समुद्र की लहरें अपनी हलचलों के कारण बिजली उत्पन्न करती है। ज्वार भाटों से विद्युत प्रवाह निसृत होता है। वैज्ञानिक इस खोज में है कि यह अन्तरिक्ष में छितराती रहने वाली बिजली किस प्रकार रोक थाम कर रखी जाय और उसे किस तरह मानवी उपयोग के कार्यों में लगाया जाय? निकट भविष्य में इस दिशा में महत्त्वपूर्ण सफलताएँ मिलने की भी आशा की जाती है।
मनुष्य शरीर को भी एक प्रकार का समुद्र कहा जा सकता है जिसमें असंख्य नस-नाड़ियाँ नदी, नालों की तरह बहती है, श्वांस-प्रश्वास के ज्वार भाटे उठते हैं। मस्तिष्क का जनरेटर और हृदय का पम्पिंग स्टेशन मिल जुलकर जिस स्तर की ऊर्जा उत्पन्न करते हैं उसे मानवी विद्युत का नाम सहज ही दिया जा सकता है। इस बिजली से शरीर और मन मस्तिष्क की अगणित हलचलों का- सृजन-विसर्जन का क्रम चलता है। आवश्यक क्रिया कलापों के लिए क्षमता इसी विद्युत उत्पादन के क्रिया कलाप द्वारा सम्भव होती है।
शरीर विज्ञान क्षेत्र में सर्वविदित इस मानवी विद्युत के अतिरिक्त एक चेतन बिजली भी मानवी सत्ता के साथ जुड़ी हुई है इसे प्राण कहते हैं। ब्रह्म के अंशधर जीव का चिन्तन परक एवं संवेदनात्मक गतिविधियों का उभार एवं अवसाद इसी प्राण शक्ति की स्थिति पर निर्भर रहता है। इस प्राण शक्ति की प्रखरता ही शरीर में संव्याप्त होकर उसे ओजस्वी बनाती है। मन संस्थान में उभरती है, जिससे व्यक्ति मनस्वी दीखता है और अन्तःकरण में उसका समुचित समावेश होने पर मनुष्य तेजस्वी बनकर अपने आत्म तेज से समीपवर्ती वातावरण को प्रकाशित करता है।
शारीरिक काम करने वाला आणविक ऊर्जा प्रवाह तथा चेतना में संव्याप्त प्राण तत्त्व के सम्मिश्रण से जो ब्रह्म वर्चस् उत्पन्न होता है उसे मानवी सत्ता की सबसे बड़ी सशक्त क्षमता कहा जा सकता है। सम्पदाओं और विभूतियों की दृष्टि से उसका मूल्यांकन किया जाय तो फिर उसे ऋद्धि सिद्धि कह सकते हैं। योगियों और देवताओं में इसी स्तर की विशेषताएँ पाई जाती है। देवताओं के प्रतीक चित्रों में उनके चेहरों पर तेजोवलय छाया हुआ अंकित किया जाता है। अंग्रेजी में उसे “औरा” कहते हैं। वैज्ञानिक भाषा में इसे प्राणि चुम्बक शब्द से सामान्य ‘मैगनेट’ का अर्थ लिया जाता है, पर उसकी चर्चा जब प्राणि संदर्भ में होती है तो उसे ऐसी सचेतन विद्युत के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है जो न केवल पदार्थ परमाणुओं को वरन् वातावरण में अपने प्रवाह को फेंकती और सजातीय जीवधारियों को विभिन्न प्रकार से प्रभावित करती है।
इस व्यक्ति चुम्बक की क्षमता विचार शक्ति के द्वारा अपने ऊपर-सम्पर्क क्षेत्र में तथा समस्त ब्रह्मांड में उत्पन्न होने वाले संक्षोभों के आधार पर अनुभव की जाती है। इसी शक्ति के सहारे अतीन्द्रिय क्षमताएँ उभरती है और ब्रह्मांडीय चेतना के साथ सम्पर्क मिलाते हुए सूक्ष्म जगत की गतिविधियों को समझ सकना तथा उनको अपने पक्ष में झुका सकना होता है।
साधना का उद्देश्य इसी चुम्बकत्व का- ब्रह्मवर्चस् का अभिवर्धन है। इसी से सामान्य मनुष्य को राजर्षि ब्रह्मर्षि और देवर्षि स्तर तक पहुँचने का अवसर मिलता है। जीवात्मा को क्रमशः महात्मा देवात्मा और परमात्मा स्तर तक ऊँचा उठा ले जाने वाले प्रचण्ड ईंधन के रूप में इसी आत्म-विद्युत का- प्राण चुम्बक का प्रयोग करना पड़ता है। संयम ब्रह्मचर्य से, मनोनिग्रह से, मौन-व्रत उपवासों से, ध्यान धारणा से तथा अनेक सरल कठोर विधि विधानों से इस या उस प्रकार से साधना मार्ग के पथिकों को इसी प्राण ऊर्जा के अभिवर्धन, नियन्त्रण एवं उच्चस्तरीय प्रयोजनों में संलग्न करने की विधि व्यवस्था से अवगत कराया जाता है। वैज्ञानिक क्षेत्र में कुछ हलके स्तर पर इसी प्राण विद्युत की खोज बीन सम्भव हुई है। क्रमशः इस संदर्भ में उपयोगी निष्कर्ष भी निकल रहे हैं।
जैविक विद्युत शास्त्र के प्रवर्तक डॉ॰ एच॰ ए॰ वर के अनुसार प्राणिज विद्युत का आधार भी भौतिक विद्युत से भिन्न होता है और उसका क्रिया कलाप भी। प्राणिज विद्युत में, डॉ॰ वर के अनुसार इच्छा और बुद्धि भी सूक्ष्म रूप में होती है। इसी के चलते प्राणिज विद्युत अपने क्षेत्र में विशिष्ट परिस्थितियों एवं साधनों की संरचना करती है। किस प्राणी के डिम्ब से किस आकृति-प्रकृति का जीव उत्पन्न हो, यह मात्र उस प्राणी की रासायनिक संरचना पर निर्भर नहीं। अपितु रज और शुक्र कीटों के अन्दर भरी चेतना ही इसका मुख्य निर्धारक तत्त्व है। यदि ऐसा न होता, तो मात्र रासायनिक अन्तर के बल पर कोटि कोटि वर्ग के प्राणियों की उत्पत्ति व उनकी वंश परम्परा का प्रवाह क्रम कायम नहीं रह पाती। जीव जातियों की संख्या सीमित ही होती।
मानव शरीर की कोशिकाओं की आन्तरिक संरचना का एक महत्त्वपूर्ण आधार है- माईटो कोन्ड्रिया। भोजन का स्वरूप रस, रक्त, माँस, अस्थि आदि क्रम से इस संस्थान तक पहुँच कर ऊर्जा का रूप लेता है। ऊर्जा ही कोशिका को सक्रिय रखती है। एक माईटी कोन्ड्रिया में केन्द्रित ऊर्जा को लघुत्तम प्राणाँश कह सकते हैं। सम्पूर्ण काय कलेवर में इसका सम्पुन्जन महाप्राण कहलाता है तथा वही ऊर्जा ब्रह्माण्ड व्यापी रूप में विराट् प्राण कही जाती है। विराट् प्राण है- ऊर्जा सिन्धु और कोशिकागत ऊर्जा है- ऊर्जा बिन्दु। यह दोनों परस्पर अन्योन्याश्रित है। मनुष्य की अतीन्द्रिय सामर्थ्य एक शक्तिशाली चुम्बकत्व है। असम्भव कार्य भी उसके द्वारा सहज सम्भव है। आँखों से न देख पाने वाले स्थानों की वर्तमान में घट रही घटनाएँ स्पष्ट देख पाना और उनका सचित्र वर्णन कर पाना, एक स्थान से दूसरे स्थान को परस्पर संवादों का आदान-प्रदान सूक्ष्म जगत में पक रही भावी घटनाओं की सूक्ष्म क्रियाओं के संकेतों को समझ कर भविष्य कथन जो कि स्थितियों के सर्वथा अप्रत्याशित परिवर्तन की स्थिति में ही गलत सिद्ध हो तो अन्यथा जिनका सही होना सुनिश्चित है, आदि सभी असामान्य कार्य इसी चुम्बकत्व के द्वारा सम्पन्न होते हैं। तप, साधना द्वारा प्रेरक शक्ति प्राप्त कर लेने वाले दूसरों को उपयोगी व सार्थक प्रेरणा देकर उन्हें लाभान्वित कर सकते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति एक अच्छा खासा चुम्बक है। चुम्बक की एक विशेषता है आकर्षण। दूसरी विशेषता है एकरसता की। तीसरी स्थिर दिशा की।
व्यक्ति अपनी चुम्बकीय शक्ति का सायास विकास कर सकता है। विकसित सामर्थ्य स्पष्ट दिख जाती हैं यद्यपि सामान्यतः वह होती सभी में है। पर अल्पप्राण मनुष्यों को सामर्थ्य प्रकट नहीं हो पाती।
चुम्बक की ही तरह यदि मनुष्य अपने मन की प्रवृत्तियों रूपी, चुम्बकीय कर्णों को सही ढंग सुव्यवस्थित व क्रमबद्ध कर ले तो उसकी शक्तियाँ विकसित हो जाती है। ऐसे महान व्यक्तित्वों में प्रबल आकर्षण होता है और वे जहाँ भी हों, लोग चारों ओर से उनकी ओर खिंचे चले आते हैं।
जिस तरह चुम्बक में एकरसता होती है और कितने भी विखंडित रूप में होने पर भी उसमें आकर्षण-क्षमता बनी ही रहती है, उसी तरह कभी बाह्य रूप में दब जाने या छोटे हो जाने पर भी महापुरुषों के व्यक्तित्व में एकरसता बनी रहती हैं उसमें क्षुद्रताएँ और विसंगतियाँ नहीं आ पाती तथा अनेकों लोगों से एक साथ सम्बन्ध रखने पर भी उनके व्यक्तित्व में अपने-पराये के पक्षपात की रंच मात्र प्रवृत्ति नहीं होती।
‘दिशा की स्थिरता’ का गुण तो महापुरुषों की सदा ही विशेषता होती हैं वस्तुतः लक्ष्य केन्द्रित व्यक्ति ही महान बन सकते हैं। परिष्कृत व्यक्तित्व अपने जीवन मूल्यों को कभी भी खोते नहीं, क्योंकि ये उनके अस्तित्व और उनकी अस्मिता का ही पर्याय बन जाते हैं। अपनी इस अविचल निष्ठा द्वारा वे औरों को सदा सही प्रेरणा देते रहते हैं।
यों चुम्बक को बार-बार पटका जाय और ऊपर -नीचे ऊल-जलूल ढंग से उलटा-पलटा जाये, तो उनकी आकर्षण शक्ति लुप्त ही हो जाती हैं। अपनी पुण्य-पूँजी , शक्ति सामर्थ्य और सद्गुण-सम्पदा का दुरुपयोग करने वाले तथा पतित क्रियाओं, विचारणाओं को किसी मानसिक दुर्बलता वश अपना लेने वाले मनुष्य अपनी सारी विशेषताओं और महान् गणों के बावजूद भी पतन के खड्ड में गिर जाते हैं।
पृथ्वी अपने चतुर्दिक् व्याप्त चुम्बकीय क्षेत्र के सहारे समस्त समस्त ब्रह्माण्ड में फैली विशेषताओं में से अपने लिए आवश्यक विशेषताएँ संचित करती रहती हैं। अन्यथा उसका अक्षय भण्डार भी एक दिन रिक्त ही हो जाय और साधन-सम्पन्न धरती विपत्रा-दीना ही बन जाय।
मनुष्य भी अन्तरिक्ष से बरसने वाले अनेक अनुदानों को अपनी आन्तरिक स्थिति के अनुरूप स्वीकार-अस्वीकार करता रहता है। ब्रह्म-चेतना से तादात्म्य ही आध्यात्मिक महापुरुषों को अनन्त सामर्थ्य देता है। अन्यथा उनको मुख्यतः घटिया अन्तः करण वाले लोगों से भरी इस धरती में शीघ्र ही अपनी पूण्य-पूँजी लुटाकर कंगाल हो जाना पड़े। प्रत्येक व्यक्ति जैसा होता है, विश्व ब्रह्माण्ड की वैसी ही सूक्ष्म धारा के प्रवाह से अनायास ही जुड़ जाता है। और अपने चुम्बकत्व को बढ़ाता रहता है॥
जड़ अणुओं का गति से एक तरह की विद्युत उत्पन्न होती हैं। उसमें चेतना सत्ता का समावेश होने पर जीवन का -जीवधारियों का आविर्भाव होता है। ध्रुवीय क्षेत्रों में उठने वाले चुम्बकीय तूफानों का प्रकाश ‘अरोरा बोरीलिस’ तेजोवलय के रूप में छाया रहता है। पृथ्वी के अन्य ग्रहों से संयोग की हलचलों का यह स्वरूप संकेत हैं। समुद्र का खारा जल नौकाओं , जलयानों से टकराने पर विद्युत तरंगें पैदा करता है।
मानवीय शरीरगत जीवाणु भी ईथर एवं वायुमण्डल में भरें विद्युत प्रवाह से टकराकर विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करते हैं जीवकोषों में पर्याप्त मात्रा में विद्यमान विभिन्न रसायन तथा धातुएँ इन आघातों से उत्तेजित हो विद्युत प्रवाह पैदा करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में ऊष्मा तो होती ही हैं। विभिन्न स्तरों की विद्युत धाराएँ भी होती हैं। अब तो इन्हें यन्त्रों द्वारा भली-भाँति देखा, परखा जाने लगा हैं। उत्पन्न विद्युत ऊर्जाओं को प्रकाश-वलय प्रत्येक व्यक्तित्व के चतुर्दिक् व्यास रहता है, ध्रुवीय क्षेत्रों में चुम्बकीय तूफानों से उत्पन्न -अरोरा बोरीलिस ‘ की ही तरह। यह प्रकाश-वलय आन्तरिक चुम्बकत्व व विद्युत प्रवाहों के अनुरूप भिन्न-भिन्न होता है। तत्त्वदर्शी मनीषी किसी व्यक्ति के चतुर्दिक् व्याप्त इसी तेजोवलय से उसका आन्तरिक चेतना स्तर व अन्तःकरण की प्रवृत्तियाँ भाँप लेती हैं
तपस्वी तेजस्वी बनता है। तपस्या का उद्देश्य तेजस्विता उत्पन्न करना हैं यहाँ किसी को चेहरे की चमक के साथ इस आत्मिक आलोक की संगति नहीं जोड़नी चाहिए। स्वास्थ्य और सौंदर्य शारीरिक विशेषताएँ हैं। नव-यौवन में सभी के चेहरे चमकते हैं। प्रौढ़ता के साथ रुक्षता आती हैं और क्यों वृद्ध होने पर चेहरे पर तथा अन्यत्र झुर्रियाँ पड़ने लगती हैं। इसी मौसमी परिवर्तन नापी जाने लगी तब तो अनर्थ उत्पन्न हुआ ही समझा जायेगा। ब्रह्मा तेजस् का रूप समझने के लिए संकल्प, धैर्य ,दृढ़ता, श्रद्धा, निर्धनता, चरित्र, साहस, निश्चय जैसे गणों को टटोलना पड़ेगा और देखना होगा कि भय ओर प्रलोभनों को छोड़कर -लोकमान्यता एवं आग्रहों की उपेक्षा करने मनुष्य किस सीमा तक सत्य का आग्रही होने और उसे अपनाने के लिए तैयार हो सका।
महा मानवों का उदात्त विनियोग, समर्थों का वैभव पुरुषार्थियों का पराक्रम, नैष्ठिक का चरित्र हम ब्रह्मतेजस् के रूप में देख सकते हैं। ईश्वर भक्ति इसी अक्षय वट के नीचे बैठकर होती हैं। आत्म-साक्षात्कार और ब्रह्म-साक्षात्कार का प्रयोजन पूरा करने के लिए हमें इसी उपार्जन को सुदामा की पोटली की तरह-शबरी के बेरों की तरह-गोपियों की छाछ की तरह सँजोना पड़ता है।