गुरुजी- माताजी अलौकिक शक्तियों से संपन्न थे। साधारणतः तो महापुरुष
स्वयं को छिपाये रहते हैं परन्तु कभी- कभी संकेतों में वे
स्वयं को प्रकट भी करते हैं। कभी- कभी कुछ ऐसी बात कह जाते हैं,
कुछ ऐसा कार्य कर जाते हैं कि सुनने वाला, देखने वाला अचंभित
हो जाता है। विचार करता रह जाता है। जिसके पास श्रद्धा है,
विश्वास है, जो भक्त है वही उस कथन के मर्म को समझ पाता है।
अन्यों के दिलो-
दिमाग पर तो जैसे वे कोई पर्दा डाल देते हैं और समय बीत जाने
पर वे उन घटनाओं को स्मरण कर बस इतना ही कह पाते हैं कि काश!
हम उस समय समझ पाते। आज हम सब उन्हें साक्षात शिव, महाकाल,
अवतारी चेतना आदि नाना प्रकार के संबोधनों से अपनी श्रद्धा
अर्पित करते हैं। कभी- कभी परिजनों के सामने उन्होंने स्वयं को
प्रकट भी किया है। ऐसे ही कुछ प्रसंग, कुछ वाक्यांश यहाँ दिये जा रहे हैं।
कुएँ का पानी मीठा हो गया
(श्री हनुमान शरण रावत जी एवं श्रीमती मिथिला रावत, सन् 1969 से पूज्य गुरुदेव के संपर्क में रहे। सन् 1983 में गुरुदेव के कहने पर पूर्णरूपेण शान्तिकुञ्ज आ गये।)
हम एक कार्यक्रम हेतु दिगौड़ा (टीकमगढ़) गये। वहाँ के एक कार्यकर्ता भाई, श्री सोनकिया जी ने कहा, ‘‘बहन जी, आज हम आपको वहाँ ले चलते हैं जहाँ से गुरुजी कभी पैदल गये थे।’’ वे हमें उस रास्ते से ले गये और बोले, ‘‘इन गलियों में से गुरुजी कभी अपना सामान भी स्वयं लेकर चले थे।’’
‘‘गुरुजी,
एक हाथ में लोहे का बक्सा और कंधे पर अपना बिस्तर लेकर चलते
थे। उनकी इस सादगी से कोई जान ही नहीं पाया कि वे इतने बड़े
महापुरुष हैं।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरु जी, अपना सामान मुझे दे दीजिये’’, तो वे बोले, ‘‘नहीं- नहीं अपना ही सामान है।’’
हम लोग वहाँ पहुँचे जहाँ मंदिर बन रहा था। वहाँ पर एक कुआँ
खोदा गया था, जिसका पानी खारा था। लोगों ने बताया कि कितनी मेहनत
से कुआँ खोदा गया और इसका पानी खारा निकल गया। अब इसका क्या
उपयोग? क्या करें?
गुरुजी ने सब बात सुनी और कहा, ‘‘अच्छा! खारा है बेटा! पानी खारा है! लाओ रस्सी, बाल्टी, देखें!’’ गुरुजी ने स्वयं कुएँ से पानी निकाला और उसे पिया। फिर बोले, ‘‘बेटा! ये तो मीठा है। कहाँ खारा है? देखो! कहाँ खारा है?’’
और, उन्होंने सबको थोड़ा- थोड़ा पानी पीने के लिये दिया। सबने पानी
पिया और सब हैरान रह गये कि खारा पानी, मीठा कैसे हो गया?
तब सबने गुरुजी की शक्ति को पहचाना और उनकी जय- जयकार करने लगे।
कोई बीमार है?
(पंडित लीलापत शर्मा जी, पूज्य गुरुदेव के प्रारंभिक शिष्यों में से थे। सन् 1953 में, डबरा म.प्र.
में वे पूज्य गुरुदेव से जुड़े व सतत संपर्क में बने रहे। सन्
1967 में पूज्य गुरुदेव ने उन्हें मथुरा बुला लिया। सन् 1971
में पंडित जी को मथुरा का सब कार्यभार सौंपकर, पूज्य गुरुदेव-
वंदनीया माताजी शान्तिकुंज, हरिद्वार आ गये। पंडित जी ने मिशन की बहुत बड़ी- बड़ी जिम्मेदारियाँ सँभालीं। गुरुदेव के साथ बहुत सी यात्रायें भी कीं। उन सब संस्मरणों को उन्होंने ‘पूज्य गुरुदेव के मार्मिक संस्मरण’ नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है। परिजन उनके संस्मरणों को उस पुस्तक में पढ़ सकते हैं।)
जब मिशन अपनी शैशव अवस्था में था, उस समय पूज्य गुरुदेव ने
कितना परिश्रम करके और कितना तप लुटाकर शाखाएँ खड़ी कीं उसके
विषय में बताते हुए पंडित जी ने असम का एक संस्मरण सुनाया था।
गायत्री परिवार के कार्यकर्त्ता
ने एक गाँव में यज्ञ रख दिया और पूज्यवर को बुलाया। कई बार
वहाँ गया, यज्ञ के बारे में समझाया किन्तु पता नहीं क्यों? किसी
को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। यहाँ तक कि पूज्य गुरुदेव भी
उस गाँव में पहुँच गये, फिर भी यज्ञ में आने को कोई तैयार नहीं
था और न ही वे लोग आये।
पूज्यवर ने सारी स्थिति भाँप ली। वहीं आसपास जो ग्रामीण टहल रहे थे, उन्हें बुलाकर पूछा, ‘‘इस गाँव में कोई वृद्ध बीमार है?’’
‘‘हाँ, ऐसे तो कई लोग हैं।’’ ग्रामीणों ने जवाब दिया। पूज्यवर ने कहा, ‘‘उन्हें मेरे पास ले आओ।’’
ग्रामीण दौड़े और अपने- अपने घरों से जो भी बीमार था, वृद्ध
था, कुछ अन्य समस्या थी, सभी को ले आये। कुछ स्वयं आ गये, कुछ को
सहारा देकर ले आये।
गुरुदेव तत्काल उनकी समस्याओं के निवारण हेतु जुट गये। बीमार को, ‘‘तुझे कुछ नहीं हुआ है।’’ कह दिया। वृद्ध को ‘‘स्वस्थ रहोगे’’ कहा। किसी की कोई समस्या थी उसे कह दिया, ‘‘समस्या ठीक हो जायेगी।’’
अब तो सुन- सुन कर पूरा गाँव दौड़ पड़ा। महात्मा जी के आने की
खबर पूरे गाँव में आग की तरह फैल गई। सभी अपनी- अपनी समस्या
बताने लगे और समाधान पाकर निहाल हो गये।
दूसरे दिन पूरा गाँव यज्ञ में शामिल था। एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था, जिसने यज्ञ में भाग न लिया हो।
इस तरह उन्होंने अपने तप की शक्ति से मिशन का प्रचार- प्रसार किया। पंडित जी कहते थे, ‘‘मैं तो मूक दर्शक की नाईं, अवाक् रहकर उन लीला- पति की लीला देखता रहा।’’ असली नाम तो उनका लीलापति होना चाहिए था।
आदिवासियों को भी अपना बना लिया
(श्री भास्कर सिन्हा जी, सन् 1963 में पूज्य गुरुदेव के संपर्क
में आये और सन् 1976 में गुरुदेव के कहने पर सपरिवार
शान्तिकुञ्ज आ गये।)
हम सन् 1981 में पूज्यवर के साथ शक्तिपीठों की प्राण-
प्रतिष्ठा के दौरे पर थे। मार्च का महीना था। होली में दस- पंद्रह
दिन बचे थे। सभी ओर होली का माहौल था। हम सब कार्यक्रम हेतु जगदलपुर जा रहे थे। सड़क सुनसान थी। एक स्थान पर पुलिस ने रोका पूछताछ की व कहा, ‘‘आगे मत जाओ। आदिवासी लूट- पाट करते हैं।’’
पंडित लीलापत शर्मा जी भी साथ थे। उन्होंने गुरुदेव की ओर देखा। गुरुजी ने कहा- ‘‘दूसरा रास्ता हो तो देखो।’’
एक दूसरा रास्ता था। कुछ दूर उस पर गये, पता चला वह काफी लम्बा है, अतः गुरुजी ने कहा, ‘‘पहले वाले से ही चलो।’’
दोपहर साढ़े बारह- एक बजे के आस- पास काफी दूरी पर भीड़ दिखाई
दी। पत्ते लपेटे हुए, लगभग 100- 150 आदिवासियों की भीड़ थी। (होली
के समय लूट सामान्य बात थी।) सभी गंडासा, भाला, तलवार से लैस थे। गाड़ी आगे बढ़ायें कि पीछे चलें- असमंजस था। गुरुजी ने कहा, ‘‘गाड़ी चलने दो। कुछ दूर पहले गाड़ी खड़ी करना व तुम सब उतरना मत, केवल मैं ही उतरूँगा।’’ उस समय लगा कि गुरुजी कुछ सोच रहे हैं। गाड़ी उनके पास पहुँचने ही वाली थी कि गुरुजी हड़बड़ा कर बोले- ‘‘रोक बेटा! जब तक मैं न कहूँ, तुम लोग उतरना मत।’’
गुरुदेव उतर कर बोनट के पास खड़े हो गये। राड
वगैरह लिये हम बैठे रहे। पूज्यवर थोड़ी देर दीक्षा देने की
मुद्रा में खड़े रहे। फिर आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ ऊपर उठाया।
पता नहीं कहाँ से उनके बीच में से एक बूढ़ा व्यक्ति आगे आया।
उसके हाथ में तीन मालाएँ थी। वह बूढ़ा दौड़ कर आया और पूज्यवर से
तीन कदम दूरी पर दण्डवत् प्रणाम की मुद्रा में लेट गया। उसे
देखकर उसका अनुसरण करते हुए वे सभी दौड़े और सब ने साष्टांग
प्रणाम किया। स्थिति एकदम भिन्न हो गई, जैसे जादू हो गया हो।
गुरुदेव ने उन्हें कार्यक्रम में आने के लिये निमंत्रित किया।
उस स्थिति से निपटने में हम लोगों को एक- डेढ़ घंटा लगा। पर
जब हम कार्यक्रम स्थल पर पहुँचे तो देखकर अचंभित रह गये। वे सभी
जिन्होंने रास्ता रोका था, जगदलपुर प्रवचन पण्डाल में जाने किस रास्ते से व कैसे हमसे भी पहले पहुँच गये थे।
गुरुदेव ने अपनी ब्रज भाषा में कहा, ‘‘देखो! हम लोग सात बजे पहुँचे हैं और, वे भी इस समय तक आ गये।’’ फिर बोले, ‘‘उन सभी को मंच तक आने दिया जाये।’’
गुरुदेव ने अपने सामने मंच के पास, उन बूढ़े भील महाशय को
बैठाया। सभी ने पूरा प्रवचन सुना। अन्त में पूज्यवर ने उन सभी का
तिलक किया, तब वे सब प्रणाम करके घर वापस हुए।
गंगाजल पीकर गंगा को रोका
श्री केसरी कपिल जी, शान्तिकुञ्ज
बात अगस्त 1987 के आस- पास की है, पूज्य गुरुदेव ने मुझे बुलाकर कहा, ‘‘बेटे, मुझे गंगाजल पीने का मन है। माताजी से पात्र लेकर गंगा जल ले आ।’’
मेरे द्वारा लाया जल गुरुदेव लेंगे यह सोचकर खुशी से दौड़ा हुआ
गया और केन में जल भरकर ले आया। गिलास में जल भरकर पूज्य
गुरुदेव को देकर लौटने लगा। गुरुदेव ने जल पीते हुए कहा, ‘रुक जा।’ मैं कमरे के दरवाज़े पर रुक गया। मुझे खड़ा देखकर गुरुदेव बोले, ‘‘तुम्हें नहीं रोक रहा हूँ, तुम जाओ।’’ मैं जल भरा केन वहीं छोड़ कर आ गया।
उसी वर्ष दिसम्बर में पूर्णिया जिले के तेल्दिया
गाँव में प्राण प्रतिष्ठा के लिए मुझे भेजा गया। उन्हीं दिनों
समाचार पत्रों में उत्तरी बिहार में भयावह बाढ़ के समाचार आ रहे
थे। जिनके अनुसार आज़ादी के बाद बने उत्तरी बिहार की नदियों के
अनेक तटबन्ध टूट गये थे। जानमाल
की भारी क्षति हुई थी। गाँव के गाँव बह गए थे। प्लास्टिक की
छत बनाकर लोग राजपथ पर, तटबन्धों के पास रह कर बचने का प्रयास
कर रहे थे। पर इधर हर किसी की ज़ुबान पर एक ही बात थी, ‘‘हमें तो गंगा मैया ने बचाया।’’
पूछने पर पता चला, जिन दिनों उत्तरी बिहार की सभी नदियों में
बाढ़ थी, गंगा का जल स्तर नीचा था और सभी नदियों का जल उसमें
समाकर समुद्र में जा रहा था। गंगा मर्यादा में ही बहती रही।
लोगों की बात सुनकर मुझे उस दिन का प्रसंग याद आया जब गुरुदेव
ने गंगा जी से जल मँगा कर पिया था और घूँट भर कर कहा था ‘‘रुक जा।’’
मैं बरबस ही यह सोचने के लिये मजबूर था कि क्या, गुरुदेव ने
उस दिन माँ गंगा को रुकने का आदेश दिया था और बिहार को दोहरी
त्रासदी से बचाया था?
मेरे गुरु मेरे घर आये, मैं भी तेरे घर आया
(श्री रघुवीर सिंह चौहान जी, सन् 1977 में पूज्य गुरुदेव से
जुड़े और सतत संपर्क में बने रहे। उनका पैतृक घर ज्वालापुर,
हरिद्वार में है, किन्तु गुरुदेव से जुड़ने के कुछ समय बाद ही
चौहान जी, परिवार को ज्वालापुर में ही रखकर स्वयं स्थाई रूप से
शान्तिकुञ्ज आ गये थे।)
हम लोग ज्वालापुर में रहते हैं। एक परिजन शान्तिकुञ्ज जाने के
लिये लगभग छः माह से कह रहे थे, सो हम पत्नी सहित शान्तिकुञ्ज
आये।
कक्षा सात में मैंने एक कथा सुनी थी कि कलियुग में जब भगवान् आयेंगे तो कोई पहचान नहीं पायेगा। वे स्वयं चिन्ह प्रकट करेंगे, ताकि भक्त पहचान ले। तब भक्त भगवान् को अपने घर लायेगा।
पहली बार जब गुरुजी से मिले तो उन्होंने कहा- ‘‘तुम पृथ्वीराज चौहान की जाति के हो।’’ सुनकर हमें गर्व हुआ।
मैंने उनका मस्तक देखा तो चकित रह गया। आज्ञा चक्र में बहुत
देर तक गहरा गढ्ढा जैसा दिखाई देता रहा। वहाँ से प्रकाश निकल
रहा था। घर आने पर तीन दिनों तक नींद नहीं आई। गुरुजी के विषय
में ही विचार करता रहा। पहले तो सोचा कोई तांत्रिक होंगे। फिर
अचानक वह कथा याद आई। सो हम शीघ्र ही शान्तिकुञ्ज आये कि देखें
यदि वे भगवान् हैं तो हमारे बुलने पर घर आते हैं कि नहीं।
जैसे ही हम पूज्यवर के पास पहुँचे, हमारे कुछ बोलने से पहले ही वे खुद बोल पड़े, ‘‘बेटा, हम तुम्हारे यहाँ आने के लिये कई दिन से इन्तजार कर रहे हैं।’’
मैं सुन कर दंग रह गया। सोचा कि यह अवश्य ही अंतर्यामी हैं जो तुरंत मेरे मन की बात जान ली।
15 जनवरी सन् 77 को ठीक 12ः00 बजे दोपहर में परम वंदनीया
माताजी एवं परम पूज्य गुरुदेव मेरे घर पधारे। उन्होंने कहा- ‘‘बेटा किसी को बुलाना मत।’’ क्योंकि वे केवल भक्तों का ही सम्मान करने हेतु वचनबद्ध थे, सबकी मनोकामना हेतु नहीं।
अपने भगवान को अपने घर पाकर हम लोग निहाल हो गये। उस समय
हमें वे स्पष्ट रूप से राम- सीता के स्वरूप में आभासित हुए।
एक साल बाद फिर उसी दिन 15 जनवरी सन् 1978 को वे दिन के 12ः00 बजे ही आये। उस दिन भगवान श्रीकृष्ण
और शिव शंकर के रूप में दिखे। माथे पर पूर्ण चन्द्रमा था।
दोनों बार वे एक- सवा घंटे तक बैठे, बातचीत की, मेरे मन की
सम्पूर्ण गाँठें खोलते रहे।
अनेक चर्चाओं के बीच उन्होंने दो महत्वपूर्ण बातें कहीं-
(1) बेटा, मेरे गुरु मेरे घर आये थे, देख! मैं भी तेरे घर आ गया।
(2) बेटा, मैंने तुझे तेरे और अपने दो जन्मों का बोध करा दिया है।
अन्त में उन्होंने हम दोनों से पूछा, ‘‘बेटे! तुम्हारी कोई इच्छा है?’’ हमने कहा ‘‘नहीं गुरुजी, कोई इच्छा नहीं है।’’
अब हम पूरी तरह गुरुजी को समर्पित हो गये। जिससे हमारी परीक्षा भी शुरु
हुई। अब मुझे गुरुजी के काम के अलावा कुछ सुहाता ही नहीं था।
मैंने खेती करना छोड़ दिया। खेत खाली पड़े रहे। बैल- गाड़ी बाँट दी व
शान्तिकुञ्ज आ गया। पत्नी घर पर ही रही। बहुत गरीबी में एक साल
काटा। घर- बाहर सभी मुझे पागल कहने लगे।
मेरे भाईयों में बटवारा हुआ। सबने अच्छे- अच्छे खेत छाँटकर रख लिये। मुझे सबसे रद्दी, खराब, उबड़- खाबड़ ज़मीन दी। मैं कुछ नहीं बोला। 15- 20 साल यूँ ही गुज़र गये। चकबन्दी हुई। मेरी ज़मीन के तीन तरफ रोड बना। मेरी कुछ जमीन रोड में चली गई। जो जमीन कुछ समय पहले तक कौड़ियों
के भाव भी नहीं थी, वह अचानक ही लाखों की हो गई। रिश्तेदार-
दलाल सब आश्चर्य चकित थे यह क्या हुआ? मुझे उस जमीन के काफी
पैसे मिले। मैंने गुरुजी की शक्ति मान कर सब स्वीकार किया।
साक्षात अन्नपूर्णा का भण्डार
एक दिन मैंने गुरुदेव से प्रश्र किया- ‘‘गुरुदेव, मैं तो पढ़ा लिखा नहीं हूँ, फिर मुझे यहाँ क्यों बुलाया? यहाँ तो पढ़े- लिखों का काम अधिक है।’’
गुरुदेव बोले, ‘‘बेटे,
पढ़े- लिखे को अपने ज्ञान को भुला कर हमारे ज्ञान को आत्मसात्
करना पड़ता है, जो कि कठिन है। किन्तु तुझे भुलाने का श्रम नहीं
करना पड़ेगा, केवल हमारे ज्ञान को ही आत्मसात् करना होगा।’’
वे सर्वज्ञ शिव थे। प्रारंभ में मैं घर से रोज गुरुकुल कांगड़ी होते हुए पैदल आता था। माताजी बातों- बातों में जान लेती थीं व कहतीं- ‘‘लल्लू इतने लम्बे रास्ते से क्यों आता है? छोटे रास्ते से आया कर। ’’
एक दिन मैंने गुरुकुल कांगड़ी
के पास दो रुपये का लाटरी टिकट खरीदा। पर यह बात किसी से कही
नहीं। किन्तु गुरुदेव ने दो- चार दिन बाद मुझसे कहा, ‘‘कहीं मुफ्त के पैसे से कोई रईस बना है क्या?’’मैं आवाक्
रह गया। बिना कहे ही गुरुदेव ने जान लिया। मैं उनकी सर्वज्ञता
पर नत मस्तक था। फिर मैंने वह टिकट फाड़कर फेंक दिया।
माताजी का चौका तो साक्षात् अन्नपूर्णा का भण्डार है। एक बार
अवस्थी जी खाना खाने गये थे कि एक महिला आई और पूछा- ‘‘पन्द्रह- सोलह व्यक्ति हैं, खाना खिलायेंगे क्या?’’
मैं ऊपर गया, देखा- दाल चावल तो पर्याप्त था। रोटी 15- 20 ही
थी। मैंने हाँ कर दी। जब सब आये, तब पता चला कि वे तो 50- 60
व्यक्ति हैं। अब मैंने उसी महिला को रोटी का बर्तन दे दिया
और कहा, ‘‘जहाँ तक रोटी जाय, सबको एक- एक रोटी परोस दो।’’
उसने रोटी परोसी। किसी अपने को उसने दो रोटी दे दी, अतः अन्त
में एक रोटी कम पड़ी, अन्यथा सबको उतनी ही रोटी पूरी हो गई। ऐसी
थी माताजी के चौके की शक्ति। मैं स्वयं देखकर आश्चर्यचकित था।
मात्र 15- 20 लोगों के लायक भोजन था, जिसमें 50- 60 लोगों ने
भरपेट भोजन कर लिया?
जो माँगोगे वही मिलेगा
सुश्री शक्ति श्रीवास्तव
दिनाँक, 14 जनवरी 1982 को पूज्य गुरुदेव हमारे यहाँ गायत्री
शक्तिपीठ की प्राण- प्रतिष्ठा हेतु पधारे। माँ गायत्री जी का पूजन
करते समय उन्होंने कहा, ‘‘बेटा!
प्राण- प्रतिष्ठा करने हेतु इस समय मैं सारे देश में घूम रहा
हूँ, किन्तु जो मुहूर्त तेरे इस शक्तिपीठ को मिला, वह किसी को
नहीं मिला।’’ फिर पुनः बोले, ‘‘बेटा! ये प्राणवान प्रतिमा है। जो माँगोगे, वही मिलेगा।’’
पूज्यवर के द्वारा प्रतिष्ठित अनेक शक्तिपीठों से अनेकों बार
ऐसे संस्मरण प्रकाशित हुए हैं, जिनमें परिजनों ने अपनी मनोकामनाएँ
पूर्ण होने की बात कही है। पूज्यवर द्वारा की गई स्थापनाएँ इतनी
प्राणवान हैं कि वहाँ पर जिन्होंने भी शुद्ध मन से श्रद्धा पूर्वक, जो भी याचना की है, पूर्ण होकर ही रही है।
गंगा को हमारा आशीर्वाद कहना
श्रीमती विमला अग्रवाल, ब्रह्मवर्चस
सन् 1977 में मैं शान्तिकुञ्ज में तीन माह के समय दान के
लिये आई हुई थी। प्रातः यज्ञ, प्रणाम, संगीत शिक्षण के बाद रोटी
सेंकना दिनचर्या में शामिल था। उस दिन कार्तिक पूर्णिमा थी। गुरुजी
प्रणाम के समापन व लेखन के पश्चात् चौके में आकर टहलने लगे।
इसी समय भक्तिन अम्मा ने पूछा- ‘‘गुरुजी, आज कार्तिक पुन्नी ए, गंगा नहाये जातेन, सब लइकामन घलो जाबोन कहत हैं ।’’ (आज कार्तिक पूर्णिमा है, गंगा स्नान करने का मन है। सभी लड़कियाँ भी जाने के लिये कह रही हैं।)
गुरुजी ने कहा, ‘‘अच्छा- अच्छा! आज कार्तिक पूर्णिमा है? ठीक है, ठीक है। चले जाना। कार्तिकेयको हमारा आशीर्वाद कहना। गंगा को हमारा आशीर्वाद कहना।’’
मैं उनके शब्दों को सुन कर कुछ क्षणों तक सोचती रह गई, गुरुजी यह क्या कह रहे हैं? ‘‘कार्तिकेयको हमारा आशीर्वाद कहना। गंगा को हमारा आशीर्वाद कहना।’’ माँ गंगा व कार्तिकेय को आशीर्वाद कौन दे सकता है? फिर अंतरमन
ने कहा, माँ गंगा व कार्तिकेय को आशीर्वाद देने की सामर्थ्य
रखने वाले साक्षात् शिव के अतिरिक्त और कौन हो सकते हैं?
अंतर्यामी गुरुदेव,
(श्री विश्वप्रकाश त्रिपाठी जी ने सन् 1981 में दीक्षा ली और वसंत पंचमी सन् 1988 में स्थाई तौर पर सपरिवार शान्तिकुञ्ज आ गये।)
घटना उन दिनों की है जब पूज्यवर शक्तिपीठों की प्राण
प्रतिष्ठा के क्रम में देशव्यापी दौरे पर थे। 8 जनवरी 1981 को डॉ. होता के बंगले में लखनऊ में गुरुदेव के प्रथम दर्शन हुए। मैं प्रणाम कर एक कोने में खड़ा हो गया। मन ने कहा, ‘‘ये विश्व के सबसे विद्वान व्यक्ति हैं। दीक्षा ले लो, तो सब मालूम हो जायेगा।’’
गुरु दीक्षा से गुरुशक्ति प्राप्ति का संदेश मन में पूर्व से ही समाया था। थोड़ी देर बाद मैं बाहर आ गया। चूंकि गुरुदेव प्रातः ही मिलते थे। अतः हम सब बड़े सबेरे बिना चाय- नाश्ते के ही निकल पड़े थे। मेरे बड़े भाई डॉ. ओ.पी. शर्मा जी भी साथ थे, उन्हें भूख लग रही थी। अन्दर गुरुजी ने श्री कपिल जी से कहा, ‘‘जाओ, डॉ. ओ.पी. को भूख लग रही है, उसे फल निकाल कर दे दो।’’
श्री कपिल जी ने हमें फल लाकर दिये और बताया कि डॉक्टर साहब
को भूख लग रही थी, अतः गुरुजी ने फल भेजे हैं। हम दोनों भाई
आश्चर्य में पड़ गये। हमने तो किसी को कुछ कहा नहीं। उन्हें कैसे
पता लगा कि हम भूखे हैं?
थोड़ी देर बाद गुरुदेव बाहर आए व बोले, ‘‘हम डॉ. ओमप्रकाश की गाड़ी में जायेंगे। ओपन गाड़ी में नहीं जायेंगे।’’ उन्हें अयोध्या जाना था। डॉ. ओमप्रकाश
जी, मन ही मन सोच रहे थे कि पूज्यवर हमारी गाड़ी में चलते तो
कितना अच्छा होता? किन्तु संकोचवश कह नहीं पा रहे थे। साथ ही,
व्यवस्था में हस्तक्षेप भी नहीं करना चाहते थे। इतना सुनते ही
उनका मन बाग- बाग हो गया और वे गुरुजी को आयोध्या तक पहुँचाकर आये।
एक दिन गुरुदेव ने कहा, ‘‘बेटा,
श्रद्धा ही वह शक्ति है जिसके माध्यम से व्यक्ति भगवान् से
जुड़ता है। अतः जो लोगों में श्रद्धा जगाता है, वह सबसे अच्छा है
किन्तु जो इसे तोड़ता है, वह हमारा शत्रु है।’’ तभी हमने श्रद्धा का महत्त्व समझा।
गायत्री शक्तिपीठ अयोध्या की प्राण प्रतिष्ठा के समय पूज्यवर ने स्पष्ट किया, ‘‘बेटे,
ऋषि विश्वामित्र जब अयोध्या आये थे, तब इसी जगह पर ठहरे थे।
चूँकि विश्वामित्र ऋषि गायत्री मंत्र के प्रणेता हैं, अतः तभी
रामजी ने संकल्प लिया था कि यहाँ गायत्री मंदिर बनेगा। आज वह
संकल्प पूर्ण हुआ।’’ हम सब सुनकर हैरान थे। त्रेता की बातें गुरुदेव को कैसे मालूम?
8 जनवरी सन् 1981 के प्रथम मिलन के बाद मैं लगातार पूज्यवर
के सम्पर्क में रहा। अखण्ड ज्योति पढ़ता व प्रचार- प्रसार करता
रहा। शान्तिकुञ्ज कई बार आया व गुरुदेव से मिलता रहा। मन में
प्रश्न उठते रहे कि जिस प्रकार मानव दिनों दिन संवेदना विहीन
होता जा रहा है, मानवता की रक्षा कैसे होगी? गुरुदेव तो
अन्तर्यामी थे। एक मुलाकात में उन्होंने कहा- ‘‘युग को मैं बदल दूँगा। प्रज्ञावतार की विराट लीला सम्पूर्ण विश्व मानवता की रक्षा करेगी।’’
मेरा समाधान हो चुका था। वसंत पर्व सन् 84 को मैंने जीवन दान
दिया किन्तु तब मुझे अनुमति नहीं मिली। मैं समयदान करता रहा और
टोलियों में भी जाता रहा। फिर कुछ वर्ष बाद मैं पूर्ण रूप से
शान्तिकुञ्ज आ गया।
तेरे शिव- पार्वती हम ही हैं
श्री महेंन्द्र शर्मा जी, शान्तिकुञ्ज
ऐसे ही एक प्रसंग और है उन दिनों मैं शान्तिकुञ्ज में
निर्माण विभाग में था, मजदूरों के साथ चौबीस बार गायत्री मंत्र
बोलता था तथा उन्हें बताता था कि पूज्यवर साक्षात् शिव के अवतार
हैं।
एक दिन कुछ मजदूरों ने कहा, ‘‘भाई साहब! हम लोग नीलकण्ठ जा रहे हैं, आप भी चलिए न। पिकनिक भी होगी। आप भी होंगे तो बहुत अच्छा लगेगा?’’ मैंने उनसे कहा, ‘‘मुझे गुरुदेव ने मना किया है। कहा है, उत्तर दिशा में नहीं जाना।’’
वे सभी मन मार कर चले गये। कुछ वर्ष बाद मेरे मन में भी
इच्छा हुई। माताजी के पास गया, वहाँ दस- बारह बहनें बैठी हुई थीं।
मैं वापस जाने लगा। माताजी ने कहा, ‘‘लल्लू जाना नहीं। एक मिनट रुको, क्यों आये हो?’’
मैंने कहा, ‘‘माताजी, नीलकण्ठ जा रहा हूँ।’’ ‘‘क्या है वहाँ?’’ माताजी ने पूछ लिया। मैंने जवाब में कहा, ‘‘माताजी शंकर जी का सिद्धपीठ है।’’ माताजी गंभीर हो गईं व कहा, ‘‘ना बेटे! तू मत जा। तेरा अगर श्रद्धा- विश्वास है, तो तेरे शिव- पार्वती हम ही हैं।’’
मैं अचंभित होकर माताजी को एकटक निहारने लगा और मन में सोच लिया ‘‘अब कहीं नहीं जाना।’’
बाद में भी मन कहता रहा, यद्यपि हम जानते हैं कि वे शिव-
पार्वती स्वरूप हैं। फिर भी क्यों बार- बार भूल जाते हैं? और वह करुणामयि माँ, हमें हमारी भूलों को सुधार कर पुनः- पुनः स्मरण करा देती हैं।
बस दो ही पुस्तकें पढ़ लो
यह सन् 74- 75 की बात है, उन दिनों हम भिलाई में ही रहते थे। श्री गजाधार सोनी व मैं शान्तिकुञ्ज आए हुए थे। चर्चा के दौरान श्री सोनी जी ने कहा- ‘‘गुरुजी का इतना साहित्य है। हम लोग कैसे पढ़ पायेंगे? गुरुजी केवल ऐसी बीस पुस्तकें बता दें जो हम पढ़ सकें।’’
तब गुरुजी से कभी भी, कोई भी मिल सकता था। मैंने कहा- ‘‘चलो गुरुजी से ही पूछेंगे।’’ दोनों गुरुजी के पास पहुँचे। उन्होंने स्वयं ही कहा- ‘‘कैसे आये बच्चो? कुछ पूछना है तो पूछो।’’
हम लोगों ने कहा, ‘‘गुरुजी, हम लोग प्लान्ट
में काम करते हैं। आपका इतना सारा साहित्य तो हम पढ़ नहीं
पायेंगे। अतः आप चुनी हुई बीस पुस्तकें बता दें। हम वही पढ़ लें।’’ हमारी बात सुनते ही ऐसा लगा जैसे वे भाव समाधि में खो गये। फिर कुछ क्षण बाद कहा, ‘‘बेटे, तुम लोग केवल दो ही पुस्तकें पढ़ लो। एक है- श्रीमद् भागवत और एक रामचरितमानस’’
और उठकर वहीं कमरे में चक्कर लगाने लगे। लगा कि वे भाव समाधि
से जागृत होकर कुछ बताना चाह रहे हों और दो चक्कर लगाने के
बाद कहा, ‘‘इसमें हमारा सारा जीवन, हमारी सारी योजना लगी है।’’
हम लोग हतप्रभ से रह गए। तर्क कब ईश्वर को पहचान सकता है। कुछ
समझ नहीं पाए। दो किताब पढ़ने की बात मानकर घर आ गये।
मैंने पत्नी को उनकी बात बताई। श्रद्घा से सृष्टा कैसे छुपते? पत्नी ने कहा, ‘‘आपने इस पर सोचा नहीं। वे स्वयं ईश्वर हैं। राम व कृष्ण स्वरूप। इसलिये ही तो भागवत व मानस पढ़ने को कहा व यही हमारी योजना भी है।’’ मुझे लगा, यह ठीक तो कह रही है पर मैं कैसे नहीं समझ सका?
मैं धन्य हो गया
श्री रमेश मारू, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
यह प्रसंग मुझे श्री रामाधार विश्वकर्मा जी ने सुनाया था। उनके पास संस्मरणों का भण्डार है। शान्तिकुञ्ज, गेट नं. 1, पोस्ट आफिस
के पास में पहले एक कुआँ था और गुलाब के फूलों का बगीचा
था। जिसके बीच घास हुआ करती थी। वहाँ पूज्य गुरुदेव एवं वन्दनीया
माताजी प्रायः शाम के समय बैठा करते थे।
श्री रामाधार
विश्वकर्मा जी शान्तिकुञ्ज आए हुए थे। एक दिन शाम को गुरुजी व
माताजी उस बगीचे में बैठे हुए थे। संध्या हो गई थी, अतः श्री
विश्वकर्मा जी कुँए से थोड़ी दूरी पर ध्यान में बैठ गये। वे उच्च
कोटि के साधक थे। वहाँ बैठकर वे ध्यान करने लगे और ध्यान में
खो गये। ध्यान में उन्होंने देखा कि उनके गुरु ही श्री
रामकृष्ण- माँ शारदामणि, राधा- कृष्ण एवं सीता- राम हैं। यह दृश्य
उन्हें कुछ देर तक