धम्मं शरणं गच्छामि

Akhand Jyoti May 2013

<<   |   <   | |   >   |   >>

बुद्ध पूर्णिमा वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा का दिन है। इसी शुभ दिन भगवान बुद्ध ने नेपाल के लुंबिनी नामक स्थान में ५६३ ईसा वर्ष पूर्व जन्म लिया। यह वही दिन है, जिस दिन ५२८ ईसा वर्ष पूर्व उन्होंने बोधगया में एक वृक्ष के नीचे यह जाना कि सत्य क्या है? और इसी दिन कुशीनगर में ४८३ ईसा वर्ष पूर्व ८० वर्ष की उम्र में अपनी नश्वर देह का त्याग किया। यह एक अद्भुत संयोग है कि इसी दिन उन्होंने जन्म लिया, इसी दिन निर्वाण को प्राप्त किया और इसी दिन अपने शरीर का त्याग किया, इसीलिए यह शुभ दिन भगवान बुद्ध को समर्पित है और भगवान बुद्ध की जयंती के रूप में ‘बुद्ध पूर्णिमा’ के नाम से मनाया जाता है।

भगवान बुद्ध ने सही अर्थों में मनुष्य को जीवन जीना सिखाया, अपने आप को जानना सिखाया, जीवन की नश्वरता को शाश्वतता में अनुभव करना सिखाया और संसार में एक ऐसी वैश्विक क्रांति की लहर पैदा की, जिसे सभी ने स्वीकारा, अंगीकार किया और उनके होते चले गए। बौद्ध धर्म ऐसा धर्म है, जो विश्व के सर्वाधिक देशों में फैला हुआ है। भगवान बुद्ध की प्रतिमाएँ दुनिया के सर्वाधिक देशों में मिलती हैं और खुदाई से भी प्राप्त होती हैं।

भगवान बुद्ध का जीवन सत्य की खोज में, निर्वाण प्राप्ति में तथा लोगों को उपदेश देने व सन्मार्ग पर लाने में लगा। उन्होंने मानव मनोविज्ञान और दुःख के हर पहलू के विषय में चर्चा करी और उसके समाधान भी बताए। भगवान बुद्ध ने जितना कहा और जितना समझाया, उतना संभवतया किसी और ने नहीं कहा। उनके सैंकड़ों ग्रंथ ऐसे हैं जो उनके प्रवचनों से भरे हुए हैं, लेकिन उनमें कहीं भी कोई बात दोहराई नहीं गई है। जिसने बुद्ध को पढ़ा, समझा वह उनका भिक्षु हुए बगैर नहीं रह सका। भगवान बुद्ध का मार्ग दुःख से मुक्ति पाकर निर्वाण अर्थात शाश्वत आनंद की प्राप्ति का मार्ग है।

एक बार भगवान बुद्ध से एक भिक्षु ने प्रश्न
किया—‘‘बुद्ध हो जाने के बाद आपने अपने मन को

कहाँ लगाया? क्योंकि बुद्ध बन जाने के बाद उसके लिए यह संसार तो निरर्थक है और इस निरर्थक संसार में रहने के लिए अपने मन को कहीं पर तो लगाना आवश्यक है।’’ तब उन्होंने उत्तर दिया—‘‘तुम लोगों से चर्चा करने में।’’ निश्चित रूप से भगवान बुद्ध ने जितने प्रवचन किए, जितने लोगों को उपदेश दिए, उतने और किसी ने नहीं किए।

पश्चिम के बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक भगवान बुद्ध के उपदेशों को अब अधिक गंभीरता से ले रहे हैं। चीन, जापान, श्रीलंका और भारत सहित दुनिया के अनेकों बौद्ध राष्ट्रों में पश्चिमी देशों की संख्या अधिक है, जहाँ सर्वाधिक संख्या में बौद्ध मठ हैं। अब सभी यह भी जानने लगे हैं कि पश्चिमी धर्मों में जो शिक्षाएँ हैं, वे बौद्ध धर्म से ली गई हैं,क्योंकि बौद्ध धर्म ईसामसीह से ५०० वर्ष पूर्व विश्व में फैल चुका था और इसे फैलाने में उन हजारों भिक्षु- भिक्षुणियों ने सहयोग किया था, जो भगवान बुद्ध के शिष्य बन गए थे और संकल्पित थे कि उनके उपदेशों का अमृत केवल उन तक सीमित नहीं रहना चाहिए, वरन इसकी मिठास पूरे विश्व में फैलनी चाहिए और कठिन संघर्षों से जूझते हुए, भूख- प्यास को सहते हुए भी उन्होंने दूसरे देशों में जाकर भगवान बुद्ध की शिक्षाओं का प्रचार किया।

उनके इन्हीं प्रयासों का परिणाम था कि उस समय के साधन- सुविधा विहीन जीवन में भी भिक्षुगण समुद्रों, पहाड़ों, हिमालय के शिखरों को लाँघकर पूरे विश्व में फैल गए और अपने भगवान को अमर कर दिया। उस समय दुनिया का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बचा था, जहाँ बौद्ध भिक्षुओं के कदम न पड़े हों। उस समय विश्वस्तर पर पहली बार धार्मिक क्रांति हुई थी, जिसने धर्म को दार्शनिक स्तर से व्यावहारिक स्तर पर स्थापित किया। लोगों को भ्रम की दुनिया से निकालकर यथार्थ का बोध कराया और जीवन को सही मार्ग की ओर अग्रसर किया।

भगवान बुद्ध ने कभी यह दावा नहीं किया कि वे ‘मुक्ति- दाता’ या ‘मोक्ष- दाता’ हैं। उनका कहना था कि

वे केवल मार्ग बताने वाले हैं और अपने मोक्ष के लिए व्यक्ति को स्वयं ही प्रयास करना होगा। उन्होंने ‘मोक्ष- दाता’ को ‘मार्ग- दाता’ से हमेशा भिन्न रखा और स्वयं को ‘मार्ग- दाता’ ही कहा। एक बार एक ब्राह्मण की इसी शंका का निवारण करते हुए भगवान बुद्ध ने कहा—‘‘एक व्यक्ति तुमसे राजगृह जाने का रास्ता पूछता है और तुम उसे ठीक मार्ग बता देते हो, लेकिन वह उसे छोड़कर गलत मार्ग पर चल देता है, पूर्व दिशा के बदले पश्चिम की ओर चला जाता है तो वह राजगृह नहीं पहुँच पाएगा, लेकिन एक दूसरा आदमी आता है, वह भी राजगृह का रास्ता पूछता है, उसे भी तुम सही रास्ता बताते हो तो वह तुम्हारे बताए मार्ग पर चलकर राजगृह पहुँच जाता है। अब यह बताओ कि इन दो परिणामों के बारे में तुम क्या करोगे?’’ ब्राह्मण ने उत्तर दिया—‘‘मैं कुछ नहीं करूँगा, मेरा तो काम मार्ग बता देना है। चलना और जाना उनका काम है।’’

यह सुनकर भगवान बुद्ध बोले—‘‘हे ब्राह्मण! मैं भी क्या करूँ, मेरा काम भी केवल रास्ता बता देना है।’’ बुद्ध ने हमेशा स्वयं को अन्य मनुष्यों की तरह प्रकृति- पुत्र कहा। बुद्ध का मार्ग खोज का मार्ग है और इसी खोज के आधार पर उन्होंने मनुष्य जीवन का सही मर्म लोगों को बताया।

भगवान बुद्ध ने कभी भी अपने अनुयायियों को मोक्ष या निर्वाण देने का वायदा या लालच नहीं दिया। हाँ, यह अवश्य कहा कि जो उनके बताए मार्ग पर पूर्ण समर्पण से चलेगा, उसे निर्वाण की प्राप्ति अवश्य होगी।

बुद्ध ने अपने मार्ग को मध्यम मार्ग कहा और अपने भिक्षुओं को उपदेश दिया—‘‘भिक्षुओ! इन दो अतियों का सेवन नहीं करना चाहिए—(१) काम- सुख में लिप्त होना और (२) शरीर को पीड़ा देना, इन दो अतियों को छोड़कर जो मध्यम मार्ग है, जो अंतर्दृष्टि देने वाला, ज्ञान कराने वाला और शांति देने वाला है, वही मध्यम मार्ग श्रेष्ठ है और यह आठ अंगों वाला (अष्टांगिक) है—सम्यक दृष्टि,सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्म, सम्यक जीविका, सम्यक व्यायाम (अभ्यास), सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि।’’ यहाँ सम्यक का अर्थ है—सही, संतुलित, उचित व ठीक।

इस तरह भगवान बुद्ध सम्यक शब्द के माध्यम से यह उपदेश अपने जीवन के अनुभव से गुजरकर देते हैं। जिस तरह से वीणा को अधिक कसकर या अधिक ढीला छोड़कर बजाया नहीं जा सकता, उसी तरह जीवन में अति कठोरता या अति ढीलापन बरतना भी नुकसानदायक होता है, इसीलिए भगवान बुद्ध का इस उपदेश में यह ‘सम्यक’ शब्द उचित ही है। हम सभी उन्हें ‘भगवान बुद्ध’ इसलिए कहते हैं, क्योंकि उन्होंने चेतना के उस आयाम का स्पर्श किया, जिसे चेतना का शिखर कहा जाता है तथा उस आयाम पर मनुष्य- मनुष्य न होकर भगवान हो जाता है, बुद्ध हो जाता है। यदि कोई उनके द्वारा बताए गए अष्टांगिक मार्ग का अपने जीवन में पालन करे और उसे अपने जीवन में महसूस करे तो वह भी दिव्य चेतना के उस स्तर तक पहुँच सकता है।

अध्यात्म यदि यथार्थवादी सिद्धांतों पर आधारित हो और उसे सघन श्रद्धा के साथ अपनाया जाए तो उसकी परिणति भी ऐसी ही होती है। कुछ व्यक्तियों के द्वारा किया गया यह प्रयत्न सारा वातावरण बदल सकता है। कभी सतयुगी परिस्थितियाँ इसी आधार पर बनी थीं। उसी का प्रत्यावर्तन अब फिर आवश्यक है। सत्पात्र इस दिशा में बढ़ें तो अपना और असंख्यों का कल्याण कर सकते हैं। प्रतिभा और प्रेरणा का उभयपक्षीय लाभ इस आधार पर समस्त संसार उठा सकता है।
                                                                         —परमपूज्य गुरुदेव




<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: