जीवन लक्ष्य और उसकी प्राप्ति

जीवन लक्ष्य की ओर

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मानव-जीवन के दो पहलू हैं। एक स्थूल दूसरा सूक्ष्म, एक जड़ दूसरा चेतन, एक अन्धकारमय दूसरा प्रकाशमय। एक मर्त्य है तो दूसरा अमर्त्य। संसार के सभी धर्मों, दर्शनों, महापुरुषों, विचारकों ने इसे स्वीकार किया है। अपनी भाषा, दृष्टिकोण आदि के कारण नाम अलग अलग भले ही हैं, परन्तु सबका अन्तिम निर्णय एक ही निकलता है। आदि काल से ही मानव जाति जीवन के इन विभिन्न पहलुओं पर विचार करती आयी है। इन दोनों में जो स्थिर है, सत्य है, चेतन है, प्रकाश युक्त है अमर्त्य है उसकी ओर ही अग्रसर होने का प्रयत्न भी किया है उसने। और यदि आदि काल से चला आ रहा यह प्रयत्न मानव का एक स्थायी उद्देश्य बन गया है। मनुष्य अंधेरे से प्रकाश को अधिक पसन्द करता है मृत्यु नहीं चाहता, वरन् अमर बनने की भावना आदि काल से रही है उसमें। वह दुःख नहीं चाहता और सुख खोज में लगा हुआ है। सीमित नहीं असीमित बनना चाहता है। कुरूपता, जड़ता विकृति के बजाय सौन्दर्य, चेतना, व्यवस्था, सुघड़ता से प्यार करता है। यह भले ही हो कि अलग अलग क्षेत्र में मनुष्य अपने-अपने ज्ञान, निर्णय शक्ति के अनुसार सीमित हो, किन्तु सबकी गति में एक ही ध्येय है—दुःख से सुख, अंधेरे से प्रकाश, मर्त्य से अमर्त्य, जड़ता से चेतना की ओर प्रगति करना।

यह नियम मानव-जाति पर लागू नहीं होता वरन् यह सारी सृष्टि का मूल नियम है। इतर प्राणी वर्ग एवं प्रकृति के प्रत्येक स्पंदन में यह मुखरित हो रहा है। नदियां अपने अल्प और सीमित स्वरूप से उन अनन्त गम्भीर विशद् सागर की ओर दौड़ी जा रही है। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ अपनी उत्तुंग चोटियों को फैलाये उस सर्वव्यापी सत्ता की ओर देख रहे हैं। मानो उन्हें अपना स्वरूप अल्प सीमित जान पड़ रहा हो। जान पड़ता है वे भी उतने ही विराट अनन्त महान् बनने की चिर प्रतीक्षा में खड़े हैं। बीज अपने क्षुद्र और साधारण स्वरूप से सन्तुष्ट नहीं होता वह अपने आवरण को तोड़ फूट निकलता है महत् की ओर। उसकी यात्रा जारी रहती है और वह विशाल वृक्ष बन जाता है। फिर भी उसकी विपुल, महत् बनने की साध रुकती नहीं और वह सुन्दर फूलों से खिल उठता है, मधुर फलों में परिणत होता हुआ अपनी सत्ता को असंख्यों बीजों में परिणत कर देता है। उधर देखिये उस पक्षी शावक को उसे नीड़ का संकीर्ण आवरण तुच्छ जान पड़ता है। वह अपने पंखों में फुर-फुरी भर रहा है। नीड़ के दरवाजे में से अखिल विश्व भुवन की ओर देख रहा है, जिसकी अनन्त गोद में वह किलोल करना चाहता है। और देखो, निकल पड़ा वह सीमित अल्प आवरण को त्याग कर अनन्त महत् की ओर।

अल्प से महत् की ओर अग्रसर होने की यह क्रिया सर्वत्र हो रही है। चैतन्य प्रकृति में तो यह और भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। मनुष्य इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।

आदि काल से चले आ रहे इन प्रयत्नों के बावजूद क्या मनुष्य अभी तक अपने लक्ष्य पर नहीं पहुंचा? यह एक विचारणीय प्रश्न है। क्योंकि मानव जाति आज भी दुःखी क्लान्त, भयभीत नजर आ रही है। संघर्ष क्लेश, कलह उसे खाये जा रहे हैं। ऐसा क्यों है? जबकि उसकी यात्रा अल्प से महत् की ओर चलती रही है।

इसका प्रमुख कारण अल्प के द्वारा महत् को प्राप्त करने का प्रयत्न करना है। कोई बढ़ई यदि लकड़ी के बने कुल्हाड़े एवं औजारों से किसी लकड़ी को काटकर उसकी उपयोगी वस्तुयें बनाना चाहे तो उसे असफलता और निराशा ही मिलेगी। इतना ही नहीं उसका वृथाश्रम भी कुछ कम दुःखी नहीं देगा। बिजली के कनेक्शन के अभाव में बड़े-बड़े बल्बों से भी अन्धेरा दूर नहीं हो सकता।

ठीक इसी प्रकार मनुष्य अल्प सीमित तुच्छ साधनों से जो स्वयं मर्त्य नाशवान् जड़ हैं, महत्, प्रकाश, अमर्त्य असीम तत्व की प्राप्ति करने का प्रयत्न करता है। इसी कारण मनुष्य अपना लक्ष्य अभी तक नहीं पा सका। मनुष्य सब ओर से महान् असीम बनना चाहता है किन्तु उसे अपनी लघुता, सीमितता खाये जा रही है। वह सुखी बनने का प्रयत्न करता है किन्तु दुःखों से पीछा नहीं छूटता। अपने प्रयत्नों से मनुष्य ने जल थल-नभ में गति प्राप्त करली, विज्ञान की बड़ी-बड़ी शक्तियां हस्तगत करलीं फिर भी उसका मूल प्रश्न ज्यों का त्यों है।

अल्प से महत् की यात्रा में मनुष्य उस तत्व का सहारा लेकर ही आगे बढ़ सकता है जो स्वयं अमृत है प्रकाश है, असीम है। और वह तत्व सर्वत्र ही, स्वयं मनुष्य में विराजमान है, जिसे कहीं अन्यत्र ढूंढ़ने की आवश्यकता भी नहीं है। यह मौलिक शक्ति सब में निहित है। बीज में नदी में और संसार के प्रत्येक पदार्थ में और इसी शक्ति के द्वारा वे अपनी यात्रा पूर्ण करते हैं। बाह्य साधनों का संयोग लेकर प्रत्येक पदार्थ अपने अन्तर की शक्ति को जाग्रत करता है और उसे असीम की ओर प्रवाहित करके लक्ष्य प्राप्त करता है। मनुष्य भी अपनी इस मौलिक शक्ति को अद्भुत करके अपनी यात्रा पूर्ण कर सकता है।

अल्प से महत् की यात्रा का शक्ति केन्द्र स्वयं मनुष्य के अन्दर निहित है, जिसके द्वारा वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। मानव के अन्तःक्षेत्र में निहित इस शक्ति केन्द्र के लिये मनुष्य को इतना पुरुषार्थ करना आवश्यक है कि वह अपने अन्तर के पर्दों को हटा कर उस बिन्दु के दर्शन करे। सम्पूर्ण एकाग्रता के साथ उसमें केन्द्रस्थ हो तो एक दिन उसकी चिर-यात्रा अपने आप में ही पूर्ण हो जाय। उस बिन्दु में ही असीम सिन्धु समाया हुआ है, क्योंकि दोनों गुण धर्म एक से हैं। सिन्धु ही बिन्दु के रूप में मानव अन्तर में बसा हुआ है। इस बिन्दु के सहारे एक दिन मनुष्य सिन्धु में अपनी गति प्राप्त कर सकता है। क्योंकि दोनों की गति एक दूसरे में है। प्रकाश, अमर्त्य, असीम महत् का बिन्दु मानव के लिए उसी तरह उपलब्धि का विशाल तत्व है जिस तरह प्रातःकाल होने पर सूर्य का प्रकाश सर्वत्र फैल जाता है। मनुष्य अपने हाथों बनाये गये भवन के किवाड़ खोलकर बाहर देखे तो भगवान् भास्कर के दर्शन पाकर कृतार्थ हो सकता है। इतना ही क्यों उसका सम्पूर्ण आवरण भी अंशुमाली की किरणों के प्रकाश से जगमगा उठता है। इसी तरह अन्तर के पट उठाकर देखने पर मनुष्य का उस परम तत्व की गति, दर्शन, अनुभूति सब मिल जाती है।

मानव जीवन की यात्रा का लक्ष्य इतना सहज और सरल होने पर भी मनुष्य अब तक भी क्यों भटक रहा है? इसका कारण यही रहा है कि मनुष्य ने उसे अपने निकटतम अन्तर में न ढूंढ़कर बाह्य जगत् और उस पर भी हाथ आंख दिमाग द्वारा नाप तोल होने वाले पदार्थों में देखा। सुना है कस्तूरी मृग भी अपनी नाभिस्थिति कस्तूरी को यत्र-तत्र घास-झाड़ियों, वृक्षों आदि में ढूंढ़ता रहता है और इस प्रयत्न में वह मारा जाता है। इसी तरह मनुष्य ने भी बाह्य पदार्थों में जीवन के सत्य की खोज की जिसके फलस्वरूप वह आज तक असफल रहा। बाह्य साधन सहायक हो सकते हैं किन्तु वे साध्य का रूप नहीं ले सकते। कांच का ग्लोब और लोहे का ढांचा लालटेन के बाह्य रूप का निर्धारण करता है किन्तु प्रकाश का उद्गम तेल और बत्ती के अग्नि के साथ संयोग पर निर्भर करता है।

अल्प से महत् की यात्रा में प्राथमिक आवश्यकता है कि मनुष्य अपने अन्तर की ओर उन्मुख हो। जीवन की समस्त गतिविधियों को केन्द्रीकरण कर उन्हें अन्तःकरण की प्रयोगशाला में लगावे। जिस तरह एक वैज्ञानिक संसार से दूर एक कोने में अपनी प्रयोगशाला में बैठा हुआ विज्ञान के गम्भीर रहस्यों का निर्धारण करता है उसी तरह मनुष्य भी अपने अन्त की प्रयोगशाला में अन्वेषण करे एक दिन सत्य, अमृत और प्रकाश को प्राप्त कर सकता है। कई मनीषियों ने किया भी है। अन्तर के सुदृढ़ किले में बैठ कर मनुष्य समस्त सृष्टि गति प्राप्त कर सकता है। तब वह समस्त बाह्य वस्तुओं का भी नियमन करके अन्तर बाह्य सभी क्षेत्रों में पूर्णता प्राप्त कर सकता है। तात्पर्य यह है कि अन्तर जीवन ही दैवी जीवन है। बाह्य संसार में भटकता हुआ मनुष्य उस असहाय अकेले सिपाही की तरह होगा जो निराश्रय, अपने शक्ति केन्द्र ते भटका हुआ भयभीत होकर बचने की दौड़-भाग में लगा रहा हो फिर भी वह मौत की चट्टान से टकरा कर चूर-चूर हो जाता है। बाह्य जीवन स्थूल जीवन ही आसुरी जीवन है जिसमें बाह्य सफलताओं-असफलताओं के लिए मनुष्य कुछ भी करने से भी नहीं चूकता।
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