चेतना का सहज स्वभाव स्नेह सहयोग

स्नेह निष्ठा और पारिवारिकता का अनुगमन

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परिवार मनुष्य का पहली प्रयोगशाला है जहां वह स्नेह, त्याग, सेवा और सहिष्णुता का अभ्यास आरम्भ करता है। यह नहीं सोचना चाहिए कि परिवार मनुष्य की अपने मौलिक रचना है। सृष्टि के अन्यान्य प्राणियों में भी पारिवारिकता, दाम्पत्य जीवन में परस्पर निष्ठा उत्सर्ग और त्याग की भावनायें देखी जा सकती हैं। गृहस्थ जीवन में अपने सुख-स्वार्थ के अत्यधिक आग्रह से उत्पन्न होने वाले अनर्थों का यदि कहीं समाधान खोजना हो तो उन जीव जन्तुओं के पारिवारिक जीवन का अध्ययन करना चाहिए जो दाम्पत्य तथा गृहस्थ जीवन के आदर्श कहे जा सकते हैं।

मनुष्य को मनुष्य के निकट लाने और उसे घनिष्ठ सम्बन्ध सूत्रों में आबद्ध करने वाला एक ही तत्व है—भावनायें। यदि उस तत्व को निकाल दिया जाय तो फिर जो शेष बचेगा वह इतना घृणास्पद होगा कि उसे स्पर्श करना तो दूर कोई देखना भी पसन्द न करेगा। भाव सम्वेदनाएं ही हैं जो जीवन को जोड़कर रखती हैं, मनुष्य-मनुष्य के बीच मैत्री कायम रखती हैं, व्यवस्था बनाये रखती हैं, भावनाओं से रिक्त संसार में और मरघट में कोई अन्तर नहीं रह जाता। दूसरी ओर भावनाओं की शीतल छाया उपलब्ध हो तो लोग अभाव की स्थिति में भी आनन्दपूर्वक जीवन जीते हैं, भावनाएं न होतीं तो संसार बिखर गया होता, अब तक कभी न नष्ट-भ्रष्ट हो गया होता है। खेद है कि मनुष्य जीवन भौतिक आकर्षणों की भयंकर दौड़ में भाव विहीन होता जा रहा है जिससे साधन बढ़ने पर भी निराशा बढ़ रही है, बढ़ते हुए अपराध, तलाक, आत्म-हत्याएं इस तथ्य के प्रमाण हैं कि मनुष्य का हृदय रसा सूखता जा रहा है, यदि इस ओर मनुष्य जाति ने स्वयं ही रचनात्मक दृष्टि न डाली तो एक दिन उसका विनाश ही हो सकता है।

यह मनुष्य के लिए लज्जा की बात है कि उस जैसा विचारशील प्राणी जबकि इन मानवीय गुणों से रिक्त होता जा रहा है तब भी सृष्टि के दूसरे अबोध प्राणियों की भाव-सम्वेदना यथावत अक्षुण्ण है। मनुष्य मर्यादाशील, विचारशील प्राणी होने का दम भरता है, पर टूटते हुये दाम्पत्य सम्बन्ध, नष्ट होती पारिवारिक शान्ति, उच्छ्रंखल होती जा रही भावी पीढ़ियां और अराजकतापूर्ण सामाजिक सम्बन्ध यह बताते हैं कि हमारा जीवन-क्रम अशुद्ध होता जा रहा है हम चाहें तो अपने दूसरे भाइयों से सीखकर अपने कदम फिर पीछे लौटा सकते हैं।

‘‘डिक-डिक’’ जाति का हिरन एक पत्नी व्रती होता है। वह सदैव जोड़े में रहता है। अपने जीवन काल में वह कभी किसी अन्य हरिणी के साथ सहवास नहीं करता। शेर और हाथी के बारे में भी ऐसी ही बातें होती हैं। जोड़ा बनाने से पूर्व तो वह पूर्ण सतर्कता बरतते हैं, किन्तु एक बार जोड़ा बना लेने के बाद वे तब तक इस मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते जब तक कि नर या मादा में से, किसी एक की मृत्यु न हो जाये। मृत्यु के बाद भी कई ऐसे होते हैं, जो पुनर्विवाह की अपेक्षा विधुर जीवन व्यतीत करते हैं, पर उस स्थिति में उनकी सम्वेदना नष्ट हो जाती है और वे प्रायः बहुत अधिक खूंखार हो जाते हैं। उस स्थिति में भी वे जब कभी अपने मादा की याद में आंसू टपकाते दीखते हैं तो करुणा उभरे बिना नहीं रहती। तब पता चलता है जीवन का आनन्द भावनाओं में है पदार्थ में नहीं।

चिंपैंजिओं की भी पारिवारिक और दाम्पत्य निष्ठा मनुष्य के लिए एक उदाहरण है। यह अपना निवास पेड़ों पर बनाते हैं, जोड़ा बनाने के बाद चिंपैंजी अपने दाम्पत्य जीवन को निष्ठापूर्वक निबाहते हैं और किसी अन्य मादा या नर की ओर वे कभी भी आकृष्ट नहीं होते। नर अपने समस्त परिवार की रक्षा करता है जब वे वृक्ष पर बने विश्राम गृह में आराम करते हैं तो वह नीचे बैठकर उनकी पहरेदारी करता है, कर्तव्य भावना से ओत-प्रोत चिंपैंजी की तेजस्विता देखते ही बनती है। वस्तुतः अपनी जिम्मेदारियां भली प्रकार निभा ली जायें तो इससे बड़ी कोई अन्य साधना नहीं ‘‘योगः कर्मसु कौशलम्’’ का महा मन्त्र इसी तथ्य का तो बोध कराता है कि कर्त्तव्यों का पालन मनुष्य सम्पूर्ण निष्ठा के साथ करे।

जंगली बतखें भी पारिवारिक निष्ठा से ओत-प्रोत होती हैं अपनी जाति के अतिरिक्त यह बतखों की 140 लगभग जातियों में से किसी से भी सम्बन्ध नहीं बनातीं। जापानी मैण्डेरिन इनके बहुत अधिक समीप होती हैं, किन्तु जीव शास्त्रियों ने अनेक प्रयत्नों से भी उसने उससे मिलने से इन्कार कर दिया।

दाम्पत्य निष्ठा की तरह जीवों में नर-मादा का पारस्परिक प्यार भी भावपूर्ण होता है, जंगली भैंसे, हिरण, बारहसिंगे तथा सांभर भी अपनी मादा के सींगों से सींग रगड़ कर अपनी प्रेम भावना प्रदर्शित करते हैं। सिंह-सिंहनी को अपना पराक्रम दिखाकर आकर्षित करता है तो हाथी को अपनी सूंड उठाकर अपनी प्रेम भावना का परिचय देना पड़ता है। कुछ पक्षी तथा जीव-जन्तु सुरीले राग और आवाज से अपनी विरह व्यथा व्यक्त करते और प्रणय-याचना करते हैं। कुछ जीवों में नेत्रों से अभिव्यक्ति कर अपने प्रेम का परिचय देने का प्रचलन होता है, पर प्रेम की स्वाभाविक अभिव्यक्ति प्रत्येक जीव में होती है अतएव इसे एक सनातन तत्व के रूप में उसकी पवित्रता बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए। प्रेम प्रदर्शन की वस्तु नहीं वह आत्मा का भूषण है। अतएव वह जागृत किसी के भी प्रति हो पर प्रयास उसके सार्वभौमिक रूप की अनुभूति का ही हो तभी सार्थकता है।

विवाह से पूर्व नर और मादा रैवेन एक वर्ष तक लगातार साथ-साथ रहते हैं। मादा अपने लिये ऐसे नर का चुनाव करती है जिसमें नेतृत्व के गुण हों, जो साहसी हो, निर्भय हो, आलसी, दुर्बल, मूर्ख आदमियों की कौन पूछ करे, प्रकृति उद्योगी, साहसी और हिम्मत वालों का वरण करती है मादा रैवेन इस मामले में पूरी छान-बीन करके अपना फैसला देती है। यदि वह देखती है कि नर में नरोचित गुणों का अभाव है तो वह उसे छोड़कर किसी अन्य का वरण करती है। दहेज और कृत्रिम गुणों पर जिस तरह लड़कियां ठग ली जाती हैं रैवेन को ठगा जाना नितान्त असम्भव होता है।

कई बार नर और मादा भूल भटक जाते हैं। इन परिस्थितियों के लिये वे पहले से ही कुछ खास ध्वनियां निर्धारित कर लेते हैं जो उनकी जाति के किसी भी अन्य रैवेन को मालूम नहीं होती। उन्हीं के सहारे वे एक दूसरे को ढूंढ़ लेते हैं। एक बार परीक्षण के दौरान डा. ग्विनर एक कुत्ते की आवाज सुनकर चौंके उन्होंने देखा पास में कोई कुत्ता नहीं है फिर भौंकने की आवाज कहां से आ रही है। थोड़ी ही देर में पता चल गया कि एक रैवेन जिसका कि ‘‘सगाई काल’’ चल रहा था संकेत देकर अपने बिछड़े मंगेतर को बुला रहा था। थोड़ी ही देर में दोनों मिल गये।

विवाह के बाद भी मादा अपने दाम्पत्य अधिकार और स्वाभिमान के भाव को सुरक्षित रखती है। नारी होने के कारण अपना वर्चस्व खो दिया जाये यह बात कोई महिला स्वीकार भले ही कर ले रैवेन को स्वीकार नहीं। सम्बन्ध निश्चित कर लेने के बाद वह अपने रहने के उपयुक्त स्थान ढूंढ़ती है। नर मकान बनाता है यदि इस बीच मादा को वहां की परिस्थितियां अनुकूल न जान पड़ीं तो वह अन्य स्थान ढूंढ़ेगी। कई बार इस खोज में नर को कई अधूरे बने मकान छोड़कर बार-बार नये मकान बनाने पड़ते हैं। यह मादा की इच्छा पर है कि वह इनमें से किसी भी स्थान को चुने और उसमें रहने का अन्तिम फैसला करे।

ग्विनर लिखते हैं—कि पति और पत्नी के सम्बन्ध कैसे हैं, पारिवारिक जीवन में प्रेम, शान्ति, सुख और सुव्यवस्था है या नहीं इस बात का पता लगाना हो तो घर की, बच्चों की स्थिति देखकर पता लगाया जा सकता है। जिन घरों में प्रेम, मैत्री एवं सद्भाव होता है वे घर साफ, सुथरे सजे हुये। उसके बच्चे और सदस्य हंसते खेलते हुए होते हैं यही बात रैवेन के बारे में भी है उसका घोंसला देखकर बताया जा सकता है कि उनके पारिवारिक जीवन में प्रेम और सौहाद्र्य है अथवा नहीं।

पति रैवेन अपनी मादा के प्रति समर्पित और ‘‘एक नारी व्रत’’ का पालन करके मनुष्य जाति को शिक्षा देता है और एक प्रकार से उसकी कामुकता को धिक्कार कर कर्तव्य भाव की प्रेरणा देता है। अण्डे सेने के 18-19 दिन मादा लगातार घोंसले में बैठी रहती है उस अवधि में दाना लाकर पत्नी की चोंच में डालकर खिलाने का काम नर बड़ी भावना के साथ पूरा करता है। एक डच जूलाजिस्ट ने लिखा है कि एक बार—अण्डा सेने की अवधि में एक मादा रैवेन मर गई उस समय पति ने लगातार भूखे रहकर सन्तति पालन का बोझ उठाया और बच्चों को सेकर बड़ा करने से लेकर उन्हें उड़ना सिखाने तक का सारा उत्तरदायित्व अकेले निभाया।

वासना नहीं कर्तव्य भावना से प्रेरि

मनुष्य ही नहीं सृष्टि के हर जीव में प्रेम की प्यास अदम्य होती है। अमरीका के सैन डिगो चिड़िया घर की निर्देशिका बेले जे. वेनशला ने चिड़िया घर में अपने उन्नीस वर्ष के अनुभवों का जिक्र करते हुए लिखा है—मैंने वन्य पशुओं के जीवन में भी प्रेम की तड़प देखी, वे भी प्रेम से ही सीखते सिखाते हैं—एकबार चिड़िया घर की मादा भालू ने एक बच्चे को जन्म दिया उसका नाम टाकू रखा गया। भालू जितना क्रोधी प्रकृति का खूंखार जानवर है उससे अधिक उसमें वात्सल्य भाव देखा जा सकता है। देखने से लगता है संसार की विषम परिस्थितियों ने उसे क्रुद्ध होने को विवश न किया होता तो भालू संसार में सबसे अधिक स्नेह और ममता वाले स्वभाव का जीव होता। मादा चार माह तक बच्चे को पेट से चिपकाये गुफा में पड़ी रही। गुफा से वह बाहर भी नहीं निकली किन्तु फिर जैसे उसे याद आया कि बच्चे के प्रति प्रेम और वात्सल्य का यह तो अर्थ नहीं कि उसके आत्म-विकास को अवरुद्ध रखा जाये। मादा मांद से बाहर आई नन्हा शिशु उसके साथ-साथ बाहर निकला। मादा सीधे तालाब के पास पहुंची और पानी में उतर कर स्नान करने लगी। उसने अपने बच्चे को भी बहुतेरा पानी में उतरने को प्रेरित किया मुंह से तरह-तरह की आवाज निकालीं उससे प्रतीत होता मां उसे पानी में बुला रही है न आने के लिए उसमें गुस्सा भी है किन्तु वह अपनी प्यार भावना को भी दबा सकने में असमर्थ है, बच्चा अपनी मां के साथ खिलवाड़ करता है कभी-कभी किनारे पहुंच कर उसके बाल पकड़ कर बाहर खींचता है मानो वह मां को पानी में नहीं रहने देना चाहता पर मां जानती है कि आरोग्य के लिए बच्चे को स्नान करना आवश्यक है। ममतावश उसने कई बार बच्चे को छोड़ा पर उसे गुस्सा भी दिखाना पड़ा। वह नाराजी भी प्रेम का ही एक अंग थी, भगवान भी तो नाराज होकर अपनी बनाई सृष्टि अपने बच्चों को दण्ड देता है पर उसकी दण्ड प्रक्रिया भी उसके प्रेम का ही प्रतीक है। खराब से खराब सृष्टि को भी वह नष्ट करना नहीं चाहता उसे सुधार की आशा रहती है इसलिये वह अपनी उस साधना को न बन्द करते हुए भी अपनी सन्तान पर प्यार रखना नहीं भूलता। स्वयं भी रोता रहता है पर नाराज होकर सृष्टि को नष्ट कर डालने की बात उसके मन में कभी आई नहीं।

एक दिन मादा ने जबरदस्ती की और उसे पानी में पकड़ ही तो ले गई उसने अपने पंजों से बच्चे को अच्छी तरह धोकर स्नान कराया। कभी वह डूबने लगता तो मां उसे सतह से ऊपर उठा देती। धीरे-धीरे शिशु-संशय दूर हो गया और वह अपनी मां के साथ अच्छी तरह तैरना सीख गया।

‘स्टिकल-बैक’ नाम की एक मछली होती है, जो समुद्र में ही पाई जाती है। डा. लार्ड ने इस मछली की विभिन्न आदतों और क्रियाओं को बहुत सूक्ष्मता से अध्ययन किया। बैकोवर ने आइलैण्ड में महीनों रह-रहकर आपने इस मछली को जीवन पद्धति का अध्ययन किया और बताया कि मनुष्य चाहे तो इससे अपने पारिवारिक जीवन को सुखी और सुदृढ़ बनाने की महत्त्वपूर्ण शिक्षायें ले सकता है।

नर स्टिकल बैक अपना घर बसाने के लिए हुत पहले से तैयारी प्रारम्भ कर देता है। सबसे पहले सारे समुद्र में घूम-घूमकर वह कोई ऐसा स्थान ढूंढ़ निकालता है, जहां पर पानी न बहुत तेजी से बह रहा हो न बहुत धीरे। जगह शान्त एकान्त हो और वहां हर किसी का पहुंचना भी सम्भव न हो।

तत्परतापूर्वक ढूंढ़-खोज के बाद जब उपयुक्त स्थान मिल जाता है, तब स्टिकल बैक पत्नी के लिये सुन्दर घर बनाने की तैयारी करता है। इसके लिये उस बेचारे को कितना परिश्रम करना पड़ता है, यह बात अपने माता-पिता की पीठ पर चढ़े, विवाह की कामना करने वाले युवक भला क्या समझेंगे? स्टिकल बैक पानी में तैरती हुई छोटे-छोटे पौधों की नरम-नरम लकड़ियां, तैरते हुए पौधों की जड़ें इकट्ठी करता है और उन्हें चुने हुए स्थान पर ले जाता है। विवाह के शौकीन स्टिकल को पहले खूब परिश्रम और मजदूरी करनी पड़ती है। अपने शरीर से वह एक प्रकार का लसलसा पदार्थ निकालता है और एकत्रित सारी वस्तुओं को उसी में चिपका लेता है ताकि उसका इतना परिश्रम व्यर्थ न चला जाये। उसने जो लकड़ियां एकत्रित की हैं, वह अपने स्थान तक पहुंच जायें।

स्टिकल बैक पूरे आत्म-विश्वास के साथ काम करता है। सारा एकत्रित सामान मजबूती से चिपक गया है, इसका विश्वास करने के लिए वह अपने शरीर को फड़फड़ाता हुआ नाचता है, जैसे उसे परिश्रम में आनन्द लेने की आदत हो। जब एक बार विश्वास हो गया कि सामान गिरेगा नहीं, तब आगे बढ़ता है और पूर्व निर्धारित स्थान पर इस सामान से मकान बनाता है। शरीर का लसलसा पदार्थ यहां सीमेन्ट का काम करता है और लाई हुई लकड़ियां ईंट-पत्थरों का आगन्तुक वधू के लिए महल बनाकर एक बार वह उसे घूम-घूमकर देखता है। लगता है अभी वैभव में कुछ कमी रह गई। फिर वह रेत के बारीक टुकड़े मुख में भर कर लाता है और मकान के फर्श पर बिछाता है। कोठरी में कहीं टूट-फूट की गुंजाइश हो तो उसे ठीक करता है। सारा मकान वार्निस किया हुआ सा हो जाने के बाद ही उसे सन्तोष होता है। जब यह तैयारियां पूर्ण हुईं, तब वह स्वयं मादा की खोज में निकलता है। उसे दहेज और लेन-देन की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह जानता है, नारी-नर की अपनी आवश्यकता भी है, इसलिये प्रिय वस्तु को भरपूर स्वागत और सम्मान अपनी ओर से ही क्यों न दिया जाये। वह मनुष्यों की तरह का दम्भ और पाखण्ड प्रदर्शित नहीं करता।

उपयुक्त पत्नी मिल जाने पर वह उसे घर लाता है। पत्नी कुछ दिन में गर्भावस्था में आती है, तब यह उसे घूमने को भेजता रहता है, घर और अंडों की देख-भाल तब वह स्वयं ही करता है। यह उनके भोजन आदि का ही प्रबन्ध नहीं करता सुरक्षा के लिये दरवाजे पर कड़ा पहरा भी रखता है। मि. फ्रैंक बकलैण्ड ने इसकी कर्मठता का वर्णन करते हुए, लिखा है कि मकान में थोड़ी-सी भी गड़बड़ी हो तो यह उसे तुरन्त ठीक करता है।

स्टिकल बैक अपने बच्चों और पत्नी के पालन का उत्तरदायित्व पूरी सूझ समझ के साथ निबाहता है। वह उन्हें पर्दे में नहीं रखता। पर्याप्त ऑक्सीजन मिलती रहे, इसके लिए वह अपने मकान में दो दरवाजे रखता है। इससे वहां के पानी में बहाव बना रहता है और ताजी ऑक्सीजन मिलती रहती है, यदि बहाव रुक जाये तो वह तुरन्त शरीर फड़-फड़ाकर बहाव पैदा कर देता है, जिससे रुके हुए पानी की गन्दगी प्रभावित न कर पाये।

स्टिकल बैक का जीवन कितना कलात्मक और सुरुचि पूर्ण है। इधर बच्चे निकलने लगे, उधर उसने मकान के ऊपरी भाग छत को अलग करके एक बढ़िया झूला तैयार किया। मनुष्यों की तरह गुम-सुम का जीवन उसे पसन्द नहीं। झूला बनाकर उसमें बच्चों को भी झुलाता है और पत्नी को भी। स्वयं उस क्षेत्र में परेड करता रहता है, जिससे उसके आनन्द और खुशहाली की अभिव्यक्ति होती है पर दूसरे दुश्मन और बुरे तत्त्व डरकर भाग जाते हैं, जैसे कला प्रिय और सुरुचि पूर्ण सद्ग्रहस्थ से अवगुण दूर रहने से अशान्ति पास नहीं आती। बच्चे झूला छोड़कर इधर-उधर भागते हैं तो यह उन्हें बार-बार झूले में डाल देता है, जब तक बच्चे स्वयं समर्थ न हो जायें, यह उन्हें आवारागर्दी और कुसंगति में नहीं बैठने देता। अपनी रक्षा करने में जब वे समर्थ हो जाते हैं, तभी उन्हें जाने और नया संसार बनाने की अनुमति देता है।

दाम्पत्य निष्ठा के अद्भुत उदाहरण

विकसित प्राणियों में से जो भी लम्बे समय तक अपने लिए जोड़ों का चुनाव करते हैं उनमें यही कर्तव्य भावना—प्रेम की प्यास प्रमुख रहती है और वे एक दूसरे के प्रति निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं।

बाघ बड़ा उत्पाती जीव है, भूख लगने पर प्राकृतिक प्रेरणा से उसे आक्रमण भी करना पड़ता है किन्तु उस जैसा एकनिष्ठ पतिव्रत और पत्नीव्रत देखते ही बनता है। अपना अधिकांश जीवन जंगलों में व्यतीत करने वाले जंगली जानवरों की प्रवृत्तियों का समीप रह कर अध्ययन करने वाले डा. स्टेफर्ड ने एक बहुत ही रोचक घटना दी है। दक्षिण अफ्रीका के जंगल के एक बाघ ने अभी कुछ ही दिन पूर्व अपना जोड़ा चुना था। बाघिन-वधू बीमार पड़ गई और उसी अवस्था में एक दिन उसकी मृत्यु भी हो गई। उस जंगल में और भी अनेक बाघ-कुमारियां उसे मिल सकती थीं किन्तु उस बाघ ने फिर किसी को अपना साथी नहीं चुना। बहुत दिन पीछे उसे एक ऐसी मादा मिली जो स्वयं भी एकाकी जी रही थी उसके पति का संभवतः देहावसान हो गया था। दोनों विधुरों ने अपना युगल फिर से स्थापित कर लिया पर सामान्य स्थिति में वे सदैव एक निष्ठ ही रहते हैं कोई भी जोड़ा दूसरे को बुरी दृष्टि से नहीं देखता। होगा बाघ बुरा हिंसक दृष्टि से किन्तु अपनी सच्चरित्रता के कारण वह सशक्त और समर्थ भी इतना होता है कि जंगल के दूसरे जीव उसको दूर से ही नमस्कार करते हैं।

अपने साम्राज्य में अन्य सजातीय की उपस्थिति बर्दाश्त न करने वाला उल्लू भी दाम्पत्य-निष्ठा का एक अनोखा उदाहरण है। एक बार जोड़ा बना लेने के बाद वे गृहस्थ जीवन का निष्ठापूर्वक रालन करते हैं। मादा को 30 से 35 दिन तक अण्डे सेने में लगते हैं इस अवधि में नर अपनी मादा के लिए स्वयं भोजन जुटाता है और उसकी रक्षा करता है। उल्लू के बच्चे तब तक उड़ना और शिकार करना नहीं सीख पाते जब तक वे प्रौढ़ न हों, उन्हें यह माता-पिता ही आश्रय देते और परवरिश करते हैं।

धनेश पक्षी को तो और भी अधिक कष्टपूर्ण साधना करनी पड़ती है। अण्डे सेने के लिए आवश्यक ताप तथा मादा की सुरक्षा के लिए वह जिस खोल में रहती है नर उसका मुंह बिलकुल बन्द कर देता है उतना ही खुला रखता है जिससे चोंच भर बाहर निकल सके। बस इसी से नर अपनी मादा को खिलाता-पिलाता रहता है।

पत्नी के बाद सेवा के सबसे बड़े अधिकारी अपने बच्चे होते हैं। जिन्हें जन्म दिया है उन्हें अच्छी तरह स्नेह वात्सल्य देकर पोषण प्रदान करना भी एक प्रकार की समाज सेवा ही है। इस कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। जबकि दूसरे जीव अपने दायित्व हंसी-खुशी निवाहते रहते हैं तब मनुष्य ही इधर से मुंह मोड़े यह उचित नहीं। मनुष्य और पशु दोनों में ही मातृत्व भावना समान रूप से पाई जाती है। हिरण, गाय, नील गाय आमतौर पर सीधे जानवर होते हैं। किन्तु इनके बच्चों को किसी प्रकार का खतरा हो तो उनकी रक्षा के लिए यह कुछ हिंसक हो उठते हैं। बिल्ली के लिए एक कहावत है—वह अपने बच्चों को सात घर घुमाती है। जीव शास्त्रियों ने अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि उसे अपनी सन्तान की असुरक्षा का भय सताता रहता है इसीलिए वह सुरक्षित स्थान की खोज करती रहती है। बच्चों को अपनी गोद में ही सुलाती है। कुतिया के बच्चों को कोई उठा ले जाये तो वह उदास होकर डोलती है। वह अपने बच्चों को किन्हीं सुरक्षित हाथों में देखती है तो उसे बहुत कृतज्ञ और कातर दृष्टि से देखती है मानो उसे अपनी निर्धनता और उन हाथों में बच्चे के उज्ज्वल भविष्य का ज्ञान हो।

सारस अपने अण्डे इतने सुरक्षित, पानी से घिरे हुए, किसी नन्हे टापू पर उन दिनों देती है जब बाढ़ की कतई आशंका न हो वहां भी यदि कभी कोई लड़के या जंगली जानवर पहुंच जाते हैं तो उन्हें लहू-लुहान करके छोड़ते हैं। सारस कभी भी अपने अण्डों या बच्चों को अकेला नहीं छोड़ते। एक भोजन की तलाश में जाता है तो दूसरा उनके पास रहता है।

कौवे और सर्व जैसे क्रूर जीव भी अपने बच्चों के प्रति अत्यधिक भावनाशील होते हैं। कौवे के अण्डों या बच्चों से कोई छेड़खानी करे तो समूचा काक सम्प्रदाय उन पर टूट पड़ता है। सर्प अपने बच्चों को अपनी कुंडली में रखता है उस अवस्था में उसके भोजन का प्रबन्ध नर करता है। इस प्रकार वे अपनी सन्तति सहिष्णुता का परिचय देते हैं। छछून्दर गर्भ धारण के बाद से ही भावी शिशु के लिए खाद्य-संग्रह प्रारम्भ कर देती है ताकि प्रसव के बाद जब तक बच्चे भली प्रकार चलने फिरने न लगें तब तक वह उनकी पहरेदारी कर सके।

इस सम्बन्ध में सबसे अधिक सुचारु व्यवस्था हाथियों में होती है वे न केवल बच्चे की अपितु समूचा-कबीला गर्भिणी हथिनी को एक घेरे में रखकर उसकी सुरक्षा का प्रबन्ध करते हैं यदि उस पर कोई आक्रमण करे तो हाथी इतने अधिक खूंखार हो उठते हैं कि सारे जंगल को उजाड़ कर रख देते हैं।

हिन्द महासागर की कुछ मछलियां तो अपने अण्डों को जो हजारों की संख्या में एक छत्ते के आकार में होते हैं तब तब अपने ही साथ तैराती घुमाती हैं जब तक बच्चे न निकल आयें और वे स्वयं चलने फिरने न लगें। एरियस तथा तिलपिया मछलियां तो अण्डों को अपने मुंह में सेती और उनके आत्म निर्भर होने तक अपने ही साथ रखती हैं। तिलपिया को थोड़ी भी आशंका हो तो वह फिर अपने बच्चों को मुंह में छिपाकर उनकी रक्षा करती है। कुत्ते, बिल्ली जिस सावधानी से अपने बच्चों को मुंह में दबाकर उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं यह उससे भी अनूठा उदाहरण है। चूहों के दांत बड़े तेज होते हैं। किन्तु अपने बच्चों को उठाते समय उन्हें कहीं भी कतई खरोंच नहीं आती, वे इस कोमलता से उन्हें उठाते हैं।

मछलियां पानी में रहने वाली जीव हैं, पर गौराई जाति की मछलियां एक विशेष प्रकार की घास से अपना घोंसला बनाती और उसी में बच्चे पालती हैं, यही नहीं उन्हें चिड़ियों की तरह बड़े होने तक स्वयं ही खिलाती-पिलाती भी हैं। सील मछलियां अपने बच्चों की परवरिश के लिए अपने शरीर में खुराक की पहले ही प्रचुर मात्रा एकत्र कर लेती हैं और उन्हें वे 5 सप्ताह तक उसी के बल पर किनारे पड़ी सेती रहती हैं इस अवधि में वे पूर्ण उपवास करती हैं।

मादा गैंडा अपने बच्चों को सदैव अपने आंखों के सामने रखती है। वह कभी दांये-बांये होना चाहे तो वह धौल मारकर अनुशासन में रहने को विवश करती है। शू भी अपने बच्चों का पालन करते समय उन्हें अनुशासन सिखाती है। वह जब चलती है तो अपने एक बच्चे को अपनी पूंछ पकड़ाकर अनुगमन करने की प्रेरणा देती है शेष बच्चे क्रमशः एक दूसरे की पूंछ पकड़कर पंक्तिबद्ध रेल के डिब्बों की तरह चलते हैं।

आरेजूटन और गिबन बन्दर तथा चिंपैंजी पेट पर या पीठ पर लादे, बच्चों को बड़े होने तक घुमाते हैं। कई बार बच्चे मर जाते हैं तो भी ये मातृत्व पीड़ा वश कई-कई दिनों तक उनकी लाश को ही छाती से चिपकाये घूमते रहते हैं, ओपोसम बोमनेट के कंगारू की तरह की पेट में थैली होती है ये बच्चों को उसी में रखकर पालते हैं कहीं रुकने पर वे इन्हें बाहर निकालकर सिखाते-समझाते भी हैं, केवल लाड़ वश पेट में लगाये रहें तो इसमें कर्तव्य-पालन कहां हुआ वे उन्हें शिकार करना, खेलना-कूदना भी सिखाते रहते हैं। वेल्स द्वीप से एक बार नाम क्रम आदि के निर्देश पट्ट पैरों में बांधकर कुछ जल कपोतों को विमान से ले जाकर अन्य देशों में छोड़ दिया गया। इनमें एक कपोती भी थी जिसने हाल ही में दो बच्चों को प्रसव दिया था, उसे ले जाकर बेनिस में छोड़ा गया, जबकि अन्य जल कपोत 5-6 माह पीछे लौटे, कपोती 930 मील की समीप से दूरी 15 दिन में ही तय कर वापस बच्चों के पास लौट आई जिनके सन्तान नहीं थी वे अटलांटिक और जिब्राल्टर होते हुए 3700 मील की यात्रा आनन्दपूर्वक भ्रमण करते हुए लौटे इससे यह पता चलता है कि कर्त्तव्य पालन की मूल प्रेरणा सम्वेदनाओं से प्रस्फुटित होती है। सच्चे और ईमानदार व्यक्ति की पहचान करनी हो तो उसकी संवेदना टटोलनी होगी। संवेदना का अर्थ ही है अपने से छोटों के प्रति करुणा, दया और उदारता की भावनायें रखना, उनकी कष्ट कठिनाइयों में सहायक होना।

शेर जैसे खूंखार जीव में मातृ-सुलभ वात्सल्य प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। सुरक्षा की दृष्टि से शेरनी को कई बार एक-स्थान से दूसरी घाटी तक मीलों लम्बा स्थान बदलना पड़ता है तब शेरनी एक-एक बच्चे को गर्दन में बड़ी नरमी से पकड़कर दूसरे स्थान पर पहुंचाती है यह कार्य वह प्रायः रात में करती है।

चुहिया जैसा तुच्छ प्राणी भी ममता से ओतप्रोत है उसके दांत अत्यधिक पैने होते हैं तो भी वह उन्हें उठाते समय इतनी भावुक होती है कि उन्हें खरोंच भी नहीं आती। अन्य जीवों में इस तरह की सम्वेदना मिले और मनुष्य उनसे शून्य रहे यह परमात्मा के अनुग्रह का अपमान है। हमें अपनी भावनाएं परिवार और बच्चों तक ही सीमित न रखकर समस्त मानव जाति तक फैलावें और सबके कल्याण की बात सोचनी चाहिए तभी मानव जीवन की सफलता और सार्थकता है।

वेट्टा नामक मछली की कहानी गृहस्थ में पुरुषों के कर्तव्य का अच्छा बोध कराती है।

मादा ने अण्डे दिये और फिर बच्चे सेने और बड़े होने तक उनकी सुरक्षा का उत्तरदायित्व नर महोदय पर आ पड़ा। मनुष्य ही संसार में ऐसा प्राणी है, जो बच्चे पैदा करने के बाद उनकी परवरिश का सारा भार स्त्री पर छोड़ देता है जबकि संसार के अधिकांशतः सभी जीव केवल मात्र वासना के लिए सहचर नहीं बनते वरन् गृहस्थ का निर्वाह भी वे पूर्ण निष्ठा के साथ करते हैं। उधर मादा गर्भवती हुई कि नर का काम प्रारम्भ हुआ। वह अपने मुंह से हवा के बुलबुले छोड़ता घूमता है। इन बुलबुलों को वह इकट्ठा करके अपने शरीर से एक विशेष प्रकार का लसलसा पदार्थ निकालकर अपनी पीठ में चिपका लेता है। विदिशा के पास बौद्धों का एक तीर्थ है—सांची। एक छोटी-सी पहाड़ी पर अर्द्ध चन्द्राकार अनेक स्तूप खड़े हैं। अधिक ऊंचाई से देखने पर स्तूप एक बस्ती से लगते हैं। इसी प्रकार की, स्तूपों वाली बस्ती-सी नर बेट्टा की पीठ पर तैयार हो जाती है। सूखने पर यह कुछ कड़ी हो जाती है और उसमें परिवर्तन का प्रभाव प्रवेश नहीं कर पाता।

मादा पानी की सतह पर अंडे देना प्रारम्भ करती है तो नर महाशय उस स्थान पर गहरे पानी में चले जाते हैं और वहीं से अण्डों की प्रतीक्षा करने लगते हैं। पति-पत्नी के सहयोग का यहां अद्वितीय उदाहरण देखने को मिलता है।

अण्डे पानी से अधिक भारी होने के कारण डूब जाते हैं और सतह की ओर भागे चले जाते हैं। वहां नर बेट्टा पहले से ही प्रतीक्षा में खड़ा मिलता है। वह अण्डों का स्वागत करता है और उन्हें अपनी पीठ वाली कालोनी में मुंह से पकड़-पकड़कर डाल देता है। अण्डे उन बुलबुलों की कोठरी में विकसित होने लगते हैं।

इस अतिरिक्त उत्तरदायित्व को संभालना—मादा जानती है, एक कठिन कार्य है इसलिये वह पति की कृतज्ञता को भूलती नहीं। इधर-उधर घूमकर उसे कुछ खाने को मिलता है, वह लेकर पहुंचती है और नर को खिलाती है। हमेशा ध्यान रखती है कि पति किसी प्रकार भूखा न रहे, उसे ताजा भोजन मिलता रहे।

बच्चे निकल आते हैं। छोटे-छोटे बच्चों में क्रियाशीलता होती ही अधिक है। यह बच्चे फिर चुप कहां बैठें? बार-बार कोठरियों से निकल-निकल कर भागते हैं। तब नर सावधानी से उन्हें बार-बार भीतर कर लेता है और इस तरह जब तक बच्चे बड़े नहीं हो जाते नर उस भार को अपनी पीठ में बांधे रखता है।

उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका की नदियों में कुछ मछलियों को अण्डे देकर सुरक्षा के लिये उन्हें अपने मुंह में रखना पड़ता है। ऐसा न करें तो उन्हें दूसरे जीव-जन्तु मारकर खा जाते हैं। मुंह में रखकर बच्चों को पालना ऐसा ही कठिन कार्य है जैसे कठिनाइयों से भरा मनुष्य का जीवन। पेट भरने से लेकर पैसा कमाने, घर बनाने, घर, बच्चों की परवरिश, उनकी ब्याह-शादियां, शिक्षा-दीक्षा, सचमुच सारा जीवन कर्तव्यों का पुलिन्दा है—उन झंझटों को पार करना कठिन हो जाता, यदि पुरुष को नारी का सहयोग न मिलता। पति-पत्नी परस्पर प्रेम और सहयोग से इस रूखे संसार में भी सरसता और आनन्द कर पैदा लेते हैं।

मादा उन अण्डों को अकेले दिन भर मुंह में रखती तो भूखों-प्यासों मर जाती। अकेला नर भी यह काम नहीं कर सकता था। औरों की जिम्मेदारी पर छोड़ने का अर्थ होता अपने कर्त्तव्य से विमुख होना और अपनी सन्तति को संकट में डाल देना। इस महापाप से बचने के लिये नर और मादा जिस सहयोग-भावना का परिचय देते हैं वह मनुष्य के लिये सीखने का एक बहुत ही भला उदाहरण है।

मादा जब थकने लगती है, नर उसके मुंह से अपना मुंह जोड़ देता है और वह अण्डे मुंह में ले लेता है। अब मादा इधर-उधर टहलती और भोजन ग्रहण करती तथा विश्राम लेती है। इससे उसके शरीर में फिर ताजगी आ जाती है। तब तक पति महोदय थक गये होते हैं तो वह अण्डों को फिर अपने मुंह में ले लेती है। इस तरह दोनों हंसते-खेलते अपना जीवन पार कर लेते हैं।

मछलियों का जीवन दाम्पत्य-प्रेम, सहयोग और कर्तव्य-भावना का आदर्श उदाहरण है। ‘बटरफिश’ नामक एक मछली जिसकी लम्बाई कुछ 10 इन्च ही होती है, अण्डे देती है और उन्हें एक गेंद के आकार में इकट्ठा कर लेती है। इनकी सुरक्षा के लिये नर और मादा दोनों ओर से गेंद के किनारे घेरा डाल देते हैं। जहां जाते हैं दोनों साथ-साथ ऐसे ही अण्डों को सुरक्षा में लिये हुए जाते और भोजन प्राप्त करते हैं। पति अपने सहयोग से एक क्षण को भी पत्नी को वंचित नहीं करता।

भारतीय प्रशान्त महासागर में ‘करटस’ नाम की एक मछली पाई जाती है, जिसमें नर को अपने कर्त्तव्य-पालन की कठोर परीक्षा देनी पड़ती है और नर उस कर्त्तव्य को परिश्रम और भावना के साथ पूरा भी करता है।

मादा अण्डे देकर उन्हें दो बराबर-बराबर हिस्सों में बांटकर दो गोल गेंदों की आकृति में कर देती है। दोनों गोलों का एक-दूसरे से सम्बन्ध बनाये रखने के लिये वह एक डोरा (चैन) बांध देती हैं। इरादा यह होता है कि वह उस डोरे को पकड़कर खींचती हुई अण्डों को इधर से उधर टहलाया करेगी—पर नारी जाति प्रकृति से ही कोमल और कमजोर होती है। उसके शरीर में भारी भरकम और अधिक परिश्रम वाले काम करने की क्षमता नहीं होती, इसलिये मनुष्यों की आचार संहिता तैयार करने वाले मनीषियों ने पुरुष को श्रम वाले कठोर काम दिये और नारी को घर के हलके-फुलके काम। दोनों का सामंजस्य कर देने से गृहस्थ आनन्दपूर्वक चलता रहता है। लगता है यह प्रेरणा हमें प्रकृति के इन नाबूझ जीवों से ही मिली है। पुरुष ने जैसे ही देखा कि मादा ‘करटस’ उस भार को ढोने में समर्थ नहीं तो वह आगे बढ़कर आता है और अपने सिर पर लगे हुए हूक के आकार की एक खूंटी से उस डोरे को बांध लेता है और फिर उन्हें यहां से वहां घुमाता रहता है। इस स्थिति में मादा करटस अपने पति के भोजन का भी प्रबन्ध करते देखी गई है।

मछलियों में कुछ जातियां तो ऐसी भी होती हैं जिनके नरों को प्रकृति जन्म से ही एक थैली (व्रूड पाउच) प्रदान करती है। इन जातियों में नर को अनिवार्यतः अण्डों को इन थैलियों में रखकर पालना पड़ता है। लगता है जो मनुष्य इस जीवन में गृहस्थ के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का समुचित पालन नहीं करते, नारी पर ही बोझ डालते रहते हैं पर स्वयं आलस्य और प्रमाद का जीवन जीते हैं, प्रकृति इन नरों की श्रेणी में जन्म लेने का दण्ड देती है ताकि वे यह सीखें कि गृहस्थ स्वार्थ की दृष्टि से नहीं, कठोर कर्त्तव्य-भावना से बसाये और चलाये जाते हैं। वही लोग इस पृथ्वी पर दाम्पत्य जीवन का आनन्द भी पाते हैं जो पति-पत्नी, पत्नि एक दूसरे के प्रति अपने कर्त्तव्यों का उदारता पूर्वक परिपालन करते हैं।

मध्य एशिया में पाई जाने वाली मादा ‘क्वेल’ चिड़िया अपने बच्चों को बड़ा अनुशासित रखती है। जब तक वे बड़े नहीं हो जाते इकट्ठे मिलकर चलते, उठते, बैठते और खाते-पीते हैं। फिर भी कई बार शिकारी पक्षी आक्रमण कर देते हैं, उनसे जान बचाना मुश्किल पड़ता है।

क्वेल तब बड़ी बुद्धिमत्ता से काम लेती है। उसने जैसे ही देखा कि कोई शिकारी पक्षी झपटा, वह उसी दिशा में आगे बढ़कर जायेगी और उस शिकारी पक्षी के सामने उड़कर ऐसे गिर पड़ेगी मानो अब उसमें उड़ने की सामर्थ्य नहीं रही। शिकारी पक्ष इतनी आसानी का शिकार पाकर व्यर्थ परिश्रम करने का इरादा छोड़ देता है और जहां क्वेल पड़ी होती है उधर ही चल पड़ता है। इस बीच बच्चों को सुविधाजनक स्थान में छुप जाने का अवसर मिल जाता है। शिकारी अपने आहार के लिये आश्वस्त होता है, इसलिये उसे तो कोई सावधानी रहती नहीं पर क्वेल चोरी आंख से चुपचाप शिकारी का वहां पहुंचना देखती रहती है। जैसे ही वह वहां पहुंचा कि वह अपने पंख तेजी से फड़फड़ा कर स्वयं भी उड़ भागती है। पंख फड़काने से पहले तो शिकारी घबड़ा उठता है और दुबारा जब तक वह संभलता है क्वेल तीर की तरह छूटकर न जाने कहां की कहां जा पहुंचती है। शिकारी मूर्ख को निराशा ही हाथ लगती है। द्विविधा में न तो माया ही मिल पाती है और न ही राम। अपना-सा मुंह लेकर उदास भाग जाता है।

क्वेल अपने बच्चों के पास लौट आती है। पर क्वेल जानती है कि कदाचित् बच्चों के जीवन-काल में ऐसी कोई स्थिति न आने पाये, वे अप्रशिक्षित रह जायें और फिर कभी उनके बच्चों पर आक्रमण हो तो वे अपने बच्चों की सुरक्षा कैसे करें, इसके लिये क्वेल को वैसे ही परिश्रम करना पड़ता है जैसे पहलवान बाहरी दंगलों में जाकर कुश्ती-प्रदर्शन करने से पूर्व गांव के अखाड़ों में खूब अभ्यास करते हैं। सेना में भी ऐसा ही होता है। दो बटालियनें या और बहुत सी फौजें मिलकर अभ्यास करती हैं। दो दलों में विभक्त होकर वे इस तरह से अभ्यास करती हैं मानों दो दुश्मन फौजें लड़ रही हों। इस प्रकार के अभ्यास में केवल गोलियां नहीं चलतीं और सब वैसा ही होता है जैसे युद्ध में। दोनों दलों के नाम अलग-अलग रखे जाते हैं, सीमायें बंटती हैं, भेदियों से पूछताछ आदि के सब ड्रामें बिलकुल असली युद्ध की तरह होते हैं। इससे सैनिकों को असली युद्ध की झांकी मिल जाती है और वे जब कभी युद्ध होता है, बिना किसी घबराहट के सब काम कर लेते हैं। क्वेल नर और मादा भी इस तरह का अभ्यास करके अपने बच्चों को दिखाते हैं, जिससे वे सब बातें समझ जाते हैं और यदि उनके सामने कभी वैसी परिस्थिति आती है तो वे उसे हंसी-खुशी से पार कर लेते हैं।

नीरस जीवन में सरसता

मिल-जुलकर रहने, दूसरे की सहायता करने एवं स्नेह सद्भाव की सुकोमल डोरी से बंधे रहने पर नीरस जीवन में कितनी सरसता आती है और कठिनाइयों तथा जटिलताओं से भरा जीवन क्रम कितना सरल हो जाता है इसे उन्मादी मनुष्य तो उतना नहीं समझ पाया जितना कि कतिपय पशु शरीरधारी जीवों ने समझा ही नहीं अपनाया भी है। हथिनी जब प्रसव करती है तो हाथियों का सारा झुण्ड उसे घेर कर खड़ा हो जाता है। हाथियों का वात्सल्य प्राणि जगत में असाधारण माना जाता है। छोटे बच्चों की सुरक्षा का वे पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं। माता और बच्चे का स्नेह वात्सल्य तो सभी प्राणियों में न्यूनाधिक मात्रा में होता है पर हाथियों का पूरा स्नेह बिना अपने पराये का भेदभाव किये पूरे झुण्ड में से किसी के भी बच्चे को पूरा-पूरा प्यार करता है। नवजात दुर्बल काय शिशु और प्रसूता का थका शरीर हिंस्र जन्तुओं के लिए घात लगाने का अवसर मिल जाता है। इस सम्भावित संकट का सामना करने के लिए झुंड के समस्त हाथी मोर्चा बांधकर चक्रव्यूह क्रम से इस प्रकार खड़े हो जाते हैं मानो आक्रमणकारी के दांत खट्टे करने के लिए वे आन-बान-शान के साथ कटिबद्ध हो रहे हों। योद्धाओं की चिंघाड़, कानों की फड़फड़ाहट, पैरों को जमीन पर पटकते हुए झूमना यह बताता है कि वे वनराजों को खुली चुनौती देते हुए कह रहे हैं कि जिसका जी आये जोर अजमाये। इस सुरक्षात्मक किले बन्दी को तोड़ने की आमतौर से सिंह, व्याघ्र हिम्मत नहीं करते। कभी कदाचित ही प्रसूता हथिनी के नवजात शिशु पर किसी हिंसक जन्तु ने सफल आक्रमण किया होगा।

झुण्ड की हथनियों का कार्य इस अवसर पर देखते ही बनता है। जबकि दूसरे पशुओं में अकेली मादा ही अपने प्रसव संकट से निपटती है तब हथिनी की सहायता के लिए समूह की सभी सहेलियां हाथ बंटाती हैं। नवजात शिशु पर चढ़ी हुई झिल्ली को उतारने उस पर लिपी श्लेष्मा को साफ करने, सहलाने, सूड़ों का सहारा देकर खड़ा करने के प्रयास में सभी सहेलियां लगी होती हैं। प्रसूता आश्वस्त होकर मुदित मन धातृ कर्म इस कुशलता से निपटाये जाने पर सन्तोष प्रकट करती रहती है। बच्चा जब तक अपने पैरों खड़ा नहीं हो जाता तब तक समवेत समूह विसर्जित नहीं होता। जननी और शिशु जैसे-जैसे आत्म-निर्भर होते जाते हैं उसी क्रम से यह सहयोग भी झीना पड़ता जाता है और वे लोग उस उत्तरदायित्व से मुक्ति पाते हैं।

प्रायः तीन महीने में हथिनी प्रसूति जन्य दुर्बलता से मुक्ति पाती है और स्वयं चरने के लिए जाने योग्य होती है तब तक अन्य हाथी उसकी भोजन व्यवस्था तथा सुरक्षा का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं जिससे प्रसूता को किसी प्रकार की असुविधा न होने पावे।

मनुष्य से बहुत कुछ मिलता-जुलता गोरिल्ला वानर प्रायः 5, 6 फुट का होता है। मनुष्य की तरह वे दो पैरों से भी चलता है। मादा अपने बच्चों को बहुत प्यार करती है और संकट की आशंका दिखाई देने पर अपने बच्चों को छाती से चिपटाकर सुरक्षित स्थान की तरफ भागती है। गोरिल्ले प्रायः जोड़े बनाकर रहते हैं। बच्चों की सुरक्षा में वह भी मादा की पूरी सहायता करता है। किसी हिंसक सिंह, व्याघ्र का आक्रमण होने की आशंका का समय आने पर जहां मादा गोरिल्ला बचाने और भागने का प्रयत्न करती है और चीख पुकार करके अपने जाति बन्धुओं को सहायता के लिए बुलाती है वहां नर क्रोधोन्मत होकर बेतरह दहाड़ता है और शत्रु को चुनौती देता है कि वह समझ-बूझकर ही आक्रमण की हिम्मत करे। समुचित उत्तर देने की तैयारी करली गई है।

डा. जेन वान लाविक गूडोल नामक एक महिला ने पशु खोजी तंजानिया (अफ्रीका) के गोंवे स्ट्रीम अनुसन्धान केन्द्र के माध्यम से मनुष्य के सजातीय समझे जाने वाले चिंपैंजी, गोरिल्ला, वनमानुष प्रभृति वानरों के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारियां प्राप्त की हैं। यह तीस वर्ग मील का उद्यान इन्हीं वानरों के सुख पूर्वक रहने के लिए किगोमा की घाटियों में बनाया गया है। वे कहते हैं—चिंपैंजी नर, शत्रुओं से निपटने का अधिकांश काम धमकियों से चला लेते हैं। उनकी पारस्परिक लड़ाई में कदाचित् ही किसी को खरोंच आती हैं और जहां-तहां बाल नुचते हैं। लड़ाई का सिलसिला प्रायः चीखने, चिल्लाने, दांत निकालने, पेड़ों की डालियां हिलाने, भयंकर आकृति बनाकर उछलने-कूदने और लकड़ी पत्थर फेंकने तक ही सीमित रहता है। वे ऐसी मुद्रा बनाकर आगे बढ़ते हैं मानो अब वे भयंकर आक्रमण करके ही रहेंगे किन्तु ऐसा होता नहीं। वे जानते हैं कि जो काम धमकी देने से चल सकता है उसके लिए खून-खराबी क्यों की जाय।

डा. गूडाल का कथन है कि चिंपैंजी ने कभी किसी की जान ली हो, ऐसी जानकारी उन्हें कहीं से भी कभी प्राप्त नहीं हुई है। धमकी की कला का एक अच्छा उदाहरण एक सरदार चिंपैंजी का उन्होंने दिया है। उस क्षेत्र पर उसका पूरा साम्राज्य था और सभी चिंपैंजी उससे डर कर भागते थे। बात यह थी कि उसे जंगल में कहीं मिट्टी के तेल का एक टूटा कनस्तर पड़ा मिल गया। लकड़ी के टुकड़े के सहारे उसे लुढ़काने, उछालने और पीटने, बजाने की कला उसने सीखली। इस युद्ध नगाड़े को वह ऐसी चतुरता से बजाता मानो कोई रेलगाड़ी उधर से निकल रही हो। बस, सारे चिंपैंजी उसे सुनकर भाग खड़े होते और फिर वह उस क्षेत्र का मन चाहा उपयोग करके मौज मनाया करता। इस तरह उसने सहज ही उस क्षेत्र की सरदारी अपनी मुट्ठी में करली।

कभी लोमड़ी आदि को घात लगाये देखती है तो तालाब की सारी बतखें एक साथ चिल्लाने लगती हैं और उस प्रकार चीख पुकार करके अपने समूह को सावधान करती हैं और आक्रमणकारी का मनोरथ विफल कर देती हैं।

थलचरों में भेड़िया और जलचरों में मगरमच्छ अक्सर मिल-जुलकर शिकार की योजना बनाते हैं और सम्मिलित प्रयत्न से अधिक सरलतापूर्वक शिकार प्राप्त कर लेते हैं। जो मिलता है उसे वे बिना लड़े झगड़े मिल बांट कर खाते हैं।

न्यू गायना के बर्फीले भाग में रहने वाली काली चिड़िया जब प्यासी होती है तो झुण्ड बनाकर एक जगह बैठ जाती हैं पेट की गर्मी से जो बर्फ पिघलती है, उसे पीकर वे अक्सर अपनी प्यास बुझाती हैं। एक चिड़िया बर्फ पिघलाने का काम नहीं कर सकती इसलिए उन्हें संगठित प्रयोग ही उपयुक्त जंचा है।

सिंह विशेषज्ञ जार्ज शैलर का कथन है कि सिंहनी अपने बच्चों को शिकार करने और चीर-फाड़ करने कला विधिवत सिखाती है, बच्चे को यह सब कुछ जन्मजात रूप में ही आ जाता है। छोटे शिकार तो प्रायः अकेला ही सिंह कर लेता है पर बड़े जानवर को पछाड़ने के लिए कई सिंह मिलकर आक्रमण करते हैं।

यह सोचना सही नहीं कि पशुओं में मादायें दुर्बल होती हैं। सच तो यह है कि वे नर की तुलना में अधिक बलवान भी होती हैं और साहसी भी। शिकार करने में सिंह का उतना पुरुषार्थ नहीं होता जितना सिंहनी का, यह स्पष्ट है कि मादा पशुओं में अपने बच्चों के प्रति असाधारण स्नेह होता है। बुद्धि की दृष्टि से मनुष्य से पिछड़ी रहने पर भी पशु मातायें मानवी माता से किसी प्रकार ओछी सिद्ध नहीं होतीं।

अफ्रीकी हाथियों के विशेषज्ञ डा. ईमेर हैमिल्टन ने पता लगाया है कि हाथियों के झुण्ड का नेतृत्व नर हाथी नहीं वरन् मादा हथिनी करती है। बहादुरी में वह नर से कम नहीं वरन् अधिक ही होती है। शिशुओं पर हमला करने वाले सिंह को कई बार क्रुद्ध हथनियों ने मिल-जुलकर पकड़ कर पैरों तले रौंद डाला है।

पेनसिलवानिया के जंगलों में पाये जाने वाले लोवो जाति के भेड़िये शिकारी होते हुए भी स्वभावतः स्नेही प्रकृति के होते हैं। उनमें से किसी की मृत्यु हो जाय तो लाश को घेर कर देर तक वे उदास बैठे रहते हैं और शोकाकुल स्वर में बारी-बारी रुदन करते हैं। केन निवासी डा. मैकक्लियरी की मृत्यु उनके स्थान से सात मील दूर अस्पताल में हुई। उनने कई लोवो भेड़िये पाल रखे थे। न जाने मालिक की सात मील दूर अस्पताल में हुई मृत्यु का पता कैसे लग गया कि वे खाना-पीना-सोना छोड़कर बेतरह चीत्कार करने लगे। इतना ही नहीं इनका रुदन सुनकर समीपवर्ती जंगलों में रहने वाले भेड़ियों ने भी रोना आरम्भ कर दिया और वह क्रम निरन्तर कई दिन तक चलता रहा। लोवो नर-मादा पतिव्रत धर्म और पत्नीव्रत धर्म का पालन करते हैं एक के मर जाने पर दूसरा प्रायः एकाकी जीवन व्यतीत करता है। उनकी ऐसी कितनी ही विशेषताओं पर मुग्ध होकर डा. क्लियरी ने इन भेड़ियों की मनोरंजक जीवन गाथा का परिचय देने वाली ‘दी लीजेण्ड लौवो’ नामक एक फिल्म बनाई है।

मादा लकड़बग्घा नर से अधिक मजबूत होती है और बहादुर भी। शिकार पर पहला अधिकार मादा का होता है। बचने पर ही नर के हाथ कुछ लगता है। आराम की जगह नर लेटा हो और उधर से मादा निकले तो नर को अपनी जगह खाली करके मादा को देनी पड़ती है। ऐसा वह स्नेह से आदर या भय से करता है, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता लकड़बग्घे प्रायः एक दर्जन तरह की आवाजें बोल सकते हैं।

बच्चा मर जाने पर हथिनी उसे सूंड़ में लपेटे कई दिन तक इधर-उधर घूमती रहती है और प्रयत्न करती है कि किसी तरह बच्चा चलने-फिरने लग जाय। जब सफलता नहीं मिलती तो पैरों से मिट्टी खोदकर उस गड्ढे में अपने प्यारे शिशु को दफनाती है ताकि कोई हिंसक पशु उसकी दुर्दशा न कर पाये।

मिक मादा एक साथ कई बच्चे जनती है, पर अक्सर उसके थनों में दूध कम पड़ जाता है। तब बच्चे उसका मांस नोंच-नोचकर खाने लगते हैं। बच्चों के स्नेह में सराबोर उनकी क्षुधा निवृत्ति के लिए चुपचाप पड़ी अपना मांस बिना उफ किये—बिना हिले जुले—नुचवाती रहती है और इस प्रकार वात्सल्य की वेदी पर अपने को बलिदान करती हुई, मृत्यु के मुख में चली जाती है।

मादा दरियाई घोड़ा जल में रहती है और थल पर भी घूमती है। बच्चों को जल, थल दोनों का अभ्यास कराने के लिए वह प्रायः अपने बच्चों को पीठ पर खड़ा करके सावधानी से जलाशयों में विचरण करती है। बच्चों को छेड़ने वालों के प्रति वह आक्रमणकारी हो जाती है और डटकर टक्कर लेती है।

शिकारी कुत्तों द्वारा पीछा किया जाने पर मादा कंगारू आत्मरक्षा के लिए बेहिसाब दौड़ती है पर जब देखती है कि संकट निकट आ गया तो वह बच्चों को पेट की थैली में से निकाल कर एक-एक करके झाड़ियों में फेंकती छिपाती जाती है और हलकी होकर पेड़ की आड़ में खड़ी होकर डटकर शत्रु का मुकाबला करती है। क्रुद्ध कंगारू शाकाहारी होते हुए भी अपनी बलिष्ठता के कारण शिकारी कुत्तों के पेट फाड़ डालने और उन्हें पंजों से दबाकर तालाब में डुबो देने तक में सफल हो जाता है।

कंगारू मादा गर्भाधान के पांच सप्ताह बाद ही एक-एक इन्च लम्बे, लाल रंग के, प्रायः पारदर्शी बच्चों को जन्म देती है। इसे बच्चा भी कहा जा सकता है और भ्रूण भी। आस्ट्रेलिया निवासी इसे ‘जोयी’ कहते हैं। जोयी माता के पेट में बाहर लगी हुई एक विशेष थैली में जा घुसते हैं और जब तक चलने लायक नहीं हो जाते उसी में बैठे पलते रहते हैं। माता मांसपेशियों को एक विशेष तरह के पेय की तरह बनाकर अपना दूध इन बच्चों के मुंह में पहुंचाती रहती है। चार महीने तक इस प्रकार स्तनपान करने पर बच्चे थैली से बाहर निकलते हैं और घास में मुंह मारकर फिर उसी में जा घुसते हैं। वे जब थोड़े बड़े हो जाते हैं तो फिर न तो थैली में घुसने लायक जगह रहती है और न आवश्यकता। भालू से मिलती-जुलती शकल की ‘काओला’ अपने बच्चों को पीठ पर लादे फिरती है और तब तक चढ़ाये रहती है जब तक वे लगभग उसके बदन से आधे जितने नहीं हो जाते। अमेरिका में पाया जाने वाला-‘ओपोसम’ अजीब किस्म का है। बच्चे मां की पीठ पर और तनी हुई पूंछ पर लद जाते हैं। बच्चे अपनी पूंछ और दांतों के सहारे पकड़े हुए सवारी किये रहते हैं। मादा उन्हें चावपूर्वक पालती है।

ह्वेल मछली अपने बच्चों को साथ लिए फिरती है और संकट आने पर पहले बच्चों को सुरक्षित स्थान पर छोड़ती है पीछे उलटकर आक्रमणकारी का मुकाबला करती है। ऐसे अवसर पर नर ह्वेल भी पूरी तरह मादा का साथ देता है। संकट के समय भाग खड़ा होने की अपेक्षा उसे अपनी प्रियतमा के साथ मरना पसन्द होता है। इसलिए ह्वेल के शिकारी एक को मार लेने में सफल हो जाने पर अपने हथकण्डों से साथी को भी प्रायः मार ही लेते हैं। आमतौर से शिकारी पहले ह्वेल के बच्चों को मारते हैं ताकि क्रुद्ध मादा लड़ने के लिए आगे आये और उनके अस्त्र-शस्त्र से मारी जाय। मादा ह्वेल अपने बच्चों को असाधारण प्यार करती है और उनकी सुरक्षा के लिए जान की बाजी लगाये रहती है।

अलास्का की हीलें गहरे समुद्र में चली जाती हैं और कुछ खा-पीकर थनों में दूध संग्रह करती रहती हैं, जैसे ही स्तनों में भारीपन आया कि वे वापिस आ अपने बच्चों की इस विशाल जलाशय में से ढूंढ़ लेती है और प्यार कर दूध पिलाकर फिर नये संग्रह के लिए चली जाती हैं। जब तक बच्चे समर्थ नहीं होते तब तक उनका यही क्रम चलता रहता है।

मनुष्य का सुविकसित मस्तिष्क यदि भावनाओं की दृष्टि से भी अग्रगामी रहा होता—स्नेह और सद्भाव की दृष्टि से भी उसके बौद्धिक अनुपात के क्रम को कायम रखा होता तो कितना अच्छा होता। नारी का सौजन्य और वात्सल्य पशु-पक्षियों और जलचरों में भी यथावत् होता चला गया है। लोग नेतृत्व के लिए नारी तत्व को इसीलिए भविष्य में प्रमुखता मिलने जा रही है ताकि उसका कोमल हृदय संसार में शान्ति और सद्भावना का वातावरण विनिर्मित कर सके।
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