आध्यात्मिक महाक्रान्ति की बेला आ पहुँची

August 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

परिवर्तन सृष्टि का शाश्वत नियम है, मनुष्य, समाज, संस्कृति और सभ्यता सभी को इस परिवर्तन प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है। कितनी ही प्रथायें, मान्यतायें एवं व्यवस्थायें एक निश्चित अवधि के बाद जब जराजीर्ण होकर रूढ़ियों का रूप ग्रहण कर लेती हैं तो उनमें सुधार-परिवर्तन आवश्यक हो जाता है। समाज के सुनियोजित संचालन और विकास की सृष्टि से समाज व्यवस्था एवं शासनतंत्र आदि में भी समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं। किन्तु जब कभी अराजकता, अव्यवस्था तथा अवाँछनीयता की ऐसी प्रबल परिस्थितियाँ विनिर्मित हो जाती हैं जिनमें सुधार-परिवर्तन के लिए विरोधात्मक प्रयत्न कारगर नहीं होते, तो व्यापक परिवर्तन करने वाली महाक्रान्तियों का जन्म होता है। वे आँधी-तूफान की भाँति आती हैं तथा अपने प्रवाह में समाज में उस कचरे को बहा ले जाती हैं जिनके कारण समाज में अव्यवस्था फैल रही थी।

विश्व इतिहास में पिछले दिनों ऐसी कितनी ही महाक्रांतियां हुई हैं जो चिरकाल तक स्मरण की जाती रहेगी और लोकमानस को महत्वपूर्ण तथ्यों से अवगत कराती रहेंगी। इनका उद्देश्य प्रायः अनौचित्य का समापन और औचित्य का अभिवर्धन ही होता है। इनमें ध्वंस और सृजन की दुहरी प्रक्रिया चलती है। प्रयास संघर्षात्मक होते हुए भी क्रान्ति सृजन की एक ऐसी प्रक्रिया है जो उपयोगी मानवीय मूल्यों के पुनर्स्थापना एवं सुनियोजन के लिए आवश्यक है, पर प्रायः जनमानस में क्रान्ति का स्वरूप हिंसात्मक परिवर्तन के रूप में ही प्रचलित है और आर्थिक विषमता को उसका मूल माना जाता है। कार्ल मार्क्स की साम्यवादी विचारधारा ने ही वस्तुतः इस मान्यता को जन्म दिया है कि समाज में मूलभूत प्रेरक शक्ति अर्थ है। आर्थिक असन्तुलन ही समाज की विभिन्न समस्याओं को जन्म देता है। यह असंतुलन जब चरम सीमा पर पहुँच जाता है तो क्रान्तियों का सूत्रपात होता है। उनके अनुसार विश्व की अधिकाँश क्रान्तियाँ आर्थिक विषमता के कारण हुई हैं। परन्तु यह मान्यता एकाँगी और अपूर्ण है। वस्तुस्थिति की गहराई में पहुँचने के लिए इतिहास का पर्यवेक्षण-अध्ययन करना होगा।

ऐतिहासिक महाक्रान्तियाँ यह सिद्ध करती हैं कि मनीषा जब कभी आदर्शवादी ऊर्जा से अनुप्राणित होती है तो अनेकों सहचरों को खींच बुलाती है और जनसहयोग के सहारे वह कार्य कर दिखाती है जिसकी पहले कभी कल्पना तक नहीं की गयी थी। प्रख्यात फ्राँसीसी क्रान्ति का इतिहास यह बताता है कि उन दिनों फ्राँस में निरंकुश शासकों का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। अत्याचार, अन्याय की चक्की में जनता पिस रही थी। नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं अधिकार लगभग समाप्त हो गये थे। फ्राँसीसी क्रान्ति में समानता का विचार अर्थ के आधार पर नहीं, बुद्धि के आधार पर मानवतावादी सिद्धाँतों के परिप्रेक्ष्य में किया गया। मौलिक प्रेरणा यह थी कि मनुष्य जब जन्म लेता है तो स्वतंत्र तथा एक समान होता है, इस स्वतंत्रता तथा प्राकृतिक समानता को जबरन प्रतिबन्धित नहीं किया जाना चाहिए। इस विचारणा ने फ्राँसीसी क्रान्ति का सूत्रपात किया। सूत्रधार बने वाल्टेयर और रूसो। तब तक रूसो की सशक्त समाजवादी विचारधारा प्रभाव में आ चुकी थी, जिसने उस देश के बौद्धिक समुदाय में प्रेरणा भर कर अनीति ओर अत्याचार के विरुद्ध उकसाया। जोन ऑफ आर्क नामक एक किशोरी ने उस समूचे देश में स्वतंत्रता की ऐसी ज्योति प्रज्वलित करायी कि दलित-पीड़ित जनता दीवानी होकर उठ खड़ी हुई और पराधीनता की जंजीरें टूट कर रहीं।

इसी तरह इंग्लैण्ड की प्यूरिटन क्रान्ति पर प्रभाव बाइबिल में प्रतिपादित समानता के विचारों का था जिसे राजनीतिक समर्थन भी मिल गया। उन दिनों ब्रिटिश पार्लियामेंट लोकताँत्रिक नहीं थी, अधिकार भी सीमित थे। साम्राज्यवादी शासन का देश पर प्रभुत्व था। असमानता की खाई पाटने की तीव्र आवाज उठी। धार्मिक एवं राजनीतिक दोनों ही मंचों से एक साथ साम्राज्यवाद के विरोध में वैचारिक वातावरण तैयार हुआ, जिसने क्रान्ति का सूत्रपात किया।

हैरियट स्टो एवं मार्टिन लूथरकिंग द्वारा दास प्रथा के विरुद्ध अमेरिका में जिस क्रान्ति का सूत्रपात हुआ वह मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए था। काले, गोरों के बीच भेदभाव की प्रवृत्ति चरम सीमा पर थी। वर्ण भेद के पनपते विष वृक्ष ने समाज की उन जड़ों को खोखला बनाना आरम्भ कर दिया जिन पर मनुष्यता अवलम्बित है। काले नीग्रो पर गोरों का अत्याचार-अनाचार बढ़ता ही जा रहा था। उत्पीड़ित मानवता के व्यथित स्वर ने विद्रोह की आवाज फूँकी। फलस्वरूप सर्वत्र अमानवीय दास प्रथा के विरुद्ध आवाज उठी जो क्रमशः तीव्रतर होती गई और दासप्रथा का अन्त होकर रहा।

इतिहास की ये महत्वपूर्ण क्रान्तियाँ न तो अर्थ से अभिप्रेरित थी और न ही इनका स्वरूप हिंसात्मक कहा जा सकता है, जैसी कि आम मान्यता है। इनका लक्ष्य था व्यक्तिगत स्वतंत्रता, राजनीतिक लोकतंत्र तथा मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना। क्रान्ति का अर्थ है, व्यक्ति के अंतरंग और बहिरंग का आमूलचूल परिवर्तन। एक ऐसा परिवर्तन जो मनुष्य समुदाय को परस्पर एक दूसरे के निकट लाता तथा बाँधता हो। समाज की रूढ़िग्रस्त परम्पराओं और कुरीतियों को समाप्त करता तथा स्वस्थ परम्पराओं के प्रचलन के लिए साहस दिखाता हो। यह वैचारिक परिवर्तन की एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जनचेतना अनौचित्य का विरोध करने-छोड़ने तथा औचित्य को अपनाने के लिए विवश हो जाते है। क्रान्तियाँ अपने इसी स्वस्थ स्वरूप और महान लक्ष्य से अनुप्राणित ही वरणीय हैं।

मूर्धन्य मनीषियों का कहना है कि महान लक्ष्य की पूर्ति हिंसात्मक तरीके से नहीं विचार क्रान्ति के अहिंसात्मक आध्यात्मिक प्रयोग उपचारों द्वारा ही संभव है। भगवान बुद्ध का धर्म चक्र प्रवर्तन क्रान्ति का आदर्श और समग्र स्वरूप था। गांधी का स्वराज्य आन्दोलन भी इन्हीं आदर्शों से अभिप्रेरित था। मात्र बाह्य परिवर्तनों से समाज की अनेकानेक समस्याओं का समाधान होना संभव रहा होता तो कभी का हो गया होता। विश्व में कितनी हिंसात्मक क्राँतियाँ हुई हैं। सत्ता में परिवर्तन भी हुए हैं, पर मानव जाति की मूल समस्यायें अपने स्थान पर यथावत बनी हुई हैं। रूस, फ्राँस, अमेरिका, ब्रिटेन की प्रख्यात क्रान्तियों के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता है कि इन देशों में मानवतावादी व्यवस्था स्थापित हो गयी, असमानता की खाई पट गयी है और आपसी स्नेह-सौहार्द्र की मात्रा बढ़ी है। सत्ता परिवर्तन के सीमित आवेग तक सीमित रह जाने वाली हिंसात्मक क्रान्ति की पद्धति से किसी भी समस्या का स्थायी हल नहीं निकल सकता। आये दिन तथाकथित क्रान्ति के नाम पर कितने ही देशों में सत्ता के उलट फेर की घटनायें देखी और सुनी जाती हैं, पर उनसे किसी देश में शाँति और सुव्यवस्था की स्थापना में सहयोग मिला हो, ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं देखने में आया हो।

प्रख्यात विचारक लारेंस हाइड का कहना है कि वास्तव में परिवर्तन का केन्द्र बिन्दु मनुष्य है। बाह्य परिस्थितियाँ तो आँतरिक परिवर्तन के अनुरूप बनती-बदलती रहती हैं। महान क्राँतियों की सफलता मनुष्य के आन्तरिक परिवर्तन पर अवलम्बित है। समग्र क्राँति भी मनुष्य के भीतर ही संभव है। समाज को तो यथास्थिति ही प्रिय है, उसकी स्वयं की व्यक्तियों से अलग कोई सत्ता नहीं है। बाह्य परिस्थितियों में परिवर्तन की बात सोचते रहने तथा मनुष्य के आँतरिक परिवर्तन की उपेक्षा करते रहने से कुछ स्थायी हल नहीं निकल सकता। इस सम्बन्ध में उनने कुछ सारगर्भित प्रश्न उठाये हैं जो विचारणीय हैं।

उनका कहना है कि क्या व्यक्ति का पुनर्निर्माण किये बिना समाज का निर्माण संभव है? मानव के भीतर बैठे हुए बंदर एवं चीते को क्या मात्र बाह्य दबावों से नियंत्रित, परिवर्तित किया जा सकता है? क्या बिना किसी उच्च आदर्श अथवा शक्ति का आश्रय लिए हम वह प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं, जिनकी उन समस्याओं के लिए आवश्यकता है जो समय-समय पर होती रहने वाली क्रान्तियों के बावजूद यथावत बनी रहती हैं? क्या मनुष्य-मनुष्य के बीच परस्पर सघन आत्मीयता विकसित किये बिना सच्चे समाजवाद की स्थापना संभव है? क्या हम केवल भौतिक शक्तियों का आश्रय लेकर बिना आध्यात्मिक जीवन का अवलम्बन लिए मानव जाति को स्थायी सुख-शाँति


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118