धर्म

Akhand Jyoti May 2013

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धर्म का प्रचार तो बहुत हो रहा है, लेकिन इसका आचरण नहीं के बराबर हो रहा है। जहाँ देखो, जिधर सुनो, वहीं प्रवचन, जो कि यथार्थ में पर- वचन हैं, दिखाई- सुनाई दे रहे हैं। गली- चौराहों के जमघट हों या फिर टी० वी० का जादुई बक्सा, यही नजारे नजर आते हैं। जिसे देखो- सुनो, वही शास्त्रवचन दोहराता है, लेकिन अनुभव से एकदम अनभिज्ञ है। इसी का परिणाम है—जीवन निरंतर दुःख और पीड़ा में डूबता जा रहा है। बातें देवत्व की हो रही हैं; जबकि जीवन निरंतर पशुता की ओर झुकता जा रहा है।

ऐसा केवल इसलिए है; क्योंकि आचरणविहीन धर्म आडंबर के सिवा और कुछ भी नहीं। पत्थरों के पुराने मंदिरों में सिर झुकाने की रीति निभाने वालों की दशा भी पत्थर जैसी हो चली है। अनुभवविहीन मुरदा शब्दों की चर्चा- चिंता में डूबे लोगों में भी मुरदानगी छाने लगी है। उधार की मृत बातों से चित्त इतना बँध गया है कि स्वयं का अनुसंधान करने का उत्साह नहीं रहा। विचार व आचरण के बीच की गहरी खाई ने धर्म को प्रभावहीन बना दिया है।

एक बूढ़े फकीर इस संदर्भ में एक कहानी सुनाया करते थे। एक पहाड़ी गाँव में एक पालतू तोता था, जो ‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता’ चिल्लाया करता था। एक बार फकीर उस गाँव में ठहरे। रात में उन्होंने तोते की वेदना भरी वाणी सुनी। वह फकीर अपनी युवावस्था में देश के स्वाधीनता आंदोलन में कई बार कैद रह चुके थे। इसलिए तोते द्वारा कहे गए शब्दों ‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता’ को सुनकर उनके हृदय के तार झनझना उठे। उन्होंने बड़ी मुश्किल से तोते के मालिक को उस तोते को स्वतंत्र करने के लिए राजी किया। इसके बाद उन्हें उस तोते को ङ्क्षपजरे से निकालने में काफी मुश्किल हुई। काफी मुश्किल के बाद वह फकीर उस तोते को खुले आकाश में उड़ाने में सफल हुए, लेकिन अगले दिन उन्होंने देखा कि वही तोता फिर से अपने पिंजरे में बैठकर ‘स्वतंत्रता’ की टेर लगा रहा है। यह देखकर वह मुस्करा उठे। अब उन्हें आचरणविहीन धर्म का आडंबर अनुभव हो रहा था।

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