गहना कर्मणोगतिः

कर्मों की तीन श्रेणियाँ

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तीन दुःखों का निरूपण करने के पूर्व कर्म के तीन प्रकारों को जान लेना भी आवश्यक है।

(१) संचित

(२) प्रारब्ध और

(३) क्रियमाण


इन तीन प्रकार के कर्मों का संचय हमारी संस्कार भूमिका में होता है। चित्रगुप्त का परिचय लेख के अंतर्गत पाठक पढ़ चुके हैं कि मनुष्य की अंतःचेतना ऐसी निष्पक्ष, निर्मल, न्यायशील और विवेकवान है कि अपने पराए का कुछ भी भेदभाव न करके सत्यनिष्ठ न्यायाधीश की तरह हर एक भले-बुरे काम का विवरण अंकित करती रहती है।                                

संचितः

दिन भर के कामों का यदि निरीक्षण किया जाय, तो वे तीन श्रेणियों में बाँट देने पड़ेंगे। कुछ तो ऐसे होते हैं, जो बिना जानकारी में होते हैं। जैसे बुरे लोगों के मुहल्ले में या सत्संग में रहने से उनका प्रभाव किसी न किसी अंश में गुप्त रूप से अपने ऊपर पड़ जाता है। यह प्रभाव पड़ा तो परंतु हमने उसे इच्छापूर्वक स्वीकार नहीं किया इसलिए वह हल्का, निर्बल एवं कम प्रभाव वाला होकर हमारी भीतरी चेतना के एक कोने में पड़ा रहा, ऐसे हीन वीर्य संस्कार वाले, संचित कर्म कहे जाते हैं। जो कार्य विवशता में, दबाए जाने पर, असहाय अवस्था में करने तो पड़ें, पर मन की आंतरिक इच्छा यही रही कि यदि विवशता न होती, तो इस काम को मैं कदापि न करता। इस तरह लाचारी से जो काम करना पड़े और मन जिनके विरुद्ध विद्रोह करता रहा एवं उस काम को स्वभाव बनाकर अपना नहीं लिया, तो उस कार्य का संस्कार भी हल्का, अल्प वीर्य और कम प्रभाव वाला होता है।

ऐसे काम भी संचित कर्म के ही श्रेणी में आते हैं। इन संचित कर्मों के संस्कार बहुत कमजोर एवं हल्के होते हैं, इसलिए वे मनोभूमि के किसी अज्ञात कोने में सिमटे हुए हजारों वर्ष तक पड़े रहतें हैं, यदि इन्हें प्रकट होने के कोई अच्छा अवसर न मिले, तो यों ही दबे दबाए पड़े रहते हैं, किंतु यदि उसी प्रकार के बुरे कर्म कभी जानबूझ कर स्वेच्छा से, विशेष मनोयोग के साथ किए गए, तो वे सड़े-गले संचित संस्कार भी कुलबुलाने लगते हैं। जैसे अच्छे घोड़ों के झुण्ड में पड़कर लँगड़े घोड़े भी चलने लगते हैं, वैसे ही वे भी कब्र में से निकल कर जीवित हो जाते हैं। जिस प्रकार घुना हुआ बीज भी अच्छी भूमि और अच्छी वर्षा पाकर उग आता है, वैसा ही संचित संस्कार भी अपनी जाति के बलवान कर्मों की सहायता पाकर उग आते हैं। हिमायत पाकर उनकी हिम्मत दूनी हो जाती है, परंतु यदि उन संचित संस्कारों को लगातार विपरीत स्वभाव के बलवान कर्म संस्कारों के साथ रहना पड़े, तो वे नष्ट भी हो जाते हैं। गर्म जगह में रखा हुआ एक घड़ा पानी गर्मी के प्रभाव से आखिर एक-दो महीने में सूख ही जाता है, इसी प्रकार उत्तम कर्मों के संस्कार जमा हो रहे हों, तो वे बेचारे बुरे संस्कार उनकी गर्मी में जलकर नष्ट भी हो जाते हैं। धर्म ग्रंथों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि तीर्थयात्रा आदि अमुक शुभ कर्म करने से इतने जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं, असल में वह संकेत इन अल्पवीर्य वाले संचित संस्कारों के सम्बन्ध में ही है। भले और बुरे दोनों ही प्रकार के संचित कर्म संस्कार अनुकूल परिस्थिति पाकर फलदायक होते हैं एवं तीव्र प्रतिकूल परिस्थितियों में नष्ट भी हो जाते हैं।

प्रारब्धः

वे मानसिक कर्म होते हैं, जो स्वेच्छापूर्वक जानबूझकर, तीव्र भावनाओं से प्रेरित होकर किए जाते हैं। इन कार्यों को विशेष मनोयोग के साथ किया जाता है, इसलिए उनका संस्कार भी बहुत बलवान बनता है। हत्या, खून, डकैती, विश्वासघात, चोरी, व्याभिचार जैसे प्रचण्ड क्रूरकर्मों की प्रतिक्रिया अंतःकरण में बहुत ही तीव्र होती है, उस विजातीय द्रव्य को बाहर निकाल देने के लिए आध्यात्मिक पवित्रता निरंतर व्यग्र बनी रहती है और एक न एक दिन उसे निकाल कर बाहर कर ही देती है।

हम बता चुके हैं कि हमारी अंतःचेतना निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह हमारे हर काम को देखती रहती है और उसकी न्यूनता-अधिकता के परिणाम के अनुसार दण्ड की व्यवस्था करती रहती है। चूँकि मानसिक दण्ड अपने आप अंदर ही अंदर पूरा नहीं हो सकता, इसके लिए दूसरे साधनों की भी आवश्यकता होती है, दण्ड कार्य को पूरा करने लिए सूक्ष्म लोक में से उसी प्रकार का घटनाक्रम उपस्थित करने के लिए हमारी अंतःचेतना एक वातावरण तैयार करती है। इस तैयारी में कभी बहुत समय भी लग जाता है। जैसे छल स्वभाव के निवारण के लिए शोक रूपी दण्ड की आवश्यकता है। अब यह देखा जाएगा कि छल किस दर्जे का है, उसकी शुद्धि किस दर्जे के शोक से पूरी हो सकती है। अंतःचेतना वैसी ही परिस्थितियाँ पैदा करने में भीतर ही भीतर लगी रहेगी। वह शरीर में ऐसे तत्त्व पैदा करेगी, जिससे पुत्र उत्पन्न हो, उस पुत्र शरीर में ऐसी आत्मा का मेल मिलवाएगी, जिसे अपने कर्मों के अनुसार दस वर्ष ही जीना पर्याप्त हो, दस वर्ष का पुत्र हो जाने पर वही हमारी अंतःचेतना गुप्त रूप से पुत्र पर पिल पड़ेगी और उसे रोगी करके मार डालगी एवं शोक का इच्छित अवसर पैदा कर देगी। ऐसे अवसर तैयार करने में केवल अपना ही कार्य अकेला नहीं होता, वरन् दूसरे पक्ष का भी कार्य होता है। दोनों ओर की चेतनाएँ अपने-अपने लिए अवसर तलाश करती फिरती हैं और फिर जब उन्हें इच्छित जोड़ मिल जाता है, तो एक घटना की ठीक भूमिका बँध जाती है। ऐसे कार्यों में कई बार एक, दो, तीन या कई जन्मों का समय लग जाता है।

लड़की के लिए वर और वर के लिए लड़की की तलाश बहुत दिनों तक जारी रहती है, सैकड़ों प्रसंग उठाए जाते हैं, पर कुछ न कुछ कमी होने से वे तय नहीं होते, जब दोनों पक्ष रजामंद हो जाते हैं, तो विवाह जल्द हो जाता है। इसी प्रकार पिता को पुत्र शोक और पुत्र को अल्पायु का संयोग, जब दोनों ही विधान ठीक बैठ जाते हैं, तो वे एकत्रित हो जाते हैं। अफ्रीका में वेन्सस नामक एक दस फुट ऊँचा एक झाड़ होता है, इसकी डालियों में से सूत जैसे अंकुर फुटते हैं। यह अंकुर बढते हैं और इधर-उधर हवा में झूलते रहते हैं। दूसरा कोई अंकुर जब उससे छू जाता है, तो वे दोनों आपस में गुँथ जाते हैं और रस्सी की तरह बल डालकर एक हो जाते हैं। जब तक दूसरे अंकुर से भेंट न हो, तब तक सूत बढ़ते ही रहते हैं और कभी न कभी वे किसी न किसी से मिल जाते हैं। कोई सूत तो चार छः अंगुल दूरी पर ही जाकर किसी से मिलकर लिपट जाता है, कोई-कोई चार फुट लंबा होने के बाद सफल होता है। यही हालत कर्मफलों की है। शारीरिक दण्ड एकांगी है विष खाते ही तुरंत मृत्यु हो जाती है, परंतु मानसिक दण्ड में अपवाद है। जैसे क्रूरता से प्रेरित होकर किसी की हत्या की गई, वह यदि प्रकट हो गयी तो राज्य द्वारा दण्ड मिल जाएगा, किंतु यदि हत्यारे ने अपना कार्य छिपा लिया तो उसका अंतःकरण तुरंत ही पाप दण्ड न दे बैठेगा, वरन् उसी दिन से वेन्सस पेड़ की तरह अंकुर फोड़कर इस तलाश में फिरेगा कि हिंसा वृत्ति से घृणा कराने के लिए हिंसा में जो दुःख होता है, उसका अनुभव उसे कराऊँ। जब दूसरी ओर का भी कोई अंकुर मिल जाता है, तो दोनों आपस में लिपट कर एक निर्धारित घटना की भूमिका बन जाते हैं। उपरोक्त कारणों से कभी-कभी अचानक सत्कर्म करते हुए भी दुःख उपस्थित हो जाता है और कभी-कभी बुरे काम करते हुए भी दुःख नहीं मिलता, इसका कारण उपयुक्त अवसर तैयार होने में विलम्ब लगना ही होता है।

कोई-कोई आत्मदर्शी योगी यह बता देते हैं कि भविष्य में तुम्हारे लिए यह होने वाला है और सचमुच वैसा हो जाता है। ऐसे अवसरों पर ऐसा संदेह न करना चाहिए कि मनुष्य परतंत्र है, प्रारब्ध में जो लिखा है, वही होता है। आत्मदर्शी महानुभाव का भविष्य कथन मनुष्य परतंत्रता के कारण नहीं है। वरन् इसलिए है कि उन्होंने देख लिया कि इसका प्रारब्ध कर्म अब अपना ताना-बाना बुन चुका है, उसका छूटना मुश्किल है। अपनी सूक्ष्म दृष्टि से वे अदृष्य परिस्थिति को देखकर उसे प्रकट कर देते हैं। मिसल को देखकर हाकिम के स्वभाव को जानकर पेशकार बता देता है कि क्या फैसला सुनाया जाने वाला है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि मुद्दई, मुद्दा, सबूत, वकील का कोई महत्त्व नहीं है। इसके प्रारब्ध में क्या लिखा है, यह बता देने का अर्थ यह है कि इसने एक समय ऐसे काम किये थे जिसका फल अब यह होने जा रहा है। तकदीर और तदवीर दो बातें नहीं हैं वरन् एक ही वस्तु के दो नाम हैं। कर्म का परिपाक लेकर जब वह फल बनता है, तब तकदीर कहा जाता है, कच्चा आम तदवीर है और पक्का आम तकदीर। नया कर्म तदवीर है, जो आगे तकदीर बन जाएगा। इसी प्रकार पुरानी तदवीर आज फल देते समय तकदीर कही जा रही है। कर्म बछिया है और प्रारब्ध बूढ़ी गाय। समय के अंतर से एक वस्तु के दो नाम पड़ गए हैं।

पाठक समझ गए होंगे कि मानसिक पापों का फल किस प्रकार मिलता है और उसमें विलम्ब हो जाने का क्या कारण है। दैनिक आपत्तियाँ क्रमपूर्वक, व्यवस्था के साथ आती हैं, पर लोग उन्हें दैव का प्रकोप, ईश्वर-इच्छा, संसार दुःखमय है आदि शब्दों के द्वारा मन में संतोष करते हैं। यथार्थ में ईश्वर किसी के लिए भी दुःख-शोक उपस्थित नहीं करता, न उसकी किसी को कष्ट में डालने की इच्छा है और न यह संसार ही दुःखमय है। मकड़ी अपने आप जाला बुनती है और उसमें खुद फँसती, उलझती, लटकती रहती है। मन को अशुभ, अधर्मी, पापी बनाकर अपने लिए दुःख-द्वंद्वों के काँटे खुद ही बोते हैं और जब वे चुभते हैं, तो रोते-चिल्लाते हैं तथा दूसरों को दोष देते हैं। यहाँ एक बात और भी स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि प्रारब्ध फल आकस्मिक तरीके से मिलेगा जैसे रोग से मृत्यु, मकान गिर पड़ना, धन खो जाना, गिर पड़ने से चोट लगना, अंग-भंग हो जाना आदि। दूसरे व्यक्तियों द्वारा जानबूझकर ऐसे कर्म नहीं किए जाते, क्योंकि उसमें दो बुराइयाँ हैं, एक तो अपकार करने वाले व्यक्ति के लिए क्षोभ उत्पन्न होने से वे दुर्गुण और बढ़ेंगे, जिससे मन की उद्विग्नता और अधिक बढ़ जाएगी, दूसरे अपकार करने वाले व्यक्ति को उसी चक्र में फँसना पड़ेगा। जानबूझ कर व्यक्तियों द्वारा कर्म किए जा रहे हैं वे नवीन कर्म हैं और अनायास, आकस्मिक ढंग से कष्ट आ पड़ता है, वे प्रारब्ध के भोग हैं।

क्रियमाणः

कर्म शारीरिक हैं, जिनका फल प्रायः साथ के साथ ही मिलता रहता है। नशा पिया कि उन्माद आया। विष खाया कि मृत्यु हुई। शरीर जड़ तत्त्वों का बना हुआ है। भौतिक तत्त्व स्थूलता प्रधान होते हैं। उसमें तुरंत ही बदला मिलता है। अग्नि के छूते ही हाथ जल जाता है। नियम के विरुद्ध आहार-विहार करने पर रोगों की पीड़ा का, निर्बलता का अविलम्ब आक्रमण हो जाता है और उसकी शुद्धि भी शीघ्र हो जाती है। मजदूर परिश्रम करता है, बदले में उसे पैसे मिल जाते हैं। जिन शारीरिक कर्मों के पीछे कोई मानसिक गुत्थी नहीं होती केवल शरीर द्वारा शरीर के लिए किए जाते हैं, वे क्रियमाण कहलाते हैं। पाठक समझ गए होंगे कि संचित कर्मों का फल मिलना संदिग्ध है यदि अवसर मिलता है, तो वे फलवान होते हैं। नहीं तो विरोधी परिस्थितियों से टकरा कर नष्ट हो जाते हैं। प्रारब्ध कर्मों का फल मिलना निश्चित है, परंतु उसके अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होने में कुछ समय लग जाता है। यह समय कितने दिन का होता है, इस सम्बन्ध में कुछ नियम मर्यादा नहीं है, वह आज का आज भी हो सकता है और कुछ जन्मों के अंतर से भी हो सकता है, किंतु प्रारब्ध फल होते वही हैं, जो अचानक घटित हों और जिसमें मनुष्य का कुछ वश न चले। पुरुषार्थ की अवहेलना से जो असफलता मिलती है उसे कदापि प्रारब्ध फल नहीं कहा जा सकता। क्रियमाण तो प्रत्यक्ष हैं ही उनके बारे में ऊपर बता ही दिया गया है कि निश्चित फल वाले शारीरिक कर्म क्रियमाण हुआ करते हैं। इनके फल मिलने में अधिक समय नहीं लगता। इस प्रकार तीन प्रकार के कर्म और उसके फल मिलने की मर्यादा के सम्बन्ध में ऊपर कुछ प्रकाश डाल दिया गया है।

कष्टों का स्वरूप अप्रिय है, उनका तात्कालिक अनुभव कड़ुआ होता है, अंततः वे जीव के लिए कल्याणकारी और आनंददायक सिद्ध होते हैं। उनसे दुर्गुणों के शोधन और सद्गुणों की वृद्धि में असाधारण सहायता मिलती है। आनंदस्वरूप, आत्म प्रकाशमय जीवन और सुखमय संसार में कष्टों का थोड़ा स्वाद परिवर्तन इसलिए लगाया गया है कि प्रगति में बाधा न पड़ने पाए। घड़ी में चाबी भर देने से उसकी चाल फिर ठीक हो जाती है, हारमोनियम में हवा धोंकते रहने से उसके स्वर ठीक तरह बजते हैं। पैडल चलाने से साइकिल ठीक तरह घूमती है, अग्नि की गर्मी से सूखकर भोजन पक जाते हैं। थोड़ा-सा कष्ट भी जीवन की सुख वृद्धि के लिए आवश्यक है। संसार में जो कष्ट है वह इतना ही है और ऐसा ही है, किंतु स्मरण रखिए जितना भी थोड़ा-बहुत दुःख है, वह हमारे अन्याय का, अधर्म का, अनर्थ का फल है। आत्मा दुःख रूप नहीं है, जीवन दुःखमय नहीं हैं और न संसार में ही दुःख है।

आप दुःखों से डरिए मत, घबराइए मत, काँपिए मत, उन्हें देखकर चिंतित या व्याकुल मत हूजिए वरन् उन्हें सहन करने को तैयार रहिए। कटुभाषी किंतु सच्चे सहृदय मित्र की तरह उससे भुजा पसारकर मिलिए। वह कटु शब्द बोलता है, अप्रिय समालोचना करता है, तो भी जब जाता है तो बहुत सा माल खजाना उपहार स्वरूप दे जाता है। बहादुर सिपाही की तरह सीना खोलकर खड़े हो जाइए और कहिए कि ‘ऐ आने वाले दुःखो! आओ!! ऐ मेरे बालकों, चले आओ!! मैंने ही तुम्हें उत्पन्न किया है, मैं ही तुम्हें अपनी छाती से लगाऊँगा। दुराचारिणी वेश्या की तरह तुम्हें जार पुत्र समझकर छिपाना या भगाना नहीं चाहता वरन् सती साध्वी के धर्मपुत्र की तरह तुम मेरे आँचल में सहर्ष क्रीड़ा करो। मैं कायर नहीं हूँ, जो तुम्हें देखकर रोऊँ, मैं नपुंसक नहीं हूँ, जो तुम्हारा भार उठाने से गिड़गिड़ाऊँ, मैं मिथ्याचारी नहीं हूँ, जो अपने किए हुए कर्म फल भोगने से मुँह छिपाता फिरूँ। मैं सत्य हूँ, शिव हूँ, सुंदर हूँ, आओ मेरे अज्ञान के कुरूप मानस पुत्रो! चले आओ! मेरी कुटी में तुम्हारे लिए भी स्थान है। मैं शूरवीर हूँ, इसलिए हे कष्टो! तुम्हें स्वीकार करने से मुँह नहीं छिपाता और न तुमसे बचने के लिए किसी से सहायता चाहता हूँ। तुम मेरे साहस की परीक्षा लेने आए हो, मैं तैयार हूँ, देखो गिड़गिड़ाता नहीं हूँ, साहसपूर्वक तुम्हें स्वीकार करने के लिए छाती खोले खड़ा हूँ।

खबरदार! ऐसा मत कहना कि ‘यह संसार बुरा है, दुष्ट है, पापी है, दुःखमय है, ईश्वर की पुण्य कृति, जिसके कण-कण में उसने कारीगरी भर दी है, कदापि बुरी नहीं हो सकती। सृष्टि पर दोषारोपण करना, तो उसके कर्त्ता पर आक्षेप करना होगा। ‘‘यह घड़ा बहुत बुरा बना है’’ इसका अर्थ है कुम्हार को नालायक बताना। आपका पिता इतना नालायक नहीं है, जितना कि आप ‘‘दुनियाँ दुःखमय है’’ यह शब्द कहकर उसकी प्रतिष्ठा पर लाँछान लगाते हैं। ईश्वर की पुण्य भूमि में दुःख का एक अणु भी नहीं है। हमारा अज्ञान ही हमारे लिए दुःख है। आइए, अपने अंदर के समस्त कुविचारों और दुर्गुणों को धोकर अंतःकरण को पवित्र कर लें, जिससे दुःखों की आत्यंतिक निवृत्ति हो जाए और हम परम पद को प्राप्त कर सकें।
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