दृश्य जगत के अदृश्य संचालन सूत्र

आस्तिक दर्शन—तथ्यपूर्ण आधार

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बुद्धिवाद ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रत्यक्षवाद के आधार पर परखना चाहा। पर प्रयोगशालाओं में उसकी सत्ता सिद्ध न हो सकी। इन्द्रियशक्ति ने भी इस सन्दर्भ में कुछ न किया। मस्तिष्क भी प्रमाण न खोज सका और यान्त्रिकी, भौतिकी ने भी अपनी हार स्वीकार कर ली। ऐसी दशा में स्वाभाविक ही था कि बुद्धिवाद ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करता। प्रकृति की क्रम व्यवस्था सुसंबद्ध और सुनियोजित है ऐसा तो माना गया, पर उसे स्वसंचालित कह कर संतोष कर लिया गया। इसके लिए किसी सृष्टि का हाथ हो सकता है, इस बात से शोधकर्ताओं ने इन्कार कर दिया। नास्तिकवाद की प्रचण्ड लहर इसी वैज्ञानिक इनकारों से उत्पन्न हुई और आंधी तूफान की तरह बौद्धिक जगत पर अपना अधिकार जमाती चली गयी। पिछले दिनों ईश्वर की अस्वीकृति प्रगतिशीलता का चिह्न बनकर उभरता रहा है।

लेकिन विज्ञान ने कभी यह नहीं कहा है कि—‘‘ईश्वर नहीं है।’’ उसने केवल इतना ही कहा उसकी अनुसन्धान प्रक्रिया की पकड़ में ईश्वर जैसी कोई सत्ता नहीं आती। इन्द्रिय बोध के आधार पर सूक्ष्मदर्शी उपकरणों की सहायता से प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिक अनुसन्धान चलते हैं। परिधि में जो कुछ आता है वही विज्ञान का प्रतिपाद्य विषय है। उसकी छोटी सीमा और मर्यादा है। उससे जितना कुछ ज्ञान पकड़ा पाया जाता है उसे ही प्रस्तुत करना उसका विषय है। इस मर्यादा में यदि ईश्वर नहीं आया है तो उसका अर्थ नहीं कि उसकी सत्ता है ही नहीं।

विज्ञान अपने शैशव से क्रमशः विकसित होता हुआ किशोरावस्था में प्रवेश कर रहा है अभी उसे प्रौढ़, वृद्ध एवं परिपक्व होने में बहुत समय लगेगा। उसे अभी तो आज की गलती कल सुधारने से ही फुरसत नहीं। बालबुद्धि आज जिस बात का जोर शोर से प्रतिपादन करती है उसके आगे के तथ्य सामने आने पर पूर्व मान्यताएं बदलने की घोषणा करनी पड़ती है। यह स्थिति सम्भव है आगे न रहे जब विज्ञान अपनी किशोरावस्था पार करेगा और यौवन की प्रौढ़ता में प्रवेश करेगा तो उसे ऐसे आधार भी हाथ लग जायेंगे जो आज के भोंड़े उपकरणों की अपेक्षा प्रकृति की अधिक सूक्ष्मता की थाह ला सके। तब सम्भवतः उन्हें पदार्थ की भौतिक शक्ति के अन्तराल में छिपी हुई चेतना की परतें भी दृष्टिगोचर होने लगेंगी। आज भी इसकी सम्भावना स्वीकार की जा रही है। इसलिए ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि न होने पर भी विज्ञान अन्यान्य अनेकों सम्भावनाओं की तरह ईश्वर की सम्भावना का भी खण्डन नहीं करता, वह केवल नम्र शब्दों में इतना ही कहता है अभी प्रयोगशालाओं ने अपनी पकड़ में ईश्वर को नहीं जकड़ पाया है। उसका खण्डन इसी सीमा तक है। विज्ञानी नास्तिकता दुराग्रही नहीं हैं। वह अपनी वर्तमान स्थिति का विवरण मात्र प्रस्तुत करती है।

परन्तु नास्तिकवाद के पृष्ठ पोषण में जोश के साथ लगे दार्शनिकों ने विज्ञान के उसी प्रतिपादन को अपनी मान्यताओं का आधार बनाया है जो ईश्वर के अस्तित्व को प्रयोगशाला में असिद्ध होने की बात कहते हुये किये गये हैं। इससे तो यही प्रतीत होता है कि नास्तिक कहना अथवा कहलाना एक फैशन बन गया है और इस फैशनेबल प्रतिपादन को पिछली तीन शताब्दियों में आंधी तूफान की तरह विकसित और व्यापक होने का अवसर मिला है। साम्यवादी शासन सत्ता ने प्रस्तुत अनास्था की जड़ें और भी अधिक गहरी जमाई, पर लगता है वह उन्माद ठण्डा पड़ने लग गया है। विज्ञान को नये सिरे से अपने निर्णय पर विचार करने के लिए पीछे लौटना पड़ रहा है। जड़-पदार्थ अपने आप में नियमित हलचलें करते रह सकते हैं, यह आग्रह किसी समय पूरे जोश खरोश से किया गया है, पर अब पुरातन पथियों की तरह तथाकथित प्रगतिशीलों को भी यह सोचना पड़ रहा है कि सृष्टि सन्तुलन के जिन रहस्यों का—ईकालौजी विज्ञान के आधार पर प्रतिपादन होता चला जा रहा है वह अनायास एवं संयोगवश चल रहा है—यह बात पूरी तरह गले नहीं उतरती। सृष्टा कोई नहीं—उसकी कुछ भी आवश्यकता नहीं—यह बात आवेश में तो कही जा सकती है, पर गहराई में उतरते ही सन्देह उत्पन्न होता है कि इतनी क्रमबद्ध—परस्पर पूरक और सोद्देश्य गतिविधियां किसी चेतना द्वारा नियन्त्रण बिना किये ही किस प्रकार चलती रह सकती हैं?

माना कि यान्त्रिकी और भौतिकी के साथ-साथ बौद्धिक भी प्रत्यक्षवादी उपकरणों के आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणिक नहीं कर पा रही है, पर न मानने भर से भी तो समाधान नहीं होता। सृष्टि के संचालन क्रम में इतनी अधिक सुसम्बद्धता का होना अनायास ही चल रहा है तो यह अनायास ही सृष्टा होना चाहिए। कर्ता के बिना कर्म, प्रेरणा के बिना हलचल, नियन्त्रण के बिना व्यवस्था क्यों कर बनी? स्वसंचालित यन्त्रों पर भी तो आखिर संचालक नियुक्त रहते हैं। फिर सृष्टि जैसे विशाल संयन्त्र किस प्रकार बिना किसी बुद्धिमान सत्ता का आधार लिये—क्यों कर चलता रह सकता है? यह प्रश्न पिछड़े कहे जाने वालों से लेकर प्रगतिशीलों तक को समान रूप से संक्षोभ उत्पन्न करता है। प्रमाण रहित को क्या मानें? तर्क उचित है। पर न मानने की बात तो और भी अधिक भारी पड़ती है। निकलने का बहुत प्रयत्न करने पर भी वह गले में ही अटकी रह जाती है।

अणु से लेकर सौर-मण्डलों तक का प्रत्येक छोटा-बड़ा घटक अपने नियत कर्तव्य उत्तरदायित्व को तत्परतापूर्वक निर्वाह करने में संलग्न है। उनके बीच सघन सहयोग काम कर रहा है। नीति-शास्त्र और समाज-शास्त्र के जो सिद्धान्त मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक सिखाये जाते हैं उन्हें जड़ कहे जाने वाले पदार्थ अधिक अच्छी तरह समझे और अपनाये हुए हैं, इस तथ्य को जितना स्पष्ट अब अनुभव किया जा रहा है उतना पहले कभी नहीं किया गया था। ऐसी दशा में बुद्धि को सृष्टा के अस्तित्व को स्वीकृत करने वाली पूर्व घोषणा पर पुनर्विचार करना पड़ रहा है।

एक के बाद एक प्रमाण इस स्तर के मिल रहे हैं जिनसे इस ब्रह्माण्ड में एक व्यापक चेतन तत्व का समुद्र भरा हुआ सिद्ध होता है। जैसे शब्द, ताप, ध्वनि प्रवाह ईथर के महासागर में दौड़ लगाते हैं। ठीक इसी प्रकार चेतना का भी अपना प्रभाव और क्षेत्र है। विचार और भावना तत्व किसी भौतिक शक्ति से कम समर्थ नहीं है। उनकी प्रतिक्रिया मनःस्थिति पर ही नहीं परिस्थिति पर भी समान रूप से होती है। सृष्टि सन्तुलन का नियन्त्रण समष्टि मन करता है। यह नवीनतम वैज्ञानिक शोधों का परिणाम है। इसे प्रकारान्तर से ब्रह्म सत्ता की स्वीकृति ही कह सकते हैं।

विज्ञान ने जड़ के अन्तराल में समाई हुई एक ऐसी शक्ति को स्वीकार किया है जो व्यापक भी है और बुद्धिमान भी। यह प्राकृतिक है या आध्यात्मिक इस प्रश्न पर विचार करने का अभी समय नहीं आया, पर ‘ब्रह्माण्डीय चेतना’ अस्तित्व अब विज्ञान क्षेत्र में मान्यता प्राप्त करता चला जा रहा है। इस सर्वव्यापी चेतना ने सृष्टि की हलचलों के साथ स्नेह, सौन्दर्य एवं आनन्द की अनुभूति जुड़ी रह सके और जीवधारी इस प्रवास यात्रा का समुचित आनन्द ले सकें ऐसी व्यवस्था भी जोड़कर रखी हुई है। उत्पादन, अभिवर्धन, ढलान और परिवर्तन का चक्र अपनी धुरी पर घूमता है। ग्रह-नक्षत्रों से लेकर अणु-परमाणु तक छोटे-बड़े सृष्टि घटक अपने निर्धारित गति चक्र में तत्परतापूर्वक भ्रमण करते हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया सुनिश्चित है। पेण्डुलम की तरह यहां आगे बढ़ना और पीछे हटना भी होता रहता है। लगता है किसी ने बुद्धि रहित अनगढ़ सृष्टि नहीं रची है, वरन् उसके पीछे सुव्यवस्था के ऐसे तार कस दिये हैं कि गड़बड़ी होते-होते स्वयमेव संभल जाती है।

आइन्स्टाइन जैसे विचारशील व्यक्ति इसलिए उस अदृश्य सत्ता की अनुभूति कर कह उठते हैं—‘‘पदार्थ की सूक्ष्मतर सत्ता तक पहुंचकर मेरी कल्पना शक्ति एवं अनुभव शक्ति इस विश्वास को जन्म देती है कि वहां विचार एवं परिवर्तन करने वाली कोई चेतन-सत्ता पहले से ही विद्यमान है। मैंने तो बस उस चेतन-सत्ता के साथ एकाकारिता की स्थिति प्राप्त कर ही इस सूक्ष्मतर सत्ता का बोध प्राप्त किया है। अब मुझे विश्वास होने लगा है कि यह चेतन-सत्ता अदृश्य जगत की सूक्ष्म, किन्तु महान् शक्तिशाली सत्ता है।’’

जीवन की सृजनात्मक प्रक्रिया के प्रारम्भ होने की तो विज्ञान यह व्याख्या कर सकता है कि ‘‘एमीनो एसिड प्रोटीन’’ नामक पदार्थ ने सहसा अपने पड़ौसी तत्वों को अपनी ओर आकर्षित करना और पचाना प्रारम्भ कर दिया, लेकिन ऐसा क्यों और कब हुआ, इसका उत्तर विज्ञान नहीं दें पाया है? प्रोटीन, न्यूट्रोन, इलेक्ट्रोन अथवा इनसे भी सूक्ष्म प्रकृति का कोई तत्व, जिसके साथ उसे गतिशील करने वाली शक्ति अदृश्य रूप से घुली हुई है, परस्पर सम्बद्ध और अन्तर्निविष्ट है। अस्तित्व चाहे वह ईश्वर का हो, प्रकृति का अथवा बुद्धि का, पूर्णतः अविभाज्य है। इसका प्रत्येक अंश सूक्ष्म है, अदृश्य है और इन्द्रियानुभूति से परे है। इसका प्रत्येक अंश दूसरे को प्रभावित कर रहा है और प्रत्येक दूसरे अंश से प्रभावित हो रहा है।

जड़ के अन्तराल में काम करने वाली चेतना को पिछली शताब्दियों की तुलना में अब अधिक अच्छी तरह समझ सकने के लिए साधन बने और आधार खप हुये हैं। शरीर में काम करने वाले जीवाणुओं की संरचना और क्रिया-पद्धति को समझने का प्रयत्न होता है कि इनके भीतर मात्र गति ही नहीं बुद्धिमत्ता एवं इच्छाशक्ति ही काम कर रही है। जड़ के अन्तराल में सक्रिय चेतना

शरीर का प्रत्येक जीवाणु स्वतन्त्र चिन्तन की भी क्षमता रखता है। लेकिन सम्पूर्ण शरीर के निर्माण के लिये शरीरस्थ सभी जीवाणु मिलकर कार्य करते हैं। इनका नेतृत्व करता है ‘सुपरईगो’ या अहं-तत्व। वही सबका संचालक निर्देशक है। वह कमाण्डर है, लेकिन फौज के प्रत्येक जवान में, शरीरस्थ हर एक जीवाणु में स्वतंत्र विचार-शक्ति भी है। उन्हें मालूम है कि हमारे लक्ष्य की प्राप्ति तभी सम्भव है जब हम नेता का, कमाण्डर का, अहं-तत्व का निर्देश पूरी तरह मानें। यह बोध उन्हें समर्पण की प्रेरणा देता है। समर्पण की दिव्य भावना से निरन्तर क्रियाशील प्रत्येक जीवाणु ‘अहं’ की आज्ञा का ही अनुसरण करते हैं। इस ‘मैं’ का सुख ही, सभी जीवाणुओं का सुख और उसका दुःख, सबका दुःख बन जाता है। ‘मैं’ की विचार विद्युत शरीर के सभी जीवाणुओं में तीव्रतम वेग से कौंध जाती है। ‘मैं’ का उल्लास, उत्साह उन्हें स्फूर्ति, उमंग और ओज से भर देता है और ‘मैं’ की हताश-निराशा उन्हें पीत-मुख श्लथ-तन, उदास और निष्क्रिय बना जाती है। मानो हर जीवाणु एक छोटा स्टेशन है जो अपने मुख्य स्टेशन ‘अहं-तत्व’ से जुड़ा है।

मस्तिष्क के जीवाणु अन्य देहांगों के जीवाणुओं से अधिक प्राणशक्ति सम्पन्न होते हैं। उनमें सुदीर्घ अनुभवों की स्मृतियां संचित होती हैं अतः वे सभी जीवाणुओं के नेता होते हैं। किन्तु देह के सभी जीवाणु परस्पर एक-दूसरे से सम्बद्ध होते हैं। तीव्र क्षुधा-ज्वाला से दग्ध एक व्यक्ति सुस्वादु व्यंजनों के थाल के सामने बैठकर पहला ग्रास तोड़ता है कि तभी उसके किसी परम आत्मीय की मृत्यु की सूचना स्वरूप टेलीग्राम उसे मिलता है। तार पढ़ते ही उस व्यक्ति का हृदय जैसे निष्प्राण हो जाता है। शरीर के सभी अंगों में ऐंठन-सी मच जाती है। लगता है जैसे पूरे शरीर की ज्योति अत्यन्त मन्द हो चली है। भूख का कहीं अता-पता नहीं। जीभ सूख जाती है। मस्तिष्क में एक स्तब्धता-सी छाने लगती है। अब विचार करें कि क्षुधा को शान्त करने की तीव्र प्रेरणा देने वाले जीवाणुओं का वह जोश कहां खो गया? वे भी मन मस्तिष्क के घनीभूत विषाद से समरस हो गये और अपनी प्रचण्ड आकांक्षा तक भुला बैठे।

इसमें दो निष्कर्ष हमारे सामने आते हैं। पहला यह कि अपनी अन्तश्चेतना ही शरीर के समस्त जीवाणुओं पर प्रभाव डालती है। अतः इन जीवाणुओं को पुष्ट, प्रसन्न, प्रफुल्ल और प्रगतिशील रखने के लिए चित्त में स्फूर्ति और उल्लास का सातत्य आवश्यक है। मन की दरिद्रता, दैन्य या दुराशा देह भर में जीवाणुओं के क्षोभ व क्षीणता का कारण बनती है। अपने शरीर के अंगों और जीवाणुओं पर सदा सन्देह कीजिये मत। अन्यथा वे सचमुच ही संदिग्ध व संकीर्ण बुद्धि के, शिथिल और सिमटे हुये से अर्थात् अल्प प्राण हो जायेंगे। अपने आप पर विश्वास करें। यह आत्म-विश्वास उन्हें अदम्य स्फूर्ति, उल्लास और आवेग देगा। वे प्रस्तुत बाधाओं को चीरते हुए, शरीर को स्वस्थ, प्रसन्न रखने के लिए सदा सक्रिय रहेंगे।

शरीर का कोई भी अंग काटकर शरीर से अलग कर लिया जाये और फिर उसे किसी विषैले रसायन या घातक औषधि के समीप रखा जाये, तो उस कटे अंग के अणुओं में एक तीव्र हलचल मच उठेगी और वे अपनी शक्ति भर उससे दूर जाने की कोशिश करेंगे। इस प्रयास में वह कटा हुआ अंग उक्त घातक औषधि या जहरीले रसायन से तनिक-सा दूर स्वतः ही सरक सकता है। इस तरह, यदि कोई लाभदायक औषधि या पुष्टिकर रसायन के पास ऐसा कटा हुआ अंग रखा जाय, तो उसके अणु ऐसी औषधि या रसायन के निकट खिंचने की चेष्टा करेंगे। इससे स्पष्ट है कि शरीरस्थ अणुओं में भी विचार-शक्ति है।

सामान्यतः मस्तिष्क को बुद्धि का एकमात्र स्थान माना जाता है। किन्तु बुद्धि वस्तुतः एक वैद्युतिक ऊर्जा है वह सम्पूर्ण शरीर में परिव्याप्त है। मस्तिष्क उसका मुख्यालय थी मात्र शरीर की दृष्टि से ही। क्योंकि स्वयं मस्तिष्क विश्व की चेतना ऊर्मियों से प्रतिपल प्रभावित होता है।

धातुओं, पाषाण आदि में भी प्रसुप्त चेतना पाई गई है। जड़-पदार्थों को भी अति न्यून जीवनी शक्ति सम्पन्न प्राणी कहा जा सकता है। प्रत्येक जड़-पदार्थ में चेतन की इस झांकी को उसकी विकास-आकांक्षा कहा जा सकता है। ऐसा परिलक्षित होता है कि सभी जड़ तत्व चेतना का स्तर अधिकाधिक विकसित करने का निरन्तर प्रयास कर रहे हैं। धातुओं में जंग लगना, पानी की सतह पर काई उत्पन्न होना, जल-जन्तुओं का उद्भव, वनस्पति में जीव-जन्तुओं का उत्पन्न होना, मिट्टी से उर्वरक जीवाणुओं का पाया जाना, पत्थर से शिलाजीत जैसे पदार्थों का निकलता यह बताता है कि इनमें भी जीवन मौजूद है और वह क्रमशः शैशव, यौवन, वृद्धता एवं मृत्यु की धुरी पर अपनी निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार भ्रमण कर रहे हैं।

वृक्ष वनस्पतियों का जीवन-क्रम भी अन्य प्राणियों जैसा ही है। उन्हें स्थिर एवं पिछड़े कहा जाना तो ठीक हो सकता है, पर यह सोचना गलत है कि उनमें अनुभूतियों एवं सम्वेदनाओं का सर्वथा अभाव है। भारत के मूर्धन्य वैज्ञानिक जगदीश बोस ने यह सिद्ध किया था कि पौधे भी सोचते, इच्छा करते और परिस्थितियों से प्रभावित होकर सुख-दुःख मानते हैं। संगीत और शोर का जो भला-बुरा प्रभाव वनस्पतियों पर पड़ता है उसने भी यही सिद्ध किया है कि उनमें भी सम्वेदना मौजूद है। स्तर न्यूनाधिक हो सकता है, पर वैज्ञानिकों की भाषा में नया नामकरण मिली ‘ब्रह्माण्डीय चेतना’ का—पुरातन अध्यात्म की भाषा में पुकारी जाने वाली—ब्रह्म-सत्ता का अभाव कहीं नहीं। इतने व्यापक और प्रत्यक्ष अनुभव होने वाले तत्व को प्रयोगशाला में सिद्ध न होने के कारण अस्तित्वहीन करार देना बल-बुद्धि का द्योतक है? विज्ञान को भी अपनी भूल को सुधार कर यह कहने के लिये बाध्य होना पड़ा है कि वह तत्व प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं हुआ, फिर भी किसी विचारवान् और बुद्धिमान नियामक सत्ता का अभाव नहीं। दर्शन क्षेत्र में ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने के लिए यह आधार ही काफी है कि सृष्टि के प्रत्येक घटक को एक नियम और क्रम के बन्धन में बंधकर रहना पड़ रहा है। कभी-कभी भूकम्प, तूफान उल्कापात जैसी घटनायें—प्राणियों के पेट से विचित्र आकृति-प्रकृति की सन्तानों का होना जैसे व्यतिक्रम दीख पड़ते हैं, पर गहराई से विचार करने पर वे भी ऐसे नियम कानूनों के आधार पर होते हैं जिन्हें आमतौर से नहीं जानते पर वे अपना काम करते हैं और जब अवसर आते हैं तो विलक्षण स्थिति उत्पन्न करते हैं। ‘दि मिस्टीरियस युनीवर्स’ ग्रन्थ के लेखक सर जेम्स जीन्स ने अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि—‘‘इस ब्रह्माण्ड का सृष्टा कोई विशुद्ध गणितज्ञ रहा होगा। उसने न केवल मानव प्राणी की वरन् अन्य सभी जड़-चेतन कहे जाने वाले प्राणियों और पदार्थों की संरचना में गणित की उच्चस्तरीय विद्या का पूरी तरह प्रयोग किया है। यदि इसमें कहीं कोई भूल रह जाती तो हर चीज बनने से पूर्व ही बिखर जाती। प्राणी जीवन धारण करने से पूर्व ही मर जाते और ग्रह-पिण्ड अपना पूर्ण रूप बनाने से पूर्व ही एक-दूसरे के साथ टकरा कर चूर-चूर हो जाते। यह सृष्टा के गणित ज्ञान का चमत्कार ही है कि न केवल पृथ्वी वरन् समस्त ब्रह्माण्ड एक क्रमबद्ध प्रक्रिया के साथ गतिशील है।’’

न्यूटन की खोजें किसी समय अत्यन्त सत्य मानी गई थीं, पर अब परिपुष्ट विज्ञान ने उन्हें क्षुद्र, असामयिक एवं व्यर्थ सिद्ध कर दिया है। गुरुत्वाकर्षण की खोज किसी समय एक अद्भुत उपलब्धि थी अब आइन्स्टीन का नवीनतम सिद्धान्त प्रामाणिक माना गया है और गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त को बाल-विनोद ठहराया गया है। आइन्स्टीन के अनुसार देश, काल और एकीकरण की—‘‘स्पेश टाइम और काजेशन’’—के एकीकरण सिद्धान्त की एक वक्राकृति मात्र है जिसे हम पृथ्वी का घुमाव मानते हैं। यह इस वक्रता के दो उपांशों का आनुपातिक सम्बन्ध भर है। इसी से पृथ्वी घूमती दीखती है और उसकी गतिशीलता की अनुभूति में एक कड़ी गुरुत्वाकर्षण की भी जुड़ जाती है। यह आकर्षण तथ्य नहीं वरन् हलचलों की एक भोंड़ी-सी अनुभूति मात्र है।’’

कोई चित्रकार यदि अन्य किसी ग्रह पर बैठकर पृथ्वी का रंगीन चित्र बनाये तो वह रंग-बिरंगे दृश्यों का एक समतल दृश्य ही होगा। पूरा गोला इस तरह बनाया जाना असम्भव है जो दोनों ओर की स्थिति को एक साथ दिखा सके। कल तक लम्बाई-चौड़ाई बताने वाले चित्र ही तैयार होते थे—गहराई का आभास उनसे यत्किंचित् ही होता था। अब ‘थ्री डाइमेन्शन’ स्थिति देखने की भी सुविधा बन चली है और गहराई को देख सकना भी सम्भव हो गया है। आगे चित्रकला के विकास में कई और डायमेन्शन जुड़ेंगे, पर अभी तो वे सम्भव नहीं। इसलिए जो भी चित्र बने हैं वे अधूरी दृश्य प्रक्रिया पर निर्भर हैं। अन्य ग्रह पर बैठकर बनाया गया पृथ्वी का चित्र यहां की हलचलों की सही जानकारी दें सके यह सम्भव नहीं। भले ही उस ग्रह के निवासी उस चित्र को कितना ही सर्वांगपूर्ण क्यों न माने।

हमारे पूर्वज धरती को समतल मानते थे। पीछे पता चला कि वह गोल है। इसके बाद यह जाना गया कि वह घूमती भी है और परिक्रमा भी करती है। इसके उपरान्त यह जाना गया कि वह अपने अधिष्ठाता के साथ अन्य भाइयों के साथ किसी महासूर्य की परिक्रमा के लिये भी दौड़ी जा रही है और वह महासूर्य किसी अतिसूर्य की परिक्रमा में निरत है। अपने सौरमण्डल जैसे अन्य कितने ही सौरमंडल उस महासूर्य सहित अतिसूर्य की प्रदिक्षणा में निरत हैं। मालूम नहीं यह महा—अति और अत्यन्त अति का सिलसिला कहां जाकर समाप्त हो रहा होगा और पृथ्वी के भ्रमण की कितनी हलचलों का भाग्य उन अचिन्त्य—परिक्रमाओं के साथ जुड़ा होगा। कुछ दिन पूर्व यह भी पता लगा है कि पृथ्वी लहकती और थिरकती भी है। सीधे-साधे ढंग से अपनी धुरी पर घूमती भर नहीं है वरन् वह कई प्रकार की कलाबाजियां भी दिखाती है। सांस लेती हुई फूलती और पिचकती भी है इससे उसके भ्रमणशीलता में अन्तर आता है तदनुसार गुरुत्वाकर्षण भी घटता-बढ़ता है।

विज्ञान अभी अपना बचपन भी पार नहीं कर पाया कि उसे अपने विषय की गहराई दिनोंदिन अधिक दुरूह प्रतीत होती जा रही है। पिछले दिनों विज्ञान ने जो भी दावे छाती ठोक कर किये थे, उनमें से कितने ही दावे अब झूठे सिद्ध हो चुके हैं। इतना ही नहीं पदार्थ और प्रकृति का रहस्य समझ लेने वाला दावा भी अब मिथ्या सिद्ध हुआ है। पहले समझा जाता था कि पदार्थ स्थिर है परन्तु अब पता चला है कि एक कंकड़ में भी करोड़ों अरबों परमाणु अपने नाभिक के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। घोषित किया गया है कि पदार्थ की सबसे छोटी इकाई इलेक्ट्रोन है। इस सबसे छोटी इकाई का प्रत्यक्षीकरण अब तक किसी भी यन्त्र से नहीं किया जा सका है, न उसकी निकट भविष्य में कोई सम्भावना ही बतायी जाती है। वह मात्र एक परिकल्पना है जिसे ‘रूप हीन’ कहकर पिण्ड छुड़ाया गया है। इस की गतिविधियां तो नोट करली गई हैं, पर वे क्यों होती हैं इन हलचलों के लिये उन्हें प्रेरणा एवं क्षमता कहां से मिलती है। खर्च होने वाली शक्ति की वे पूर्ति कहां से करती हैं इसका कोई उत्तर प्राप्त नहीं किया जा सका। अणु विज्ञान के मूर्धन्य मनीषी आइन्स्टीन और मैक्स प्लैक तक इस सम्बन्ध में चुप हैं और यह सोचते हैं कि भौतिक सत्ता के ऊपर कोई अभौतिक सत्ता छाई हुई है। यह अभौतिक सत्ता क्या हो सकती है और उसका उद्देश्य एवं क्रिया-कलाप क्या होना चाहिए यह खोज पाना अभी विज्ञान के लिए बहुत आगे की बात है।

परमाणु परिवार से लेकर सौर मण्डल और ब्रह्माण्ड संव्याप्त ग्रहपिण्ड परिकर के बारे में हम अभी इतना भी नहीं जानते जितना कि सारे शरीर की तुलना में एक बाल। हम केवल पंचतत्वों से बने हुये स्थूल पदार्थों के बारे में ही थोड़ी बहुत जानकारी प्रयोगशालाओं के माध्यम से प्राप्त कर सके हैं। जीव सत्ता—मस्तिष्कीय सम्भावना, अचेतन मन की अतीन्द्रिय शक्ति के अगणित प्रमाण होते हुए भी अभी वैज्ञानिक व्याख्या नहीं हो सकी है। असंख्य क्षेत्रों की जानकारियां अभी प्रारम्भिक अवस्था को भी पार नहीं कर सकती हैं। ऐसी दशा में यदि ईश्वर जैसा अति सूक्ष्म तत्व प्रयोगशालाओं की पकड़ में नहीं आया तो यह नहीं कहा जाना चाहिये कि वह नहीं है। तत्वदर्शी दृष्टि से हम उसकी सत्ता महत्ता और व्यवस्था सहज ही सर्वत्र बिखरी देख सकते हैं और उस पर श्रद्धा भरा विश्वास कर सकते हैं।

ईश्वर क्या है?

इसी तत्वदर्शी दृष्टि से देखने पर वैज्ञानिकों ने भी ईश्वर की सत्ता को प्रत्यक्ष अनुभव किया है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन के सम्बन्ध में विख्यात था कि वे ईश्वर उपासना में भी उतनी ही रुचि लेते और लगन रखते थे जितनी कि वैज्ञानिक प्रयोगों में। एक बार उनके किसी मित्र ने उनसे पूछा—‘‘आप वैज्ञानिक होकर भी ईश्वर की उपासना करते हो, जबकि कई वैज्ञानिक तो ईश्वर के अस्तित्व को ही संदिग्ध बताते हैं। अतएव आप अधिक प्रामाणिक ढंग से बता सकते हैं ईश्वर क्या है?

‘‘ज्ञान’’ न्यूटन ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया। हमारा मस्तिष्क ज्ञान की खोज में जहां पहुंचता है वहीं उसे शाश्वत चेतना का ज्ञान होता है। कण-कण में जो ज्ञान की अनुभूति भरी पड़ी है वह परमात्मा का ही स्वरूप है। ज्ञान की ही शक्ति से संसार का नियन्त्रण होता है। विनाश के लिए भी ज्ञान की ही आवश्यकता है। परमात्मा इसी रूप में सर्व शक्तिमान है।

स्पिनोजा ने विज्ञान और दर्शन दोनों का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि संसार में दो प्रकार की सत्ताएं काम कर रही हैं। एक दृश्य है—एक अदृश्य। एक का नाम है प्रकृति या पदार्थ। एक अदृश्य—अपदार्थ अथवा विचार। मृत्यु के अन्तिम क्षणों तक विचार प्रक्रिया का बने रहना और मृत्यु के तुरन्त बाद समाप्त हो जाना इस तथ्य का द्योतक है कि जिस तरह पदार्थ अर्थात् धातुएं खनिजों, लवणों, गैसों आदि से बना शरीर मृत्यु के बाद सड़-गलकर अपने-अपने तत्व से जा मिलता है, उसी तरह विचार अपनी प्रणाली में जा मिलते हैं विचार कभी नष्ट नहीं होते उससे यह सिद्ध होता है कि अविनाशी विचारों की केन्द्रीभूत सत्ता ही परमात्मा है। विचारों को भौतिक दृष्ट से ‘‘जीन्स’’ का सत्व माना जाये तो वैज्ञानिक विचार से भी विचारों की अमर सत्ता है और दार्शनिक दृष्टि से देखा जाये तो भी उनका अस्तित्व भी कभी नष्ट नहीं होता। विचार अवचेतन मन से आते हैं। कब किस विचार के स्पन्दन मन में उमड़ने लगें यह मनुष्य नियन्त्रण में नहीं आते इससे भी प्रकट है कि अविनाशी तरंगें सूक्ष्म जगत में लहराती रहती हैं और मस्तिष्क के किसी भाग से स्वसंचालित व्यवस्था की तरह उमड़ते रहते हैं।

वैज्ञानिक हीगल के मतानुसार परमात्मा सामान्य इच्छाओं से अत्यधिक समुन्नत श्रेणी की इच्छाओं को भी नियन्त्रण में रखने वाला परम विचार (अब्सोल्यूट आइडिया) बताया है। वे लिखते हैं जिस तरह सामान्य श्रेणी से उच्च विद्वान लोग अपने ज्ञान से नये-नये विचारों और भावनाओं का स्वयं ही निर्माण करते हैं उन विचारों के अनुसार उन्नत श्रेणी की रचनाएं या वैज्ञानिक अनुसन्धान कर सकने में सक्षम होते हैं उसी तरह ‘‘परम विचार’’ अति विशिष्ट रचनाएं और वैज्ञानिक अनुसन्धान करने में समर्थ हैं तभी तो उसका बनाया संसार इतना सुन्दर और उसके बनाये जीव-जन्तु अत्यधिक उन्नत श्रेणी के यन्त्रों से भी श्रेष्ठ ठहरते हैं। इस सन्दर्भ में मनुष्य शरीर की रचना उसका अत्यन्त उच्च कोटि का शिल्प और कलाकारिता कही जा सकती है।

सन्त इमर्सन और वर्कले के मत में सब आत्माओं में श्रेष्ठ शक्ति का नाम ही परमात्मा है। सारा संसार कहीं से प्राण और चेतना उधार ले रहा है। प्राण और चेतना अपने मूल रूप में एक जैसी ही है। मनुष्य व जीवों में एक जैसा स्पन्दन, आहार, निद्रा, भय, मैथुन के एक से क्रियाकलाप हैं। जिस तरह एक विद्युत घर से प्रवाहित विद्युत भार ही अनेक विद्युत बल्बों में प्रकाशित दृश्यमान होता है उसी तरह उधार ली गई यह चेतना जिस मूल उद्गम से निस्रत होती है उसी का नाम परमात्मा है। यदि आत्माओं का स्वरूप प्रकाश है तो परमेश्वर भी निःसन्देह प्रकार है। यदि ‘‘प्राण’’ अग्नि रूप है तो जगत नियन्ता भी अग्नि रूप होना चाहिए।

आइन्स्टीन का सापेक्षवाद सिद्धान्त और वेदान्त का ‘‘माया वाद’’ वस्तुतः एक ही व्याख्या के दो प्रकार हैं। वेदान्त ‘‘ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या’’ कहता है तो आइन्स्टीन ने जगत को ‘‘समय, ब्रह्माण्ड गति और कारण’’नाम दिया है। आइन्स्टीन कहते हैं—समय नाम की कोई सत्ता नहीं है, घटनाओं के तारतम्य को ही समय कह सकते हैं। घड़ी की सुई एक प्वाइन्ट से दूसरे प्वाइन्ट तक चली उसे 1 मिनट कह दिया। सूर्य ने एक गोलार्द्ध पार कर लिया यह हमारे लिए 12 घण्टे हो गये, पर सूर्य ने एक गोलार्द्ध पार कर लिया यह हमारे लिए 12 घण्टे हो गये, पर सूर्य के लिए तो वह निमिष मात्र ही हुआ जैसे-जैसे घटनाओं का विराट् बढ़ता है समय संकुचित होता जाता है एक स्थान ऐसा आता है जहां भूत भविष्य और वर्तमान सब एकाकार हो जाते हैं, इसी तरह गतियां परस्पर सापेक्ष हैं और परम-गति की स्थिति में वे सभी निस्तब्ध हैं, ब्रह्माण्ड कोई भी अपने आप में पूर्ण नहीं, सभी एक दूसरे से सापेक्ष हैं वे सब एक महा ब्रह्मांड में जाकर स्थिर हो जाते हैं इसी तरह ‘‘कारण’’ सभी सापेक्ष हैं एक से दूसरे कारण की खोज करते चलें तो एक ऐसे महा कारण तक जा पहुंचते हैं जो समस्त सृष्टि की रचना का मूलाधार है। अब इस मूल तत्व को किस तरह अनुभव किया जाये उसके लिए आइन्स्टीन कहते हैं कि वहां ज्ञान के अतिरिक्त कुछ नहीं ठहरता इसी को वेदान्त में अनुभव गम्य स्थिति कहा है। आइन्स्टीन के इस सिद्धान्त की कई विलक्षणताएं हैं। जैसे उनका कथन है कि इस बिन्दु से जो वस्तु आज चलेगी वह कल वहां पहुंच जायेगी। हमारे दर्शन में प्रयुक्त हुआ कालातीत और आइन्स्टीन के इस सिद्धान्त में कोई अन्तर नहीं। यदि उसे समझा जा सके तो ब्रह्म को समझना गणित के समीकरण की तरह सरल और आसान है। उपनिषद् के—अहं ब्रह्मास्मि, अयमात्मा ब्रह्म, तत्वमसि इसी सत्य के दार्शनिक भाव मात्र हैं। इसे ही वैज्ञानिक यूकन ने आध्यात्मिक जीवन का आधार कहा है।

1937 में प्रकाशित ‘‘दि मिस्टीरियस यूनिवर्स’’ नामक पुस्तक और ‘‘दि न्यू बैक ग्राउण्ड आफ साइन्स’’ में सर जेम्स जीन्स ने लिखा है—‘‘उन्नीसवीं शताब्दी के विज्ञान में पदार्थ और जगत—ऊंचे सिद्धान्त माने जाते थे, अब हम उनसे दूर होते चले जायेंगे। अब जो नये तथ्य प्रकाश में आ रहे हैं उनसे हम विवश हैं कि प्रारम्भ में शीघ्रता में आकर हमने जो धारणा बना ली थी, उसे अब फिर से जांचे। अब मालूम होता है कि जिस जड़ पदार्थ को शाश्वत सत्य मानकर बैठे थे वह भ्रम है पदार्थ मन या आत्मा से पैदा हुआ है और उसी का ही रूप है। दृश्य जगत का संचालन रासायनिक नहीं यह सूत्र किसी महान अदृश्य चेतन सत्ता के साथ है यह तथ्य देर तक झुठलाया नहीं जा सकता। ‘‘साशेल एनविरानमेण्ट्स एण्ड मारल प्रोगेस’’ पुस्तक में चार्ल्स डारविन के मित्र जो कभी डारविन के अनन्य समर्थक थे लिखा है कि ‘‘मुझे विश्वास है कि चेतना (आत्मा) ही पदार्थ का हस्तान्तरण करती है।’’

सर आलिवर लाज ने ‘‘आत्मा और मृत्यु’’ विषय पर भाषण करते हुए 1930 में ब्रिस्टल में कहा था—‘‘यह सच है कि हम सब चेतन जगत में जी रहे हैं। यह चेतना शक्ति पदार्थ पर हावी है। पदार्थ उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’’

सर ए.एस. एडिंग्टन का कथन है कि—‘‘हम इस निष्कर्ष पर पहुंच गये हैं कि एक असाधारण शक्ति काम कर रही है, पर हम नहीं जानते वह क्या कर रही है।’’ 1934 में प्रकाशित पुस्तक ‘‘दि ग्रेट डिजाइन’’ में विश्व के 14 प्रख्यात विज्ञानाचार्यों का संयुक्त प्रतिवेदन प्रकाशित हुआ है—इस संसार को एक मशीन कहें तो यह मानना पड़ेगा कि वह अनायास ही नहीं बन गई, वरन् पदार्थ से भी सूक्ष्म मस्तिष्क और चेतना शक्ति उसका नियन्त्रण कर रही है।

वैज्ञानिकों, विचारकों दार्शनिकों के यह कथन भ्रान्त प्रलाप नहीं ठहराये जा सकते। यह प्रतिपादन अनुभूतियों और तथ्यों की ठोस शिला पर आधारित हैं। ब्रह्म की सत्ता दृश्य जगत का प्राण है उनके बिना इतना व्यवस्थित विश्व कभी भी सम्भव नहीं हो सकता था।
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