रेलगाड़ी तेज रफ्तार से दौड़ रही थीं। तृतीय श्रेणी के छोटे से कम्पार्टमेंट में खद्दर का कुरता और खद्दर की ही धोती पहने एक सज्जन बड़ी तन्मयता से अख़बार पढ़ रहे थे। उनके सामने की सीट पर एक मुल्ला जी बैठे थे। उन्हें जोर की खाँसी आई, खखार कर बाहर थूकने की तकलीफ न कर अन्दर के फर्श को ही गंदा कर दिया।
‘यदि आपने बाहर थूका होता तो कितना अच्छा रहता। कोई यात्री यहाँ आकर बैठेगा तो उसका पैर बिना सने नहीं रह सकता। जब हम देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिये जी जान से प्रयत्न कर रहे हैं तो कम से कम साधारण से शिष्टाचार के नियमों का पालन तो करना ही चाहिए। उस भद्र पुरुष ने अख़बार पर से अपनी दृष्टि हटाकर बड़े विनम्र शब्दों में समझाते हुए कहा।
मुल्ला जी किसी का उपदेश सुनने की स्थिति में कहाँ थे। उन्होंने चुनौती की भावना से सामने बैठे व्यक्ति की ओर देखा। उनकी आँखों से झलक रहा था- तुम्हारी ऐसी जुर्रत। तुम मेरा बिगाड़ ही क्या लोगे”?
वह भद्र पुरुष उठा। उसने अपने अखबार का एक कोना फाड़ा और मौलाना का थूक पोंछकर खिड़की से बाहर फेंक दिया। मौलाना जी मन ही मन तिलमिलाये उन्हें लगा यह काँग्रेसी मेरी तौहीन कर रहा है। उनकी नफरत फिर भीतर से बाहर प्रकट हुई। उनको फिर खाँसी आई। और जान बूझकर उन्होंने दो तीन बार फर्श पर ही थूक दिया
उन सज्जन ने सोचा जब व्यक्ति एक बार समझाने पर समझने का प्रयास नहीं करता तो दुबारा कुछ कहने से लाभ भी क्या है? वे फिर उठे उन्होंने थूक पोंछकर बाहर फेंका। जितनी बार मौलाना ने अपनी हठधर्मी दिखाई उतनी ही बार उन सज्जन ने उसे साफ करके बारह फेंका। जब दुष्ट अपनी दुष्टता छोड़ने को तैयार नहीं फिर सज्जन ही उसे क्यों छोड़े?
निश्चित स्टेशन आ गया। प्लेटफार्म सैकड़ों स्वयं सेवकों, कार्यकर्ताओं और दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था। ‘महात्मा गाँधी की जय’ और भारत माता की जय’ से आकाश गूँज उठा। कार्यकर्ता हाथों में तिरंगा ध्वज लिये उनके स्वागत को दौड़ पड़े। गाड़ी रुकी। लोग अपने प्रिय नेता को उसी डिब्बे में देख, घेर कर खड़े हो गये। मौलाना को भी यहीं उतरना था। अब उन्हें समझते देर न लगी कि यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं वरन् विश्व बंधु बापू हैं।