प्रख्यात इंजीनियर श्री विश्वेश्वरैया एक गाँव में होकर निकले। वहाँ गाँव में एक पाठशाला थी। छात्रों अध्यापकों ने उनके आगमन की बात सुनी तो उनके मुँह से कुछ सुनने के लिए अधीर हो उठे। अनुनय विनय सुन कर वे सहमत हो गये। कुछ देर रुक कर उन्होंने थोड़ा सा प्रवचन दिया और फिर आगे बढ़ गये।
एक सप्ताह भी न बीतने पाया था कि श्री विश्वेश्वरैया का एक पत्र गाँव की पाठशाला के नाम आया कि वे इसी सप्ताह वहाँ नया प्रवचन देने आ रहे हैं। सभी को आश्चर्य था कि उस दिन तो इतने आग्रह के बाद थोड़ा समय दे पाये थे, आज अपनी ओर से इतनी दूर चलकर क्यों आ रहे हैं।
वे नियत समय पर पहुँचे। भाषण दिया। सब ही को दुबारा आने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा “उस दिन बिना तैयारी का भाषण था बिना पूर्ण तैयारी किये कोई भी काम ठीक से नहीं बन पड़ता। उस दिन मेरा भाषण भी ऐसा ही अव्यवस्थित था अब मैं एक सप्ताह की तैयारी के बाद सही भाषण क्रम बना सका हूँ। जीवन भर मेरा हर काम में यही क्रम रहा है। उसे मैं बिगाड़ना
नहीं चाहता था सो भूल सुधार के लिए दुबारा आया।”
कल्पनाओं की शक्ति संकेत प्रक्रिया पर ही निर्भर करती है। शर्मीलापन, दब्बूपन, संकोची तथा शीघ्र उत्तेजित हो उठने का मानसिक रोग कल्पनाओं में ही घुला रहता है। आत्म-सुझाव से, स्व-संकेत से चिरकालीन कुसंस्कारों का क्षय तो होता ही है। साथ ही दोषपूर्ण चिन्तन की पद्धति में भी सुधार दिखाई देने लगता है। अवचेतन अर्थात् अंतर्मन की क्षमता को विकसित किया जा सके तो समस्त बुराइयों, दुष्प्रवृत्तियों पर सरलतापूर्वक विजय पाई जा सकती है। प्रगति के प्रतिभा-उन्नयन के जीवन द्वार-खुल सकते हैं।