन्य दार्शनिक पास्कल और क्रिके गार्ड भी इस पंक्ति में आ खड़े हुए। इनने भी एक स्वर से यही कहा कि आज के बुद्धिवाद का एक मात्र विकल्प यही है कि व्यक्ति ईश्वर के उस स्वरूप पर विश्वास करे जिसकी शिक्षा वर्षों से आर्ष ग्रंथ देते रहे।

बुद्धिवाद ने - अकल ने आज जिस मोड़ पर लाकर मानव समाज को छोड़ा है, उसके चारों ओर गहरी खाई है और उसमें समूची सभ्यता के भरभराकर गिर पड़ने और अपने अस्तित्व को खो बैठने का खतरा है। इस स्थिति को देखते हुए दूरदर्शी विचारकों का चिन्तित होना स्वाभाविक है। इन एकाँगी प्रगति को देखते हुए दूरदर्शी विचारकों का चिन्तित होना स्वाभाविक है। इस एकाँगी प्रगति को देखते हुए फ्राँस के सुविख्यात दार्शनिक हैनरी वर्सो ने बुद्धि को अपंग बताया है। उनका मानना है कि अंतः प्रज्ञा स्तर की चेतना का विकास किये बिना मनुष्य की गति नहीं। इसे अधिक स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि मनुष्य जीवन धारा के साथ बहते हुए ईश्वर में समाहित हो जाय, यही उसकी अन्तिम नियति है। इसके अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं। इसी प्रकार अध्यात्मवेत्ता मार्टिन हैडेगर भी तर्कबुद्धि को पर्याप्त नहीं मानते। उनका मत है कि मात्र विचारणा कल्पना भर से हम सत्य की प्राप्ति नहीं कर सकते। सत्य को जान कर अपने जीवन में-गुण, कर्म, स्वभाव एवं चिन्तन, चरित्र, व्यवहार में उतारना पड़ेगा, उसकी अनुभूति करनी पड़ेगी, तभी वह सत्य सही अर्थों में सत्य कहलायेगा। समग्र मानव जाति के त्राण के लिए महर्षि अरविन्द के “नास्टिक बीइंग” अर्थात् अध्यात्मजीवी मनुष्य के साथ साथ अब “ओथोन्टिक बीइंग” अर्थात् प्रमाणिक मनुष्य के अवतरण की भी आवश्यकता है और यह कार्य दार्शनिक प्रज्ञा के जागरण से ही संभव है, कोरे बुद्धिवाद से नहीं।

मानव जाति के बौद्धिक इतिहास के प्रारंभ से ही सिद्धान्त रचना दार्शनिकों तथा वैज्ञानिकों का मुख्य लक्ष्य रहा है। भारतीय दार्शनिक वैदिक काल से ही दार्शनिक चिन्तन में चरम शिखर पर थे। वैदिक ऋषि मंत्रद्रष्टा थे। बुद्धि के स्थान पर उनने प्रज्ञा को प्रमुखता दी थी। बुद्धि तो अन्वेषण करके कई प्रकार की सामग्री--”डाटा” का ढेर लगा देती है, पर उसके सदुपयोग का सुयोग उससे बहुत कम ही बैठ पाता है। उच्च स्तरीय वैज्ञानिक भी अन्तः प्रज्ञा के बल पर इन डाटाओं में से सिद्धान्तों की रचना करते हैं, केवल बुद्धि के बल पर नहीं। अध्यात्म क्षेत्र में प्राचीन काल में ऐसे अन्वेषणों की दो श्रेणियाँ थीं-ऋषि और मुनि। जहाँ मुनि प्रत्यक्ष साधनों का प्रयोग करने की स्वतंत्र क्षमता रखते थे, वहाँ ऋषि के लिए यह अनिवार्य नहीं था। वे अपने आत्मबल से सूक्ष्म रूप में भी वातावरण को आन्दोलित करते और उसे सुसंस्कारित बनाये रखने सक्षम थे। वैज्ञानिक और ऋषि-मुनियों के बीच की एक और श्रेणी है जिन्हें मनीषी शब्द का अर्थ प्रायः उस महाप्राज्ञ से लिया जाता है, जिसका मन उसके मन हो। जो मन से नहीं संचालित होता, वरन् अपने विचारों द्वारा मन का संचालित करता है, उसे मनीषी कहते हैं। इस संसार में बुद्धिमान तो अनेकों हैं और एक से बढ़कर एक हैं, किन्तु वे पवित्र हो, यह अनिवार्य नहीं। आज अन्वेषक, प्रतिभाशाली वैज्ञानिक एवं दार्शनिक तो अनेकानेक हैं और देश-देशांतरों में फैले पड़े हैं, लेकिन मनीषी कहीं चिराग लेकर ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलते। पिछली दिनों ऐसे दार्शनिक स्वामी विवेकानन्द, योगिराज अरविन्द, महर्षि रमण आदि हुए थे जिन्होंने तप शक्ति द्वारा अन्तः शोधन करके पवित्रता भी अर्जित की थी और प्रज्ञा भी।

आज की विषम परिस्थितियों में बुद्धि, वैभव और विनाश के झूले में झूल रही मानव जाति को उबारने के लिए आस्थाओं के मर्मस्थल तक पहुँचना होगा। मानवी गरिमा को उभारने और दूरदर्शी विवेकशीलता को जगाने वाला प्रचण्ड पुरुषार्थ करना होगा। इसके लिए प्रज्ञावान ऋषि-मनीषियों, दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों की नयी पीढ़ी का सृजन अनिवार्य है जो उक्त आवश्यकता की पूर्ति कर सके। मन का परिष्कृत पक्ष है बुद्धि। तत्वदर्शी बुद्धि से भी एक परत को समझते हैं और उसे प्रज्ञा नाम देते हैं। यह अंतःकरण चतुष्टय अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से ऊँची और अंतःकरण दिव्य चेतना के समीप है। विश्व की उलझी हुई समस्याओं-अड़चनों को सुलझाने-समाधान प्रस्तुत करने में तत्वदर्शी प्रज्ञा की शक्ति का प्रयोग आवश्यक मानते हैं। उनका कथन है कि मानव में देवत्व का उदय एवं धरती पर स्वर्ग का अवतरण इसी आधार पर संभव है कि प्रज्ञा को उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों में अवतरित किया और उसे प्रखर-प्रचंड किया जाय। मानवी चेतना को मन, बुद्धि तक सीमित न रहने देकर प्रज्ञा के स्तर तक विकसित किया जाय उसे प्रज्ञावानों के साथ जोड़ दिया जो तो भी काम चल जायेगा।

योगीराज श्री अरविन्द ने उच्च मन, प्रकाशित मन एवं संबुद्ध मन की कल्पना इस रूप में की है कि मन शरीर की अपेक्षा आत्मा के अधिक निकट है। साधना के उच्च सोपान पर आरुढ़ होने पर वे यह जान गये थे कि अब आगे के आदमी का विकास मन और बुद्धि के बस की बात नहीं है, वरन् यह विकास इन धरातलों से ऊपर उठकर ही संभव है। अतः उनने अतिमानस का अनुसंधान किया। आज विज्ञान वेत्ता भी यह मानने लगे हैं कि मात्र बुद्धि के बल पर इस विश्व ब्रह्माण्ड का रहस्य जाना समझा नहीं जा सकता और न ही इससे मानवी गुत्थियों का समाधान ही निकाला जा सकता है।

मूर्धन्य दार्शनिक काल्डरवुड ने भी कुछ इसी प्रकार का मन्तव्य अपनी पुस्तक “इवोल्यूशन एण्ड मेन्स प्लेस इन नेचर” में प्रकट किया है। वे लिखते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि परिवेश की अपनी सीमाएं हैं और विकास की पूर्णता तभी संभव है जब इसके लिए आभ्यंतरिक प्रयास हो। तात्पर्य यह कि विकास का कार्यक्षेत्र अब शरीर एवं जड़ पदार्थ नहीं, वरन् चेतना है। मनुष्य को अब प्रकृति पर आश्रित न रहकर परिवेश की सीमाओं से बाहर निकलने के लिए अन्दर से जोर लगाना पड़ेगा। ईश्वर की साझेदारी को जीवन में महत्वपूर्ण स्थान देना होगा। ए. एन. ह्नाइटहेड एवं चार्ल्स हार्ट शोन जैसे विज्ञान वेत्ताओं ने इसे प्रक्रमम दर्शन नाम से सम्बोधित किया है। “दी प्रिन्सीपल आफ रिलेटिविटी” एवं “प्रिंसीपिया मैथमेटिका” नामक अपनी कृतियों में ह्नाइटहेड ने इस बात की खोज की है। इसमें बताया गया है कि भौतिकीय पदार्थ पड़ तत्व नहीं है, वरन् वह सतत् क्रियाशील घटनाओं से बना हुआ है। इन घटनाओं को परम तत्व की इकाइयाँ कहा जा सकता है। जिस समय वास्तविक सत्ताओं की सृष्टि ईश्वर से होती है, उस समय उसका दिक् और काल में संपर्क होता है, किन्तु जिस समय इन वास्तविक सत्ताओं का पुनरावशोषण ईश्वर में होता है उस समय वे दिक् और काल के संपर्कों से परे होती है। वे ईश्वर की अति वास्तविक सत्ता को स्वीकार करते हैं। ह्नाइटहेड की गणना विख्यात दार्शनिकों में की जाती है। उनने बुद्धि की अपेक्षा प्रज्ञा के विकास पर जोर दिया है। वे बुद्धि की चकाचौंध से ऊपर उठने के लिए गणितीय और वैज्ञानिक प्रत्यय के आधार पर जन मानस से अनुरोध करते हैं।

मनीषियों का कहना है कि आने वाली क्रान्ति परमाणु बमों एवं लौह आयुधों से नहीं, वरन् विचारों की काट विचारों से होगी। अभी तक जितनी मलीनता समाज में प्रविष्ट हुई है वह बुद्धिमानों माध्यम से हुई है। द्वेष, दुर्भाव, कलह, नस्लवाद, जातिवाद, प्राँतवाद, सम्प्रदायवाद, व्यापक नर संहार जैसे कार्यों में बुद्धिमानों ने ही अग्रणी भूमिका निभाई है। यदि वे सन्मार्गगामी होते, उनके अन्तःकरण पवित्र होते तो उन्होंने विधेयात्मक चिन्तन प्रवाह को जन्म दिया होता, सत्साहित्य रचा होता और ऐसे आन्दोलन चलाये होते जो जन मानस को उच्चस्तरीय बनाकर रख देते। आज के दुर्बल बुद्धिवाद को प्रज्ञा स्तर की उर्वरक की आवश्यकता है। अध्यात्म वेत्ता समय-समय पर इस जिम्मेदारी को अपने ऊपर लेते रहे हैं और लोकमानस में संव्याप्त-भ्राँतियों से मानवता को उबारते रहे हैं। आध्यात्मिक शक्ति विज्ञान से भी बड़ी है। दर्शन या अध्यात्म ही व्यक्ति के अन्तराल में प्रविष्ट कर विकृतियों से लड़ सकने, उन्हें निरस्त कर सकने में सक्षम तत्वों की प्रतिस्थापना कर पाता है। प्राज्ञ पुरुष व्यक्तित्वों में पवित्रता व प्रखरता का समावेश करने के लिए मनीषा को अपना माध्यम बनाकर उज्ज्वल भविष्य के सपने देखते हैं। वातावरण को बदलने के लिए बुद्ध, गाँधी, योगिराज अरविन्द, रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण की तरह भूमिका निभाने वाले मुनि एवं ऋषि के युग्म की आवश्यकता है जो प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रयासों द्वारा विचार क्राँति का प्रयोजन पूरा कर सकें।

यह उक्त महामानवों की ही देन है कि उनने लोक सेवा के माध्यम से ईष्रानुीति को प्राप्त करना मनुष्य का चरम लक्ष्य बताया। उनने आध्यात्मिकता को उन्नति के शिखर पर लाने का अनवरत प्रयत्न किया। स्वामी विवेकानन्द जीवन भर भारतीय तत्वदर्शन और चिंतन की विविध धाराओं को समन्वित करने के लिए प्रयत्नशील रहे। वे समस्त संसार को अपने भारतीय ज्ञान परिधि में लेना चाहते थे। उनका कहना था कि हम किसी को अस्वीकार नहीं करते चाहे वह ईश्वरवादी हो या नास्तिक। हमारे धर्म में दीक्षित होने के लिए एक ही शर्त है- और वह है चारित्रिक गठन। वे तत्व चिंतन की अपेक्षा मानव कल्याण की संभावनाओं को खोजने पर बल देते थे और कहते थे कि दुख और पीड़ा-पतन से भरे इस संसार में बुद्धि की तरह उतर उन्हें दूर करने के लिए संघर्ष करो। ऐसा पुरुषार्थ अन्तः क्षेत्र की प्रचंड तप साधना से ही संभव हो सकता है। इसके बल पर दिव्य चेतना प्रकट हुआ करती है जो बुद्धि से परे की स्थिति है। यही प्रज्ञा है।

कहा जा चुका है कि विभिन्न वैज्ञानिक और दार्शनिक अब यह मानने लगे हैं कि मनुष्य की वर्तमान समस्याओं का समाधान बुद्धि से नहीं प्रज्ञा से ही संभव है। वे अब यह भी स्वीकारने लगे हैं कि मानवी सत्ता का उद्भव कोशिकाओं से नहीं दिव्य चेतना से हुआ है। योगिराज अरविन्द के अनुसार चेतना पदार्थ में पहले से ही सक्रिय अथवा निष्क्रिय अवस्था में विद्यमान थी, पर हो सकता है वह प्रच्छन्न रही हो। इसी प्रकार जीवन मन और यहाँ तक की इससे आगे की शक्तियां-जिनका अभी उद्घाटन होना बाकी है, सब उसी तत्व में छिपी पड़ी है। यदि आदिम द्रव्य जड़ होता तो उससे चेतन उत्पन्न होने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता। श्री अरविन्द का विकासवाद इसी उद्भावना पर आधारित है। प्रज्ञा को अपेक्षाकृत सरलतापूर्वक समझा और प्रयत्नपूर्वक जाग्रत एवं प्रयुक्त किया जा सकता है। प्रस्तुत दलदल में से निकाल कर समूची मनुष्य जाति को उज्ज्वल भविष्य की ओर ले जाने में प्रज्ञा ही समर्थ हैं। हमें इसी का आश्रय लेना चाहिए।


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