गहना कर्मणोगतिः

अपनी दुनियाँ के स्वयं निर्माता

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एक दार्शनिक का मत है कि संसार एक निष्प्राण वस्तु है। इसे हम जैसा बनाना चाहते हैं, यह वैसा ही बन जाता है। जीव चैतन्य है और कर्त्ता है। संसार पदार्थ है और जड़ है। चैतन्य कर्ता में यह योग्यता होती है कि वह जड़ पदार्थ की इच्छा और आवश्यकता का उपयोग कर सके। कुम्हार के सामने मिट्टी रखी हुई है, वह उससे घड़ा भी बना सकता है और दीपक भी। सुनार के सामने सोना रखा हुआ है, वह उससे मनचाहा आभूषण बना सकता है। दर्जी के हाथ में सुई है और कपड़ा भी। वह चाहे तो कुर्ता सी सकता है, चाहे पाजामा। संसार ठीक इसी प्रकार हमारे सामने रखा हुआ है। उसमें सत्, रज, तम तीनों का मिश्रण है। चुनने वाला आदमी अपनी मर्जी के मुताबिक उनमें से चाहे जो वस्तु चुन सकता है। बाग में कीचड़ भी है, गंदगी भी है और फूलों की सुगंध भी है। कीड़े कीचड़ में घुस पड़ते हैं, मक्खियाँ गंदगी खोज निकालती हैं और भौंरे सुगंधित फूल पर जा पहुँचते हैं। सब को अपनी इच्छित वस्तु मिल जाती है, चमगादड़ और उल्लू रात में भी प्रकाश फैलाते हैं, मधु-मक्खियों को घास के बीच मिठाई के ढेर मिल जाते हैं, साँप को ओस में भी विषवर्धक तत्त्व प्राप्त हो जाते हैं। त्रिगुणमयी प्रकृति में तीनों तरह की वस्तुएँ मौजूद हैं। इस दुकान पर खट्टा, मीठा, नमकीन तीनों तरह का सौदा बिकता है। जो जैसा ग्राहक आता है, अपनी मन पसंद का सामान खरीद ले आता है। इस भण्डार में किसी वस्तु की कमी नहीं है। हर वस्तु के गोदाम भरे हुए हैं। माता ने षट् रस व्यंजन तैयार करके रखे हैं जिस बच्चे की जो रुचि हो खुशी-खुशी खा सकता है।

त्रिगुणमयी प्रकृति के दोनों पहलू मौजूद हैं, एक भला, दूसरा बुरा, एक काला, दूसरा सफेद, एक धर्म, दूसरा अधर्म, एक सुख, दूसरा दुःख। चुनाव की पूरी-पूरी आजादी आपको है। दुनियाँ का असली रूप क्या है, यह आरम्भ में ही बताया जा चुका है, पर वह एक तात्त्विक व्याख्या है, व्यावहारिक दृष्टि से हर व्यक्ति की अपनी एक अलग दुनियाँ है। एक व्यक्ति चोर है, उसके मानसिक आकर्षण से बहुत से चोरों से उसकी मैत्री हो जाएगी और जेल में, समाज में, घर में सब जगह उसे चोरी की ही चर्चा मिलेगी। घर वाले उससे बात करेंगे, तो चोरी की, माता बुरा बताएगी स्त्री अच्छा, कोई चोरी का समर्थन करेगा, कोई विरोध करेगा। घर से बाहर निकलने पर उसके परिचित लोग उससे जब मिलेंगे, उससे पेशे चोरी के बारे में ही भला-बुरा वार्तालाप करेंगे, अपने साथी चोरों से मिलेगा, तो वही चोरी की बातें होंगी, जेल में भी चोर-चोर मौसरे भाई की तरह मिल बैठेंगे और अपने प्रिय विषय की बातें खूब घुल-घुल कर करेंगे। इस प्रकार उस चोर के लिए यह सारा संसार चोरी की धुरी पर नाचता हुआ दिखाई देगा। उसको विश्व का सबसे बड़ा काम चोरी ही दिखाई पड़ेगा। अन्य बातों की ओर उसका ध्यान बहुत ही स्वल्प जाएगा। अन्य कार्यों पर उसकी उपेक्षा दृष्टि ही पड़ेगी। इसी प्रकार व्याभिचारी व्यक्ति की दृष्टि में संपूर्ण स्त्रियाँ वेश्याएँ, व्याभिचारिणी, कुमार्गगामिनी दिखाई देंगी, उसी प्रकार की पुस्तकें तस्वीरें खिंच-खिंच कर उसके पास जमा हो जाएँगी। संगी-साथी उसी प्रकार के मिल जाएँगे, उसके मस्तिष्क में सबसे बड़ा प्रश्न काम-वासना सम्बन्धी ही खड़ा रहेगा। नशेबाज अपने स्वभाव के भाई-वृंदों को समेटकर अपनी अलग दुनियाँ बना लेते हैं।

एक ही व्यक्ति कई लोगों को कई प्रकार का दिखाई पड़ता है। माता उसे स्नेह भाजन मानती है, पिता आज्ञाकारी पुत्र मानता है, गुरु सुयोग्य शिष्य समझता है, मित्र हँसोड़ साथी समझते हैं, स्त्री प्राणवल्लभ मानती है, पुत्र उसे पिता समझता है, शत्रु वध करने योग्य समझता है, दुकानदार ग्राहक समझता है, नौकर मालिक मानता है, घोड़ा सवार समझता है, पालतू सुग्गा उसे कैदी बनाने वाला जेलर दीखता है। खटमल, पिस्सू उसे स्वादिष्ट खून से भरा हुआ कोठा समझते हैं। यदि इन सभी सम्बन्धियों की माता, पिता, गुरु, मित्र, स्त्री, पुत्र, शत्रु, दुकानदार, नौकर, घोड़ा, सुग्गा, खटमल, पिस्सू आदि की उन मानसिक भावनाओं का चित्र आपको दिखाया जा सके तो आप देखेंगे कि उस एक ही व्यक्ति के सम्बन्ध में यह सब सम्बन्धी कैसी-कैसी विचित्र कल्पना किए हुए हैं, जो एक-दूसरे से बिल्कुल नहीं मिलतीं। इनमें से एक भी कल्पना ऐसी नहीं है, जो उस व्यक्ति के ठीक-ठीक और पूरे स्वरूप को प्रकट करती हो। जिसे उससे जितना एवं जैसा काम पड़ता है, वह उसके सम्बन्ध में वैसी ही कल्पना कर लेता है। तमाशा तो यह है कि वह मनुष्य स्वयं भी अपने बारे में एक ऐसी कल्पना किए हुए है। मैं वेश्या हूँ, लखपति हूँ, वृद्ध हूँ, पुत्र रहित हूँ, कुरूप हूँ, गण्यमान्य हूँ, दुःखी हूँ, बुरे लोगों से घिरा हुआ हूँ, आदि नाना प्रकार की कल्पनाएँ कर लेता है और उस कल्पना लोक में जीवन भर विचरण करता रहता है। जैसे दूसरे लोग उसके बारे में अपने मतलब की कल्पना कर लेते हैं, वैसे ही मन भी अपने बारे में इंद्रियों की अनुभूति के आधार पर अपने सम्बन्ध में एक लँगड़ी-लूली कल्पना कर लेता है और उसी कल्पना में लोग नशेबाज की तरह उड़ते रहते हैं। ‘‘मैं क्या हूँ?’’ इस मर्म को यदि वह किसी दिन समझ पाए, तो जाने कि मैंने अपने बारे में कितनी गलत धारणा बना रखी थी।

लोग ऐसी ही अपनी-अपनी भावुकता पूर्ण मानसिक उड़ान के हवाई घोड़ों पर चढ़कर सच्चाई के बहुत ऊँचे आकाश में उड़ते रहते हैं और उसी नशे में कोई मन के लड्डू खाया करता है। कोई मन के चने चबाया करता है, कोई शराबी सामने वाली दीवार को गालियाँ देकर अपना सिर फोड़ रहा है और कोई कुत्ते के बाहुपाश में कशकर प्रियतमा को चुंबन-आलिंगन का मजा ले रहा है। हम लोग अज्ञान के नशे में सो रहे हैं। किसी को महलों के सपने आ रहे हैं, कोई भयंकर दुःस्वप्न देखकर भयभीत हो रहा है। किसी शेखचिल्ली की शादी हो रही है, कोई पगला अमीरी और बादशाही बघार रहा है। दुनियाँ के पागल खाने में तरह-तरह की खोपड़ियाँ डोल रही हैं। यह सभी मूर्तियाँ अपने ढंग की विचित्र हैं, सभी अपने को होशियार मान रहे हैं। आप कभी पागलखाने देखने गए हों और अधिक समय तक वहाँ बंद रहने वाले ‘‘बुद्धिमानों’’ की बातें सुनी हों, तो आसानी से दुनियाँदार लोगों के उन स्वप्नों की तुलना कर सकते हैं, जो कि वे दुनियाँ के बारे में सोते समय देखते रहते हैं।

मनुष्यों को नाना प्रकार के दुःखों में रोते हुए और नाना प्रकार के सुखों में इतराते हुए हम देखते हैं। ‘‘दुनियाँ बहुत बुरी है, यह जमाना बड़ा खराब है, ईमानदारी का युग चला गया, चारों ओर बेईमानी छाई हुई है, सब लोग धोखेबाज हैं, धर्म धरती पर से उठ गया।’’ ऐसी उक्तियाँ जो आदमी बार-बार दुहराता है, समझ लीजिए कि वह खुद धोखेबाज और बेईमान है। इसकी इच्छित वस्तुएँ इसके चारों ओर इकट्ठी हो गई हैं और उनकी सहायता से सुव्यवस्थित कल्पना चित्र इसके मन पर अंकित हो गया है। जो व्यक्ति यह कहा करता है दुनियाँ में कुछ काम नहीं है, बेकारी का बाजार गर्म है, उद्योग धंधे उठ गए, अच्छे काम मिलते ही नहीं, समझ लीजिए कि इसकी अयोग्यता इसके चेहरे पर छाई हुई है और जहाँ जाता है, वहाँ के दपर्ण में अपना मुख देख आता है। जिसे दुनियाँ स्वार्थी, कपटी, दम्भी, दुःखमय, कलुषित, दुर्गुणी, असभ्य दिखाई पड़ती है, समझ लीजिए कि इसके अंतर में इन्हीं गुणों का बाहुल्य है। दुनियाँ एक लम्बा-चौड़ा बहुत बढ़िया बिल्लौरी काँच का चमकदार दर्पण है, इसमें अपना मुँह हूबहू दिखाई पड़ता है। जो व्यक्ति जैसा है, इसके लिए त्रिगुणमयी सृष्टि में से वैसे ही तत्त्व निकल कर आगे आ जाते हैं।

क्रोधी मनुष्य जहाँ जाएगा, कोई न कोई लड़ने वाला उसे मिल ही जाएगा। घृणा करने वाले को कोई न कोई घृणित वस्तु मिल ही जाएगी। अन्यायी मनुष्य को सब लोग बड़े बेहूदे, असभ्य और दण्ड देने योग्य दिखाई पड़ते हैं। होता यह है कि अपनी मनोभावनाओं को मनुष्य अपने सामने वालों पर थोप देता है और उन्हें वैसा समझता है जैसा वह स्वयं है। साधुओं को असाध्वी स्त्रियों से पाला नहीं पड़ता, विद्याभ्यासियों को सद्ज्ञान मिल ही जाता है, जिज्ञासुयों की ज्ञान पिपासा पूरी होती ही है, सतयुगी आत्माएँ हर युग में रहती हैं और उनके पास सदैव सतयुग बरतता रहता है।

हमारा यह कहने का तात्पर्य कभी नहीं है कि दुनियाँ दूध से धुली हुई है और आप अपने दृष्टि दोष से ही उसे बुरा समझ बैठते हैं। पीछे की पंक्तियों में यह बार-बार दुहराया जा चुका है कि दुनियाँ त्रिगुणमयी है। हर एक वस्तु तीन गुणों से बनी हुई है। उसमें आपसे छोटे दर्जे के बच्चे भी पढ़ते हैं आपकी सम कक्षा में पढ़ने वाले भी हैं और वे भी हैं जो आपसे बहुत आगे हैं। तीनों ही किस्म के लोग यहाँ हैं । सतोगुणी वे विद्यार्थी हैं, जो आपसे ऊँची कक्षा के हैं, रजोगुणी वे हैं, जो सम कक्षा में पढ़ रहे हैं, तमोगुणी पिछली कक्षा वाले को कह सकते हैं। डाकू की तुलना में चोर सतोगुणी है, क्योंकि डाकू की अपेक्षा चोर में उदारता के कुछ अंश अधिक हैं, किंतु चोर और डाकू दोनों से श्रमजीवी मजदूर ऊँचा है, उससे ब्राह्मण बड़ा है और ब्राह्मण से साधु बड़ा है। डाकू से साधु बहुत ऊँचा है, पर जीवनमुक्त आत्माओं से साधु भी उतना ही नीचा है, जितना साधु से डाकू। यह डाकू क्या सबसे नीचा है, नहीं, सर्प से वह भी ऊँचा है। सर्प अपनी सर्पिनी के लिए उदार है, डाकू अपने परिवार में उदारता बरतता है, चोर अपने परिचित के यहाँ चोरी नहीं करता, ब्राह्मण अपनी जाति के कल्याण में दत्तचित्त रहता है, साधु मानव मात्र से उदारता करता है, जीवन मुक्तों को मनुष्य या चींटी के बीच कुछ अंतर दिखाई नहीं पड़ता। वह सर्वत्र एक ही आत्मा को देखता है। तात्पर्य यह कि परमपद पाने से पूर्व हर एक प्राणी अपूर्ण है, उसमें नीच स्वभाव कुछ न कुछ रहेगा ही। जिस दिन सारी नीचता समाप्त हो जाएगी, उस दिन तो वह उन्नति के अंतिम शिखर पर पहुचकर चरम ध्येय को ही प्राप्त कर लेगा।

सृष्टि का हर प्राणी आज के वर्तमान स्वरूप में अपूर्ण है। अपूर्ण का अर्थ है-सदोष। बेशक सब मिलाकर दोष से गुण ज्यादा हैं। अधर्म बेशक मौजूद है, पर उससे धर्म ज्यादा है, अंधेरा बहुत ज्यादा है, पर उससे प्रकाश ज्यादा है। दुनियाँ वाले बहुत खराब हैं, पर उसमें खराबी से कहीं ज्यादा अच्छाई मौजूद है। हमें उस अच्छाई पर ही अपनी दृष्टि रखनी चाहिए, अच्छाई से ही आनन्द लेना चाहिए और अच्छाई को ही आगे बढ़ाना चाहिए। दिन में हम जगते हैं, प्रकाश में काम करते हैं, उजाले में रहना पसंद करते हैं। जब रात का अंधेरा सामने आता है, तो आँखें बंद करके सो जाते हैं, जिन्हें रात में भी काम करना है, वे दीपक जला लेते हैं। हमारी यह उजाले में काम करने, अंधेरे में सो जाने की प्रवृत्ति यह सिखाती है कि संसार के साथ किस तरह व्यवहार करना चाहिए। किसी आदमी में क्या सद्गुण है, उसे खोज निकालिए और उन्हीं से सम्पर्क रखिए, उन्हीं में आनंद लीजिए, उन्हें ही प्रोसाहित कीजिए, जो दोष हों उन्हें भी देखिए तो सही, पर उनमें उलझिए मत। रात की तरह आँख बंद कर लीजिए। महर्षि दत्तात्रेय की कथा जानने वालों को विदित होगा कि जब तक वे दुनियाँ के काले और सफेद दोनों पहलुओं का समन्वय करते रहे, तब तक बड़े चिंतित और दुःखी रहे। जब उन्होंने कालेपन से दृष्टि हटा ली और सफेदी पर ध्यान दिया, तो उन्हें सभी जीव आदनीय, उपदेश देने वाले और पवित्र दिखाई पड़े, उन्होंने चौबीस गुरु बनाए, जिनमें कुत्ता, बिल्ली, सियार, मकड़ी, मक्खी, चील, कौए जैसे जीव भी थे। उन्हें प्रतीत हुआ कि कोई भी प्राणी घृणित नहीं। सबके अंदर महान् आत्मा है और वे महानता के लिए आगे बढ़ रहे हैं, जब हम अपनी दृष्टि को गुण ग्राहक बना लेते हैं तो दुनियाँ का सारा तख्ता पलट जाता है, दोष के स्थान पर गुण, बुराई के स्थान पर भलाई, दुःख के स्थान पर सुख आ बैठता है। बहुत बुरी दुनियाँ, बहुत अच्छी बन जाती है।

तिल की ओट ताड़ छिपा हुआ है। भूल-भुलैया के खेल में चोर दरवाजा जरा सी गलती के कारण छू जाता है। बाजीगर एक पोली लकड़ी रखता है, उसमें एक तरफ डोरा पीला होता है दूसरी तरफ नीला। इस छेद में से डोरा खींचता है, तो पीला निकलता है और उधर से खींचने पर वह नीला हो जाता है। लोग अचंभा करते हैं कि डोरा किस तरह रंग बदलता है, पर उस लकड़ी के पोले भाग में डोरे का एक भाग उलझा रहने के कारण यह अदल-बदल होती रहती है। संसार किसी को बुरा दीखता है, किसी को भला, इसका कारण हमारी दृष्टि की भीतरी उलझन है। इस उलझन का रहस्य भरा सुलझाव यह है कि आप अपना दृष्टिकोण बदल डालिए। अपने पुराने कल्पना जंजालों को तोड़-फोड़ कर फेंक दीजिए। तरह-तरह के उलझनों भरे जाल जो मस्तिष्क में बुन गए हैं, उन्हें उखाड़ कर एक कोने में मत डाल दीजिए। अपना तीसरा नेत्र, ज्ञान नेत्र खोलकर पुरानी दुनियाँ को नष्ट कर डालिए। वर्तमान कलियुग को प्रलय के गर्त में गिर पड़ने दीजिए और अपना सतयुग अपने मानस लोक में स्वयं रच डालिए। आप दुनियाँ के अंधेरे को तमोगुण को देखना बंद करके प्रकाश को सतोगुण को देखिए। फिर देखिए कि यह दुनियाँ जो नरक सी दिखलाई पड़ती थी, एक दिन बाद स्वर्ग बन जाती है। कल आपको अपना पुत्र अवज्ञाकारी लगता था, स्त्री कर्कश प्रतीत होती थी, भाई जान लेने की फिक्र में थे, मित्र कपटी थे, वे अपनी दृष्टि बदलने के साथ ही बिल्कुल बदल जाएँगे। कारण यह है कि जितना विरोध दिखाई पड़ता है, वास्तव में उसका सौवाँ हिस्सा ही मतभेद होता है, शेष तो कल्पना का रंग दे देकर बढ़ाया जाता है। पुत्र ने सरल स्वभाव से या किसी अन्य कारण से आपका कहना नहीं माना।

आपने समझ लिया कि यह मेरा अपमान कर रहा है। अपमान  का विचार आते ही क्रोध आया, क्रोध के साथ अपने सुप्त मनोविकार जागे और उनके जागरण के साथ एक भयंकर तामसी मानसिक चित्र बन गया। जैसे मन में भय उत्पन्न होते ही झाड़ी में से एक बड़े-बड़े दाँतों वाला, लाल आँखों वाला, काला भुसंड भूत उपज पड़ता है, वैसे ही क्रोध के कारण जगे हुए मनोविकारों का आसुरी मानसिक चित्र पुत्र की देह में से झाड़ी के भूत की तरह निकल पड़ता है। बेचारा पुत्र यह चाहता भी न था कि मैं जानबूझ कर अवज्ञा कर रहा हूँ, यह कोई पाप है या इससे पिताजी नाराज होंगे, पर परिणाम ऐसा हुआ जिसकी कोई आशा न थी। पिता जी आग-बबूला हो गए, घृणा करने लगे, दण्ड देने पर उतारू हो गए और अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाने लगे। न कुछ का इतना बवण्डर बन गया। पुत्र सोचता है कि मैं सर्वथा निर्दोष हूँ, खेलने जाने की धुन में पिता को पानी का गिलास देना भूल गया था या उपेक्षा कर गया था, इतनी सी बात पर इतना क्रोध करना, लांछन लगाना, दण्ड देना कितना अनुचित है। इस अनुचितता के विचार के साथ ही पुत्र को क्रोध आता है, वह भी उसी प्रकार के अपने मनोविकारों को उकसाकर पिता के सरल हृदय में दुष्टता, मूर्खता, क्रूरता, शत्रुता और न जाने कितने-कितने दुर्गुण आरोपित करता है और वह भी एक वैसा ही भूत उपजा लेता है। दोनों में कटुता बढ़ती है। वे भूत आपस में लड़ते हैं और तिल का ताड़ बना देते हैं। कल्पना का भूत रत्ती भर दोष को, बढ़ाते-बढ़ाते पर्वत के समान बना देता है और वे एक-दूसरे के घोर शत्रु, जान के ग्राहक बन जाते हैं।

हमारे अनुभव में ऐसे अनेकों प्रसंग आए हैं, जब हमें दो विरोधियों में समझौता कराना पड़ा है, दो शत्रुओं को मित्र बनाना पड़ा है। दोनों में विरोध किस प्रकार आरम्भ हुआ इसका गंभीर अनुसंधान करने पर पता चला कि वास्तविक कारण बहुत ही स्वल्प था, पीछे दोनों पक्ष अपनी-अपनी कल्पनाएँ बढ़ाते गए और बात का बतंगड़ बन गया। यदि एक-दूसरे को समझने की कोशिश करें, दोनों अपने-अपने भाव एक-दूसरे पर प्रकट कर दें और एक-दूसरे की इच्छा, स्वभाव, मनोभूमि का उदारता से अध्ययन करें, तो जितने आपसी तनाव और झगड़े दिखाई पड़ते हैं, उनका निन्यानवे प्रतिशत भाग कम हो जाय और सौ भाग से एक भाग ही रह जाए। क्लेश-कलह के वास्तविक-कारण इतने कम हैं कि उनका स्थान आटे में नमक के बराबर स्वाद परिवर्तन जितना ही रह जाता है। मिर्च बहुत कड़ुई है और उसका खाना सहन नहीं होता, पर स्वल्प मात्रा में तो रुचिकर है।

नीच योनियों से उठकर मनुष्य जाति के रूप में माता के गर्भ से नवीन प्रसव हुए बालक बहुत ही अपूर्ण होते हैं, इसमें मनुष्य समाज के अनुरूप सारी योग्यताएँ आरम्भ में नहीं होतीं। यह बालक दिन में भी सो जाते हैं, रात को जागते भी रहते हैं, कपड़ों पर मल-मूत्र भी कर देते हैं, भूख लगने जैसी साधारण आवश्यकता को पूरा करने के लिए ऐसे रोते-चिल्लाते हैं कि घर गूँज उठता है। इससे उत्पात अवश्य बना रहता है। जिस माता का प्रजनन निरंतर तीव्र गति से जारी रहता है, उसका घर इन उत्पातों से भी भरा ही रहेगा, परंतु क्या कोई पिता, माता, भाई, बहन इन नवजात शिशुओं के उत्पातों से घबराकर घर छोड़ देता है या इस बढ़ोत्तरी से डरकर घर को रहने के अयोग्य घोषित कर देता है। सच तो यह है कि वह उत्पात भी उदार हृदय वालों के लिए एक अच्छा-खासा मनोरंजन और दिन काटने का सहारा होता है।

हर उन्नत आत्मा का कर्त्तव्य है कि वह आत्मविकास के लिए दूसरों की उन्नति का भी प्रयत्न करे। गिरे हुओं को उठने और बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे। समाज में तमोगुण उबलते रहेंगे, उनसे डरने या घबराने की जरूरत नहीं है, आत्मोन्नति चाहने वाली आत्मा का कर्तव्य है कि उन उत्पातों में सुधार करते हुए अपनी भुजाएँ मजबूत बनाएँ। दुष्टता को बढ़ने न देना, पाशविक तत्त्वों को मनुष्य तत्त्व में न घुलने देने का प्रयत्न करते रहना आवश्यक है। चतुर हलवाई दूध को मक्खियों से बचाता रहता है, ताकि दूध अशुद्ध न हो जाए। कर्म-कौशल यह कहता है कि समाज में पाप-वृत्तियों को बढ़ने से रोकना चाहिए। इस विरोध-कर्म में बड़ी होशियारी की जरूरत है। यही तलवार की धार है, इस पर चलना सचमुच योग कहा जाएगा।

बुराइयों से भरे हुए इस विश्व में आपका कार्य क्या होना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर भगवान सूर्यनारायण हमें देते हैं। वे प्रकाश फैलाते हैं, अंधेरा अपने आप भाग जाता है, बादल मेह बरसाते हैं, ग्रीष्म का ताप अपने आप ठंडा हो जाता है, हम भोजन खाते हैं, भूख अपने आप बुझ जाती है, स्वास्थ्य के नियमों की साधना करते हैं, दुर्बलता अपने आप दूर हो जाती है, ज्ञान प्राप्त करते हैं, अज्ञान अपने आप दूर हो जाता है। सीधा रास्ता यह है कि संसार में से बुराइयों को हटाने के लिए अच्छाइयों का प्रसार करना चाहिए। अधर्म को मिटाने के लिए धर्म का प्रचार करना चाहिए। रोग निवारण का सच्चा उपाय यह है कि जनता की बुद्धि में स्वास्थ्य के नियम की महत्ता डाली जाए। बीमार होने पर दवा देना ठीक है, पर समाज को निरोग करने में बेचारे अस्पताल असमर्थ है। दण्ड नीति का भी एक स्थान है, पर वह अस्पताल की जरूरत पूरी करती है। तात्कालिक आवश्यकता का उपचार करती है, मूल कारणों का निवारण दण्ड नीति द्वारा नहीं हो सकता। विरोध, ऑपरेशन के समान एक तात्कालिक कार्य है। एक मात्र ऑपरेशन करना ही जिस डॉक्टर का काम हो, वह कसाई कहलाएगा। उस डॉक्टर की महिमा है,जो घाव को भर देता है। ऐसा डॉक्टर किस काम का जो पीव निकालने के लिए फोड़ा तो चीरे पर ऐसी बुरी तरह चीरे कि घाव बहुत बढ़ जाए और चिकित्सा की मूर्खता में ऑपरेशन का घाव बढ़ते-बढ़ते गहरा पहुँच कर हड्डी को सड़ा दे और रोगी के लिए प्राणघातक बन जाय।

आप सरल मार्ग को अपनाइए, लड़ने, बड़बड़ाने और कुढ़ने की नीति छोड़कर दान, सुधार, स्नेह के मार्ग का अवलम्बन लीजिए। एक आचार्य का कहना है कि ‘‘प्रेम भरी बात, कठोर लात से बढ़कर है।’’ हर एक मनुष्य अपने अंदर कम या अधिक अंशों में सात्विकता को धारण किए रहता है। आप अपनी सात्विकता को स्पर्श करिए और उसकी सुप्तता में जागरण उत्पन्न कीजिए। जिस व्यक्ति में जितने सात्विक अंश हैं, उन्हें समझिए और उसी के अनुसार उन्हें बढ़ाने का प्रयत्न कीजिए। अंधेरे से मत लड़िए वरन् प्रकाश फैलाइए, अधर्म बढ़ता हुआ दीखता हो, तो निराश मत हूजिए वरन् धर्म प्रचार का प्रयत्न कीजिए। बुराई को मिटाने का यही एक तरीका है कि अच्छाई को बढ़ाया जाय। आप चाहते हैं कि इस बोतल से हवा निकल जाय, तो उसमें पानी भर दीजिए। बोतल में से हवा निकालना चाहें पर उसके स्थान पर कुछ भरें नहीं तो आपका प्रयत्न बेकार जाएगा। एक बार हवा को निकाल देंगे, दूसरी बार फिर भर जाएगी। गाड़ी जिस स्थान पर खड़ी हुई है, वहाँ खड़ी रहना पसंद नहीं करते, तो उसे खींच कर आगे बढ़ा दीजिए, आपकी इच्छा पूरी हो जाएगी। आप गाड़ी को हटाना चाहें, पर उसे आगे बढ़ाना पसंद न करें, इतना मात्र संतोष कर लें कि कुछ क्षण के लिए पहियों को ऊपर उठाए रहेंगे, उतनी देर तो स्थान खाली रहेगा, पर जैसे ही उसे छोड़ेंगे, वैसे ही वह जगह फिर घिर जाएगी। संसार में जो दोष आपको दिखाई पड़ते हैं, उनको मिटाना चाहते हैं तो उनके विरोधी गुणों को फैला दीजिए। आप गंदगी बटोरने का काम क्यों पसंद करें? उसे दूसरों के लिए छोड़िए।

 आप तो इत्र छिड़कने के काम को ग्रहण कीजिए। समाज में मरे हुए पशुओं के चमड़े उधेड़ने की भी जरूरत है पर आप तो प्रोफेसर बनना पसंद कीजिए। ऐसी चिंता न कीजिए कि मैं चमड़ा न उधेडूँगा तो कौन उधेड़ेगा? विश्वास रखिए, प्रकृति के साम्राज्य में उस तरह के भी अनेक प्राणी मौजूद हैं। अपराधियों को दण्ड देने वाले स्वभावतः आवश्यकता से अधिक हैं। बालक किसी को छेड़ेगा तो उसके गाल पर चपत रखने वाले साथी मौजूद हैं, पर ऐसे साथी कहाँ मिलेंगे, जो उसे मुफ्त दूध पिलाएँ और कपड़े पहनाएँ। आप चपत रखने का काम दूसरों को करने दीजिए। लात का जवाब घूँसों से देने में प्रकृति बड़ी चतुर है। आप तो उस माता का पवित्र आसन ग्रहण कीजिए, जो बालक को अपनी छाती का रस निकाल कर पिलाती है और खुद ठंड में सिकुड़ कर बच्चे को शीत से बचाती है। आप को जो उच्च दार्शनिक ज्ञान प्राप्त हुआ है, इसे विद्वान, प्रोफेसर की भाँति पाठशाला के छोटे-छोटे छात्रों में बाँट दीजिए।

हो सकता है कि लोग आपको दुःख दें, आपका तिरस्कार करें, आपके महत्त्व को न समझें, आपको मूर्ख गिनें और विरोधी बनकर मार्ग में अकारण कठिनाइयाँ उपस्थित करें, पर इसकी तनिक भी चिंता मत कीजिए और जरा भी विचलित मत हूजिए, क्योंकि इनकी संख्या बिल्कुल नगण्य होगी। सौ आदमी आपके सत्प्रयत्न का लाभ उठाएँगे, तो दो-चार विरोधी भी होंगे। यह विरोध आपके लिए ईश्वरीय प्रसाद की तरह होगा, ताकि आत्मनिरीक्षण का, भूल सुधार का अवसर मिले और संघर्ष से जो शक्ति आती है, उसे प्राप्त करते हुए तेजी से आगे बढ़ते रहें।

आप समझ गए होंगे कि संसार असार है, इसलिए वैराग्य के योग्य है, पर आत्मोन्नति के लिए कर्त्तव्य धर्म पालन करने में यह वैराग्य बाधक नहीं होता। सच तो यह है कि वैराग्य को अपनाकर ही हम विकास के पथ पर तीव्र गति से बढ़ सकते हैं। संसार को दुःखमय मानना एक भारी भूल है। यह सुखमय है। यदि संसार में सुख न होता, तो स्वतंत्र, शुद्ध, बुद्ध और आनंदी आत्मा इसमें आने के लिए कदापि तैयार नहीं होती। दुःख और कुछ नहीं, सुख के अभाव का नाम दुःख है। राजमार्ग पर चलना छोड़कर कँटीली झाड़ियों में भटकना दुःख है। दुःख, विरोध, बैर, क्लेश, कलह का अधिकांश भाग काल्पनिक होता है, दूसरे लोग सचमुच उतने बुरे नहीं होते, जितने कि हम समझते हैं। यदि हम अपने मस्तिष्क को शुद्ध कर डालें, आँख पर का रंगीन चश्मा उतार फेंके, तो संसार का सच्चा स्वरूप दिखाई देने लगेगा। यह दर्पण के समान है, भले के लिए भला और बुरे लिए के बुरा। जैसे ही हमारी दृष्टि भलाई देखने और स्नेहपूर्ण सुधार करने की हो जाती है, वैसे ही सारा संसार अपना प्रेम हमारे ऊपर उड़ेल देता है। अंतरिक्ष लोक से मुक्त आत्माओं का अविरल प्रेम रस फुहारों की तरह झरने लगता है। जैसे ठंडा चश्मा लगा लेने पर जेठ की जलती दोपहरी शीतल हो जाती है, वैसे ही सुख की भावना करते ही विश्व का एक-एक कण अपनी सुख-शांति का भाग हमारे ऊपर छोड़ता चला जाता है। गुबरीले कीड़े के लिए विष्टा के और हंस के लिए मोतियों के खजाने इस संसार में भली प्रकार भरे हुए हैं। आपके लिए वही वस्तुएँ तैयार हैं, जिन्हें चाहते है। संसार को दुःखमय, पापी, अन्यायी मानते हैं, तो ‘मनसा भूत’ की तरह उसी रूप में सामने आता है। जब सुखमय मान लेते हैं, तो मस्त फकीर की तरह रूखी रोटी खाकर बादशाही आनंद लूटते हैं। सचमुच दुःख और पाप का कुछ अंश दुनियाँ में है, पर वह दुःख सहन करने योग्य है, सुख की महत्ता खोजने वाला है, जो पाप है, वह आत्मोन्नति की प्रधान साधना है। यदि परीक्षा की व्यवस्था न हो तो विद्वान और मूर्ख में कुछ अंतर ही न रहे।

पाठकों को उपरोक्त पंक्तियों से यह जानने में सहायता हुई होगी कि सृष्टि जड़ होने के कारण हमारे लिए दुःख-सुख का कारण नहीं कही जा सकती। यह दर्पण के समान है, जिससे हर व्यक्ति अपना कुरूप या सुंदर मुख जैसे का तैसा देख सकता है। ‘संसार कल्पित है’ दर्शनशास्त्र की इस उक्ति के अंतर्गत यही मर्म छिपा हुआ है कि हर व्यक्ति अपनी कल्पना के अनुसार संसार को समझता है। कई अंधों ने एक हाथी को छुआ। जिसने पूँछ छुई थी, हाथी को साँप जैसा बताने लगा। जिसने पैर पकड़ा उसे खंभे जैसा जँचा, जिसने पेट पकड़ा उसे पर्वत के समान प्रतीत हुआ। संसार भी ऐसा ही है, इसका रूप अपने निकटवर्ती स्थान को देखकर निर्धारित किया जाता है। आप अपने आस-पास पवित्रता, प्रेम, भ्रातृभाव, उदारता, स्नेह, दया, गुण, दर्शन का वातावरण तैयार कर लें। अपनी दृष्टि को गुणग्राही बना लें, तो हम शपथपूर्वक कह सकते हैं कि आपको यही संसार नंदन वन की तरह, स्वर्ग के उच्च सोपान की तरह आनंददायक बन जाएगा। भले ही पड़ौसी लोग अपनी बुरी और दुःखदायी कल्पना के अनुसार इसे बुरा और कष्टप्रद समझते हैं।
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