पाँच प्राण-पाँच देव

सूक्ष्म शरीर की अनुभूति—प्राणायाम से

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प्राणायाम की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए स्वामी विवेकानन्द ने एक बार एक कथा सुनाई। एक राजा ने किसी बात पर अप्रसन्न होकर अपने मंत्री को बंदी बनाकर किले में कैद कर दिया। मंत्री किसी तरह किले से भाग निकलता चाहता था, अपनी इच्छा उसने भेंट के लिये आई अपनी धर्म पत्नी से प्रकट की। कठोर पहरे के कारण कोई उक्ति समझ में नहीं आ रही थी।

मंत्राणी ने तब एक युक्ति खोज निकाली। एक गोबरैली की पीठ पर एक तिनके को इस तरह चिपकाया कि उसका एक किनारा गोबरैले के मुंह की ठीक सामने आ जाता था तिनके के सिरे पर शहद लगा कर उसे किले की दीवार पर रख दिया गया उसकी पूंछ में रेशम का धागा बांध दिया। शहद देखकर गोबरैले के मुंह में पानी भर आया वह शहद चाटने के लिये चल पड़ा शहद उतना ही आगे बढ़ता जाता इस तरह कीड़ा लगातार ऊपर चढ़ता चला गया। दीवार की ऊंचाई चढ़ जाने के बाद उतरने का क्रम प्रारम्भ हुआ कीड़ा किले के नीचे उतर गया इधर मंत्राणी रेशम के धागे को क्रमशः मोटा और मजबूत लगाती गई जब धागा मंत्री के हाथ पहुंच गया तब उसने मोटा रस्सा बांध दिया। मंत्री ने रस्सा खींच लिया और पहरा लगा रहा, वह उस रस्से के सहारे बाहर निकल गया।

‘‘प्राणायाम’’ वस्तुतः एक ऐसी ही साधना है जिसमें प्रारम्भ श्वास खींचने धारण करने से ही होती है और अन्त प्राण की अनुभूति प्राणतत्व के नियंत्रण द्वारा मिलने वाली असंख्य सिद्धियों सामर्थ्यों के रूप में होती है। प्रारम्भिक प्राणायाम बहुत सरल और सर्व सुलभ ही बताए जाते हैं पर कुछ प्राणायाम ऐसे भी है जिनके अभ्यास से हनुमान जैसी समुद्र लांघ जाने, उड़कर पर्वत में पहुंच जाने, अंगद की तरह पांव टिका देने, मशक और पर्वताकार बना लेने जैसी क्षमताएं भी मिलती हैं किन्तु यदि उस कठिन स्थिति तक पहुंचना संभव न भी हो तो भी सामान्य जीवन में मिलने वाले लाभ भी निश्चित रूप से ऐसे मिलते हैं जिनसे सांसारिक जीवन बहुत अधिक सफल, सुखद बनाया जा सकता है।

मनुष्य की आयु, आरोग्य और स्वास्थ्य का श्वास क्रिया से बड़ा सम्बन्ध है। श्वास-प्रश्वास की क्रिया से प्राणि मात्र जीवित रहते हैं। स्वच्छ वायु फेफड़ों में जाकर रोग-वर्द्धक कीटाणुओं का नाश करती है। इसी से रक्त की सफाई होती है। जब तक रक्तकण तेज सशक्त व सजीव रहते हैं तब तक स्वास्थ्य में कोई खराबी नहीं आती। शारीरिक शक्ति विचार-शक्ति और मानसिक दृढ़ता प्राणायाम के प्रत्यक्ष चमत्कार हैं। इससे केवल फेफड़ों का व्यायाम ही नहीं होता वरन् प्राणायाम, आयु, बल को बढ़ाने वाला, रक्त-शोधक और मन को शक्ति व स्फूर्ति प्रदान करने वाला है। वह प्रत्येक स्वस्थ जीवन की कामना रखने वालों के लिए एक उपयोगी साधन है।

प्राणायाम की प्रारम्भिक शिक्षा यह है कि हमें पूरी और गहरी सांस लेनी चाहिए। यह सांस पूरी तौर पर यदि फेफड़ों में न गई तो फेफड़ों का एक भाग बिलकुल बेकार पड़ा रहता है। घर के जिस भाग की सफाई नहीं की जाती वहां मकड़ी, छिपकली कनखजूरे, बर्रे आदि अपना अड्डा जमा लेती है। फेफड़े के जिस भाग में वायु का अभिगमन नहीं हो पाता उसमें जुकाम, खांसी, क्षय, उरक्षत कफ व दमा आदि के कीटाणु पैदा हो जाते हैं। धीरे-धीरे ये वायु कोष्ठों में इस प्रकार अड्डा जमा लेते हैं कि इनका निकालना ही मुश्किल हो जाता है।

भरपूर सांस लेने से फेफड़ों के सभी वायु-कोटर हवा से भर जाते है। यह हवा अपनी ऑक्सीजन-प्राण रक्त में छोड़ देती है और दूषित पदार्थ कार्बोनिक एसिड गैस को चूस कर बाहर निकाल देती है। यह ऑक्सीजन तत्व खून के साथ मिलकर सारे शरीर का दौरा करता रहता है जिससे शक्ति, स्वास्थ्य व आरोग्य स्थिर बना रहता है। शुद्ध खून का एक चौथाई भाग ऑक्सीजन होता है। इस मात्रा में यदि कमी पड़ जाय तो इसका पाचन-प्रणाली पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। ऐसे व्यक्तियों की जठराग्नि मन्द पड़ जाती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि दूषित पदार्थ निकालने, रक्त में ऑक्सीजन का पर्याप्त सम्मिश्रण रखने तथा पाचन-संस्थान को मजबूत बनाये रखने के लिए गहरी पूरी सांस लेना अनिवार्य है यह क्रिया प्राणायाम के द्वारा पूरी होती है।

बाइलर की पुरानी राख गिराई न जाय तो भाप बनना बन्द हो जाता है। इससे इंजन का काम रुक जाता है। हमारे फेफड़े ठीक बाइलर का काम करते हैं। इससे इंजन अर्थात् हृदय की क्रिया प्रभावित होती है। दूषित मल विकार जो रक्त के साथ हृदय से फेफड़ों में पहुंचाया जाता है। उसकी पूरी वह गहरी सांस द्वारा सफाई न कर दी जाय तो फिर वही अशुद्ध रक्त हृदय को लौट आता है। यह गन्दगी धमनियों द्वारा शरीर में फैल जाती है और बीमारी, रोग व दुर्बलता के रूप में फूट पड़ती है। किन्तु पूरी सांस का यदि अभ्यास डाल लें तो इससे छाती चौड़ी होती है? फेफड़े मजबूत होते हैं और वजन बढ़ता है। शुद्ध रक्त-संचार से हृदय की दुर्बलता दूर होने लगती है। इसलिए प्राणायाम द्वारा गहरी सांस लेने का अभ्यास बना लेना स्वास्थ्य के लिये अति लाभदायक होता है।

साधारण अवस्था में सांस के साथ 30 घन इंच हवा फेफड़ों में पहुंचती है। इससे अधिक गहरी सांस लें तो कुछ मिलाकर 130 घन इंच तक वायु फेफड़ों में पहुंच जाती है किन्तु सांस छोड़ते समय 100 घन इंच वायु छाती में रह जाती है। इस प्रकार कुछ 230 घन इंच की जगह शरीर में होती है। तात्पर्य यह है कि साधारण सांस की अपेक्षा आठ गुना सांस ली जा सकती है। इससे आठ गुना ऑक्सीजन शरीर को मिलेगा तो आठ गुना स्वास्थ्य का सुधार भी होगा ही।

जो लाभ अधिक से अधिक सांस फेफड़ों में पहुंचाने से होता है ऐसा ही एक लाभ फेफड़ों को कुछ देर वायुरहित छोड़ने से भी होती है। एक जर्मन यहूदी डॉक्टर का मत है कि इससे फेफड़ों के कीटाणु वायु न मिलने से मर जाते हैं और कार्बोनिक एसिड गैस के साथ मिल कर बाहर निकल जाते हैं।

दूसरा अभ्यास नाक से सांस लेने का होता है। नाक से सांस लेने से वायु में मिले स्थूल गन्दगी के कण नाक के छोटे-छोटे बालों में रुक जाते हैं। इससे आगे एक पतला तरल पदार्थ स्रवित हुआ करता है, जो शेष गन्दगी को जैसे नाइट्रोजन व धूल आदि के कणों को चिपका लेता है। अब वायु पूरी तौर पर स्वच्छ होकर श्वास-नली में प्रवेश करती है। यहां यदि वायु गर्म थी तो शीतल और अधिक शीतल थी तो गर्म होकर सामान्य तथा सह्य ताप में परिवर्तित हो जाती है। वायु अभिगमन का यह मार्ग जो नाक से मस्तिष्क के रास्ते फेफड़ों तक पहुंचता है काफी लम्बा पड़ जाता है इतनी देर में वायु का तापमान सह्य हो जाता है। इससे फेफड़ों में पहुंचकर रक्त शुद्धि के कार्य में उसे कोई बाधा नहीं पड़ती। पर मुंह से सांस लेने से गन्दगी भी श्वास-नली के रास्ते फेफड़ों में पहुंच जाती है और ताप भी शीतल गर्म जैसा कुछ था, वैसे ही फेफड़ों को उत्तेजित करता रहता है। चेचक की बीमारी व जुकाम आदि से पीड़ित रहने वाले अधिकांश मुंह से सांस लेने वाले लोग होते हैं।

प्राणायामों के अनेकों भेद हैं। शीतली, शीतकारी, भ्रामरी, उज्जाई, लोम-विलोम, सूर्य वेधक, प्राणाकर्षक तथा नाड़ी-शोधन आदि अनेकों प्राणायाम की विधियां भारतीय आध्यात्म ग्रन्थों में भरी पड़ी हैं। इन सबका उल्लेख तो यहां सम्भव नहीं है, जो सर्व सुलभ और सर्वथा हानि-रहित है जिन्हें बालक वृद्ध स्त्री व पुरुष कोई भी कर लें, ऐसे ही आकर्षण प्राणाकर्षण प्राणायाम की विधि यहां दी जाती है।

प्राणायाम के चार भाग हैं (1) पूरक (2) अन्तर कुम्भक (3) रेचक तथा (4) बाह्य कुम्भक। सांस को खींचकर भीतर धारण करने को पूरक कहते हैं। यह क्रिया तेजी या झटके के साथ नहीं की जानी चाहिये। धीरे-धीरे फेफड़ों में जितनी सांस भर सकें, इस क्रिया को पूरक कहते हैं। अन्तर कुम्भक वायु को भीतर रोके रहने को कहते हैं। जब तक सरलता पूर्वक रोके रख सकें उतनी ही देर अन्तर कुम्भक करते हैं जबर्दस्ती प्राण-वायु को नहीं रोकना चाहिये। धीरे-धीरे समय बढ़ाने का अभ्यास किया जा सकता है। वायु को बाहर निकालने को रेचक कहते हैं। पूरक के समान ही यह क्रिया भी धीरे-धीरे करनी चाहिये। सांस एकदम या झटके के साथ छोड़ना ठीक नहीं होता। इसके बाद बाहर भी सांस रोक कर बाह्य कुम्भक करते हैं अर्थात् कुछ देर बिना सांस के रहते हैं। पूरक और रेचक का समय, बाह्य-कुम्भक और अन्तर कुम्भक का समय समान होना चाहिये।

अभ्यास करने के पूर्व किसी स्वच्छ पवित्र व शान्त स्थान पर आसन, तख्त या कम्बल आदि पर पूर्वाभिमुख बैठें। स्थान जितना ही एकान्त हो उतना ही अच्छा है ताकि बाहरी शोरगुल से अपनी एकाग्रता भंग न हो। पालथी मारकर सरल पद्मासन पर बैठिये। दांये हाथ के अंगूठे से नासिका के दांये छिद्र को बन्द कर बांये से पूरक कीजिये। फिर मध्यमा तथा अनामिका उंगलियों से बांये छिद्र को भी बन्द कर अन्तर कुम्भक पूरा कीजिये। अब दांये छिद्र से अंगूठे को हटाकर रेचक कीजिये, फिर दूसरी बार जैसी क्रिया की थी दोनों नासिका छिद्र बन्द करके बाह्य-कुम्भक कीजिये। यह आपका एक प्राणायाम हुआ आरम्भ में पांच प्राणायाम करें, धीरे-धीरे आधा घण्टा तक समय बढ़ा सकते हैं।

स्वास्थ्य के साथ-साथ प्राणायाम आत्मोन्नति का भी एक महत्वपूर्ण व उपयोगी साधन है। इससे प्राण-साधना के साथ ही साथ चित्त की एकाग्रता स्थिरता, दृढ़ता और मानसिक गुणों का विकास होता है। आगे चलकर प्राणायाम से प्राण पर नियन्त्रण प्राप्त करते हैं और शरीरस्थ प्राणों को जागृत करते हैं। इनका स्वास्थ्य पर विलक्षण प्रभाव पड़ता है जिसे एक प्रकार से चमत्कार ही माना जा सकता है। हमारे यहां इस सम्बन्ध में बड़ी तत्परता पूर्वक खोज की गई है।

भौतिकी के छात्र जानते हैं कि घर्षण से ऊर्जा उत्पन्न होती है। दियासलाई घिसने से लेकर विशालकाय जनरेटरों द्वारा आग या विद्युत उत्पन्न होने के कारणों में घर्षण ही मुख्य है। निर्जन सुनसान जंगलों में कई बार भयंकर आग लगती है और विस्तृत क्षेत्र के गीले सूखे पेड़ों को जलाकर खाक कर देती है। यह मनुष्यों द्वारा लगाई गई नहीं होती, वह आग सूखे पेड़ों की टहनियों के तेज हवा से हिलने और आपस में रगड़ने के कारण उत्पन्न होती है। इस कार्य में बांस सब से अग्रणी है। सूखे बांस आपस में रगड़ खाकर पहले गरम होते हैं फिर चिनगारियां निकालने लगते हैं। यह आग बढ़ती फैलती चली जाती है और दावानल का रूप धारण कर लेती है। यह घर्षण के सिद्धांत का ही चमत्कार है।

चकमक पत्थर के दो टुकड़े आपस में टकरा कर चिनगारियां उत्पन्न करने की कला ही आदि मानव ने सीखी थी, पीछे लोहे और पत्थर को टकरा कर भी आग निकालने की तरकीब निकाल ली गई। यज्ञ कार्यों में लकड़ियां रगड़कर अरणिमन्थन की क्रिया द्वारा अग्नि उत्पन्न की जाती थी। चेतना और पदार्थ—ब्रह्म और प्रकृति के उद्गम स्रोत में देखा गया है कि वे परस्पर टकराते-घिसते हैं फलतः शब्द रूप में ऊर्जा उत्पन्न होती है और उसके सहारे सृष्टि क्रम चल पड़ता है। हवा चलती है, विभिन्न पदार्थों से टकराती है। समुद्र में लहरें उठती गिरती हैं मनुष्य शरीर में श्वास-प्रश्वास और आकुंचन प्रकुंचन चलता है फलतः घर्षण चलता है और ऊर्जा उत्पन्न होती है उसी के अपने-अपने प्रयोजन हर स्थान पर चल पड़ते हैं। पदार्थों और प्राणियों में चलती रहने वाली हलचलों को घर्षण की उत्पत्ति ही कहा जा सकता है।

साधारण श्वास प्रश्वास क्रिया से जीवनचर्या चलती है। पेण्डुलम हिलना बन्द हो जाय तो घड़ी के सारे पुर्जे ठप्प हो जाते हैं। सांस रुकी तो मरण निश्चित है। घर्षण बन्द तो जीवन भी समाप्त। सांस के साथ जीवन जुड़ा हुआ है क्योंकि प्रत्यक्षतः ऊर्जा की उत्पत्ति उसी से होती है, यों गहराई में जाने पर सहस्रार से उठने वाले विद्युत स्फुल्लिंग भी उसके मूल कारण समझे जाते हैं। वहां भी रुक-रुककर उछलने की क्रिया ही घर्षण उत्पन्न करती

अधिक सशक्तता प्राप्त करने के लिए हमें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। बड़ा कारखाना चलाने के लिए बड़ी मशीनें गतिशील बना सकने वाली बड़ी मोटर फिट करनी पड़ती है। छोटी मोटरें तो छोटी मशीन ही चला पाती हैं। महत्वपूर्ण शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक कार्य करने के लिए अधिक उच्चस्तरीय ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। यह खाने पीने या आग तापने जैसे प्रयत्नों से नहीं वरन् वहां से प्राप्त करनी होती है वहां चेतना और पदार्थ दोनों को प्रभावित करने वाला क्षमता का उद्गम है। कहना न होगा कि यह आधार ‘प्राण’ ही है। प्राण वह तत्व है जो अन्तरिक्ष में जीवन और पदार्थ दोनों की संयुक्त शक्ति के रूप में प्रवाहित रहता है। शुद्ध चेतना ब्रह्म है। प्रशुद्ध प्रकृति ऊर्जा है दोनों ही अपने मूल रूप में अपूर्ण हैं। प्राणि जगत की उत्पत्ति इन दोनों धाराओं के मिलने पर ही सम्भव होती है। इसीलिए जीवधारियों को प्राणी कहते हैं। विज्ञान के बढ़ते हुए चरण परमाणु, परमाणु से तरंग—तरंग से ऊर्जा—ऊर्जा से क्वान्टा तक जा पहुंचना है। इकॉलाजी की मान्यताओं ने क्वान्टा की विचारशील होने की मान्यता अब-तब मिलने ही वाली है। आकाश-आकाश में हवा-हवा में ईथर-ईथर में एस्ट्रल तक की मान्यता मिल चुकी। अब विज्ञान प्राण सत्ता के महासमुद्र को इस निखिल ब्रह्माण्ड में लहलहाता देखने की स्थिति में पहुंचने ही जा रहा है।

प्राण तत्व का अस्तित्व तत्वदर्शी ऋषियों ने बहुत पहले ही जान लिया था। प्रकृति अनुदानों को सीमित मात्रा से काम चलते न देखकर विशेष प्रयोजनों के लिए उसकी विशिष्ट मात्रा उपलब्ध करने का मार्ग भी खोज निकाला था। इसे उन्होंने प्राण विज्ञान का नाम दिया था। उसके प्रयोग प्राणायाम कहलाये। प्राणायाम का उद्देश्य सांस के मार्ग से अधिक मात्रा में प्राण तत्व को आकर्षित करना और आत्म-सत्ता में धारण करके अधिक सशक्त बनना है, यहां सांस और प्राण का पारस्परिक सम्बन्ध तनिक और अच्छी तरह समझने की आवश्यकता है।

मोटेतौर से हवा एक हलकी गैस है जो अन्तरिक्ष की पोल में अपने हलकेपन के कारण तनिक-तनिक से आघातों से ठोकर खाकर इधर से उधर उड़ती-उछलती फिरती है। इस हवा के अन्तराल में बहुत-सी महत्वपूर्ण एवं बहुमूल्य वस्तुएं समाई हुई हैं। दूध में घी रहता है पर दीखता नहीं। वनस्पतियों में प्रोटीन, क्षार चिकनाई आदि रहते हैं। मांस के भीतर ढेरों प्रकार के रासायनिक पदार्थ रहते हैं। इन्हें विशेष विश्लेषण से ही जाना और विशेष उपायों से ही निकाला जा सकता है। इसी प्रकार हवा के भीतर भी बहुत कुछ भरा पड़ा है। सांस लेते समय ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, आदि का रासायनिक, सम्मिश्रण हमारे भीतर प्रवेश करता है। उसमें से जो आवश्यक है उसे शरीर सोख लेता है और भीतर से उत्पन्न कचरे को वापिस लौटने वाली सांस में कार्बन डाइऑक्साइड गैस के रूप में बहा देता है। इस प्रकार सांस का विश्लेषण किया जाय तो प्रवेश करते और निकलते समय की उसकी स्थिति में रासायनिक सम्मिश्रणों की दृष्टि से भारी अन्तर आ जाता है। भिन्न-भिन्न स्थानों की जलवायु में जो स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली स्थिति होती है, उसका कारण इस रासायनिक सम्मिश्रण की मात्रा में न्यूनाधिक का अन्तर होना ही है। पदार्थ ठोस—प्रवाही और वायु भूत बनता बदलता रहता है। पृथ्वी पर ठोस—पानी में प्रवाही और हवा में गैस रूप में पदार्थ की सत्ता बनी है। इतना समझने के उपरान्त यह जानना सरल पड़ेगा कि हवा में ऑक्सीजन जैसे रासायनिक पदार्थ ही नहीं उसके गहन अन्तराल में प्राण तत्व की प्रचुर सत्ता भी विद्यमान रहती है। यह सांस के साथ अनायास भी शरीर में प्रवेश करता रहता है। शरीर उसमें से काम चलाऊ मात्रा सोखता भी है। सांस के घर्षण से ऊर्जा की उत्पत्ति और हवा के साथ घुले हुए ऑक्सीजन जैसे रासायनिक पदार्थों की ही नहीं प्राण शक्ति की उपलब्धि का भी लाभ मिलता रहता है। जीवन का आधार सांस पर अवलम्बित कहा जाता है। इसके पीछे घर्षण एवं प्राण अनुदान से अभीष्ट ऊर्जा की उपलब्धि का तथ्य ही काम कर रहा होता है।

प्राणायाम में सांस की गति में असामान्य व्यतिक्रम निर्धारित है। इसमें घर्षण का असामान्य क्रम उत्पन्न होता है और उसकी प्रतिक्रिया ‘निर्वाह’ की आवश्यकता पूरी करने से आगे बढ़कर शरीर में विशेष हलचलें उत्पन्न करती है। वे असामान्य हलचलें ऐसे प्रसुप्त संस्थानों को जगाती हैं जो सामान्यतया निर्वाह क्रम में तो अधिक आवश्यक नहीं होते, पर जागृत होने पर मनुष्य में विशेष स्तर की—अतिरिक्त मात्रा में—विशेष समता प्रदान कर सकते हैं। प्राणायाम-सांस की गति को तीव्र करना नहीं उसे तालबद्ध और क्रमबद्ध करना है। इस ताल-लय और क्रम के हेर-फेर के आधार पर ही अनेक प्रकार के प्राणायाम बने हैं और उसके विविध प्रयोजनों के लिए विविध प्रकार के उपयोग होते हैं। प्राणायाम के समय साधक को अपनी विशिष्ट संकल्प शक्ति का श्रद्धा भावना का—मनोबल का प्रयोग करना पड़ता है। इसी आकर्षण से सांस में प्राणतत्व की अधिक मात्रा अन्तरिक्ष में खिंचती और घुलती चली आती है। प्राणायाम में श्वास क्रम की विशेष प्रक्रिया और साधक की संकल्प शक्ति का समावेश होने से वह सामान्य सांस लेना न रह कर विशिष्ट ऊर्जा की उपलब्धि का विशेष आधार बन जाता है।

घर्षण के महत्व को हमें और भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। क्रिया सामान्य है, पर उसकी प्रतिक्रिया से ऊर्जा की उत्पत्ति असामान्य है। चलती रेल के पहियों की चिकनाई समाप्त हो जाती है। अथवा अन्य किसी कारण उनमें घिसाव पड़ने लगता है, तो उतने भर से उत्पन्न होने वाली गर्मी पहिये के धुरे तक को गला देती है और और दुर्घटना की स्थिति बन जाती है। आकाश में कभी-कभी प्रचण्ड रेखा बनाते हुए—‘तारे टूटते’ देखते हैं। यह तारे नहीं उल्का पिण्ड होते हैं अन्तरिक्ष में छितराये हुए धातु पाषाण जैसे छोटे-छोटे टुकड़े कभी-कभी पृथ्वी के वायु मण्डल में घुस पड़ते हैं और हवा से टकराने पर जल कर खाक हो जाते हैं। इसी जलने का तेज प्रकाश देखकर ‘तारा टूटने’ का अनुमान लगाया जाता है। यह मात्र घर्षण किया का चमत्कार है। रति क्रिया में चुम्बकीय अवयवों का घर्षण विशिष्ट स्तर की ऊर्जा उत्पन्न करता है। उसी की अनुभूति सरस सम्वेदना के रूप में होती है और उसी से उत्तेजित होकर शुक्राणु डिम्बाणु संयोग के लिए दौड़ पड़ते हैं। यह घर्षण ही प्राणियों की उत्पत्ति का कारण बनता है। दही मथने में रई को रस्सी के दो छोर पकड़कर उलटा सीधा घुमाया जाता है। रई घूमती है। ऊर्जा उत्पन्न होती है और उसकी उत्तेजना से दही में घुला हुआ, घी उभर कर बाहर आ जाता है। दांये बांये नासिका स्वरों के चलने वाले विशेष प्रकार मेरुदण्ड के इड़ा पिंगली विद्युत प्रवाही को उत्तेजित करते हैं और उनकी सक्रियता दही मथने जैसी हलचल उत्पन्न करती है। फलतः ओजस् तत्व उभर कर ऊपर आता है। इसको विधिवत् उत्पन्न और धारण किया जा सके तो साधक को मनस्वी, तेजस्वी और ओजस्वी बनने का अवसर मिलता है। इस उपलब्धि के सहारे प्रखरता की अनेक चिनगारियां फूटती हैं। साहस, स्फूर्ति, पराक्रम, निष्ठा आदि अनेकों आन्तरिक विशेषताओं के रूप में इनका प्रभाव उत्पन्न होता है। उनसे लाभान्वित होने पर व्यक्तित्व में अनेकों विभूतियां उभरती दिखाई देती हैं।

कई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से समर्थ और मानसिक दृष्टि से सुयोग्य होते हैं पर अन्तःकरण में साहस न होने के कारण कोई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठा पाते। शंका-आशंकाओं से असमंजस में पड़ी मनःस्थिति में न तो कोई साहसिक निर्णय कर सकना बन पड़ता है और न अवसर का लाभ उठा सकना ही सम्भव होता है। इसके विपरीत मनस्वी व्यक्ति स्वास्थ्य, शिक्षा, साधन, सहयोग, अवसर आदि की कठिनाइयां रहते हुए भी दुस्साहस भरे कदम उठते और आश्चर्यचकित करने वाली सफलताएं प्राप्त करते हैं। ऐसे ही व्यक्ति अपने विशिष्ट कर्तृत्व और विशिष्ट व्यक्तित्व के कारण कुछ ऐसा कर गुजरते हैं जिनके कारण उन्हें ऐतिहासिक महामानवों की श्रेणी में गिना जाने लगता है। इस आन्तरिक समर्थता को दूसरे शब्दों में प्राण कहा जाता है। प्राणवान का अर्थ जीवित ही नहीं साहसी भी होता है। इस उपलब्धि को अन्य सांसारिक सम्पदाओं की तुलना में कम नहीं अधिक ही माना जा सकता है।

प्राण विद्या के अंतर्गत किये जाने वाले प्राणायाम प्रयोगों में जिस अन्तःऊर्जा की जागृति होती है उनमें साहसिकता एवं सक्रियता प्रधान है। आलस्य और प्रमाद किसी जीवन सम्पदा को अपंग बना देने वाली दुःखदायी विडम्बनाओं को निरस्त करने में इस साधना से बड़ी सहायता मिलती है। उत्साह जगता है और स्फूर्ति बढ़ती है। क्रिया के साथ मनोयोग जुड़ा रहने से सफलता के समस्त आधार बनते हैं। इसके लिए मन को प्रशिक्षित करना पड़ता है। यह भी सरकस के लिए हिंस्र जानवर सधाने की तरह कठिन कार्य है। यह अन्तरंग आत्म बल के बिना और किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। व्यवहार कौशल की शालीनता—व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय सिद्ध करने वाली सज्जनता एवं सम्पर्क क्षेत्र की बिखरी पड़ी अवांछनीयताओं से जूझने की वीरता यह सब कुछ आत्मबल से ही सम्भव हो सकता है। प्राण विद्या के आधार पर जो चेतनात्मक ऊर्जा उपार्जित की जाती है उसे ऐसी ही साहसिकता एवं सक्रियता के सुखद समन्वय के रूप में काम करते हुए देखा जाता है।

अण्डा तब फूटता है जब उसके भीतर के बच्चे की अन्तःचेतना उस परिधि को तोड़कर बाहर निकलने की चेष्टा करती है। प्रसव पीड़ा और प्रजनन की घड़ी तब आती है जब गर्भस्थ शिशु की चेष्टा उस बंधन को तोड़कर उस बन्धन से मुक्ति पाने की होती है। इन गर्भस्थ शिशुओं के संकल्प यदि गिरे मरे हो तो वे भीतर ही सड़ गल कर नष्ट हो जायेंगे। प्रगति के लिए पराक्रम एवं साहस की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है। उसके बिना प्रतिकूलताओं के आये दिन होते रहने वाले आक्रमणों से आत्म रक्षा तक कर सकना सम्भव नहीं हो सकता। पराक्रम प्राण का गुण है। इसी का पौरुष एवं शौर्य भी कहते हैं। आत्मबल इसी आन्तरिक ऊर्जा का नाम है। प्राणायाम के विविध प्रयोगों द्वारा विविध स्तर की प्राण ऊर्जा उत्पन्न करने के जो ऋषिप्रणीत प्रयोग बताये गये हैं, उनका साधक की स्थिति के अनुरूप यदि तालमेल बिठाया जा सके तो अप्रत्यक्ष लाभ किसी बड़े प्रत्यक्ष उपार्जन की तुलना में कम नहीं अधिक ही महत्वपूर्ण सिद्ध होगा।

सन्ध्या वन्दन हमारा धार्मिक नित्य कर्म है। उसमें प्राणायाम क्रिया भी सम्मिलित है। आत्म-परिष्कार एवं आत्म-विकास के लिए आत्मबल अभिवर्धन की भी आवश्यकता है। आत्मिक प्रगति इसी आधार पर सम्भव होती है। आत्मबल बढ़ाने के लिए वैचारिक भावना परक और क्रियात्मक प्रखरता उत्पन्न करना आवश्यक है। साथ ही इस प्रयोजन में असाधारण रूप से सहायता करने वाले प्राणायाम जैसे विशिष्ट क्रिया योगों की भी आवश्यकता रहती है। दुर्बलता निवारण के लिए आहार विहार की सुव्यवस्था तो होनी ही चाहिए, पर साथ ही चिकित्सा उपचार के साधन जुटाने से भी उस कार्य में सहायता मिलती है। प्राणायाम ऐसा ही विशेष उपचार है जिसके सहारे आत्मिक बलिष्ठता बढ़ने का पथ-प्रशस्त होता है। संध्या वन्दन के नित्य कर्म में उसका समावेश प्राणबल सम्वर्धन की आवश्यकता उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए ही किया गया है।

यह प्राणतत्व, जीवनतत्व जब न्यून पड़ता है तो व्यक्ति हर दृष्टि से लड़खड़ाने लगता है और जब वह समुचित मात्रा में रहता है तो समस्त क्रिया कलाप ठीक तरह चलते हैं। जब वह बढ़ता है तो उस अभिवृद्धि को बलिष्ठता, समर्थन, सतर्कता, तेजस्विता, मनस्वता, प्रतिभा आदि के रूप में देखा जा सकता है। ऐसे व्यक्ति ही महाप्राण कहलाते हैं। वे अपना प्राण असंख्यों में फूंकने और विश्व का मार्ग दर्शन करने में समर्थ होते हैं। दानव शरीर में विद्यमान प्राण शक्ति से ही अन्तःसंचालन—एफरेन्ट—और नाड़ी संस्थान नर्वस सिस्टम—अनुप्राणित होता है। मस्तिष्क की कल्पना, धारणा, इच्छा, स्मृति, विवेचना, प्रज्ञा आदि समस्त शक्तियों का उत्पादन अभिवर्धन तथा संचालन होता है। शरीर और मन को दिशा एवं क्षमता प्रदान करने वाली अति उत्कृष्ट एवं अति सूक्ष्म सत्ता को वाइटल फोर्स—कहा जाता है। श्वास-प्रश्वास क्रिया तो उसका वाहन मात्र है। जिस पर सवार होकर वह महाशक्ति हमारे समस्त अवयवों में प्रवेश करती है और पोषण देती है। इसे भौतिक क्षेत्र में गर्मी, रोशनी, बिजली आदि के नाम से जाना जाता है और अन्तःक्षेत्र में उसी को प्रखरता कहते हैं। प्राण तत्व यही है। जो इस सम्पदा का जितना अधिक अर्जन कर सका, वह उतना ही बड़ा शक्तिशाली सिद्ध होता है।

सर्व सुलभ प्राणायाम के विधि विधान

प्राणायाम के दो उद्देश्य हैं एक श्वास की गति का नियन्त्रण दूसरा अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त प्राण चेतना को आकर्षित करके स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को उस अद्भुत शक्ति से ओत-प्रोत करना। मनोनिग्रह में भी प्राणायाम से आशाजनक सहायता मिलती है। चंचल और उच्छृंखल मन निर्दिष्ट केन्द्र पर स्थिर होना दिखता है। इतना ही नहीं मनोविकारों के निराकरण का भी पथ-प्रशस्त होता है। साधन जगत में प्राणायाम की महत्ता एक स्वर से स्वीकार की गई है। शारीरिक और मानसिक आरोग्य की दृष्टि से उसे अतीव उपयोगी बताया गया है।

श्वास की गति में तीव्रता रहने से जीवन का शक्तिाकोष जल्दी चुक जाता है और दीर्घजीवन सम्भव नहीं रहता। श्वास की चाल जितनी धीमी होगी शरीर उतने ही अधिक दिनों जीवित रह सकेगा और कई प्राणियों की श्वास का तुलनात्मक अध्ययन करने से तथ्य बिलकुल स्पष्ट हो जाता है।

शारीरिक श्वास की चाल और जीवन अवधि का लेखा-जोखा इस प्रकार है—खरगोश- श्वास 38, आयु 8 साल। कबूतर- श्वास 37, आयु 8 वर्ष। कुत्ता- श्वास 28, आयु 13। बकरी- श्वास 24, आयु 14। घोड़ा- श्वास 18, आयु 50। मनुष्य- श्वास 12, आयु 100। हाथी- श्वास 11 आयु 100। सर्प- श्वास 7 आयु 120। कछुआ- श्वास 4, आयु 150 वर्ष।

भूतकाल में मनुष्यों की श्वास 11-12 बार प्रति मिनट के हिसाब से चलती थी अब वह बढ़कर 15-16 पहुंच गई है। इसी अनुपात से उसकी आयु भी घट गई है। श्वास की गति बढ़ने से तापमान बढ़ता है। बढ़ा हुआ तापमान आयु क्षय करता है। जो जानवर कुत्ते की तरह हांफते हैं—जिनकी हांफने की गति जितनी तीव्र होती है वे उतनी ही जल्दी मरते हैं। स्मरण रहे हांफना और तापमान की वृद्धि दोनों एक दूसरे से सम्बन्धित है। ज्वर आने पर आदमी भी हांफने लगता है। इसी बात को यों भी कह सकते हैं जिसकी सांस तेज चलेगी उसके शरीर की गर्मी बढ़ जायगी पर गर्मी की बढ़ोत्तरी और सांस की चाल में तीव्रता दोनों ही जीवन का जल्दी अन्त करने वाले हैं। दीर्घायुष्य का रहस्य बताते हुए विज्ञानी जेक्टलूवे ने बताया है इन दिनों मनुष्यों का शारीरिक ताप 98.6 रहता है। इसे आधा घटाया जा सके अर्थात् 49 बना दिया जाय तो आदमी मजे से 1000 वर्ष जी सकता है।

प्राणायाम में गहरी सांस लेने का अभ्यास किया जाता है। साधना समय उसके लिए विशेष प्रयास किया जाता है और यह ध्यान रखा जाता है कि सामान्य समय में भी उथले सांस लेने की आदत को बदला जाय और उसके स्थान पर गहरे सांस लेने का अभ्यास सदा के लिए डाला जाय। इससे स्वास्थ्य संवर्धन और दीर्घजीवन की सम्भावनाएं बढ़ती हैं।

साधारणतया हर मिनट में 18 बार हमारे फेफड़े फूलते सिकुड़ते हैं। 4 घण्टे में एक प्रक्रिया को 25920 बार पुनरावृत्ति होती है। प्रति श्वास में प्रायः 500 सी.सी. वायु का प्रयोग होता है। क्योंकि लोग उथला श्वास लेते हैं। सामान्यतया एक स्वस्थ शरीर की आवश्यकता पूर्ति के लिए हर सांस में 1200 सी.सी. वायु का उपयोग होना चाहिए। लोग आवश्यकता को देखते हुए आधे से भी कम वायु प्राप्त करते हैं। यह आधे पेट भोजन या आधी प्यास पानी की तरह ही शरीर को दुर्बल ही बनाये रहेगा, स्वास्थ्य श्वासी सदा से गहरी सांस लेने की आवश्यकता बताते रहे हैं और कहते रहे हैं कि उथली सांस लेने की ढीलपोल से फेफड़े दुर्बल पड़ेंगे और उनमें क्षय, दमा, खांसी, सीने का दर्द जैसे अनेक रोगों का खतरा बना रहेगा।

गहरी सांस लेने का लाभ यह है कि फेफड़ों को जल्दबाजी की भगदड़ से थोड़ी राहत मिलती है और वह उस अवकाश का उपयोग रक्त को अधिक शुद्ध करने में कर सकता है। इससे हृदय पर कम बोझा पड़ेगा और वह अधिक निरोग रह सकेगा। इंग्लैंड का विख्यात फुटबाल खिलाड़ी भिड़लोथियन अपने गवीले मन और फुर्तीलेपन का कारण गहरी सांस लेने का अभ्यास ही बताया करता है वह प्रायः 2000 सी.सी. वायु हर श्वास में लेता था जबकि औसत व्यक्ति 500 सी.सी. ही लेकर छुट्टी पाते हैं। वह स्वास्थ्य संरक्षण और दीर्घ जीवन का सस्ता किन्तु कारगर नुस्खा है।

डा. मेकडाबन का कथन है—गहरी श्वास लेने का मतलब फेफड़ों को ही नहीं पेट के पाचन यन्त्रों को भी परिपुष्ट बनाना है। रक्त शुद्धि की दृष्टि से गहरा सांस बहुमूल्य दवादारू लेने से भी बढ़कर लाभदायक है। डा. नोल्स ने लिखा है—गहरी सांस लेने की आदत मनुष्य को अधिक कार्य कर सकने की क्षमता और स्फूर्ति प्रदान करती है। श्रम जीवियों की शक्ति साधारणतया अधिक ही खर्च होती है इससे उन्हें जल्दी थकना चाहिए पर देखा इससे उलटा जाता है वे अपेक्षाकृत अधिक बलिष्ठ रहते हैं उसका प्रधान कारण कठोर श्रम करने के साथ-साथ फेफड़ों को अधिक काम करना और उस आधार पर रक्त शुद्धि का अधिक अवसर मिलना ही होता है। डा. सेटनो इससे भी आगे बढ़कर गहरी श्वसन क्रिया का प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ना स्वीकार करते हैं। उन्होंने स्मरण शक्ति की वृद्धि से लेकर हर्षोल्लास मग्न रहने तक की विशेषता को इसी की लाभ परिधि में सम्मिलित किया है।

स्थूल शरीर में वायु संचार के लिए फेफड़े प्रधान रूप से काम करते हैं। सूक्ष्म शरीर में यह कार्य भी नाभि केन्द्र को ही करना पड़ता है। प्रत्यक्ष शरीर नासिका द्वारा वायु खींचता-छोड़ता है, सूक्ष्म शरीर को प्राण वायु का संचार करना होता है। प्राण वस्तुतः एक विद्युत शक्ति है जो ऑक्सीजन की ही भांति वायु में घुली रहती है। श्वास-प्रश्वास के साथ ही उसका आवागमन भी होता है। वैसे उसकी सत्ता वायु से सर्वथा भिन्न है। समुद्र के पानी में नमक घुला रहती है यह ठीक है वस्तुतः वे दोनों एक दूसरे के भिन्न स्तर के ही हैं।

सूक्ष्म शरीर की नाड़ियां में प्रवाहित होने वाले शक्ति प्रवाह को प्राण कह सकते हैं। जिस प्रकार रक्त और रक्त वाहिनी शिरा इन दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध रहने पर भी उनकी सत्ता सर्वथा स्वतन्त्र है। इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर की नाड़ियों और उनमें प्रवाहित होने वाले प्राणों को एक दूसरे से सम्बद्ध रहते हुए भी वह सत्ता की दृष्टि से प्रथक भी ठहराया जा सकता है।

प्रारम्भ में यह कहा जा चुका है कि प्राण सत्ता पर नियंत्रण से ऐसी सिद्धियां उपलब्ध की जा सकती हैं जहां तक पहुंचने में अभी भौतिक विज्ञान की अब तक कई शताब्दियां लग सकती हैं। प्राणायाम उसके द्वारा, प्राण नियंत्रण नियंत्रित प्राण का उपयोग विशुद्ध भौतिक विज्ञान है। इसे न तो किसी देव सत्ता का वरदान समझना चाहिये न परमात्मा का अनुग्रह यह विशुद्ध रूप से अपने शरीर यंत्र का एक कारखाने की तरह का उपयोग भर है। हठयोग में ऐसे प्राणायाम बहुत प्रचलित हैं और आये दिन इस तरह के चमत्कार देखे जाते हैं। कुछ दिन पूर्व माउण्ट हिलेरी ने ‘‘समुद्र से आकाश’’ अभियान सम्पन्न किया उस यात्रा के मध्य इलाहाबाद ने एक रेशम का धागा बांधकर एक हठयोगी वयोवृद्ध साधक ने उनके 90 अश्व शक्ति के जेट इंजन को एक इंच भी खिसकने नहीं दिया था यह विशुद्ध प्राणायाम की शक्ति थी किन्तु उस तरह के प्राणायाम जितने शक्ति संवर्धन होते हैं उतने ही भूल हो जाने पर अनिष्ट कारक भी हो सकते हैं। परमाणु शक्ति का दुरुपयोग स्वतः के लिए उतना ही घातक होता है जितना शत्रु के लिए। विगत अध्याय में वह उदाहरण दिए हैं जिसमें टेक्नीकल, खराबी के कारण यही प्राण-विद्युत अनेकों के लिए प्राण घातक समस्या बन गई अतएव भारतीय योग तत्व वेत्ताओं ने कुछ प्राणायाम ऐसे खोज निकाले जो काई भी, किसी भी शारीरिक मानसिक स्थिति का व्यक्ति कभी भी कर सकता है। इस तरह के तीन प्राणायाम यहां दिए जा रहे हैं प्रति वर्ष एक प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिये। समय मिले तो यह अधिक अभ्यास बढ़ाकर 6-6 माह में भी सम्पन्न किये जा सकते हैं चौथे वर्ष तीनों प्राणायामों का सम्मिलित अभ्यास करना चाहिये। इनके बाद के इच्छुकों के लिये पत्र लिख कर या भेंट परामर्श के बाद आगे का प्राणायाम क्रम प्रारंभ करना चाहिए।

सामान्यतः नित्य उपासना करने के लिए बैठते समय प्रथम संध्या वन्दन के बाद कर्म (पवित्रीकरण, आचमन, शिखा बन्धन, सामान्य प्राणायाम, न्यास, पृथ्वी पूजन) करने चाहिए। इसके बाद आह्वान पूजन। इतना प्रारंभिक कृत्य करने के पश्चात् सामान्यतः गायत्री जप आरम्भ कर दिया जाता है। पर पंचकोशी साधना के साधकों को जप से पूर्व पन्द्रह मिनट प्राणमय कोश की साधना भी आवश्यक होती है। पिछले वर्षों एक-एक ही प्रकार के प्राणायामों का अभ्यास करना होता था। इस वर्ष तीनों का सम्मिश्रित स्वरूप पांच मिनट—कुल मिलाकर पन्द्रह मिनट करना होगा। विगत तीन वर्षों के तीनों प्राणायामों का उल्लेख यहां फिर किया जाता है, जिससे कि नये साधकों को उनका स्वरूप समझने और साधन क्रम प्रारम्भ करने में सुविधा हो।

1-प्रथम वर्ष का प्राणाकर्षण प्राणायाम—

(1) ‘‘प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्त होकर पूर्वाभिमुख पालथी मारकर बैठिए। दोनों हाथ घुटनों पर रखिए। मेरुदण्ड सीधा रखिए। नेत्र बन्द कर लीजिए। ध्यान कीजिए कि अखिल आकाश में तेज और शक्ति से ओत-प्रोत प्राणतत्व व्याप्त हो रहा है। गरम भाप के, सूर्य के प्रकाश में चमकते हुए जैसी बादलों शक्ल के प्राण का उफान हमारे चारों ओर उमड़ता चला आ रहा है और उस प्राण उफान के बीच हम निश्चिन्त, शान्त-चित्त एवं प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए हैं।’’

(2) ‘‘नासिका के दोनों छिद्रों से धीरे-धीरे सांस खींचना आरम्भ कीजिए और भावना कीजिए कि प्राणतत्व के उफनते हुए बादलों को हम अपनी सांस द्वारा भीतर खींच रहे हैं। जिस प्रकार पक्षी अपने घोंसले में, सांप अपने बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार वह अपने चारों और बिखरा हुआ प्राण-प्रवाह हमारी नासिका द्वारा सांस के साथ शरीर के भीतर प्रवेश करता है और मस्तिष्क, छाती, हृदय, पेट, आंतों से लेकर समस्त अंगों में प्रवेश कर जाता है।’’

(3) जब सांस पूरी खिंच जाय तो उसे भीतर रोकिये और भावना कीजिए कि—‘‘जो प्राणतत्व खींचा गया है, उसे हमारे भीतरी अंग-प्रत्यंग सोख रहे हैं। जिस प्रकार मिट्टी पर पानी डाला जाय तो वह उसे सोख जाती है, उसी प्रकार अपने अंग सूखी मिट्टी के समान हैं और जलरूपी इस खींचे हुए, प्राण को सोख कर अपने अन्दर सदा के लिए धारण कर रहे हैं। साथ ही प्राणतत्व में सम्मिश्रित चैतन्य, तेज, बल, उत्साह, साहस, धैर्य, पराक्रम सरीखे अनेक तत्व हमारे अंग-प्रत्यंग में स्थिर हो रहे हैं।’’ (4) ‘‘जितनी देर सांस आसानी से रोकी जा सके उतनी देर रोकने के बाद धीरे-धीरे सांस बाहर निकालिए साथ ही भावना कीजिए कि प्राणवायु का सारतत्व हमारे अंग-प्रत्यंगों के द्वारा खींच लिए जाने के बाद अब वैसा ही निकम्मा वायु बाहर निकाला जा रहा है जैसा कि मक्खन निकाल लेने के बाद निस्सार दूर हटा दिया जाता है। शरीर और मन में जो विकार थे वे सब इस निकलती हुई सांस के साथ घुल गये हैं और काले धुंए के समान अनेक दूषणों को लेकर वह बाहर निकल रहे हैं।’’

(5) ‘‘पूरी सांस बाहर निकल जाने के बाद कुछ देर बाहर सांस रोकिए अर्थात् बिना सांस के रहिए और भावना कीजिए कि अन्दर के जो दोष बाहर निकाले गये थे उनको वापिस न लौटने देने की दृष्टि से दरवाजा बन्द कर दिया गया है और वे बहिष्कृत होकर हमसे बहुत दूर उड़े जा रहे हैं।’’

‘‘इस प्रकार पांच अंगों में विभाजित इस प्राणाकर्षण प्राणायाम को नित्य ही जप से पूर्व करना चाहिए। आरम्भ 5 प्राणायाम से किया जाय। अर्थात् उपरोक्त क्रिया पांच बार दुहराई जाय। इसके बाद हर महीने एक प्राणायाम बढ़ाया जा सकता है। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे बढ़ाते हुए एक वर्ष में आधा घण्टा तक पहुंचा देनी चाहिए।’’

2—लोम-विलोम सूर्य वेधन प्राणायाम—

प्रथम वर्ष में उपरोक्त प्राणाकर्षण प्राणायाम सिखाया गया था और द्वितीय वर्ष में लोम-विलोम सूर्य भेदन प्राणायाम का अभ्यास बताया गया था, जिसकी पद्धति निम्न प्रकार है—

(1) किसी शान्त एकान्त स्थान में प्रातः काल स्थिर चित्त होकर बैठिए। पूर्व की ओर मुख, पालथी मारकर सरल पद्मासन से बैठना, मेरुदण्ड सीधा, नेत्र अधखुले, घुटनों पर दोनों हाथ। यह प्राण मुद्रा कहलाती है, इसी पर बैठना चाहिए।

(2) बांए हाथ को मोड़कर तिरछा कीजिए। उसकी हथेली पर दाहिने हाथ की कोहनी रखिए। दाहिना हाथ ऊपर उठाइए। अंगूठा दाहिने नथुने पर और मध्यमा तथा अनामिका उंगलियां बाएं नथुने पर रखिए।

(3) बाएं नासिका के छिद्र को मध्यमा (बीच की) और अनामिका (तीसरे नम्बर की) उंगली से बन्द कर लीजिए। सांस फेफड़े तक ही सीमित न रहे, उसे नाभि तक ले जाना चाहिए और धीरे-धीरे इतनी वायु पेट में ले जानी चाहिए, जिससे वह पूरी तरह फूल जाय।

(4) ध्यान कीजिए कि सूर्य की किरणों जैसा प्रकाश वायु में सम्मिश्रित होकर दाहिने नासिका छिद्र में अवस्थित पिंगला नाड़ी द्वारा अपने शरीर में प्रवेश कर रहा है और उसकी ऊष्मा अपने भीतरी अंग-प्रत्यंगों को तेजस्वी बना रही है।

(5) सांस को कुछ देर भीतर रोकिये। दोनों नासिका छिद्र बन्द कर लीजिए और ध्यान कीजिए कि नाभि चक्र के प्राण वायु द्वारा एकत्रित हुआ तेज नाभि चक्र में एकत्रित हो रहा है। नाभि स्थान में चिरकाल से प्रसुप्त पड़ा हुआ सूर्य चक्र इस आगत प्रकाशवान प्राण वायु से प्रभावित होकर चमकीला हो रहा है और उसकी दमक बढ़ती जा रही है।

(6) दाहिने नासिका छिद्र को अंगूठे से बन्द कर लीजिए। बांया खोल दीजिए। सांस को धीरे-धीरे बांए नथुने से बाहर निकालिए और ध्यान कीजिए कि चक्र को सुषुप्त और धुंधला बनायें रहने वाले कल्मष इस छोड़ी हुई सांस के साथ बाहर निकल रहे हैं। इन कल्मषों के मिल जाने के कारण सांस खींचते समय जो शुभ्र वर्ण तेजस्वी प्रकाश भीतर गया था वह अब मलीन हो गया और पीत वर्ण होकर सांस के साथ बांए, नथुने की इड़ा नाड़ी द्वारा बाहर निकल रहा है।

(7) दोनों नथुने फिर बन्द कर लीजिए। फेफड़ों को बिना सांस के खाली रखिए। ध्यान कीजिए कि बाहरी प्राण बाहर रोक दिया गया है। उसका दबाव भीतरी प्राण पर बिलकुल भी न रहने से वह हल्का हो गया है। नाभि चक्र में जितना प्राण सूर्य पिण्ड की तरह एकत्रित था वह तेज-पुंज की तरह ऊपर की ओर अग्नि शिखाओं की तरह ऊपर उठ रहा है। उसकी लपटें पेट के ऊर्ध्व भाग, फुफ्फुस को बेधती हुई कण्ठ तक पहुंच रही है। भीतरी अवयवों में सुषुम्ना नाड़ी में से प्रस्फुटित हुआ यह प्राण-तेज अन्तःप्रदेश को प्रकाशमान बना रहा है।

(8) अंगूठे से दाहिना छिद्र कीजिए और बांए नथुने से सांस खींचते हुए ध्यान कीजिए कि इड़ा नाड़ी द्वारा सूर्य प्रकाश जैसा प्राणतत्व सांस से मिलकर शरीर में भीतर प्रवेश कर रहा है और वह तेज सुषुम्ना विनिर्मित नाभिस्थल के सूर्य चक्र में प्रवेश करके वहां अपना भण्डार जमा कर रहा है। तेज संचय से सूर्यचक्र क्रमशः अधिक तेजस्वी बनता चला जा रहा है।

(9) दोनों नासिका छिद्रों को बन्द कर लीजिए। सांस को भीतर रोकिए। ध्यान कीजिए कि सांस के साथ एकत्रित किया हुआ तेजस्वी प्राण नाभि स्थित सूर्यचक्र में अपनी तेजस्विता को चिर-स्थायी बना रहा है। तेजस्विता निरन्तर बढ़ रही है और वह अपनी लपटें पुनः ऊपर की ओर अग्नि शिखा की तरह ऊर्ध्वगामी बना रही है। इस तेज से सुषुम्ना नाड़ी निरन्तर परिपुष्ट हो रही है।

(10) बांया नथुना बन्द कीजिए और दाहिने से सांस धीरे-धीरे बाहर निकालिये। ध्यान कीजिए कि सूर्य चक्र का कल्मष धुंए की तरह तेजस्वी सांस में मिलकर उसे धुंधला पीला बना रहा है और पीली प्राण-वायु पिंगला नाड़ी द्वारा बाहर निकल रही है। भीतरी कषाय कल्मष बाहर निकालने से अन्तःकरण बहुत हल्का हो रहा है।

(11) दोनों नासिका छिद्रों को पुनः बन्द कीजिए और उपरोक्त नं. 6 की तरह फेफड़ों को सांस से बिल्कुल खाली रखिए। नाभि चक्र से कण्ठ तक सुषुम्ना का प्रकाश पुंज ऊपर उठता देखिए। भीतरी अवयवों में दिव्य ज्योति जगमगाती अनुभव कीजिए।

यह एक लोम-विलोम सूर्य बेधन प्राणायाम हुआ। सांस के साथ खींचा हुआ प्राण नाभि में स्थित सूर्य चक्र को जागृत करता है। उसके आलस्य और अन्धकार को बेधता है और वह सूर्यचक्र अपनी परिधि को बेधन करता हुआ सुषुम्ना मार्ग से उदर, छाती और कण्ठ तक अपना तेज फेंकता है। इन कारणों से इसे सूर्य बेधन कहते हैं। लोम कहते हैं सीधे को, विलोम कहते हैं उल्टे को। एक बार सीधा, एक बार उल्टा। फिर उल्टा, फिर सीधा। फिर उल्टा, बांए से खींचना, दांये से निकालना। दाहिने से खींचना बांये से निकालना। यह उल्टा सीधा चक्र रहने से इसे लोम विलोम कहते हैं। प्राणायाम की प्रकृति के अनुसार इसे लोम-विलोम सूर्य-बेधन प्राणायाम कहा जाता है।

3-तीसरे वर्ष के लिए ‘नाड़ी शोधन प्राणायाम’

(1) प्रातःकाल पूर्व को मुख करके कमर सीधी रखकर सुखासन से—पालथी मारकर बैठिये। नेत्रों को अधखुले रखिए।

(2) दाहिना नासिका छिद्र बन्द कीजिए। बांए छिद्र से सांस खींचिए और उसे नाभि चक्र तक खींचते जाइए।

(3) ध्यान कीजिए कि नाभि स्थान में पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा के समान पीतवर्ण शीतल प्रकाश विद्यमान है। खींचा हुआ सांसा उसे स्पर्श कर रहा है।

(4) जितने समय में सांस खींचा गया था, उतने ही समय भीतर रोकिये और ध्यान करते रहिए कि नाभिचक्र में स्थित पूर्ण चन्द्र के प्रकाश को खींचा हुआ श्वास स्पर्श करके स्वयं शीतल और प्रकाशवान् बन रहा है।

(5) जिस नथुने से सांस खींचा था, उसी बांये छिद्र से ही सांस बाहर निकालिये और ध्यान कीजिए कि नाभिचक्र के चन्द्रमा को छूकर वापिस लौटने वाली प्रकाशवान् एवं शीतल वायु इडा नाड़ी की छिद्र नलिका को शीतल एवं प्रकाशवान् बनाती हुई वापिस लौट रही है।

(6) कुछ देर सांस बाहर रोकिए और फिर उपरोक्त क्रिया आरम्भ कीजिए। बांये नथुने से ही सांस खींचिए और उसी से निकालिए। दाहिने छिद्र को अंगूठे से बन्द देखिए। इसी को तीन बार कीजिए।

(7) जिस प्रकार बांये नथुने से पूरक, कुम्भक, रेचक बाह्य कुम्भक किया था, उसी प्रकार दाहिने नथुने से भी कीजिए। नाभिचक्र में चन्द्रमा के स्थान पर सूर्य का ध्यान कीजिए और सांस छोड़ते समय भावना कीजिए कि नाभि स्थित सूर्य को छूकर वापिस लौटने वाली वायु श्वास नली के भीतर उष्णता और प्रकाश उत्पन्न करती हुई लौट रही है।

(8) बांये नासिका स्वर को बन्द रखकर दाहिने छिद्र से भी इस क्रिया को तीन बार कीजिए।

(9) अब नासिका के दोनों छिद्र खोल दीजिए। दोनों से सांस खींचिए और भीतर रोकिए और मुंह खोल कर सांस बाहर निकाल दीजिए। यह विधि एक बार ही करनी चाहिए। तीन बार बांये नासिका छिद्र से सांस खींचते और छोड़ते हुये नाभि चक्र में चन्द्रमा का शीतल ध्यान तीन बार दाहिने नासिका छिद्र से सांस खींचते छोड़ते हुए सूर्य का उष्ण प्रकाश वाला ध्यान, एक बार दोनों छिद्रों से सांस खींचते हुए मुख से सांस निकालने की किया यह सात विधान मिलकर एक नाड़ी-शोधन प्राणायाम बनता है।

चतुर्थ वर्ष सम्मिलित अभ्यास—

तीनों प्राणायाम सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लेने के बाद चौथे वर्ष तीनों प्राणायामों का सम्मिलित अभ्यास किया जाता है। प्रारम्भ में तीन प्राणाकर्षण, दो लोम विलोम सूर्य वेधन और एक नाड़ी शोधन किया जाये। पीछे इनकी संख्या इसी अनुपात से बढ़ाई जा सकती है।

इनका अभ्यास कर लेने तक साधक को विलक्षण अनुभूतियां अवश्य होंगी। वह किसी विश्वासपात्र को बताई भी जा सकती हैं मार्गदर्शन भी लिया जा सकता है पर इन बातों को नितान्त सामान्य चर्चा का विषय नहीं बनाना चाहिये। यदि यह प्राणायाम पक चुके हैं तो अब तक की अनुभूतियों के आधार पर अंगों के प्राणायाम जानकार मार्गदर्शन से ज्ञात किये जा सकते हैं।

प्राणायाम-साधना के कुछ आवश्यक ज्ञातव्य—

(1) प्राणायाम खाली पेट में करना चाहिये।

(2) स्थान ऐसा हो जहां शुद्ध व ताजी वायु मिल सके। दुर्गन्धित स्थानों में प्राणायाम नहीं करना चाहिये।

(3) प्रारम्भ एक दो प्राणायाम से करें पीछे समय और संख्या क्रमशः बढ़ायें।

(4) प्राणायाम कर लेने के बाद 1 घंटे तक भारी वजन की वस्तुयें न उठायें।

(5) प्राण शक्ति विशुद्ध रूप से विद्युत क्षमता सम्पन्न होती है अतएव विद्युत नियमों के समान ही जब तक नव-उपार्जित प्राण पूरी तरह पच न जाये तब तक कुचालक धातुओं को स्पर्श न करे। स्वर्ण, रजत आभूषण तथा इसी श्रेणी के उच्च आभूषण स्पर्श में कोई दोष नहीं है।

(6) प्राणायाम साधना के दिनों में जहां तक संभव हो सहवास से बचा जाये क्योंकि शरीर के अन्य अवयवों की तरह इस अवधि में काम-अवयवों का थोड़े में उत्तेजित हो उठना नितान्त संभव है। इस अवधि में बाल न बनाना या स्वयं बनाना, नंगे पैरों की अपेक्षा कपड़े के जूते या खड़ाऊं पहने जायें तो अच्छा है।

(7) तखत पर सोये, चारपाई पर सोये तो शरीर को अधिक सुख देने वाले नर्म गद्दे न बिछाये।

यह थोड़ी सावधानियां हैं जो प्राण शक्ति, प्राण शरीर के द्रुत विकास में सहायक होती हैं। प्राणायाम एक प्रत्यक्ष विज्ञान है जिसका लाभ कोई भी व्यक्ति चाहे वह श्रद्धालु हो या अश्रद्धालु सहर्ष ले सकता है, चमत्कारिक लाभ मिलें या न मिलें, दीर्घजीवन, आरोग्य निरालस्य, स्फूर्ति, साहस, नेत्रों में चमक, गहरी नींद शरीर में हलकेपन जैसे अनेक भौतिक लाभ तो उससे सुनिश्चित ही हैं।
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