भौतिक बलों से भौतिक साधन मिलते हैं और आत्म-बल के सहारे आत्मिक प्रगति के साधन बनते हैं। आत्मवादी साधक जिस स्वर्गीय भूमिका में निवास करते हैं और जिन विभूतियों के कारण लोकोन्नति होते हैं वे सभी आत्मबल के सहारे उपलब्ध होती हैं। बल से साधन-साधन से सफलता का सिद्धान्त हर क्षेत्र में लागू होता है आत्मिक प्रगति के लिए भी यही प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। साधन का उद्देश्य आत्मबल सम्पादित करना है। यही वह पूँजी है जिसके मूल्य पर दैवी अनुग्रह आकर्षित करना और दिव्य वरदान उपलब्ध करना सम्भव होता है। यदि ऐसा न किया जाय और गिड़गिड़ाने फुसलाने की नीति पर विश्वास किया जाय तो निशित रूपं से आत्मिक क्षेत्र की कोई बड़ी उपलब्धि अर्जित कर सकना सम्भव न हो सकेगा।
शरीर-बल उपार्जित करने के लिए-आहार विहार, संयम, उत्साह जैसे साधन जुटाने पड़ते हैं। धन-बल बढ़ाने में पूँजी, योग्यता, श्रम एवं कुशलता नियोजित करनी होती है। ज्ञान-बल के लिए अध्यवसाय, शिक्षक, शिक्षा संस्थान एवं प्रशिक्षण सामग्री जुटानी पड़ती है। यह सामान एकत्रित न किये जा सके तो शरीर-बल धन-बल ज्ञान-बल में से एक भी संचित न हो सकेगा ठीक इसी प्रकार आत्म-बल सम्पादित करने के लिए- (1) संकल्प (2) संयम (3) विश्राम (4) श्रद्धा इन चार आधारों को खड़े करना आवश्यक होता है। साधना का उद्देश्य इन्हीं साधनों को एकत्रित करना हैं ईश्वर अनुग्रह को घसीट बुलाना इसी चुम्बकत्व के सहारे सम्भव होता है। इसी कुदाली से अन्तः क्षेत्र को खोदने, कुरेदते हुए विभूतियों के मणि− माणिक्य उपलब्ध किये जाते हैं।
संकल्प का तात्पर्य है ऐसा मनोबल जिसके सहारे निश्चय को कार्यान्वित करने की साहसिकता अक्षुण्ण बनाये रखी जाय। आमतौर से घटिया स्तर के लोग बाल-बुद्धि एवं वानरी प्रवृत्ति के होते हैं। चंचलता एवं अस्थिरता उनके स्वभाव में जुड़ी होती है। बन्दर इस डाली से उस डालीं पर उछलता-मचलता रहता है बालकों की चंचलता प्रसिद्ध है, बड़े देर तक एक काम पर टिके नहीं रह सकते हैं किसी कार्य में लगे तो क्षणिक उत्साह के कारण उस पर टिके नहीं रहते ओर एक को छोड़कर दूसरा काम बदलते रहते हैं। सुविचारों और कुकर्मों का आकर्षण सर्वविदित हैं पानी फैलते ही नीचे की ओर बिना किसी प्रयास के बहने लगता है, पर यदि ऊँचा उठाना हो तो अनेकों साधन जुटाने पड़ते हैं निम्नकोटि की गतिविधियों में मन देर तक लगा रह सकता है। क्योंकि उनके फलस्वरूप अधिक मात्रा में और अधिक जल्दी मनोरथ पूरे होने की तृष्णा जुड़ी रहती है। उत्कृष्टता के मार्ग पर चलने पर अदृश्य आन्तरिक सफलता मिलने की बात स्थूल बुद्धि को कुछ से कुछ विशेष आकर्षक प्रतीत नहीं होती। फिर क्षणिक आवेश के रूप में उस दिशा में कुछ कदम बढ़ाये भी जाय तो तत्काल फल मिलने की उतावली में धैर्य टूट जाता है और विलम्ब होते देखकर वह मार्ग छोड़ते ही बनता है। आत्मा-सुधार और आत्मा-निर्माण का मार्ग श्रम-साध्य और समय-साध्य है। वह जादुई छड़ी घुमाने से सम्भव नहीं हो सकता। माली को फले-फूले उद्यान की, विद्यार्थी को उपाधि की ओर व्यवसायी को सम्पदा की प्रतीक्षा धैर्यपूर्वक करनी पड़ती है और अपनी दीर्घकालीन साधना में अटूट धैर्य और मनोबल के साथ लगा रहना पड़ता है। इसी मार्ग पर चलते हुए आत्मोत्कर्ष का जीवन-लक्ष्य प्राप्त कर सकना सम्भव होता है। साधक की प्रथम परीक्षा इसी कसौटी पर होती है।
आत्मिक प्रगति के मार्ग पर चलने वाले को कई व्यवधानों से जूझने के लिए मनोबल की- संकल्प बल की आवश्यकता पड़ती है। संचित कुसंस्कारों का निरस्त करके उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों की स्थापना में खड़ा किया जाने वाला प्रबल संघर्ष प्रचण्ड मनोबल के सहारे ही लड़ा जा सकता है। धैर्यपूर्वक चिरकाल तक बिना उत्साह गिराये निर्धारित मार्ग पर चलते रहने के लिए भी संकल्प शक्ति चाहिए। बहकाने वाले आकर्षण प्रलोभनों से-विरत करने वाले दबावों से-जूझ सकने वाला ही इस लम्बे मार्ग पर बिना विचलित हुए चलता रह सकता। यह दृढ़ता मनस्वी लोगों में ही होती है। इसके लिए शूरवीरों जैसी पराक्रमी मनःस्थिति चाहिए उतना सरंजाम जुटाये बिना किसी के लिए भी यह सम्भव नहीं हो सकता कि हिमालय की चोटी चढ़ने जैसी आकस्मिक प्रगति कीर्तिमान स्थापित करें। चंचलता अग्रिम- बाल कौतुकों के अभ्यस्त और जादुई खेत-तमाशे देखने के आतुर लोग प्रायः इस मार्ग पर देर तक टिक ही नहीं पात। दूसरी ओर कठिन यह है कि बीज को विशाल वट-वृक्ष के रूपं में विकसित कर देने का कोई विधि-विधान भी इस संसार में नहीं है। हथेली पर सरसों जमाने वाले बाजीगर ‘नजर बंध’ की कला भर दिखाते हैं। उस सरसों से घड़ा भर तेल प्राप्त कर सकना उनके लिए भी सम्भव नहीं होगा। ऐसी सरसों तो किसान के खेत में ही उगती है और वह सुनियोजित समय प्रक्रिया के अनुसार ही उगती फलती है। तुर्त-फुर्त की कोई गुँजाइश नहीं है।
चंचलता को ठुकराने वाला-प्रलोभनों और दबावों से बचाने वाला दुष्प्रवृत्तियों से जूझने वाला प्रचण्ड मनोबल आत्म-साधना के पथ पर चलने वाला साधक का सर्व प्रथम आधार है इसके उपार्जन-अभ्यास के लिए उपासना का कर्मकाण्डों में पूरी तरह समावेश किया गया है। प्रातः काल जल्दी उठना, तत्परतापूर्वक नित्यकर्म से निवृत्त होना-नियम स्थान पर-नियत मर्यादाओं का पालन करते हुए-उपासना पर बैठना-सुखासन लगाना मेरु दण्ड का सीधा होना जैसा शारीरिक अनुशासन नियत स्थान ,नियत समय, नियत मात्रा में नियम विधान से उपासना-क्रम सम्पन्न करने की तत्परता बरतने के पीछे संकल्प-क्रम सम्पन्न करने की तत्परता बरतने के पीछे संकल्प-बल के अभिवर्धन की प्रक्रिया जुड़ी हुई है। अस्त व्यस्तता और अव्यवस्था को इसी कठोरता के आधार पर निरस्त किया जाता है। बाल चंचलता को हटाकर दृढ़ निशित प्रौढ़ता उत्पन्नं करने में प्रचण्ड मनोबल की ही प्रधान भूमिका रहती है। व्रत, उपवास, तप, तितीक्षा, मौन, ब्रह्मचर्य आदि के अनेकों विधि निषेध अनुशासन साधना में पालन करते हैं साधना विधि में ढील-पोल नहीं चलने दी जाती, वरन् निर्धारित क्रिया-कृत्यों को राई−रत्ती पूरा करना पड़ता है। इस फौजी अनुशासन को ठीक तरह निभाते चलने पर मनोनिग्रह की सफलता मिलती है और उस आत्म-विजय पर गर्व गौरव अनुभव करता हुआ साधक जीवन -संग्राम में बढ़े-बढ़े आदर्शवादी पुरुषार्थ, पराक्रम, कर सकने में समर्थ होता है।
संकल्प-बल के प्रयोग अभ्यास का सुविस्तृत क्षेत्र संयम के मैदान में करना पड़ता है। परीक्षा स्थल की यह है पूजा-उपासना के समय पर निर्धारित विधिविधान का पालन आत्मानुशासन का प्रथम चरण है उसे व्यायामशाला में होने वाले अभ्यास एवं प्रयोगशाला में किये गये प्रयोग के समतुल्य माना जा सकता है। उसकी प्रौढ़ता , प्रखरता गुण, कर्म, स्वभाव में घुसी हुई अव्यवस्था को सुसंतुलन में बदलने से ही सम्भव होती है। संयम शब्द इसी के लिए प्रयुक्त होता है। इन्द्रियाँ अपने विषयों में अतिवाद बरतने के लिये मचलती है और खुली टूट चाहती है। उस पा अंकुश न लगाया जाय तो फिर वासनाओं के उच्छृंखलता, शरीर, मन, धन और सम्मान में आग लगाते चली जाएगी और जो कुछ हाथ में है उस सब को जलाकर स्वाहा कर देगी। जीभ का चटोरपन किस प्रकार पेट को खराब करता है और पेट की सड़न किस प्रकार चित्र-विचित्र रोग उत्पन्न करती है, यह किसी से छिपा नहीं है। जननेन्द्रिय का असंयम किस प्रकार मनुष्य को निस्तेज और खोखला बना देता है इसके उदाहरणों से यह संसार भरा पड़ा है। तृष्णा के वशीभूत लोग किस प्रकार पाप संचय में लगे है और उसे संकीर्ण दुष्प्रयोजनों में लगाये रखकर किस प्रकार अनर्थ सम्पादन कर रहे है। वह किसी से छिपा नहीं है। अहंकार की उछलता किस प्रकार मिथ्या प्रदर्शन के आडम्बर रचती और कैसे ईर्ष्याद्वेष के विष बीज बोती है, उसका अवांछनीय नग्न नृत्य कही भी देखा जा सकता है। शारीरिक और मानसिक असंयम का ही एक रूप धन का अपव्यय है। व्यसनों में, विलासिता में, ठाट-बाट में, आतंक अनाचार में जितना धन व्यय होता है, उतना यदि रोका जा सका होता और उसे सत्प्रयोजनों में लगाया जा सकना सम्भव हुआ होता तो संकल्प से ही रच पर कल्याण का महत्त्वपूर्ण प्रयोजन संभव हो सकता है।वासना और तृष्णा को- लोभ और मोह को- यदि संयत किया जा सके और इन प्रयोजनों में होने वाली सामर्थ्य की बर्बादी को रोककर योजनाबद्ध रूप से सत्प्रयोजनों में लगाया जा सके तो उसका सत्परिणाम हर दृष्टि से कल्याण कारक प्रतिफल प्रस्तुत करेगा।
फूटे बर्तन में दूध दुहने से दुधारू गाय पालने का सौभाग्य निरर्थक चला जाता है। शरीर और मन में कषाय-कल्मषों के अगणित छिद्र हो रहे हों तो फिर स्वउपार्जित सम्पत्तियों और ईश्वर प्रदत्त विभूतियों का कोई कहने लायक परिणाम न निकलेगा। वे समस्त उपलब्धियाँ निरर्थक चली जायेगी और उलटा अनर्थ उत्पन्न करेगी। समझा जाना चाहिए कि उपार्जन का लाभ तभी है जब उसे संयम पूर्वक अनर्थ प्रवाह से रोका जा सकें। जिस विवेक ने अनर्थ अपव्यय को रोका था यदि उसी को थोड़ा और प्रखर बनाया जा सके तो इतना भी बन पड़ेगा कि उसी बचत को सदुद्देश्यों के लिए लगाया जा सकना सम्भव हो सके। पानी के प्रवाह को रोक कर बाँध बनाये जाते हैं और उस भण्डार का सदुपयोग करके सिंचाई बिजली आदि के कितने ही लाभ प्राप्त किये जाते हैं ठीक यही बात संयम बरतने से होती है। शरीर, मस्तिष्क और धन की तीनों क्षमताएँ भले ही किसी के पास स्वल्प मात्रा में हो, पर यदि वह उन्हें अपव्यय से बचा कर सदुपयोग कर सकने की कला में प्रवीण हो गया है तो उसका प्रतिफल बलवानों, विद्वानों एवं धनवानों की सम्मिलित शक्ति से भी अधिक श्रेयस्कर हो सकता है। इसे संयम का ही चमत्कार कह सकते हैं।
एकाग्रता की शक्ति सर्वविदित है। ध्यान में चिन्तन के बिखराव का केन्द्रीकरण किया जाता है। एकाग्रता की शक्ति का सदुपयोग करने वाले ही अपने अपने विषय में प्रवीण, साहित्यकार, वैज्ञानिक, शिल्पी, व्यवस्थापक, योगी अपने-अपने विषय में उच्चस्तरीय प्रगति मुख्यतया एकाग्रता के अभ्यास से ही कर पाते हैं। एकाग्रता और कुछ नहीं मस्तिष्कीय संयम है। इन्द्रिय संयम, विचार संयम, समय संयम, वाणी संयम, धन संयम आदि के रूपं में यदि अपव्यय को रोकना और सामर्थ्यों का सत्प्रयोजनों में एक निष्ठा भाव से लगाना संभव हो सके तो समझना चाहिए कि प्रगति का राजमार्ग मिल गया। और उस पर चलते हुए आत्मोत्कर्ष का उद्देश्य भी उसी प्रकार संभव हो सकता है जिस प्रकार भौतिक सफलताओं के मार्ग पर चलते हुए उत्साहपूर्वक प्रतिफल प्राप्त किया जाता है। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रहते हुए तत्त्वदर्शी मनीषियों ने आत्मोत्कर्ष की दिशा में बढ़ने के इच्छुकों के लिए संकल्प -बल बढ़ाने के साथ साथ -संयम बरतने में कठोरता अपनाने का निर्देश दिया है। अपने साथ कड़ाई और दूसरों के साथ नरमी यही शालीनता की नीति है। तपश्चर्या, तितीक्षा की अनेकानेक साधनाएँ संयम का ही प्रयोजन पूरा करती है। योग साधना में कितना ही चमत्कारी सिद्धियों का वर्णन है उन सबको प्रकारान्तर से चित्त-वृत्तियों के संयम से उत्पन्न उपलब्धियाँ ही कहा जा सकता है।
संकल्प और संयम यह दोनों शरीर और मन की संयुक्त उपलब्धियाँ है। इन्हें आत्म साधना का पूर्वार्ध कह सकते हैं। कारण यह कि इनका सीधा सम्बन्ध और प्रभाव भौतिक गतिविधियों के साथ जुड़ा रहता है। अस्तु इन दोनों को स्थूल वर्ग में गिना गया है। और इनके सत्परिणामों को उन सिद्धियों के रूपं में देखा जाता है जिनके आधार जिनका प्रभाव लौकिक होता है। और जिन्हें चमत्कारी कहा जाता है। उत्तरार्ध के रूपं में विश्वास और श्रद्धा इन दो भावसंवेदनाओं की गणना होती है। इन्हें अन्तरात्मा के गहन स्तर से निकलते हुए अमृत श्रोत कहा जा सकता है।
विश्वास से अस्थिरता चंचलता, संदेह, आशंका आदि का बिखराव समाप्त होता है और दृढ़ निश्चय की स्थिति उत्पन्न होती है। यह बात इस तरह है इस सम्बन्ध में कोई सुस्थिर स्थापना न हो सके तो मन शंकाशील बना रहता है। ऐसी दशा में उस संदर्भ में कोई स्थिर कदम भी नहीं उठ पाता। विश्वास उस निश्चिंतता का अन्त करता है और पूरे मनोयोग से कुछ करने गुजरने की तत्परता उत्पन्न होती है।
भौतिक मान्यताओं के सम्बन्ध में अनेक कसौटियाँ परीक्षण प्रक्रियाएँ ऐसी है जिनके आधार पर परीक्षण विश्लेषण करके यथार्थता का निश्चय किया जा सकता है, पर मान्यताओं-आस्थाओं के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। उन्हें तर्क, विवेक, प्रमाण आदि के आधार पर एक सीमा तक ही सिद्ध किया जा सकता है। सन्देह की गुँजाइश फिर भी बनी रहती है प्रतिपक्षी दलीलों और प्रमाणों को भी उतने ही बलपूर्वक प्रस्तुत किया जा सकता है।हिन्दू धर्म उत्तम है या ईसाई धर्म? दोनों में से किसे चुनना चाहिए इसका निर्णय दलीलों के आधार पर न हो सकेगा। दोनों पक्षों से इतने प्रबल तर्क उपस्थित किये जा सकते हैं कि इसको या उसको अपनाने योग्य, चुनने के सामान्य व्यक्ति हतप्रभ रह सकता है। संदिग्ध मन स्थिति में इनमें से किसी एक को अपनाया जाय तो निष्ठा के अभाव में उसे अपनाने की वैसी दिव्य प्रतिक्रिया उत्पन्न न हो सकेगी जैसी कि अगाध विश्वास के आधार पर किसी स्वीकृति या प्रक्रिया की होती है। आध्यात्मिक मान्यताओं को प्राणवान बनने और फलित होने की शक्ति विश्वास से ही उत्पन्न होती है।
विश्वास क्षेत्र में एक बड़ी कठिनाई यह है कि उसमें अन्ध-विश्वास घुस पड़ने की पूरी गुँजाइश बनी रहती है। सामाजिक साम्प्रदायिक अन्ध-मान्यतायें अन्ध-परम्पराएँ लोगों के मस्तिष्कों पर किस बुरी तरह छाई हुई है- दुराग्रह के रूपं में पत्थर की लकीरें बन गई है- और लोगों की शक्ति किस बुरी तरह बर्बाद कर रही है। यह किसी से छिपा नहीं है। अध्यात्म क्षेत्र में भी ऐसा ही हो सकता है। अन्धता तो सर्वत्र दुष्परिणाम ही उत्पन्न करती है। आत्मिक क्षेत्र में अन्धविश्वास भी कम हानिकारक नहीं होते हैं। अस्तु विवेक युक्त विश्वासों को ही मान्यता मिलनी चाहिए, जिन आदर्शों, सिद्धान्तों आस्थाओं को मान्यता दी जानी है। उनके बारे में आवश्यक छानबीन कर ली जाय और यथार्थता एवं उपयोगिता के सम्बन्ध में पक्ष-विपक्ष का मंथन करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचा जाय कि जो स्वीकार किया जा रहा है वह नैतिकता एवं उच्चस्तरीय आदर्शवादिता का तथ्यपूर्ण समर्थन करती है या नहीं रामायण की दो चौपाइयाँ इस सम्बन्ध में उपयोगी मार्ग दर्शन करती है। कहा है-
जाने विनु न होहि परतीती। बिना प्रतीति होहि किमि प्रीती॥ बिना प्रीति किमि भक्ति दृढ़ाई। जिगि खगेश जल की चिकनाई॥
विश्वास पूर्ण वस्तु स्थिति को जानना आवश्यक है। सुनिश्चित विश्वास होने पर ही किसी प्रसंग में उत्साह बढ़ता और लगन लगती है। यही भक्ति है। यदि विश्वास ही न जम सका तो प्रीति और भक्ति का दृढ़ता कैसे सम्भव होगी? इसी तथ्य को तुलसीदास जी ने प्रकट किया है। उच्च आदर्शों की उपयोगिता पर हमें विश्वास नहीं होता और सोचते हैं अनैतिकता अपनाने का लाभ अधिक है। जीवन के अनादि और अनन्त स्वरूप को स्वीकार करने के लिए आस्था तैयार नहीं होती। जो जिया जा रहा है उतना ही सीमित जीवन है यही माना जाता है और उतनी ही परिधि की लाभ-हानि का सब कुछ समझा जाता है। ईश्वर का भजन तो होता है, पर उस पर विश्वास का कोई लक्षण नहीं दीखता। यदि उसके अस्तित्व को सच्चे मन से स्वीकारा जाता तो उसके सुनिश्चित विधि-विधान कर्मफल को भी हृदयंगम किया गया होता और अनीति के मार्ग पर एक कदम भी आगे बढ़ सकना संभव न होता। सर्वव्यापी, न्यायकारी,निष्पक्ष कर्म कसौटी पर खरे खोटे की परख करने वाले परमेश्वर पर जो विश्वास करेंगे और “ सियाराम मय सब जग जानी” की मान्यता अपनाकर हर किसी से सद्व्यवहार करने के अतिरिक्त और कोई चारा ही न रह जाएगा। नगण्य से सत्ताधारियों, सम्पत्ति वालों और कलाकारों के पीछे हम मधुमक्खी की तरह चिपके फिरते हैं, और उनकी मनुहार करते हैं फिर ईश्वर का स्वरूप और अस्तित्व को समझने वाला उसके समीप बिठाने की प्रक्रिया उपासना को निरानन्द और उपेक्षणीय कदापि अनुभव न करता। साधना के सत्परिणामों पर हमारा पक्का विश्वास रहा होता तो अन्य लाभदायक उद्योगों में जितनी तत्परता रहती है उससे भी अधिक इस दिशा में रही होती। उपेक्षा और अन्य मनस्कता के कारण ही हम उखड़ी-उखड़ी साधना करते रहते हैं और विश्वास की परिपक्वता के अभाव में सत्परिणामों से वंचित रहते हैं। विश्वास के फलस्वरूप झाड़ी का भूत, रस्सी का साँप ओर आशंका का आतंक रोमांचकारी भय संचार कर सकता है। तो उसकी उच्चस्तरीय प्रतिष्ठापना से पत्थर में से देवता भी प्रकट हो सकता है। मीरा के गिरधर गोपाल ,रामकृष्ण परमहंस की काली ,एकलव्य के द्रोणाचार्य मात्र उनके गहन विश्वास द्वारा किये गये चमत्कारी उत्पादन भर कहे जा सकते हैं।
मंत्र शक्ति के- ईश्वर भक्ति के जो चमत्कार दिखाई पड़ते हैं उसका प्रादुर्भाव सघन विश्वास के फलस्वरूप ही होता है। यांत्रिक और तांत्रिक अपने कर्मकाण्डों पर, विधानों पर और उनके परिणामों पर असंदिग्ध विश्वास करते हैं फलतः उनकी आस्थाएँ परिपक्व होकर देवताओं के रूपं में न केवल मूर्तिमान् होती है वरन् वरदान भी प्रस्तुत करती है। छाया पुरुष अपनी भीतरी सत्ता की प्रतिच्छवि है और अपनी ही सुदृढ़ आस्था द्वारा विनिर्मित होकर अपने से कम नहीं वरन् अधिक ही समर्थ सिद्ध होती है। अध्यात्म मार्ग के पथिकों को विवेकपूर्वक अपने आदर्शों की यथार्थता और लक्ष्य की प्रखरता के सम्बन्ध में असंदिग्ध मनःस्थिति का अन्त करना चाहिए और लक्ष्य एवं साधन पर इतना प्रगाढ़ विश्वास का प्रचंड चुम्बकत्व उत्पन्न करना चाहिए कि सफलता स्वयं ही खिंचती हुई अपने तक चली आये।
आत्मिक सफलताओं का अन्तिम, सबसे प्रबल और समर्थ ब्रह्म शास्त्र ही श्रद्धा है। श्रद्धा का तात्पर्य है उत्कृष्टता के प्रति इतनी गहन संवेदना और भावभरी उत्सुकता का उच्चभाव जिसके कारण उसके पाने के लिए सब कुछ निछावर कर देना भी कठिन दिखाई न पड़े। यहाँ दीपक और पतंगों का, चन्द्र-किशोर का, पपीहा स्वाति बूँद का उदाहरण ठीक बैठता है। प्यार तो बराबर वालों और छोटों से भी किया जा सकता है। उत्सुकता तो व्यसन और विनोद के लिए भी हो सकती है। उमंग तो दुष्कर्मों के लिए भी उठती है। इन संवेदनाओं से श्रद्धा की तुलना नहीं हों सकती। वह तो मात्र ऐसे उच्चादर्शों के लिए उत्कृष्ट व्यक्तित्वों पर ही केन्द्रित हो सकती है।जिनका अनुसरण करने पर आत्म-कल्याण का पथ-प्रशस्त हो सकता है।
ईश्वर पर, उपासना प्रक्रिया पर, लक्ष्य पर, मार्ग दर्शक पर जितनी गहन श्रद्धा होगी उसी अनुपात से आत्म साक्षात्कार का- ईश्वर प्राप्ति का- उद्देश्य पूरा होगा। श्रद्धा ओर विश्वास अन्तरात्मा की वे दिव्य स्थितियाँ है जिन पर आत्मिक प्रगति की समस्त सम्भावनाओं का आधार खड़ा होता है। लोक शरीर बल, मनोबल, बुद्धि बल और धन बल के आधार पर मिलने वाली लौकिक सफलताओं से ही परिचित है। यदि किसी प्रकार यह जाना जा सके। कि व्यक्तित्व का स्वरूप एवं भविष्य निर्धारण करने में आकांक्षाओं एवं संवेदनाओं की ही सर्वोपरि भूमिका होती हैं तो यह भी समझ में आ जाएगा कि जो बनना है उसके अनुरूप श्रद्धा को ढालने की अनिवार्य आवश्यकता होगी।
मन और शक्ति दोनों ही आन्तरिक आस्थाओं से प्रेरित और संचालित होते हैं। आकांक्षाओं की उमंगें उस उपलब्धि के लिए योजना बनाने का आदेश देती है वह बिना ननुनच के उसी प्रकार का ताना-बाना बुनना आरम्भ कर देती है। शरीर उसी के अनुरूप काम करने में जुट जाता है। शरीर अपने आप में कुछ नहीं जड़ उपकरण मात्र है। मन भी समुचित इन्द्रिय में चेतना का विद्युत प्रवाह चल पड़ने से अपना काम करता है। ट्रांजिस्टर में जिस प्रकार ‘क्रिस्टल मैगनेट’ की शक्ति काम करती है उसी प्रकार व्यक्तित्व के निर्माण, निर्धारण एवं परिवर्तन में एक मात्र श्रद्धा की शक्ति ही काम करती है वह आसुरी प्रयोजनों को अपनाये तो फिर सर्वनाशी अन्त-पतन सुनिश्चित है। यदि उसे उत्कृष्टता के साथ जाड़ दिया जाय तो उच्चस्तरीय प्रगति की दिशा में द्रुतगति से बढ़ते जाना सुनिश्चित है
रामायण ने श्रद्धा विश्वास की उपमा भवानी और शंकर से दी है। ‘भवानी शकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणी’ का तात्पर्य यही है। गीता का कथन है- “श्रद्धा मयोडयं पुरुष यो यच्छद्धः स एव सः यह पुरुष (आत्मा अथवा परमात्मा) श्रद्धा तत्त्व से ओत प्रोत है। जो जिस स्तर की श्रद्धा अपनाये हुए है वह ठीक उसी प्रकार का है। “श्रद्धावान लभते ज्ञानं” आत्म ज्ञान मात्र श्रद्धावान मिलता है। आत्मिक क्षेत्र की सर्वोपरि शक्ति श्रद्धा हैं। इसको जो जितनी परिष्कृत-विकसित बना सकेगा वह उतनी ही मात्रा में अध्यात्मिक सफलताओं का सामने करबद्ध खड़ा हुई देखेगा।
आत्मोत्कर्ष के चारों शक्ति साधन जुटाये जाने आवश्यक है। संयम से शरीर और संकल्प से मन सधता है। विश्वास से चित्त और श्रद्धा से अहं की- आत्मा की शक्ति निखरती है इसी चतुर्विधि शक्ति संचय के लिए विविध प्रकार के योग साधना एवं तप विधान में विनियमित किये गये है। इन्हीं चारों का तत्त्व दर्शन समझाने के ब्रह्मा जी ने चार मुखों से चार वेदों की सुविस्तृत ब्रह्म विद्या का उपदेश दिया है। इसी अवलम्बन को ग्रहण करते हुए साधकों को जीवन लक्ष्य में हिमालय शिखर पर पहुँच सकने का सौभाग्य प्राप्त होता है।