यदा-यदा हि धर्मस्य.... की प्रतिज्ञा निभाने वाले परम स्रष्टा जब धरती पर अवतरित होते हैं, तब स्वयं को इतना गुप्त रखते हैं कि उनके सान्निध्य में निरन्तर कार्यरत व्यक्ति भी उन्हें ठीक से नहीं जान पाते। कभी झलक भी मिलती है, तब उन्हें एकटक देखते हुए यह सोचते हैं कि क्या ये सचमुच ईश्वर रूप हैं? उनके इस प्रकार सोचते ही मायापति अपनी माया से उन्हें आच्छादित कर देते हैं व फिर अति सामान्य की तरह सब के साथ वही सामान्य जीवन क्रम चलता रहता है। उन्हें भान ही नहीं हो पाता कि वे उस परमसत्ता के साथ, उनके अंग-अवयव बन कर जीवन जी रहे हैं।
यही तो है लीलापति की लीला। ‘‘सोई जानइ जेहि देहु जनाई’’ की उक्ति पूर्णतः तब चरितार्थ होती है जब उनकी असीम अनुकम्पा से कोई-कोई भक्त उन्हें जान पाता है। जानने के बाद भी उनकी आकांक्षा के अनुरूप साथ चलने की सामर्थ्य जुटाने हेतु भी उनकी कृपा की आवश्यकता होती है। तभी तो अर्जुन जैसे समर्पित अभिन्न कृष्ण सखा को भी कहना पड़ गया कि ‘‘कार्पण्य दोषोपहृत स्वभावः...। कायरता के दोष से मेरा स्वभाव आहत हो गया है। धर्म के विषय में मैं मोहित चित्त हो गया हूँ, अतः मैं आपसे पूछता हूँ जिस कार्य से मेरा निश्चित भला हो, वही मार्ग बताइये।’’ तब हम सामान्य जनों की क्या बिसात कि उनकी कृपा के बिना उन्हें पहचान सकें, उनकी राह चल सकें।
प्रस्तुत पुस्तक में ऐसे ही स्वजनों के गुरुसत्ता के साथ जुड़े प्रसंगों को प्रकाश में लाने का प्रयास किया गया है, जिससे भावी पीढ़ी भी पिछली पीढ़ी के कार्यों को जाने व समझे। अपनी समस्याओं के निदान हेतु उससे मार्ग दर्शन प्राप्त कर सके व अपनी श्रद्धा और समर्पण को निरंतर बढ़ाती रह सके।
साथ ही पूज्यवर के साथी, सहचर, सहयोगी, कदम से कदम मिलाकर चलने वाले, हर आज्ञा पर खड़े रहने वाले, निर्देशों को आँख मूँद कर मानने वाले, स्वयं असीम कष्ट सहकर भी कार्य पूर्ण कर संतोष प्राप्त कर उछलने-कूदने वाले बन्धु भी अपनी अनुभूति को तरोताजा कर रोमांचित हो सकें।
कभी पूज्य गुरुदेव ने कहा था कि बेटा हमने इतने अनुदान बाँटे हैं कि यदि उन सबका लेखा-जोखा रखा जाये तो 18 महापुराण भी कम पड़ जायेंगे। वे परिजन जिन्होंने निज नयनों से उन्हें प्रत्यक्ष में भले ही न देखा हो, किन्तु उनके विचारों पर, उनके आदर्शों पर मर मिटने को तैयार हो गये व उनकी योजना को पूरा करने हेतु अपना जीवन समर्पित कर दिया। जो अपने सांसारिक कार्यों से समय, साधन, श्रम बचा-बचा कर गुरुकार्यों में होम रहे हैं, मिशन के विस्तार में अपना सहयोग देकर तन-मन-धन से युग निर्माण के आकांक्षी हैं। वे सभी स्वजन-बन्धु प्रस्तुत पुस्तक से प्रेरणा, प्रकाश, मार्गदर्शन, उत्साह, उमंग एवं कार्य पथ पर बढ़ने का साहस प्राप्त कर सकेंगे, ऐसा हमारा विश्वास है।
इन यादों में वह शक्ति है कि हर परिजन अपने कर्तृत्व के अनुसार यह अनुभव कर सकेगा कि हमारी समर्थ गुरुसत्ता ने जो असीम प्यार-दुलार, स्नेह-सम्मान, ममता, करुणा, कृपा, आशीर्वाद स्थूल रूप में अपने साथियों पर उड़ेला है, उसे अपने सूक्ष्म रूप में आज भी उड़ेल रहे हैं। हमारी श्रद्धा, निष्ठा जितनी सशक्त एवं सार्थक बनकर सक्रियता में परिवर्तित होगी, उतना ही हम उनकी कृपा के अधिकारी बन सकेंगे।
ऋषिसत्ता से जुड़े संस्मरणों को पहले भी प्रकाशित किया जाता रहा है। स्मारिकाओं में, प्रज्ञा अभियान पाक्षिक में, अखण्ड ज्योति पत्रिका में एवं वाङ्मय में भी कुछ विशिष्ट संस्मरण छपते रहे हैं। किन्तु जन्मशताब्दी की इस महत्त्वपूर्ण वेला में परिजनों के संस्मरणों को विशेष तौर पर इकट्ठा किया जा रहा है। आने वाले समय में एक शृंखलाबद्ध रूप से इस विषय पर भी पुस्तकें निकाली जायेंगी। यह पुस्तक उसका एक नमूना भर है। अतः जागृत परिजनों से अनुरोध है कि वे इस पुस्तक से प्रेरणा लेकर उन परिजनों के संस्मरणों को, जो पूज्य गुरुदेव के सहयोगी रहे हैं और बहुमूल्य यादें अपने अन्दर छिपाये बैठे हैं, लिखित रूप में अथवा आडियो-वीडियो रिकार्डिंग के रूप में, जैसे भी संभव हो सके, शान्तिकुञ्ज भेजें, ताकि हम इस शृंखला को आगे बढ़ा सकें।
-महिला मण्डल, शांतिकुंज