मनुष्यता परमात्मा की अलौकिक कलाकृति है। वह विश्वम्भर परमात्मा देव की महान् रचना है। जीवात्मा अपनी यात्रा का अधिकांश भाग मनुष्य शरीर में ही पूरा करता है। अन्य योनियों से इसमें उसे सुविधायें भी अधिक मिली हुई होती हैं। यह जीवन अत्यन्त सुविधाजनक है। सारी सुविधायें और अनन्त शक्तियां यहां आकर केन्द्रित हो गई हैं ताकि मनुष्य को यह शिकायत न रहे कि परमात्मा ने उसे किसी प्रकार की सुविधा और सावधानी से वंचित रक्खा है। ऐसी अमूल्य मानव देह पाकर भी जो अन्धकार में ही डूबता उतरता रहे उसे भाग्यहीन न कहें तो और क्या कहा जा सकता है। आत्मज्ञान से विमुख होकर इस मनुष्य जीवन में भी जड़-योनियों की तरह काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि की कैद में पड़े रहना, सचमुच बड़े दुर्भाग्य की बात है। किन्तु इतना होने पर भी मनुष्य को दोष देने का जी नहीं करता। बुराई में नहीं, वह तो अपने स्वाभाविक रूप में सत्, चित् एवं आनन्दमय ही है। शिशु के रूप में वह बिलकुल अपनी इसी मूल-प्रकृति को लेकर जन्म लेता है किन्तु माता-पिता की असावधानी, हानिकारक शिक्षा, बुरी संगति, विषैले वातावरण तथा दुर्दशाग्रस्त समाज की लपेट में आकर वह अपने उद्देश्यों से भटक जाता है और तुच्छ प्राणी का सा अविवेकपूर्ण जीवन व्यतीत करने लग जाता है।
इसलिए निन्दा मनुष्य की नहीं दोषों की, दुर्गुणों की, की जानी चाहिए जो मनुष्य को प्रकाश से अन्धकार में ढकेल देते हैं। मनुष्य का जीवन तो सामाजिक जीवन के ढांचे में ढाले गये किसी उपकरण की तरह है जिसके अच्छे बुरे होने का श्रेय सामाजिक शिक्षा एवं तात्कालिक परिस्थितियों को ही देना उचित प्रतीत होता है। यदि मनुष्य को सदाचार युक्त एवं आदर्शों से प्रेरित देखना चाहते हों तो द्वेष, दुर्गुणों को मिटाकर सुन्दर प्रकाशयुक्त वातावरण पैदा करने का प्रयास करना चाहिये। अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए किसी वर्ग, व्यक्ति या समाज पर आत्म-हीनता का भार लादना उचित नहीं है। इससे मानवता कलंकित होती है। हम वह करें जिससे यह अज्ञान का पर्दा नष्ट हो और दिव्य-ज्ञान का प्रकाश चारों तरफ झिलमिलाने लगे।
सुविधाजनक यात्रा का सामान्य नियम यह है कि समय-समय पर यात्री अपना स्थान दूसरों के लिये छोड़ते जायें। उतरते-चढ़ते रहने की प्रतिक्रिया से ही कोई यात्रा विधिपूर्वक सम्पन्न हो सकती है। ऐसी ही व्यवस्था मनुष्य जीवन में भी होनी चाहिये। परमात्मा ने अपना यह नियम बना दिया है कि मनुष्य एक निश्चित समय तक ही इस वाहन का उपयोग करे और आगे के लिये उस स्थान को किसी दूसरे के लिये सुरक्षित छोड़ जाय। यह एक प्रकार की उसकी जिम्मेदारी है कि आगन्तुकों का भावी नागरिकों का निर्माण चतुराई और बुद्धिमत्ता के साथ करे। केवल अपने ही स्वार्थ का ध्यान न रखकर आने वाले यात्री के लिये इस प्रकार का वातावरण छोड़ जाय ताकि वह भी अपनी यात्रा सुविधा और समझदारी के साथ पूरी कर सके।
कर्तव्य की इतिश्री इतने से ही नहीं हो जाती। अपने साथ अनेकों दूसरे यात्री भी सफर तय कर रहे होते हैं। मानवता के नाते उन्हें भी आपकी तरह सुविधापूर्वक यात्रा करने का अधिकार मिला हुआ होता है। यदि आपको कुछ अधिक शक्ति और सामर्थ्य मिली है तो इसका यह मतलब नहीं कि आप औरों को बलपूर्वक सतायें उन्हें परेशान करें। खुद तो मौज मजा उड़ाते रहे और दूसरों को बैठने की सुविधा न दें। हमारे ऋषियों ने एक व्यवस्था स्थापित की थी कि प्रत्येक नागरिक उतनी ही वस्तु ग्रहण करे जितने से उसकी आवश्यकतायें पूरी हो जायें शेष भाग समाज के अन्य पीड़ित प्राणियों अभाव ग्रस्त लोगों को बांट दी जाये ताकि समाज में किसी तरह की गड़बड़ी न फैले। विषमता चाहे वह धन की हो चाहे जमीन-जायदाद की हो, हर अभाव ग्रस्त के मन में विद्रोह ही पैदा करेगी और उससे सामाजिक बुराइयां ही फैलेंगी। इसलिए न्यायनीति का परित्याग कभी नहीं होना चाहिए। सबके हित में ही अपना भी हित समझकर मनुष्य को मनुष्यता से विमुख नहीं होना चाहिये। इसी में शान्ति है सुख और सुव्यवस्था है।
मनुष्य इन बुराइयों से बचता रहे इसके लिये उसे हर घड़ी अपना लक्ष्य अपना उद्देश्य सामने रखना चाहिए। यात्रा में गड़बड़ी तब फैलती है जब अपना मूल-लक्ष्य भुला दिया जाता है। मनुष्य जीवन में जो अधिकार एवं विशेषताएं प्राप्त हैं वह किसी विशेष प्रयोजन के लिये हैं। इतनी सहूलियत अन्य प्राणियों को नहीं मिली। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसको सुन्दर शरीर, विचार, विवेक, भाषा आदि के बहुमूल्य उपहार मिले हैं, इनकी सार्थकता तब है जब मनुष्य इनका सही उपयोग कर ले। मनुष्य देह जैसे अलभ्य अवसर प्राप्त करके भी यदि वह अपने पारमार्थिक लक्ष्य को पूरा नहीं करता तो उसे अन्य प्राणियों की ही कोटि का समझा जाना चाहिए। जन्म-जन्मान्तरों की थकान मिटाने के लिये यह बहुमूल्य अवसर है जब मनुष्य अपने प्राप्त ज्ञान और साधनों का उपभोग कर ईश्वर-प्राप्ति की चरम शान्ति-दायिनी स्थिति को प्राप्त कर सकता है। जिन्हें साधन-निष्ठा की इतनी शक्ति नहीं मिल या जो कठिन तपश्चर्याओं के मार्ग पर नहीं जाना चाहते वे इस जीवन में उत्तम संस्कार, सद्भावनायें और श्रद्धा भक्ति तो पैदाकर ही सकते हैं ताकि अगले जीवन में परिस्थितियों की अनुकूलता और भी बढ़ जाय और धीरे-धीरे अपने जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ने का कार्यक्रम चालू रख सके।
पर इस अभागे इन्सान को क्या कहें जो आत्म-स्वरूप को भूलकर उसे वासना ‘शरीर’ को ही सजाने में आनन्द ले रहा है। मनुष्य यह देखते हुये भी कि शरीर नाशवान है और अन्य जीवधारियों के समान इसे भी किसी न किसी दिन धूल में मिल जाना है फिर भी वह शारीरिक सुखों की मृगतृष्णा में इस तरह पागल हो रहा है कि उसको आप अपने सही स्वरूप तक का ज्ञान नहीं है। शारीरिक सुखों के सम्पादन में ही वह जीवन का अधिकांश भाग नष्ट कर देता है। जब तक शक्ति और यौवन रहता है तब तक उसकी यह समझदारी की आंख खुलती तक नहीं, बाद में जब संस्कार की जड़ें गहरी जम जाती हैं और शरीर में शिथिलता आ जाती है तब फिर समझ आने से भी क्या बनता है। चतुरता तो तब है जब अवसर रहते मनुष्य सद्गुणों का संचय करके इस योग्य बन जाय कि यह यात्रा सन्तोषपूर्वक पूरी करके लौटने में कोई बाधा शेष न रहे।
हमारा सहज धर्म यह है कि हम इस जीवन में प्रकाश की अर्चना करें और उसी की ओर अग्रसर हों। इसमें कुछ देर लगे पर जब भी उसे एक नया जीवन मिले हम प्रकाश की ओर ही गतिमान बने रहें। मनुष्य का दृढ़ निश्चय उसके साथ बना रहना चाहिए। हमारा विवेक कुतुबनुमा की सुई की भांति ठीक जीवन-लक्ष्य की ओर लगा रहना चाहिए ताकि हम अपनी इस यात्रा में भूले भटके नहीं।
इस जीवन में काम, क्रोध, लोभ तथा मोह आदि के मल विक्षेप आत्म-पवित्रता को मलिन करते रहते हैं। इस पवित्रा को ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, श्रम और प्रेम के दिव्य गुणों द्वारा दूर करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। मार्ग, इसमें सन्देह नहीं, कठिनाइयों और जटिलताओं से ग्रस्त हैं। पर यदि सच्चाई, श्रद्धा, भक्ति एवं आत्म समर्पण के द्वारा ईश्वर के सतोगुणी प्रकाश की ओर बढ़ते रहें तो यह कठिनाइयां मनुष्य को कुछ बिगाड़ नहीं सकती।