महर्षि उद्दालक के गुरुकुल में प्रधानतया छात्रों की प्रतिभा निखारने का काम होता था। वे अपने छात्रों को बड़े उत्तरदायित्व सौंप कर बढ़−चढ़ कर पराक्रम की शिक्षा दिया करते थे। पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ उनके शिक्षण के यह प्रधान उद्देश्य थे।
एक दिन आरुणि नामक शिष्य को उन्होंने सौ गौओं का एक झुण्ड दिया और समीपवर्ती वन प्रदेश में चराने के लिए आदेश दिया। साथ ही यह निर्देश भी दिया कि वह वापस तब लौटे जब गौओं की संख्या एक हजार हो जाय। शिष्य आदेश पाकर गौओं समेत चला गया। एकाएक इतना बड़ा उत्तरदायित्व इतने लम्बे समय तक निबाहने में उसे कितने ही प्रकार के कौशल सीखने और अनुभव में लाने पड़े। जब वह वापस लौटा तो उसके चेहरे में अनुभव जन्य तेज फूटा पड़ा था। गुरु ने उसकी सफलता को मुक्त कंठ से सराहा। पुस्तकीय ज्ञान में जो कमी रह गई थी उसे पूरा कराया। बाद में उसने कर्मों में उतारा। जीवन में उसने एक से एक बढ़ कर कार्य किये।
रुपये के दो पहलू होते हैं दोनों ओर समान प्रकार की आकृतियाँ छपी होती हैं। उनमें से जिसे ऊपर रखें वही दीखता रहेगा। जीवन को, विश्व को, संपर्क क्षेत्र को जिस दृष्टि से देखें, वही सामने प्रस्तुत रहेगा। अच्छा हो, हम उज्ज्वल पक्ष से संपर्क साधें और सदा प्रसन्न रहें। अपनी प्रसन्नता को संपर्क क्षेत्र पर बिखेरते हुए प्रमुदित रहें, प्रमुदित करें और प्रमुदित वातावरण का सृजन करें। यही व्यवहारिक अध्यात्म है।