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प्रतिमाओं के रूप में जो दिखाई देते हैं, वे भगवान बोलते नहीं। परन्तु अंतःकरण वाले भगवान जब दर्शन देते हैं तो बात करने के लिए भी व्याकुल दिखाई देते हैं। हमारे पास कान हैं। वे यदि सुनने का प्रयास करें तो सुनाई पड़ेगा “मेरे इस अनुपम उपहार-मनुष्य जीवन को इस तरह न बिताया जाना चाहिए जैसे कि बिताया जा रहा है। ऐसे न गँवाया जाना चाहिए जैसे कि गँवाया जा रहा है। ओछी रीति-नीति अपनाकर मेरे प्रयास-अनुदान का उपहास न बनाया जाना चाहिए।”
जब और भी बारीकी से इन अंतःकरण वाले भगवान की भाव-भंगिमा और मुखाकृति को देखते हैं तो प्रतीत होता है कि वे कहना चाहते हैं कि बताओ भला, इस जीवन सम्पदा का क्या इससे अच्छा उपयोग और कुछ नहीं हो सकता था जैसा कि किया जा रहा है? वे संभाषण जारी रख अपने प्रश्न का उत्तर चाहते हैं।
हम ईश्वर को मानते हों तो उसकी आवाज भी सुनें, उससे वार्तालाप भी करें। प्रतिमा की मात्र दर्शन-झाँकी हमें क्या दे सकेगी? परमात्मा का ‘दर्शन’ आत्मसात कर लेने की उत्कण्ठा इच्छा प्रबल अंदर से उठने लगे तो मानना चाहिए कि सही अर्थों में आत्म साक्षात्कार-ईश्वर का दर्शन हो रहा है।
अंतरंग के ईश्वर की उपासना का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि हम अपनी इच्छाओं-कामनाओं से अपने आपको खाली कर दें। उसी की इच्छा व प्रेरणा के आधार पर चलते रहने की बात सोचें तो यह समर्पण भाव हमें सतत शाश्वत आनन्द की अनुभूति कराता रहेगा। ऐसा दर्शन हमें हो सके तो वस्तुतः हम धन्य हो जायँ।