इंग्लैंड का सम्राट जेम्स अपने कोष में अधिकाधिक धन एकत्रित करने के लिए धन लेकर उपाधियाँ वितरित किया करता था। वह जानता तो था कि मात्र उपाधि प्राप्त कर लेने से कोई योग्य व महान नहीं बनने का परन्तु मूर्खों के तुच्छ अहंकार पोषण के लिए वह ऐसा करके अपना स्वार्थ सिद्ध करता रहा।
एक दिन एक व्यक्ति उसके सामने उपस्थित हुआ व उसने कहा “महाराज मुझे सज्जनता की उपाधि दे दी जाय” जेम्स ने उत्तर दिया “मैं तुम्हें लार्ड, ड्यूक, दार्शनिक, विचारक, वैज्ञानिक तो बना सकता हूँ पर सज्जन नहीं बना सकता। सच है सज्जनता खरीदी नहीं जा सकती।
उनकी दोनों प्रतिक्रियाएँ चरितार्थ होती जाती हैं। धर्म की स्थापना और अधर्म का हनन। सभी अवतारी आत्माएँ यही करती रही हैं। उन्होंने दुरात्माओं से संघर्ष किया है। दुष्प्रवृत्तियों से कठोरतापूर्वक निपटने की नीति अपनाई है। इसके उपरान्त ही वे धर्मधारणाओं की स्थापना कर सकने में सफल हुए हैं। मनुष्य को सुविधा चाहने और सज्जनता पसंद करने की इच्छा स्वभावतः होती है। पर उसे ऐसा मन भी बनाना चाहिए कि संयम की व्रतशीलता अपना सके। दुष्टता के प्रति मन्यु प्रकट करा सके। इस प्रकार आमन्त्रित कठिनाई मनुष्य को आत्मबल का धनी बनाती है और आत्मोत्कर्ष में सहायक सिद्ध होती है।