पाँच प्राण-पाँच देव

पांच प्राण पांच शक्ति धारायें

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
यों प्राणतत्व एक है, पर प्राणी के शरीर में उसकी क्रियाशीलता के आधार पर कई भागों में विभक्त किया गया है। शरीर के प्रमुख अवयव मांस-पेशियों से बने हैं, पर संगठन की भिन्नता के कारण उनके आकार-प्रकार में भिन्नता पाई जाती है। इसी आधार पर उनका नामकरण एवं विवेचन भी पृथक्-पृथक् होता है। मानवी-काया में प्राण-शक्ति को भी विभिन्न उत्तरदायित्व निबाहने पड़ती हैं उन्हीं आधार पर उनके नामकरण भी अलग हैं और गुण धर्म की भिन्नता भी बताई जाती है। इस पृथकता के मूल में एकता विद्यमान है। प्राण अनेक नहीं हैं। उसके विभिन्न प्रयोजनों में व्यवहार पद्धति पृथक है। बिजली एक है, पर उनके व्यवहार विभिन्न यन्त्रों में भिन्न प्रकार के होते हैं। हीटर, कूलर, पंखा, प्रकाश, पिसाई आदि करते समय उसकी शक्ति एवं प्रकृति भिन्न लगती है। उपयोग आदि प्रयोजन को देखते हुए भिन्नता अनुभव की जा सकती है तो भी जानने वाले जानते हैं कि यह सब एक ही विद्युत शक्ति के बहुमुखी क्रिया-कलाप हैं। प्राण-शक्ति के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। शास्त्रकारों ने उसे कई भागों में विभाजित किया है, कई नाम दिये हैं और कई तरह से व्याख्या की है। उसका औचित्य होते हुए भी इस भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं कि प्राणतत्व कितने ही प्रकार का है और उन प्रकारों में भिन्नता एवं विसंगति है। इस प्राण विस्तार को भी ‘‘एकोऽहं बहुस्याम’’ का एक स्फुरण कहा जाता है।

मानव शरीर में प्राण को दस भाग में विभक्त माना गया है। इनमें 5 प्राण और 5 उप प्राण हैं। प्राणमय कोश इन्हीं 10 के सम्मिश्रण से बनता है। 5 मुख्य प्राण हैं (1) अपान (2) समान (3) प्राण (4) उदान (5) व्यान। उपप्राणों को (1) देवदत्त (2) वृकल (3) कूर्म (4) नाग (5) धनंजय नाम दिया गया है।

शरीर क्षेत्र में इन प्राणों के क्या-क्या कार्य हैं? इसका वर्णन आयुर्वेद शास्त्र में इस प्रकार किया गया है—

(1) अपान—अपनयति प्रकर्षेंण मलं निस्सारयति अपकर्षाति च शक्तिम् इति अपानः ।

अर्थात्—जो मलों को बाहर फेंकने की शक्ति में सम्पन्न है वह अपान है। मल-मूत्र, स्वेद, कफ, रज, वीर्य आदि का विसर्जन, भ्रूण का प्रसव आदि बाहर फेंकने वाली क्रियाएं इसी अपान प्राण के बल से सम्पन्न होती हैं।

(2) समान—रसं समं नयति सम्यक् प्रकारेण नयति इति समानः ।

अर्थात्—जो रसों को ठीक तरह यथास्थान ले जाता और वितरित करता है वह समान है। पाचक रसों का उत्पादन और उनका स्तर उपयुक्त बनाये रहना इसी का काम है। पातञ्जलि योग सूत्र के पाद 3 सूत्र 40 में कहा गया है—‘‘समान जयात् प्रज्वलम्’’ अर्थात् समान द्वारा शरीर की ऊर्जा एवं सक्रियता ज्वलन्त रखी जाती है। (3) प्राण—प्रकर्षेंण अनियति प्रर्केंण वा बलं ददाति आकर्षति च शक्तिं स प्राणः ।

अर्थात्—जो श्वास, आहार आदि को खींचता है और शरीर में बल संचार करता है वह प्राण है। शब्दोच्चार में प्रायः इसी की प्रमुखता रहती है। (4) उदान—उन्नयति यः उद्आनयति वा तदानः ।

अर्थात् जो शरीर को उठाये रहे, कड़क रखे, गिरने न दे—बह उदान है। ऊर्ध्वगमन की अनेकों प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष क्रियाएं इसी के द्वारा सम्पन्न होती हैं। (5) व्यान—व्याप्नोति शरीर यः स ध्यानः ।

अर्थात्—जो सम्पूर्ण शरीर में संव्याप्त है—वह व्यान है। रक्त-संचार, श्वास-प्रश्वास, ज्ञान-तन्तु आदि माध्यमों से यह सारे शरीर पर नियन्त्रण रखता है। अन्तर्मन की स्वसंचालित शारीरिक गतिविधियां इसी के द्वारा सम्पन्न होती हैं।

इस तरह प्रथम प्राण का कार्य श्वास-प्रश्वास क्रिया का सम्पादन स्थान छाती है। इस तत्व की ध्यानावस्था में अनुभूति पीले रंग की होती है और षटचक्र वेधन की प्रक्रिया में यह अनाहत चक्र को प्रभावित करता पाया जाता है।

द्वितीय—अपान का कार्य शरीर के विभिन्न मार्गों से निकलने वाले मलों का निष्कासन, एवं स्थान गुदा है। यह नारंगी रंग की आभा में अनुभव किया है और मूलाधार चक्र को प्रभावित करता है।

तीसरा समान—अन्न से लेकर रस-रक्त और सप्त धातुओं का परिपाक करता है और स्थान नाभि है। हरे रंग की आभा वाला और मणिपूर चक्र से सम्बन्धित इसे बताया गया है।

चौथा उदान—का कार्य है आकर्षण ग्रहण करना, अन्न-जल, श्वास, शिक्षा आदि जो कुछ बाहर से ग्रहण किया जाता है वह ग्रहण प्रक्रिया इसी के द्वारा सम्पन्न होती है। निद्रावस्था तथा मृत्यु के उपरान्त का विश्राम सम्भव करना भी इसी का काम है। स्थान कण्ठ, रंग बैगनी तथा चक्र विशुद्धाख्य है।

पांचवा व्यान—इसका कार्य रक्त आदि का संचार, स्थानान्तरण। स्थान सम्पूर्ण शरीर। रंग, गुलाबी और चक्र स्वाधिष्ठान है।

पांच उप प्राण इन्हीं पांच प्रमुखों के साथ उसी तरह जुड़े हुए हैं जैसे मिनिस्टरों के साथ सेक्रेटरी रहते हैं। प्राण के साथ नाग। अपान के साथ कूर्म। समान के साथ कृकल। उदान के साथ देवदत्त और व्यान के साथ धनञ्जय का सम्बन्ध है। नाग का कार्य वायु सञ्चार, डकार, हिचकी, गुदा वायु। कूर्म का नेत्रों के क्रिया-कलाप कृकल का भूख-प्यास, देवदत्त का जंभाई, अंगड़ाई, धनञ्जय को हर अवयव की सफाई जैसे कार्यों का उत्तरदायी बताया गया है, पर वस्तुतः वे इतने छोटे कार्यों तक ही सीमित नहीं है। मुख्य प्राणों की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित बनाये रखने में उनका पूरा योगदान रहता है। इन प्राण और उपप्राणों के भेद को और भी अच्छी तरह समझना हो तो तन्मात्राओं और ज्ञानेन्द्रियों के सम्बन्ध पर गौर करना चाहिए। शब्द तत्व को ग्रहण करने के लिये कान, रूप तत्व की अनुभूति के लिये नेत्र, रस के लिये जिव्हा, गन्ध के लिए नाक और स्पर्श के लिये जो कार्य त्वचा करती है, उसी प्रकार प्राण तत्व द्वारा विनिर्मित सूक्ष्म संभूतियों को स्थूल अनुभूतियों में प्रयुक्त करने का कार्य यह उप प्राण सम्पादित करते हैं। यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि यह वर्गीकरण मात्र वस्तुस्थिति को समझने और समझाने के उद्देश्य से ही किया गया है। अलग-अलग आकृति प्रकृति के दस व्यक्तियों की तरह इन्हें दस सत्ताएं नहीं मान बैठना चाहिए। एक ही व्यक्ति को विभिन्न अवसरों पर पिता, पुत्र, भाई, मित्र, शत्रु सुषुप्त, जागृत, मलीन, स्वच्छ स्थितियों में देखा जा सकता है लगभग उसी प्रकार का यह वर्गीकरण भी समझा जाय।

प्राण शरीर-शरीरस्थ प्राण संस्थान के न केवल अस्तित्व का बल्कि गुण, धर्मों तथा क्रिया-कलापों, प्रभावों आदि का भी वर्णन विस्तार पूर्वक भारतीय ग्रन्थों में मिलता है। इस मान्यता को स्थूल विज्ञान बहुत दिनों तक झुठलाता रहा, किन्तु शरीर विज्ञान के सन्दर्भ में जैसे-जैसे उसकी जानकारियां बढ़ रही हैं, प्राण संस्थान के अस्तित्व को एक सुनिश्चित तथ्य के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। भौतिक विज्ञान के स्थूल उपकरणों की पकड़ में भी इस सूक्ष्म सत्ता के अनेक प्रमाण आने लगे हैं।

रूस के इलेक्ट्रानिक विज्ञानवेत्ता ऐमयोन किर्लियान ने एक ऐसी फोटोग्राफी का आविष्कार किया है जो मनुष्य के इर्द-गिर्द होने वाली विद्युतीय हलचलों का भी छायांकन करती है। इससे प्रतीत होता है कि स्थूल शरीर के साथ-साथ सूक्ष्म शरीर की भी सत्ता विद्यमान है और वह ऐसे पदार्थों से बनी है जो इलेक्ट्रानों से बने ठोस पदार्थ की अपेक्षा भिन्न स्तर की है और अधिक गतिशील भी।

इंग्लैंड के डा. किलनर एक बार अस्पताल में रोगियों का परीक्षण कर रहे थे। एक मरणासन्न रोगी की जांच करते समय उन्होंने देखा कि उनकी दुर्बीन (माइक्रोस्कोप) के शीशे पर एक विचित्र प्रकार के रंगीन प्रकाश कण जम गये हैं जो आज तक कभी भी देखे नहीं गये थे। दूसरे दिन उसी रोगी के कपड़े उतरवाकर जांच करते समय डा. किलनर फिर चौंके उन्होंने देखा जो प्रकाश कल दिखाई दिया था आज वह लहरों के रूप में माइक्रोस्कोप के शीशे के सामने उड़ रहा है। रोगी के शरीर के चारों ओर छह, सात इंच परिधि में यह प्रकाश फैला है, उसमें कई दुर्लभ रासायनिक तत्वों के प्रकाश कण भी थे। उन्होंने देखा जब प्रकाश मन्द पड़ता है तब तक उसके शरीर और नाड़ी की गति में शिथिलता आ जाती है। थोड़ी देर बाद एकाएक प्रकाश पुंज विलुप्त हो गया। अब की बार जब उन्होंने नाड़ी पर हाथ रखा तो पाया कि उसकी मृत्यु हो गई। इस घटना को कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराने के साथ-साथ डा. किलनर ने विश्वास व्यक्त किया कि जिस द्रव्य में जीवन के मौलिक गुण विद्यमान होते हैं वे पदार्थ से प्रथम अति सूक्ष्म सत्ता है। उसका विनाश होता हो ऐसा सम्भव नहीं है।

प्राण तत्व को ही एक चेतन ऊर्जा (लाइव एनर्जी) कहा गया है। भौतिक विज्ञान के अनुसार एनर्जी के छह प्रकार माने जाते हैं—1. ताप (हीट) 2. प्रकाश (लाइट) 3. चुम्बकीय (मैगनेटिक) 4. विद्युत (इलेक्ट्रिकसिटी) 5. ध्वनि (साउण्ड) 6. घर्षण (फ्रिक्शन) अथवा यांत्रिक (मैकेनिकल)। एक प्रकार की एनर्जी को किसी भी दूसरे प्रकार की एनर्जी में बदला भी जा सकता है। शरीरस्थ चेतन क्षमता—लाइव एनर्जी इन विज्ञान सम्मत प्रकारों से भिन्न होते हुए भी उनके माध्यम से जानी समझी जा सकती है। एनर्जी के बारे में वैज्ञानिक मान्यता है कि वह नष्ट नहीं होती बल्कि उसका केवल रूपान्तरण होता है। यह भी माना जाता है कि एनर्जी किसी भी स्थूल पदार्थ से सम्बद्ध रह सकती है; फिर भी उसका अस्तित्व उससे भिन्न है और वह एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में स्थानांतरित (ट्रांसफर) की जा सकती है। प्राण के सन्दर्भ में भी भारतीय दृष्टाओं का यही कथन है। अब तो पाश्चात्य वैज्ञानिक भी इसे स्वीकार करने लगे हैं।

इस सन्दर्भ में फोनोग्राफ, प्रकाश के बल्ब के आविष्कर्त्ता टामस एडिसन ने अत्यन्त बोधगम्य प्रकाश डालते हुए लिखा है—‘‘प्राणी की सत्ता उच्चस्तरीय विद्युत-कण गुच्छकों के रूप में तब भी बनी रहती है तब वह शरीर से पृथक् हो जाती है। मृत्यु के उपरान्त यह गुच्छक विधिवत् तो नहीं होते, पर वे परस्पर सम्बद्ध बने रहते हैं। यह बिखरते नहीं, वरन् आकाश में भ्रमण करते रहने के उपरान्त पुनः जीवन चक्र में प्रवेश करते और नया जन्म धारण करते हैं। इनकी बनावट बहुत कुछ मधुमक्खी के छत्ते की तरह होती है। पुराना छत्ता वे एक साथ छोड़ती हैं और नया एक साथ बनाती हैं। इसी प्रकार उच्चस्तरीय विद्युत कणों के गुच्छक अपने साथ स्थूल शरीर की सामग्री अपनी आस्थाओं और संवेदनाओं के साथ लेकर जन्मने-मरने पर भी अमर बने रहते हैं। इन प्रमाणों से शरीर में अन्नमय कोश से सम्बद्ध किन्तु एक स्वतन्त्र अस्तित्व सम्पन्न प्राणमय कोश का होना स्वीकार करना ही पड़ता है। यों भी शरीर में विज्ञान सम्मत ताप आदि छहों प्रकार की एनर्जी ऊर्जा के प्रमाण पाये जाते हैं, किन्तु सारे शरीर में संव्याप्त प्राणमय कोश का स्वरूप सबसे अधिक स्पष्टता से जैवीय विद्युत (बायो इलेक्ट्रिकसिटी) के रूप में समझा जा सकता है।

शरीर विज्ञान में अब कॉस्मिक विद्युत पर पर्याप्त शोधें हो रही हैं। शरीर में कुछ केन्द्र तो निर्विवाद रूप से विद्युत उत्पादक के रूप में स्वीकार कर लिए गये हैं। उनमें प्रधान हैं—मस्तिष्क, केन्द्रों हृदय तथा नेत्र। मस्तिष्क में विद्युत उत्पादन केन्द्र को रेटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम कहते हैं। मस्तिष्क के मध्य भाग की गहराइयों में स्थिति कुछ मस्तिष्कीय अवयवों में से विद्युत स्पंदन (इलैक्ट्रिक इम्पल्स) पैदा होते रहते हैं तथा सारे मस्तिष्क में फैलते जाते हैं। यह विद्युतीय आवेश ही मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों को संचालित तथा परस्पर संबंधित रखते हैं। चिकित्सा विज्ञान में प्रयुक्त मस्तिष्कीय विद्युत मापक यन्त्र (इलैक्ट्रो एन्कैफलोग्राफ) ई.ई.जी. द्वारा मस्तिष्कीय विद्युत धाराओं को नापा जाता है। उन्हें के आधार पर मस्तिष्क एवं सिर से सम्बन्धित रोगों के बारे में निर्धारण किया जाता है। सिर में विभिन्न स्थानों पर यन्त्र के रज्जु (कार्ड) लगाये जाते हैं। उनसे नापें गये विद्युत विभव (पोटैशल) का योग लगभग 1 मिली वोल्ट आता है।

हृदय के संचालन में लगभग 10 तार शक्ति विद्युत की आवश्यकता पड़ती है। यह विद्युत हृदय में ही पैदा होती है। हृदय में जिस क्षेत्र में विद्युत स्पंदन पैदा होते हैं उसे ‘पेस मेकर’ कहते हैं। यह विद्युत स्पंदन पैदा होते ही लगभग 0.8 सैकिण्ड में एक विकसित मनुष्य के सारे हृदय में फैल जाते हैं। इतने ही समय में हृदय अपनी एक धड़कन पूरी करता है। हृदय की धड़कन के कारण तथा नियन्त्रक यही विद्युत स्पंदन होते हैं। इन विद्युत स्पंदनों का प्रभाव ई.सी.जी. (इलेक्ट्रो कार्डियोग्राफ) नामक यन्त्र पर अंकित होते हैं। हृदय रोगों के निर्धारण के लिए इन विद्युत स्पंदनों को ही आधार मानकर चला जाता है।

नेत्रों में भी वैज्ञानिकों के मतानुसार फोटो इलैक्ट्रिक सैल जैसी व्यवस्था है। फोटो इलैक्ट्रिक सैल की विशेषता यह होती है कि वह प्रकाश को विद्युत तरंगों में बदल देता है। नेत्रों में भी इसी पद्धति से विद्युत उत्पादन की क्षमता वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं। नेत्र रोगों के निर्धारण वर्गीकरण के लिए नेत्रों में उत्पन्न विद्युत स्पंदनों को ई.आर.जी. (इलेक्ट्रो रैटिनोग्राफ) यन्त्र पर अंकित किया जाता है।

इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि शरीरस्थ कुछ केन्द्रों में विद्युतीय स्पंदनों के उत्पादन के साथ-साथ सारे शरीर में उनका संचार भी होता है। ई.ई.जी. द्वारा सिर के हर हिस्से में मस्तिष्कीय विद्युत के स्पंदन रिकार्ड किये जाते हैं। यही नहीं बहुत बार तो उनका प्रभाव गर्दन से नीचे वाले अवयवों में भी स्पष्टता से मिलता है। हृदय की विद्युत का प्रभाव तो ई.सी.जी. यन्त्र द्वारा पैर के टखनों तक पर रिकार्ड किया जाता है। हृदय के निकटतम तथा दूरतम सभी अंगों में यह स्पंदन समान रूप से शक्तिशाली पाये जाते हैं।

शरीरस्थ प्राण प्रवाह के माध्यम से रोगी के निदान पर चिकित्सा शास्त्रियों का विश्वास दृढ़ हो गया है। मांस-पेशियों की निष्क्रियता तथा स्नायु संस्थान के रोगों में भी पाणकिन पद्धति प्रयुक्त की जाती है। इसके लिए ई.एम.जी. (इलैक्ट्रो मायो ग्राफ) का प्रयोग होता है। शरीर के हर क्षेत्र के स्नायुओं अथवा मांस-पेशियों में विद्युतीय ऊर्जा की उपस्थिति तथा सक्रियता का यह स्पष्ट प्रमाण है कि शरीर की त्वचा जैसी पतली पर्त में भी उसकी अपने ढंग की विद्युत विद्यमान है। चिकित्सा शास्त्री त्वचा के परीक्षण में भी त्वक विद्युतीय प्रतिक्रिया (मैल्वॉनिक स्किनरिस्पान्स) पद्धति का प्रयोग करते हैं।

इन वैज्ञानिक प्रमाणों के अतिरिक्त सामान्य व्यवहारिक जीवन में भी मस्तिष्क से लेकर त्वचा तक में विद्युत संवेगों को क्षमता के प्रमाण मिलते रहते हैं। किसी व्यक्ति विशेष के प्रति आकर्षण तथा किसी के प्रति विकर्षण, यह शरीरस्थ विद्युत की समानता, भिन्नता की ही प्रतिक्रियाएं हैं। दो मित्रों के परस्पर एक दूसरे को देखने, स्पर्श करने में विद्युतीय आदान-प्रदान होता है। योगी तो स्पर्श से अपनी विद्युत का दूसरे व्यक्ति के शरीर में प्रवेश-प्रयोग संकल्प शक्ति के सहारे विशेष रूप से कर सकते हैं, किंतु सामान्य स्पर्श से भी शरीरस्थ विद्युत का आंशिक आदान प्रदान होता है। स्पर्श, सहलाने, हाथ मिलाने, गले मिलने आदि से जो स्पंदन अनुभव किए जाते हैं वे विद्युतीय आवेगों के ही आदान-प्रदान के फलस्वरूप होते हैं। यह तथ्य भी अब वैज्ञानिक स्वीकार करने लगे हैं।

भारतीय मत रहा है कि शरीर का अस्तित्व बनाये रखने, उसके पोषण पुनर्निर्माण, विकास एवं संशोधन जैसी हर क्रिया प्राण द्वारा ही संचालित है। अन्नमय कोश में व्याप्त प्राणमय कोश ही उनका संचालन, नियंत्रण करता है। शरीर संस्थान की छोटी से छोटी इकाई में भी प्राण-विद्युत का अस्तित्व अब विज्ञान ने स्वीकार कर लिया है। शरीर की हर कोशिका विद्युत विभव (इलैक्ट्रिक चार्ज) है। यही नहीं कोशिका के नाभिक (न्यूक्लियस) में लाखों की संख्या में रहने वाले प्रजनन क्रिया के लिए उत्तरदायी जीन्स जैसे अति सूक्ष्म घटक भी आवेश युक्त पुटिकाओं (पैक्ट्सि) के रूप में जाने और माने जाते हैं। तात्पर्य यह है कि विज्ञान द्वारा जानी जा सकी शरीर की सूक्ष्मतम इकाई में भी विद्युत आवेश रूप में प्राणतत्व की उपस्थिति स्वीकार की जाती है।

शरीर की हर क्रिया का संचालन प्राण द्वारा होने की बात भी सदैव से कही जाती रही है। योग ग्रंथों में शरीर की विभिन्न क्रियाओं को संचालित करने वाले प्राण-तत्व को विभिन्न नामों से संबोधित किया गया है। उन्हें पंच-प्राण कहा गया है। इसी प्रकार शरीर के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय प्राण को पंच उपप्राण कहा गया है। वर्तमान शरीर विज्ञान ने भी शारीरिक अंतरंग क्रियाओं की व्याख्याएं विद्युत संचार क्रम के ही आधार पर की हैं। शरीर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जो संचार क्रम चलता है वह विद्युतीय संवहन प्रक्रिया के माध्यम से ही है। संचार कोशिकाओं में ऋण और धन प्रभार (निगेटिव तथा पौजिटिव चार्ज) अंदर बाहर होते रहते हैं और इसी से विभिन्न संचार क्रम चलते रहते हैं। इसे वैज्ञानिक भाषा में सैल का डिपोलराइजेशन तथा ‘रोपोलराइजेशन’ कहते हैं। यह प्रक्रिया भारतीय मान्यतानुसार पंच-प्राणों में वर्णित ‘व्यान’ के अनुरूप है।

आमाशय तथा आंतों में भोजन का पाचन होकर उसे शरीर के अनुकूल रासायनिक रसों में बदल दिया जाता है वह रस आंत की झिल्ली में से पार होकर रस में मिलते हैं तब सारे शरीर में फैल पाते हैं। कुछ रसायन तो सामान्य संचरण क्रम से ही रक्त में मिल जाते हैं, किन्तु कुछ के लिए शरीर को शक्ति खर्च करनी पड़ती है। इस विधि को एक्टिव ट्रांसपोर्ट (सक्रिय परिवहन) कहते हैं। यह परिवहन आंतों में जो विद्युतीय प्रक्रिया होती है उसे वैज्ञानिक ‘सोडियम पंप’ के नाम से संबोधित करते हैं। सोडियम कणों में ऋण और धन प्रभार बदलने से वह सेलों की दीवार के इस पार से उस पार जाते आते हैं। उनके संसर्ग से शरीर के पोषक रसों (ग्लूकोस, वसा आदि) की भेदकता बढ़ जाती है तथा वह भी उसके साथ संचरित हो जाते हैं। यह प्रक्रिया पंच प्राणों में ‘प्राण’ वर्ग के अनुरूप कही जा सकती है।

ऐसी प्रक्रिया हर सैल में चलती है। हर सैल अपने उपयुक्त आहार खींचता है तथा उसे ताप ऊर्जा में बदलता है। ताप ऊर्जा भी हर समय सारे शरीर में लगातार पैदा होती है और संचरित होती रहती है। पाचन केवल आंतों में नहीं शरीर के हर सैल में होता है। उसके लिए रसों को हर सैल तक पहुंचाया जाता है। यह प्रक्रिया जिस प्राण ऊर्जा के सहारे चलती है उसे भारतीय प्राणवेत्ताओं ने ‘समान’ कहा है। इसी प्रकार हर कोशिका में रस परिपाक के दौरान तथा पुरानी कोशिकाओं के विखंडन से जो मल बहता है उसके लिए भी विद्युत रासायनिक (इलेक्ट्रो कैमिकल) क्रियाएं उत्तरदायी है। प्राण विज्ञान में इसे ‘अपान’ की प्रक्रिया कहा गया है।

पंच-प्राणों में एक वर्ग ‘उदान’ भी है। इसका कार्य शरीर के अवयवों को कड़ा रखना है वैज्ञानिक भाषा में इसे इलेक्ट्रिकल स्टिमुलाइजेशन कहा जाता है। शरीरस्थ विद्युत संवेगों से अन्नमय कोश के सैल किसी भी कार्य के लिए कड़े अथवा ढीले होते रहते हैं।

शरीर में इस प्रकार की अनेक अंतरंग प्रक्रियाएं कैसे चलती हैं इसकी व्याख्या वैज्ञानिक पूरी तरह नहीं कर सके हैं। उसके लिए उन्होंने कई तरह के स्थूल सिद्धान्त बनाये हैं। उन में सोडियम पोटेशियम साइकिल, पोटेशियम पंप, ए.टी.फी.,—ए.डी.फी. सिस्टम, तथा साइकिलिक ए.एम.पी. आदि हैं। इनकी क्रिया पद्धति तो कोई रसायन विज्ञान का विद्यार्थी ही ठीक से समझ सकता है, किन्तु है यह सब विद्युत रासायनिक सिद्धान्त हो। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी घोल में रासायनिक पदार्थों के अणु ऋण और धन प्रभार युक्त भिन्न-भिन्न कणों में विभक्त हो जाते है। इन्हें अयन कहा जाता है इन आयनों की संचार क्षमता बहुत अधिक होती है। इच्छित संचार के बाद ऋण और धन प्रभार युक्त अयन मिलकर पुनः विद्युतीय दृष्टि से उदासीन (न्यूट्रल) अणु बना लेते हैं। शरीर में पाचन, शोधन विकास एवं निर्माण की अगणित प्रक्रियाएं इसी आधार पर चल रही है। तत्व दृष्टि से देखा जाय तो सारे शरीर संस्थान में प्राणतत्व की सत्ता और सक्रियता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ेगी।

इन मोटी गतिविधियों से आगे बढ़कर शरीर की सूक्ष्म, गहन गतिविधियों का विश्लेषण करने पर उनमें भी प्राण शरीरस्थ प्राणतत्व का नियंत्रण तथा प्रभाव दिखाई देता है। शरीर में हारमोनों और एन्जाइमों की अद्भुत प्रक्रिया सर्वविदित है। इन दोनों की सक्रियता शरीर में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाने एवं शक्ति संचार करने में समर्थ है। प्रजनन विज्ञान के अन्तर्गत, जीन्स की विलक्षण भूमिका की चर्चा आजकल वैज्ञानिक क्षेत्र में सर्वत्र की जाती है। इन सभी को विद्युत चुम्बकीय संवेगों द्वारा प्रभावित किए जाने की संभावना वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं। वह अभी ऐसा कर नहीं सके हैं। किन्तु उस पर विश्वास करते हैं तथा उसके लिए तीव्र शोध कार्य किए जा रहे हैं। विश्वास किया जाता है कि ऐसी विधि हाथ लग जाये तो शरीर क्षेत्र में हर चमत्कार संभव हो जायगा।

प्राण तत्व की सुविस्तृत जानकारी के बाद इस महान् तत्व के उपार्जन उपयोग की और भारतीय तत्व वेत्ताओं का ध्यान गया अतएव उन्होंने उसके लिये भी अनेक साधनायें निश्चिय कीं प्राणायाम उनमें से प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति के लिए एक सुलभ साधन कहा जा सकता है।

प्राणायाम साधारणतया श्वास-प्रश्वास का एक व्यायाम प्रतीत होता है। स्वास्थ्य सम्वर्धन के क्षेत्र में उसे ‘फेफड़ों की कसरत’ के रूप में लिया जाता है। आरोग्य शास्त्री उसका लाभ उसी सीमा में बताते हैं। श्वास प्रणाली को गड़बड़ी अथवा फेफड़ों की दुर्बलता, रुग्णता का उपचार करने के लिए कई प्रकार की श्वास-प्रश्वास कसरतें प्रचलित है। यह सभी प्रयोग अपनाये जाने योग्य और सराहनीय हैं किन्तु उसे बाल कक्षा मात्र ही माना जाना चाहिए। प्राणायाम का प्रयोजन तो निखिल ब्रह्माण्ड में से प्राणतत्व की अभीष्ट मात्रा को आकर्षित करने की तथा उस उपलब्धि को अभीष्ट संस्थानों में पहुंचाने की विशिष्ट कला के रूप में ही समझा जाना चाहिए। सांस के सहारे प्राणतत्व को आकर्षित कर सकना एक बात है और मात्र श्वास-प्रश्वास क्रिया करना सर्वथा दूसरी। प्राणायाम में प्रबल संकल्प-शक्ति का समावेश करना पड़ता है। उसी के चुम्बकत्व से व्यापक प्राणत्व को आकाश से खींच सकने में सफलता मिलती है। फिर उपलब्धि को अभीष्ट स्थान पर भेज सकना और मनोवांछित परिणाम प्राप्त करना भी तो प्रबल संकल्प-बल से ही सम्भव है। श्वसन क्रिया के साथ-साथ प्रचण्ड मनोबल का समावेश करने से ही प्राणायाम क्रिया होती है। उसी समन्वय से वे परिणाम मिलते हैं जिनका प्राण-विद्या के अन्तर्गत वर्णन किया गया है।

प्राणों का क्षय - मृत्यु का भय

प्राण-शक्ति का यथास्थान सन्तुलन बना रहे तो जीवन सत्ता के सभी अंग-प्रत्यंग ठीक काम करेंगे। शरीर स्वस्थ रहेगा, मन प्रसन्न रहेगा और अन्तःकरण में सद्भाव सन्तोष झलकेगा। किन्तु यदि इस क्षेत्र में विसंगति, विकृति उत्पन्न होने लगे तो उसकी प्रतिक्रिया आधि-व्याधियों के रूप में—विपत्तियों, विभीषिकाओं के रूप में सामने खड़ी दिखाई देगी। रक्त दूषित हो जाने पर अनेकों आकार-प्रकार के चर्म रोग, फोड़े-फुन्सी, दर्द सूजन आदि के विग्रह उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार प्राण तत्व में असन्तुलन उत्पन्न होने पर शारीरिक अवयवों की क्रियाशीलता लड़खड़ाती है। कई प्रकार की व्यथा, बीमारियां उपजती हैं। मनःक्षेत्र में उत्पन्न हुआ प्राण विग्रह—असन्तुलनों, आवेगों, और उन्मादों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। भावना क्षेत्र में विकृत हुई प्राणसत्ता मनुष्य को नर-कीटकों के—नर-पिशाचों के घिनौने गर्त में गिरा देती है। पतन के अनेकों आधार प्राणतत्व की विकृति से सम्बन्धित होते हैं। उनके सुधार के लिए सामान्य उपचार कारगर नहीं होते। क्योंकि उनका प्रभाव उथला होता है जब कि समस्या की जड़ें बहुत गहरी—प्राण चेतना में घुसी होती हैं। अनुभूत और परीक्षित उपचार भी जब निष्फल सिद्ध हो रहे हों तो समझना चाहिए कि चेतना की गहरी परतों में विक्षेप घुस गया है। चमड़ी में कांटा चुभा हो तो उसे नाखूनों की पकड़ से दबाकर बाहर निकाला जा सकता है, किन्तु यदि बन्दूक की गोली आंतों में गहरी घुस गई हो तो उसके लिए शल्य-क्रिया का आश्रय लिए बिना और कोई चारा नहीं।

श्रीमती जे.सी. ट्रस्ट ने एक ऐसे व्यक्ति को चुना जो छोटी छोटी बातों में उत्तेजित हो जाता था। वह दिन में कई-गई बार क्रुद्ध हो जाने के कारण बहुत दुबला पड़ चुका था, सर्दी-गर्मी के हलके परिवर्तन भी उसको कष्टदायक प्रतीत होते, उसे कोई न कोई बीमारी प्रायः बनी रहती थी।

एक बार जब वह भरे गुस्से में था, तब श्रीमती ट्रस्ट ने उसे लिटा दिया और उसके नंगे शरीर पर बालू की हलकी परत बिछा दी। उनके शिष्य, अनुयायी और कई वैज्ञानिक भी उपस्थित थे। उन सबने बड़े कौतूहल के साथ देखा कि जिस प्रकार पानी से भरी कांसे की थाली को बजाने से पानी की थरथरी कांसे के अणुओं में उत्तेजन और स्पन्दन का अभ्यास कराती है, उसी प्रकार मनुष्य के शरीर से भी प्रकाश अणु निरन्तर निःसृत होते और थरथरी पैदा करते रहते हैं।

क्रोध जैसे उत्तेजनशील आवेश के समय यह प्रकाश अणु बड़ी तेजी से थरथराते हुए निकलते हैं, इसलिए उस समय तो स्पष्ट आभास हो जाता है पर सामान्य स्थिति में प्रकाश कणों की थरथराहट धीमी होती है। जो व्यक्ति जितना अधिक शान्त, कोमल-चित्त, मधुर स्वभाव, मितभाषी, स्थिर बुद्धि होता है, उसके सूक्ष्म शरीर के प्रकाश अणु बहुत धीरे-धीरे निकलते हैं और बहुत समय तक शरीर में शक्ति, उष्णता और सहनशीलता बनाये रखते हैं। ऋतुओं के आकस्मिक परिवर्तन भी शरीर पर दबाव नहीं डाल पाते। नृतत्व विज्ञानियों को यह बात बहुत दिन से मालूम थी कि शरीर में जाल की तरह फैले हुए ज्ञान तन्तु मस्तिष्क तक कायगत जानकारियां पहुंचाते हैं और मस्तिष्क, स्थिति को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक निर्देश देता है तदनुसार अवयव अपना-अपना काम करते है। पर यह सब होता किस पद्धति से है इस रहस्य पर पर्दा ही पड़ा हुआ था ज्ञान तन्तु को स्पर्शानुभव के क्षण भर में मस्तिष्क तक पहुंचना किस आधार पर सम्भव होता है इसका कुछ पता नहीं चल पा रहा था।

पिछले 40 साल से इस संदर्भ में बहुत प्रयोग चल रहे थे। बीस वर्ष से तो जीव भौतिकी की इस शाखा पर और भी अधिक ध्यान दिया गया। अन्त में बहुत लम्बे प्रयोग परीक्षणों के उपरान्त इस रहस्य पर से पर्दा उठाने में तीन वैज्ञानिक सफल हो गये और उन्हें इस शोध के उपलक्ष में चिकित्सा शास्त्र का नोबुल पुरस्कार मिला, इन तीनों के नाम हैं (1) हाजकिम (2) हक्सले (3) एकल्स।

इस त्रिगुट ने ज्ञान तन्तुओं में एक विद्युत आवेग (इंपल्स) की खोज की है और बताया कि यह बिजली किस तरह तन्तुओं और मस्तिष्कीय कोषों के बीच दौड़ती है और टेलीफोन की तरह स्थिति का संवाद संकेत पहुंचाती लाती है। ज्ञान तन्तु एक प्रकार के बिजली के तार हैं जिन पर विद्युती आवेगों के साथ सन्देश दौड़ते रहते हैं। एक-एक तन्तु की लम्बाई कई-कई फुट होती है। सब मिलाकर पूरे शरीर में इनकी लम्बाई एक लाख मील से भी अधिक होती है। इनकी मोटाई एक इंच के सौवें भाग से भी कम होती है।

हमारे मस्तिष्क में लगभग 10 अरब नस कोष्ट (न्यूरान) हैं। उनमें से हर एक का सम्पर्क लगभग 25 हजार अन्य नस कोष्टों के साथ रहता है। इतनी छोटी सी खोपड़ी में इतना बड़ा कारखाना किस प्रकार संजोया जमाया हुआ है इसे देखकर बनाने वाले की कारीगरी पर चकित रह जाना पड़ता है। यदि मनुष्य इतना साधन सम्पन्न इलेक्ट्रानिक मस्तिष्क बनाकर खड़ा करना चाहे तो प्रस्तुत विद्युत उपकरणों के आधार पर इस कारखाने के लिए इस धरती जितनी जगह घेरने की आवश्यकता पड़ेगी।

ज्ञान तन्तुओं से प्रवाहित होने वाले विद्युत आवेग एक सैकिण्ड में 300 फुट प्रति सैकिण्ड के हिसाब से दौड़ते हैं। यहां यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस मानवी विद्युत की चाल इतनी कम क्यों है? जब कि टेलीफोन व्यवस्था के अनुसार शुद्ध बिजली प्रति सैकिण्ड 1786, 7000 मील के हिसाब से दौड़ती हैं। इसका उत्तर यह है कि टेलीफोन में विशुद्ध बिजली रहती है जब कि ज्ञान तन्तुओं में एकाकी विद्युत संचार नहीं—उसके साथ रासायनिक क्रिया-कलाप भी जुड़ा होता है।

आवेग नस सम्पर्क (साइनेप्स) अगले कोष्ठीय भाग के बीच की खाली जगह को लांघ कर सामने के कोष्ठीय भाग तक—आवेग उत्तेजन के क्रम से आगे बढ़ता है। इस आवेग अवरोधों को अन्तर्वाधन (इन्हिविशन) कहते हैं। नस रेशों के अन्दर ऋण विद्युत रहती है उसके बाहर योग विद्युत। इनमें सोडियम और पोटेशियम की विद्यमान मात्रा रासायनिक उपयुक्तता बनाये रहती है। इसी प्रक्रिया में संबद्ध एक ऐसा रासायनिक पदार्थ है ट्रांसमिशन सब्स्टेंस। विद्युत कणों और रासायनिक पदार्थों की सम्मिश्रित प्रक्रिया ही इस कायगत संचार व्यवस्था को गतिशील बनाये हुए है। इस तथ्य के रहस्योद्घाटन से वैज्ञानिकों की कैथोड के—आसिलोग्राफ-आइसोटोप टेक्निक तथा अन्य कतिपय प्रक्रियाओं को अपनाना पड़ा। अब ज्ञान तन्तुओं से प्रवाहित विद्युत आवेगों की यथार्थता और उनकी गतिविधियों के बारे में इतनी जानकारी उपलब्ध है जिसे शंका का समाधान कह कर सन्तोष किया जा सके।

निस्सन्देह मनुष्य एक जीता जागता बिजली घर है। झटका मारने वाली और बत्ती जलाने वाली स्थूल बिजली की अपेक्षा वह असंख्य गुनी परिष्कृत और संवेदनशील है। जड़ और चेतन की शक्तियों में यह अन्तर तो रहना ही चाहिए जड़ बिजली का भावनाओं से कोई सम्बन्ध नहीं। वह कसाई और सन्त का भेद नहीं करती, जो भी उससे काम ले सके उसकी विधि व्यवस्था पूरी कर सके उसका उत्तेजन पूरा करने लगती है। उचित अनुचित का भेदभाव कर सकने लायक संवेदना उसमें है ही नहीं।

मानव शरीर में संव्याप्त विद्युत में चेतना और संवेदना के दोनों तत्व विद्यमान हैं। इसलिए उसे मात्र नाड़ी जाल समुत्पन्न या संव्याप्त ही कहकर सीमित नहीं कर सकते। भले ही वह ज्ञान तन्तुओं के माध्यम से समस्त शरीर पर शासन करती हो, भले ही उसका प्रत्यक्ष केन्द्र मस्तिष्क में अवस्थित प्रतीत होता है पर सही बात यह है कि वह आत्मा की प्राण प्रतिभा है और उसकी भावनात्मक स्थिति से प्रभावित होती है। मनुष्य का अन्तरंग जैसा भी कुछ होता है उसके अनुरूप इस चेतन विद्युत की दुर्बलता सशक्तता दृष्टिगोचर होती है।

किसी के शरीर को छूने से प्रत्यक्ष झटका लगे इस स्तर का अनुभव इस कायिक विद्युत का नहीं होता, इसलिए मोटे विद्युत उपकरणों से वह देखी समझी नहीं जाती उसका भौतिक स्वरूप जानना हो तो उन उपकरणों की आवश्यकता पड़ेगी जो नोबेल पुरस्कार विजेता हाजकिन प्रभृति वैज्ञानिकों ने इस सन्दर्भ में प्रयुक्त किये थे। पर भावनात्मक स्पर्श से इसका प्रभाव दूसरे लोग भी अनुभव कर सकते हैं। किसी उच्च मनोभूमि के व्यक्ति के पास बैठने से अपनी मनोभूमि में उसी तरह की हलचल उत्पन्न होती है और दुष्ट दुराचारियों की संगति में मन, बुद्धि तथा इन्द्रिय संवेदनाओं में उसी तरह का उत्तेजन आरम्भ हो जाता है व्यभिचारियों के सान्निध्य में बैठने से अकारण ही दुराचार का आकर्षण मन में उठने लगता है। सत्संग की महत्ता का जो प्रतिपादन अध्यात्म शास्त्र में किया गया है उसका कारण मात्र शिक्षा प्राप्ति नहीं है, वरन् यह भी है कि उन महापुरुषों के शरीर से निकलने वाले और समीपवर्ती क्षेत्र में फैलने वाले विद्युत प्रवाह की ऊर्जा से लाभ उठाया जाय।

चरण स्पर्श करने की प्रथा के पीछे यही रहस्य है कि तेजस्वी व्यक्तियों के शरीर का स्पर्श करके उनके विद्युत का एक अंश ग्रहण किया जाय। ताप का मोटा नियम यह है कि अधिक ताप अपने संस्पर्श में आने वाले न्यून ताप उपकरण की ओर दौड़ जाता है। एक गरम एक ठण्डा लौह खण्ड सटा दिया जाय तो ठण्डा गरम होने लगेगा और गरम ठण्डा। वे परस्पर अपने शीत ताप का आदान-प्रदान करने लगेंगे। ऐसा ही लाभ चरण स्पर्श से होता है। अधिक सामर्थ्यवानों का लाभ स्वल्प सामर्थ्यवानों को मिलने में शरीर स्पर्श की प्रक्रिया बहुत कारगर होती है।

गुरुजनों का स्नेह से छोटों के सिर पर हाथ फिराना—पीठ थपथपाना जैसा वात्सल्य प्रदर्शन यों भावनात्मक ही दीखता है पर इसमें भी वह विद्युत संचार की क्रिया प्रक्रिया सम्मिलित है। इस प्रकार बड़े अपने से छोटों को एक महत्वपूर्ण अनुदान देते रहते हैं।

चिड़िया अपने अण्डे को छाती के नीचे रख कर सेती है। उसमें केवल गर्मी पहुंचाना ही नहीं—परम्परागत प्रवृत्तियां उत्पन्न करना भी एक प्रयोजन है। चिड़िया की शारीरिक विद्युत अण्डे बच्चों में जाकर उन्हें पैतृक संस्कारों से युक्त करती है। मशीन से अण्डे गरम करके भी उसमें से बच्चा निकल सकता है, पर उसमें कितनी ही संस्कारजन्य कमियां रह जाती हैं। जिन बच्चों को धाय पालती और दूध पिलाती है, माता का दूध, लाड़, दुलार, गोदी में खिलाना, पास सुलाना जैसा अनुदान नहीं मिलता वे बालक भी मानसिक दृष्टि से बहुत त्रुटिपूर्ण रह जाते हैं। समर्थ विद्युत भी दुर्बल क्षमता वालों का बहुत कुछ पोषण करती है।

साधना काल में रह रहे साधक अपना चरण स्पर्श किसी को नहीं करने देते, वे आशीर्वाद रूप से किसी के शिर पर हाथ भी नहीं रखते। इससे उनकी स्वल्प शक्ति का एक अंश दूसरों के पास चले जाने और अपने लिए घाटा पड़ने वाली आशंका ही सन्निहित है।

ब्रह्मचर्य, पतिव्रत पत्नीव्रत आदि के पीछे सामाजिक, पारिवारिक कारणों के अतिरिक्त आध्यात्मिक कारण भी हैं। शारीरिक विद्युत आवेग नेत्रों में वाणी में, हाथ की उंगलियों में अधिक पाया जाता है और वहां से वह बाहर फैलता है। सूक्ष्म रूप से मस्तिष्क में और स्थूल रूप से यह विद्युत जननेन्द्रिय में अत्यधिक मात्रा में पाई जाती है। मस्तिष्क में सन्निहित बिजली तो अध्ययन, चिन्तन, ध्यान आदि मनोयोग सम्बन्धित कार्यों में लगती है पर जननेन्द्रिय विद्युत तो स्पर्श के माध्यम से बहिर्गमन के लिए व्याकुल रहती है। यही कामोत्तेजना का वैज्ञानिक स्वरूप है।

महापुरुष ब्रह्मचर्य का अत्यधिक ध्यान इसलिए रखते हैं कि वे कामोपभोग जैसे क्षणिक सुख में अपने महत्व पूर्ण उपार्जन को खो न बैठें। इससे दुर्बल पक्ष लाभान्वित हो सकता है। पर सबल पक्ष की हानि तो प्रत्यक्ष है। तपस्या के अनेक विघ्नों में एक बड़ा विघ्न यह है कि मानवी अथवा दैवी ‘रयि तत्व’ जननेन्द्रिय के माध्यम से उनकी शक्ति का लाभ लेने की चेष्टा करता है। विश्वामित्र, पाराशर व्यास आदि की तप साधना के बीच कामस्खलन इसी खींच-तान का प्रमाण है। भगवान् बुद्ध के चित्रों में ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में अनेक अप्सरायें उनके समीप नृत्य, परिहास करती दिखाई जाती हैं। इसके पीछे यही संकेत है। आत्म विद्युत सम्पन्न पति-पत्नी अति उच्च कोटि की सन्तान उत्पन्न कर सकते हैं। भगवान् कृष्ण ने रुक्मिणी सहित तीव्र तप बद्रीनारायण में करने के उपरान्त एक ही पुत्र पैदा किया था—प्रद्युम्न जो कृष्ण के समान ही रूप, गुण आदि विशेषताओं से सम्पन्न था। लोग पहचान तक न पाते थे कि इनमें कौन सा कृष्ण है। तपस्वियों की ऋषि सन्तानें अपने जनक जननी के सम तुल्य ही प्रभावशाली होते रहे हैं।

महापुरुष इस संचित विद्युत भण्डार को काम कौतुक में खर्च करने की अपेक्षा उस क्षमता को मस्तिष्क तथा अन्य ज्ञानेन्द्रिय द्वारा असंख्य व्यक्तियों की सेवा करने में बुद्धिमत्ता अनुभव करते हैं और ब्रह्मचारी रहते हैं। यही बात महिलाओं के सम्बन्ध में है तेजस्वी ओर मनस्वी बनने के लिए उन्हें भी ब्रह्मचर्य द्वारा शक्ति संचय के मार्ग पर चलना होता है।

कायिक विद्युत दूसरों का हित साधन करती है, अपना भी। प्रश्न सदुपयोग की सूझ-बूझ और योग्यता का है। यह बिजली यों ही शरीर और मन से खर्च होती रहती है और अस्त-व्यस्त बिखरती रहती है। यदि इसे केन्द्रित कर लिया जाय और शारीरिक-मानसिक एवं आत्मिक उत्कर्ष के लिए प्रयुक्त किया जाय तो हर क्षेत्र में आशाजनक प्रगति हो सकती है। बिजली घर में विद्युत उत्पादन का समुचित लाभ उसे किसी प्रयोजन के लिए नियोजित करके ही उठाया जा सकता है। साधारणतया यह कायिक विद्युत भण्डार दैनिक जीवनयापन में ही थोड़ा बहुत काम आता है और शेष ऐसे ही बिखर जाता है। साधना विज्ञान के आधार पर यदि उसका सदुपयोग सीखा जाय और अभीष्ट प्रयोजन के लिए उसे नियोजित करने का क्रिया कलाप समझा जाय, तो अपने निज के इस सम्पत्ति कोष से मनुष्य सर्वांगीण समृद्धि से सुसम्पन्न हो सकता है। सफल जीवन जी सकता है।

प्राण साधना योगशास्त्र की सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसके लाभों का विस्तार, अणिमादि अगणित ऋद्धि सिद्धियों के रूप में किया गया है और ब्रह्मतेजस् के रूप में उसकी आध्यात्मिक उपलब्धियों की चर्चा की गई है, प्राणायाम इस दिशा में प्रथम सोपान है। दुर्बल विकृत प्राण को बहिष्कृत कर उसके स्थान पर महाप्राण की स्थापना करना इस साधना का लक्ष्य है। संध्या-वन्दन जैसे नित्यकर्मों का उसे अनिवार्य आधार इसलिए बनाया गया है कि इस प्रकार प्रारम्भिक परिचय तथा अभ्यास करते हुए क्रमशः आगे बढ़ा जाय और प्राणवान् बनते हुए जीवन लक्ष्य को पूर्ण करने की दिशा में अनवरत रूप से गतिशील रहा जाय।

प्राणतत्व समस्त भौतिक और आत्मिक सम्पदाओं का उद्गम केन्द्र है। वह सर्वत्र संव्याप्त है। उसमें से जो जितनी अंजलि भरने और देने में समर्थ होता है वह उसी स्तर का महामानव बनता चला जाता है। प्राण शक्ति का पर्यायवाची है। उसकी परिधि में भौतिक सम्पदाएं और आत्मिक विभूतियां दोनों ही आती हैं।

शारीरिक परिपुष्टि के रूप में ओजस्वी मनोबल सम्पन्नता के रूप में मनस्वी, सामाजिक सहयोग सम्मान के रूप में यशस्वी और आत्मिक उत्कृष्टता रूप में तेजस्वी बन जाता है। यह चतुर्विधि क्षमताएं जिस मूल स्रोत में उत्पन्न होती हैं उसे प्राण शक्ति कहते हैं। प्राण साधना इन्हीं सिद्धियों का प्राप्त कर सकना सम्भव बनाती हैं।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118