वयोवृद्ध सन्त को बन्दी बनाकर खलीफा के महल के सामने लाया गया। अन्यायी शासन के अमानवीय अत्याचारों की अनेक घटनाएँ सन्त ने सुन-जान रखी थी। अतः उन क्रूरताओं का स्मरण कर उनके मन में उथल-पुथल सी मच रही थी।
तभी महल के द्वार पर पहरा दे रहा एक सिपाही सन्त के समीप पहुँचा और फुस-फुसाकर कहने लगा-हजरत सच्ची बहादुरी दिखाइयेगा जुल्म से डरिएगा नहीं। मैं एक बार चोरी के जुर्म में पकड़ा गया ! मुझे एक हजार कोड़ों की सजा दी गई। मैंने कोड़े सहन कर लिए , पर जुर्म कबूल नहीं किया और मुझे छोड़ दिया गया। मैंने झूठ के लिए इतनी हिम्मत दिखाई, तो फिर आप तो सच के लिए कष्ट सहेंगे। “डर कैसा?”
वृद्ध सन्त को लगा , जैसे कोई दिव्य-ज्योति पथ-संकेत कर रही है। भावविभोर हो उठे। वे बोले- “मेरे आत्मीय! तूने सही समय पर मुझे जागााया है।
खलीफा के दरबार में सन्त सत्य-पथ पर अडिग रहे। असत्य के अभ्यस्त लोग भला यह कैसे सहते? हजार कोड़ों का दण्ड सन्त को दिया गया। हजरत इमाम अहमद का वृद्ध शरीर इतने बेंत सहने लायक नहीं था। पर उनका मन प्रसन्न-संतुष्ट था। क्रूर प्रहारों से शिथिल उनका शरीर धराशायी हो गया। मृत्यु से मिलने के बेला में भी हजरत को उस चोर सिपाही की बातें याद रही और प्रफुल्ल चित्त से उन्होंने शरीर त्यागा!