चेतना का सहज स्वभाव स्नेह सहयोग

जियो और जीने दो की प्रकृति प्रेरणा

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मनुष्य की मूलसत्ता सहयोग परायण और सृजनात्मक है इन्हीं दो मूल प्रवृत्तियों को प्रगति का आधार भूत कारण कह सकते हैं। अन्यथा शारीरिक दृष्टि से अन्य कितने ही प्राणियों की तुलना में उसका पिछड़ापन स्पष्ट है। मानसिक विकास सहकारिता का परिणाम है अन्यथा चतुरता और कुशलता की दृष्टि से सहस्रों जातियों के प्राणी उससे आगे हैं और कितनी ही क्षमताओं में बाजी मारते हैं।

सहकारिता की प्रवृत्ति ने मिल-जुलकर कबीले बनाये, परिवार बसाये, समाज की संरचना की, उत्पादन बढ़ाया, अर्थ तन्त्र खड़ा किया और शासन की स्थापना की। सुरक्षा, कृषि, उद्योग, शिक्षा, संस्कार आदि कितनी ही गति-विधियों का सृजन संचालन हुआ। ज्ञान-विज्ञान के अनेकों स्रोत उभरे, विनोद, कला, धर्म, अध्यात्म, भाषा, साहित्य आदि को सहकारिता का ही अनुदान कहा जा सकता है।

सृजन की वैसी सुविकसित प्रवृत्ति और किसी प्राणी में नहीं पाई जाती जैसी कि मनुष्य में। अन्य प्राणी अपने निवास स्थल का निर्माण करने भर की सीमा में इस प्रवृत्ति का यत्किंचित् दे पाते हैं, किन्तु मनुष्य ने शरीर सुविधा से आगे बढ़कर अनेकों प्रकार के सृजन प्रस्तुत किये हैं। भाषा, साहित्य, संगीत कला, जैसे कार्य ऐसे नहीं हैं जिनके बिना उसका दैनिक निर्वाह सम्पन्न न हो सके। विज्ञान के छोटे-बड़े आविष्कार, शोध प्रयोजनों में संलग्न रह कर उसने प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियों को खोज निकाला है और थल से आगे बढ़ कर जल में—आकाश में अपनी गति बनाई है। आदिम काल की ऊबड़-खाबड़ धरती आज सुरम्य उद्यान की तरह सजी पड़ी है। प्रकृति के सौन्दर्य को निखारने और उसे कामधेनु की तरह अनेकानेक अनुदान देने की वर्तमान स्थिति तक पहुंचाने में मानवी श्रम एवं कौशल का ही नियोजन हुआ है। उद्योग, व्यवसाय, समाज शासन, शिक्षा, कला, विज्ञान, संचार, वाहन जैसे अनेकों ऐसे क्षेत्र प्रगति के उच्च शिखर पर जा पहुंचे हैं जिनका आदिम काल में अता-पता भी नहीं था। तब उनकी कल्पना तक सम्भव नहीं थी। यह सब मानवी सृजन शक्ति का चमत्कार ही कहा जा सकता है।

इस तथ्य को समझने के लिए हमें मनुष्य शरीर की आन्तरिक स्थिति से भावनापूर्वक विचार करना चाहिए।

यह समझना भूल है कि व्यक्ति एकांकी भी पर्याप्त है। उसकी सारी विशेषतायें सहयोग संगठन प्रक्रिया पर टिकी हुई हैं वस्तुतः वह अनेक अंग-प्रत्यंगों का—कोशिकाओं और नाड़ी तन्तुओं प्रभृति अनेक घटकों का समूह मात्र है। इनमें से एक भी पुर्जा यदि अस्त व्यस्त हो जाय तो देखते-देखते सुदृढ़ प्रतीत होने वाला काय कलेवर आधि-व्याधियों से ग्रस्त दीन-दुर्बल हो जाता है।

हमारे शरीर का प्रत्येक कोष एक स्वतन्त्र मानव बीज है उसमें मनुष्य की सारी स्थूल और चेतन क्रियायें विद्यमान हैं। ‘कोष’ सांस लेता है, खाता है, पीता है, चलता है, डरता है, बचाव करता है, भागता है, मल विसर्जन करता है। ‘अमीबा’ एक कोषीय जीव है। उसका नाभिक जब दो भागों में बंट जाता है तो वह दो अमीबा बन जाते हैं और दोनों अपनी-अपनी तरह से उक्त क्रियायें और अनुभूति करने लगते हैं। दो विभाज्य अमीबा, दो अलग गुणों वाले अमीबा आत्मा (न्यूक्लियस) की दृष्टि से एक ही हैं। और उदाहरण के लिये जब दो अमीबा अपनी शक्ति में ह्रास अनुभव करते हैं तो वह एक दूसरे में मिलकर दो नाभिक (न्यूक्लियस) से एक नाभिक (न्यूक्लियस) वाला एक अमीबा बन जाते हैं उस स्थिति में वह नवजात अमीबा की-सी शक्ति अनुभव करता है।

मनुष्य शरीर के विचित्र अवयव एक ही काष ‘स्पर्म’ से पैदा होते हैं। स्थान की आवश्यकता के अनुरूप वे अपना आकार बदल कर मस्तिष्क, हृदय, जिगर, तिल्ली, नसें, मांसपेशियां आदि बनाते हैं पर उन्हें पता है कि विभिन्न स्थिति में काम की जिम्मेदारियां उठाते हुए भी वह सब एक ही पिता की सन्तान, भाई-भाई हैं और इसीलिए वे बराबर प्रेम, दया, सहयोग, सहानुभूति, श्रम, सामूहिकता आदि का व्यवहार करते रहते हैं इसी कारण शरीर स्थिर है।

जिस प्रकार बहुत से कोषों (लगभग 2 अरब) से मिलकर शरीर बना उसी प्रकार बहुत से मनुष्यों से समाज, देश और विश्व बना। स्थान की स्थिति और जलवायु की भिन्नता के कारण वर्ण भेद, स्वभाव-भेद होते हुये भी सब एक ही आत्मा के अंग हैं। यह मानकर जो शरीर की सहयोग भावना का पालन करते हैं वह विश्व शान्ति बढ़ाने और ईश्वरीय मर्यादाओं का पालन करने का पुण्य करते हैं जो उससे विपरीत जड़वादी आचरण करते हैं प्रकृति उन्हें दण्ड देती है। इसी सूक्ष्म न्याय प्रणाली पर सृष्टि की व्यवस्था अब तक विद्यमान है। यदि प्रेम, दया, उदारता, करुणा आदि सद्गुणों का अन्त हो गया होता तो सृष्टि का भी अन्त हो गया होता।

मनुष्य-शरीर मानवीय सद्गुणों का जिस रीति से परिपालन करता है उसका वक्तव्य बड़ा रोचक है। आन्तरिक क्रिया-शास्त्र (फिजियोलाजी) का गहन अध्ययन किया जाय तो पता चलेगा कि व्यक्ति और समाज को सुखी-सन्तुलित और सुव्यवस्थित बनाने वाले जो भी गुण हैं वह दूध से नवनीत काढ़ने की तरह से ही निकाले गये हैं।

उदाहरण के लिये सहयोग और सहानुभूति को ही ले लें। मनुष्य इतना कठोर हृदय हो सकता है कि अपने भाई, अपने पड़ौसी को कष्ट और पीड़ित अवस्था में देखकर भी चुप रह जाय पर हमारे शरीर के सदस्य ऐसे हृदयहीन नहीं। परस्पर सहयोग और दूसरे के दुःख में हाथ बटाना ही इनका जीवन है। उदाहरणार्थ यदि एक गुर्दा खराब हो जाये जैसा कि पथरी की बीमारी के समय होता है, तो अच्छा गुर्दा दूसरे पीड़ित गुर्दे का सारा कार्य भार स्वयं संभाल लेता है जब तक वह ठीक न हो जाये स्वयं कष्ट सहेगा किन्तु शरीर की साधारण क्रिया में कोई अन्तर न आने देगा।

धमनियां (आर्ट्रीज) शरीर का रक्त पहुंचाती हैं। बड़ों के साथ छोटे-छोटे लोग भी रहते हैं और तब उनका कोई विशेष महत्व जान नहीं पड़ता जैसा कि बड़ी धमनियों के साथ कुछ पतली धमनियां भी बनी रहती हैं। मनुष्य अपने छोटों को कष्ट दे सकता है, उनका शोषण और उत्पीड़न कर सकता है पर धमनियों को पता है कि छोटे से छोटे जीव का भी कितना महत्व है इसलिये वह पतली धमनियों को भी पोषण देती रहती हैं। कभी कोई धमनी (आर्टीज) कट जाये तो उस स्थिति में पतली धमनियां (एनास्टोमोसेस) रक्त प्रवाह के किनारे फूल कर आगे जोड़ देती है और रक्त परिभ्रमण क्रिया को तब तक साधे रहती हैं जब तक घाव अच्छा न हो जावे। इससे आगे वाला हिस्सा काम करता रहता है। यदि ऐसा न भी हो तो भी पतली धमनियां (एनास्टोमोसेस) आजीवन काम करती हैं।

‘गमोनेक्टामी’ के अनुसार यदि एक फेफड़ा काटकर निकाल देना पड़े तो दूसरा फेफड़ा साधारण स्थिति के सारे काम संभाल लेता है। कई बार चमड़ी खुल जाने या चोट लग जाने के कारण कोई कीटाणु बाहर से आकर शरीर में घुस जाते हैं और लोगों को सताना, काटना, लूटना, भक्षण करना प्रारम्भ कर देते हैं तब शुद्ध रक्ताणु दौड़ पड़ते हैं। (1) सूजन, (2) उस स्थान की चमड़ी का लाल हो जाना, (3) उस हिस्से का गर्म हो जाना, (4) तनाव बढ़ने से नस पर दबाव पड़ता है। इससे पता चलता है कि अच्छे कोषों की सेना एकत्रित हो गई और बुराइयों का निष्कासन प्रारम्भ हो गया।

कई बार रक्त में हानिकारक कीटाणु (इनफैसिलाई) पैदा हो जाते हैं उससे रोग और विकृति पैदा होती है उसके मुकाबले के लिए रक्त के श्वेत अणु (ह्वाइट ब्लड कारपेसल्स) पहुंचते हैं और शरीर रक्षा का पूर्ण प्रयत्न करते हैं पर बेचारों की शक्ति बुराई के मुकाबले कम हुई तो हार जाते हैं और मार दिये जाते हैं किन्तु त्याग और बलिदान की उपयोगिता समझने वाले ये अणु मरते-मरते भी कुछ न कुछ उपकार कर जाते हैं। मरे हुए श्वेत अणु प्रोटियोलाइटिक एन्जाइम बन जाते हैं और (1) मरे हुए कोष (बैक्टीरिया) (2) एवं नष्ट हुए श्वेत अणु को घोल कर पीप बना देते हैं और उन्हें बाहर निकाल देते हैं इससे दर्द कम हो जाता है।

समाज के सभी विचारशील लोग अपना ध्यान निजी हितों से हटाकर पूरी तरह समाज सुधार और दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन में लगाते हुए चले जायें तब समाज शरीर उसी तरह अच्छा हो जाएगा जिस तरह शरीर के बुरे तत्व नष्ट कर देने पर टी.बी. के जीवाणु (बैक्टीरिया) जब एसिड फास्ट वैसिलाइ बन जाते हैं अर्थात् एसिड्स भी उसका मुकाबला नहीं कर पाते उस समय श्वेत अणुओं के 5 प्रकार के कोष (सेल्स) [1] पोलियोमोर्फ्स 70 से 75 प्रतिशत, [2] लिम्फोसाइड्स 20 से 30 प्रतिशत, [3] मोनोसाइड्स 5 से 10 प्रतिशत, [4] ईजिनोफिल 5 से 6 प्रतिशत और [5] वेसोफिल्स आधा प्रतिशत तैयार होते हैं। लड़ाई के दिनों में जिस तरह सेनापति परस्पर ऐसी योजनायें बनाते हैं कि दुश्मन को हर तरह से मात भी दी जाये उसी तरह शारीरिक बुराई के प्रति यह संघर्ष भी बड़ा प्रेरक होता है। सर्व प्रथम पोलियोमोपर्स आते हैं यदि वे अपने आपको मुकाबला करने में असमर्थ पाते हैं तब लिम्फोसाइड्स की टुकड़ी आगे बढ़कर दुश्मन को ललकारती है यदि तब भी टी.बी. के कीटाणु सशक्त हुए और लिम्फोसाइड्स हार गये तो कई-कई इपिथेलाइड्स कोष मिलकर दैत्याकार कोष (जाइन्ट सेल्स) बनाकर टी.बी. के कीटाणुओं को खा जाते हैं। शरीर की यह सुरक्षा-शक्ति आह्वान करती है कि जब कभी सामाजिक बुराइयों, पाप, अपराध अनैतिकता का कुछ ऐसा बाहुल्य हो जाये कि अग्रगण्य लोग भी उन्हें दूर न कर पायें तब संगठित प्रयत्नों द्वारा उन्हें नष्ट करने के लिए अपनी सारी शक्ति जुटा देनी चाहिए।

गुर्दे के ऊपर एक सुप्रारीनल ग्रन्थि (ग्लैण्ड) होती है वह एड्रिनलीक एवं कार्टिको स्टाइड्स निकालती है जो शरीर को उसी प्रकार विषम स्थिति में कार्य करने की शक्ति देती है जैसे महापुरुष अपने अनुयायियों को देकर बुराइयों का अन्त कराते हैं। उदाहरण के लिये सामने कोई जंगली जानवर आ जाये तो एड्रीनलीन रक्त चाप बढ़ाकर पैरों पर अधिक कार्य करने के लिये अधिक शक्ति दे देती है। उतनी शक्ति मस्तिष्क को मिलती है जिससे वह तुरन्त कोई निर्णय ले सके। दौड़ते समय फेफड़े मांस पेशियों (मसल्स) का ऑक्सीजन की बहुत मात्रा अनुदान दे देते हैं दौड़कर आने के बाद काफी देर तक तेज हांफी चलती रहती है इस तरह फेफड़े अपनी खोई शक्ति पुनः अर्जित कर लेते हैं। सम्भवतः यह व्यवस्था भगवान ने इसलिये की कि मनुष्य यह जान ले औरों की भलाई में उत्सर्ग की हुई शक्ति और क्षमतायें नष्ट नहीं होती वरन् एक नई चेतना लेकर भगवान के वरदान की तरह पुनः मिलतीं हैं। मनुष्य अपने उपकार का पुण्य फल उसी प्रकार प्राप्त करता है जिस तरह स्वतन्त्रता संग्राम के सिपाही अपने महत्वपूर्ण पदों का आनन्द ले रहे हैं।

हमारे शरीर की व्यवस्था ऐसी ही है जिसके संग्रह तो हैं पर एक अच्छे सहयोग के लिये त्याग और उदारतापूर्वक औरों की सुविधाएं बढ़ाने के लिए हैं। (1) हर हड्डी के पोले भाग में, (2) प्लीहा (सप्लीन), (3) जिगर (लिवर) में रक्त की मात्रा संग्रहीत रहती है। कभी चोट या घाव हो जाने पर यह संस्थान अविलम्ब रक्त पहुंचा कर उस स्थान को ठीक रखने और कमजोर न होने देने का प्रयत्न करते हैं। सामूहिकता की इसी भावना पर समाज की सुख-शान्ति अवलम्बित है।

रक्त ही नहीं शरीर में चर्बी का भी स्टोर रहता है। चमड़ी और मांस के बीच चर्बी सुरक्षित रहती है। कई दिन तक भोजन न मिले तो भी सब अंग काम करते रहते हैं। चमड़ी पीली पड़ जाती है तो भी किसी की मृत्यु नहीं होने दी जाती। मृत्यु तो हृदय और मस्तिष्क के पोषण न मिलने से होती है पर शरीर-संस्कृति जानती है कि भावनाशील और चरित्रवान् लोगों के मिट जाने से समाज की सुख-शान्ति मिट जाती है इसलिए यह अपनी सुरक्षित शक्ति उनके लिये खुशी-खुशी दान कर देती है।

यह भलाई की शक्तियां ही मनुष्य को जीवन दान देती हैं। डॉक्टर जानते हैं कि शरीर में शक्ति ग्लूकोस के टूटने से प्रसारित होती है। जब कोई मांसपेशी या कोष (सेल) काम करता है तो ग्लूकोस लैक्टिन एसिड में परिवर्तित होकर शक्ति प्रदान करता है। जिगर का ग्लाइकोजन ग्लूकोस में परिवर्तित होता है। यह मांसपेशियों में ए.टी.पी. (एडिनो ट्राइ फास्फेट) टूटकर ए.डी.पी. (एडिनो डाइ फास्फेट) एवं फास्फोरस में बदलता है। यह फास्फोरस क्रियेटिंग फास्फेट से मिलता है जो अपनी शक्ति ग्लाइकोजन से लेता है। विश्राम के समय यही ग्लाइकोजन फिर जिगर में संग्रहीत हो जाता है। सामान्य स्थिति में वह रक्त में भी संचारित होता रहता है। हमारे साधन, सत्कार्यों में निरन्तर लगे रहें और आवश्यकता पड़े तो दूसरी बातों को गौण मानकर भी अपनी तमाम शक्तियां, प्रतिभाएं और योग्यताएं सामाजिक भलाई के कार्यों में लग जायें यह प्रेरणा हमें उक्त क्रिया से मिलती है।

मनुष्य शरीर एक समाज है। इस समाज में अनेक कोष होते हैं, हमारे समाज में अनेक मनुष्य हैं। हम मनुष्य समाज को किस तरह सुखी-शान्त और समृद्ध रखें, किस तरह उसकी सुरक्षा रखें, इस सबकी जानकारी हमें शरीर क्रिया प्रणाली (फिजियोलाजी) से सीखनी पड़ेगी। हम उन नियमों पर चलकर ही मानवीय संस्कृति को जीवित रख सकते हैं। न केवल मानव शरीर में वरन् प्रकृति के हर क्षेत्र में यह संगठन और सहयोग की प्रक्रिया चल रही है। जड़ चेतन जगत इसी आधार पर परस्पर सुसंबद्ध है और अपने क्रम से आगे चल रहा है, यदि इस विधि व्यवस्था में अन्तर पड़ जाय तो समझना चाहिए कि अगले ही क्षण घोर अव्यवस्था की अन्धकार पूर्व स्थिति सामने आकर खड़ी होने वाली है।

परमाणु के बारे में पूर्व मान्यता यह थी कि वे एकाकी और अपने आप में पूर्ण हैं। पर पीछे पता चला कि परमाणु भी एक परिवार सत्ता की तरह हैं और उसके साथ भी एक के भीतर अनेक परतें जुड़ी हुई हैं।

सन् 1803 में जान डाल्टन ने परमाणुवाद के सिद्धान्त को जन्म दिया। उनका कहना था कि—‘‘प्रत्येक पदार्थ सूक्ष्म कणों से मिलकर बना है परमाणु अविभाज्य है और उसकी क्रिया से विभाजित नहीं हो सकता। सारे परमाणु आकार, रूप, भार आदि में समान होते हैं। लेकिन अलग-अलग तत्त्वों के परमाणुओं के गुण, आकार, रूप, मात्रा आदि अलग-अलग होते हैं। जो दो परमाणु मिलते हैं तो वे पूर्ण संख्या में मिलते हैं। खण्डों में नहीं। परमाणु के खण्ड नहीं होते। पर परमाणु न उत्पन्न किए जा सकते हैं और न वे नष्ट होते हैं।

डाल्टन के परमाणु सिद्धान्त अर्वाचीन शोधों ने बहुत अंशों में झुठला दिये हैं। डाल्टन की कल्पना थी कि परमाणु विभाजित नहीं हो सकते परन्तु अब द्रव्य को परमाणुओं से भी सूक्ष्म कणों से बना हुआ ज्ञात किया गया है। परमाणु धन और ऋण विद्युत कणों के बने होते हैं जिन्हें प्रोटोन और इलेक्ट्रोन—कहते हैं। अतः परमाणु इलेक्ट्रोन और प्रोट्रॉन आदि में विभक्त हो सकते हैं। यह भी आवश्यक नहीं कि किसी तत्व के समस्त परमाणु समान हों और यह भी आवश्यक नहीं कि दो विभिन्न तत्वों के परमाणु भिन्न-भिन्न ही हों, वे समान भी हो सकते हैं।

रेडियम और उसकी किरणों को आरम्भ में स्व निर्भर माना गया था पर अब उसके अन्तर्गत भेद प्रभेदों की परतें स्पष्ट होती चली जा रही हैं। आप की रेडियम सम्बन्धी मान्यता में उसके तीन विभाजन हैं। (1) अल्फा (2) बीटा (3) गामा। किरणों की विविध प्रकृति में रेडियम विभक्त हैं। उनकी अपनी-अपनी विशेषता और क्षमता है, फिर भी वे तीनों परस्पर मिली जुली ही रहती हैं और उनका समन्वय ही रेडियम का समग्र अस्तित्व विनिर्मित करता है।

धातु कण और प्राणियों के मूल उत्पादक तत्व भी अब इस रूप में देखे समझे जाने लगे हैं कि वे न केवल जीवन्त ही हैं वरन् परस्पर सहयोग भी करते हैं और मिल-जुलकर एक अस्तित्व का परिचय देते हैं। पदार्थों के समस्त रूपों में धातुओं के कण ही सबसे भारी होते हैं। तब भी उनमें जीवन विद्यमान है। भारतीय विज्ञान प्रवेत्ता प्रो. जे.सी. बोस ने रायल इन्स्टीट्यूशन के सामने यह प्रमाणित किया था कि मांस पेशियों की तरह ही धातुओं में भी हलके किस्म का जीवन विद्यमान है। उन्होंने विभिन्न वनस्पतियों में जीवन ही नहीं संवेदना भी सिद्ध की और प्रमाणित किया कि मिट्टी पत्थर भी निर्जीव नहीं हैं। उर्वरा भूमि तो अनेक प्रकार के बैक्टीरियों जैसे सूक्ष्म कृमियों को जन्म देती रहती है और उनका पोषण करती है, इन्हीं का अग्रिम विकास धरती पर उगी वनस्पतियों के रूप में दिखाई देता है।

रसायन क्षेत्र पर दृष्टिपात करें तो भी यही संगठन और सहयोग का—परस्पर मिलन और समन्वय का सिद्धान्त मूर्तिमान होता दीखता है।

दो तत्वों का सम्मिश्रण ऐसा भी हो सकता है जिसमें वे परस्पर पूरी तरह आत्मसात् हो जायें और अपना-अपना अस्तित्व खोकर एक नये यौगिक के रूप में विकसित होने लगें।

यथा—मैग्नीशियम को हवा में जलाने से सफेद राख बनती है। इस राख को एक ‘यौगिक’ कह सकते हैं क्योंकि उसमें ऑक्सीजन और मैग्नीशियम का सम्मिश्रण पाया जाता है। इसी प्रकार पानी भी दो तत्वों से मिलकर बनता है उसमें हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का सम्मिश्रण है। कोयले को जलाने से कार्बन डाइ ऑक्साइड बनता है। वह भी एक यौगिक है।

रासायनिक प्रति उसे कहते हैं जिसमें दो पदार्थ मिलकर एक रस हो जाते हैं यह भी एक यौगिक प्रक्रिया ही है। दो के मिलने से तीसरी वस्तु बनने की यह भी एक प्रक्रिया है।

यथा—लोहा और गन्धक गर्म करने पर मिल जाते हैं और यौगिक बनाते हैं। गन्धक और पारा मिला देने से भी ऐसा ही मिश्रण होता है। यह मिलन कई प्रकार का होता है। सोडियम के टुकड़े को पानी में डालने पर दोनों के कणों में पारस्परिक मिलन होता है और उसमें हाइड्रोजन गैस बनती है। नमक के घोल और सिल्वर नाइट्रेट का घोल मिलाने से सिल्वर क्लोराइड बनता है। तांबा और नाइट्रिक एसिड मिलाने से ताम्र नाइट्रेट बनना आदि।

मिश्रण उसे कहते हैं जिससे कुछ पदार्थ आपस में मिलकर ऐसे दीखते हैं मानो वे परस्पर घुल-मिल गये पर वस्तुतः ऐसा नहीं होता, उनमें प्रथकता बनी रहती है। कोई अपना अस्तित्व नहीं खोता, और न उनके मिलने से कोई तीसरी चीज बनती है। आवश्यकतानुसार उन्हें प्रथक भी किया जा सकता है। बाहर से एकता भीतर से प्रथकता की यह मिश्रण पद्धति रसायन क्षेत्र में आसानी से देखी जा सकती है।

नमक, मिट्टी और लोहे के बुरादे को मिलाकर एक मिश्रण बनाया जा सकता है। खड़िया, कोयला, शकर आदि मिलाकर एक चीज बन सकती है। अलकोहल जल और नारियल का तेल मिलाकर एक नई जैसी चीज का अस्तित्व सामने आता है। गन्धक, शोरा और कोयला मिलाने से बारूद बनती है। यह मिश्रण प्रयोगशाला में आसानी से प्रथक किये जा सकते हैं।

जीव रसायन (डी.एन.ए.) भी न्यूक्लिओ टाइप वर्ग के चार अन्य रसायनी का सम्मिश्रण है। इनके नाम हैं (1) एडिनिन (2) गुाअनिन (3) लाइमीन (4) साइटोसीन। न्यूक्लिक एसिड के विभिन्न खण्डों को जो विभिन्न गुणों को निर्धारित करते हैं जीन कहते हैं। रासायनिक दृष्टि से प्रत्येक ‘जीन’ न्यूक्लिक एसिड का बना होता है।

राइजोबियम जाति के जीवाणु बैक्टीरिया और दलहन जाति के पौधों ने परस्पर समझौता कर लिया है। दलहन पौधों की जड़ें इन जीवाणुओं को रहने के लिये स्थान और शरण देती हैं यह जीवाणु वायुमण्डल से नेत्रजन (नाइट्रोजन) खींचकर पौधों को देते हैं जिससे पौधों को पोषण मिलता है। दोनों बढ़ते और विकसित होते रहते हैं। प्रकृति की इस परोपकारी वृत्ति को [1] ‘‘सिम्बायोसिस’’ कहते हैं।

किसी गांव में आग लग गई। सब लोग सकुशल निकल गये पर एक अन्धा, एक लंगड़ा व्यक्ति दो ही रह गये। वे भाग नहीं सकते थे। अन्धा देख नहीं सकता था, लंगड़ा चल नहीं सकता था। दोनों ने ऊपर के सिद्धान्त को अपनाया। अन्धे ने लंगड़े को कन्धे पर बिठा लिया। लंगड़ा अन्धे को रास्ता बताने लगा और परस्पर सहयोग के आधार पर वह दोनों भी सकुशल बाहर निकल आये। एक दूसरे के हित में परस्पर सहयोगी होने के इस सिद्धान्त को मनुष्य ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लागू कर लिया होता तो छोटी-छोटी क्षमताओं के लोग भी सन्तोष और सुविधा का जीवन जीते हुये अन्धे और लंगड़े की तरह सांसारिक कठिनाइयों से पार हो जाते।

सेलूलाइटिक फफूंद की दो जातियों में एक जाति बलवान होती है दूसरी निर्बल। जो निर्बल होते हैं वे अपने आहार ‘‘सैलूलोज’’ को तोड़-फोड़ नहीं सकते। अब शक्तिशाली फफूंद सेलूलोज को तोड़ना प्रारम्भ करते हैं और उसमें कार्बनिक अम्ल पैदा कर देते हैं यह कमजोर सेलूलाइटिक फफूंद के लिये आहार का काम देता है। यदि बलवान फफूंद इन निर्बलों को सहारा न देते तो उनकी एक जाति कभी की नष्ट हो गई होती।

परिवार में बच्चे, बूढ़े, विधवायें और कई लोग बीमार तथा अपाहिज भी होते हैं, समाज में कई निर्धन, रोगी, अभावग्रस्त लोग होते हैं उनके प्रति साधन सम्पन्न और शक्तिशाली लोगों का कर्त्तव्य भी ऐसा ही होता है। यदि सम्पन्न और सशक्त लोग कमजोर और निर्बलों की असुविधायें और अभाव दूर करने में थोड़ी सी भी शक्ति खर्च कर सके होते तो आज समाज में कहीं भी विषमता न होती। प्रकृति का यह [2] ‘‘प्रोटो कोआपरेशन’’ सिद्धान्त ही विश्व शान्ति का आधार बन सकता है।

जीव जगत् में [3] कमेन्सलिज्म का एक सिद्धान्त भी ‘जियो और जीने दो’ की समाजवादी व्यवस्था का आदर्श उदाहरण है। कुछ खास किस्म के सूक्ष्म जीवाणुओं में अपने विकास के साधनों का ज्ञान नहीं होता। उन्हें अपनी आजीविका और विकास के लिये साधनों की वैसे ही आवश्यकता पड़ती है जैसे समाज के अनेक पिछड़े, पद दलित, अपंग, आदिवासी, स्त्रियों व हरिजनों को शिक्षा, ज्ञान संवर्द्धन, स्वास्थ्य, उद्यम-उद्योग आदि के साधनों की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता को दूसरे महत्वपूर्ण जीवाणु ‘‘विटामिन’’ और ‘‘एमीनो एसिड’’ बनाकर पूरा कर देते हैं। शिक्षित, सम्पन्न और प्रतिभावान् लोगों ने पिछड़े समाज का ऊपर उठाने के लिये इस सिद्धान्त के आधार पर अपने साधनों का एक अंश भी जुटा दिया होता तो आज संसार में कोई भी पिछड़ा और पददलित नहीं होता। सब लोग सुखी होते। ‘‘एरोब्ज’’ और ‘‘एनारोब्ज’’ जीवाणु इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि मनुष्य को अपने ही नहीं दूसरों के विकास का भी सदैव ध्यान रखना चाहिए।

गैसों की विधि व्यवस्था को गौर से देखा जाय तो उनमें से पारस्परिक सहयोग के कारण उत्पन्न होने वाली क्षमता और विशेषता का परिचय पग-पग पर प्राप्त होता है। नाइट्रोजन जीवधारियों और पौधों के शरीर की वृद्धि के लिए अत्यन्त आवश्यक तत्व है। वह वायुमण्डल में प्रचुर मात्रा में विद्यमान भी है पर आश्चर्य इस बात का है कि शरीर या पौधे हवा से नाइट्रोजन को सीधा ग्रहण नहीं कर सकते।

वायुमण्डल का नाइट्रोजन विद्युत प्रभाव से ऑक्सीजन में मिलकर नाइट्रिक ऑक्साइड बनाता है। जो मेघ जल से मिलकर नाइट्रिक अम्ल बनाती है और पृथ्वी तल पर गिरकर धरती के अन्य लवणों से क्रियान्वित होकर नाइट्रेट में परिणित होती है इतनी लम्बी प्रक्रिया में से गुजरने के बाद तब कहीं नाइट्रोजन इस योग्य बनती है कि उसे प्राणियों के शरीर और पौधे सोखकर आत्मसात् कर सकें।

पौधों के नाइट्रेट लवणों में प्रोटीन बनाते हैं। वनस्पति उसकी पत्ती, फल-फूल खाकर उसके उस तत्व को प्राणी अपने शरीर में ग्रहण करते हैं। जानवर मल और मूत्र के द्वारा बहुत सा नाइट्रोजन धरती को लौटा देते हैं। जो उनके शरीर में बचा रहता है वह मरने के बाद सड़ने या जलने पर फिर लौटकर धरती को या वायुमण्डल को मिल जाता है। इस प्रकार वायुमण्डल का नाइट्रोजन जल, वनस्पति, प्राणी, धरती और फिर वायुमण्डल में भ्रमण करके एक सुव्यवस्थित चक्र की तरह घूमता रहता है।

आकाश स्थित नाइट्रोजन वायु का बादल बिजली की सहायता से वर्षा के साथ खाद बनकर धरती पर आना, पृथ्वी के संयोग से उसका वनस्पति के रूप में उगना, वनस्पतियों का प्राणियों द्वारा भक्षण किया जाना और उसका प्रोटीन जैसे उपयोगी पदार्थों में परिवर्तित होना। मल-मूत्र द्वारा उसका धरती पर आना, वस्तुओं की सड़न से उसका फिर आकाश में लौटना, यह एक ऐसा चक्र है जो निरन्तर चलता रहता है इसे जीवन चक्र भी कह सकते हैं। इसे धरती पर सजीवता बनाये रखने में नाइट्रोजन की महान भूमिका भी कह सकते हैं।

इसके अतिरिक्त पौधों को नाइट्रोजन प्राप्त होने का एक और भी तरीका है। सेम, बटला, मटर जैसी जाति के पौधों की पतली जड़ों में अत्यन्त सूक्ष्म बैक्टीरिया कीड़े रहते हैं उनमें यह विशेषता है कि वे वायुमण्डल से सीधे नाइट्रोजन लेते हैं और उसे नाइट्रेट बना देते हैं। जिन्हें पौधे आसानी से आत्मसात् लेते हैं।

सभी प्राकृतिक तत्व इस ईश्वरीय नियम का पालन करते हैं तो मनुष्य को भी क्यों न करना चाहिये? नाइट्रोजन गैस प्रकृति का एक ऐसा ही तत्व है, जो मनुष्य को एक महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाता है। उससे मनुष्य को यह शिक्षा मिलती है कि बड़ी शक्तियों को सदैव क्रियाशील रहकर संसार की भलाई में जुटे रहना चाहिये।

नाइट्रोजन एक गैस है, अनादिकाल से आकाश में व्याप्त इस प्राकृतिक तत्व ने अपने लिये वायुमण्डल में 80 प्रतिशत स्थान बनाया है। शेष 20 प्रतिशत ऑक्सीजन और दूसरी गैसें हैं। प्रकृति और परमात्मा की तरह दोनों गैसें इस प्रकार घुली-मिली हैं कि उन्हें बिना किसी उत्प्रेरक (कैटालिसिस) से अलग करना कठिन हो जाता है, जिस प्रकार पति-पत्नी दो भिन्न रूप होते हुए भी उद्देश्य और विचारों से परस्पर घुले-मिले रहते हैं पर यदि कपट, ईर्ष्या या द्वेष का बीज बीच में आ गया तो दोनों में जो अभिन्नता थी, वह नष्ट हो जाती है। दोष-दुर्गुण ही हैं जो मानवीय जीवन के सुख, प्रेम और विश्वास में खाई पैदा कर देते हैं।

नाइट्रोजन और ऑक्सीजन को वर्षाकाल में विद्युत अलग करती है। बादल आये, हवा चली, उनमें रगड़ से विद्युत चमकी और उसने उत्प्रेरक (कैटालिसिस) का काम किया। जिस प्रकार परमात्मा की इच्छा से यह पंचतत्त्वों वाला भौतिक शरीर अस्तित्व में आ जाता है और फिर अपने विकास के प्रयत्नों में जुट जाता है, उसी प्रकार बिजली चमकने से ऑक्सीजन और नाइट्रोजन दोनों में प्रतिक्रिया होती है और नाइट्रोजन पंचोषित (नाइट्रोजन पेन्टा ऑक्साइड) बन जाता है और इस प्रकार नाइट्रोजन अपनी अपनी जीवन यात्रा के लिये सुचारू रूप से निकल पड़ता है।

मनुष्य की उत्पत्ति भी इसी प्रकार ईश्वरीय इच्छा या संयोग है। हमें मालूम नहीं कि नाइट्रोजन में क्या किसी प्रकार का जीवन है? पर मनुष्य के सम्बन्ध में ऐसा कोई धोखा नहीं। उसे जो शक्तियां, सुविधायें और सामर्थ्यं उपलब्ध हैं, उन्हें देखकर सहज ही में विश्वास हो जाता है कि उसका जन्म किसी विशेष उद्देश्य के लिये हुआ है। बिना कोई लक्ष्य बनाये मनुष्य अन्तरिक्ष कीट (क्षुद्र ग्रहों) की तरह इधर-उधर भटकता, आप भी मरता और दूसरों के लिये भी संकट उत्पन्न करता है। योजना-बद्ध जीवन जीने वाले मनुष्य यदि अपना आध्यात्मिक लक्ष्य न भी पूरा कर सकें तो भी वह बिना औरों को हानि पहुंचाये अपनी उन्नति करते रहते हैं, अपनी उन्नति का लाभ वह कई समान विचारधारा वाले मित्रों को भी देते रहते हैं।

पंच ओषित नाइट्रोजन (नाइट्रोजन पेन्टा आक्साइड) जल में मिलकर शोरे का तेजाब (नाइट्रिक एसिड) बन जाता है। जिन्हें संसार की कुछ सेवा करनी होती है, वह परिस्थितियों से डरते या संघर्ष में शक्ति नहीं गंवाते वरन् जो भी उन्हें मिलता उसी से मिलकर उसकी कोई न कोई अच्छाई ग्रहण कर अपनी शक्ति बढ़ाते और अपना उद्देश्य पूरा करते रहते हैं। गुणी मनुष्य को पाने की सभी की इच्छा की तरह इस शोरे के तेजाब (नाइट्रिक एसिड) को पृथ्वी सोख लेती है। पृथ्वी कोई एक वस्तु, पदार्थ या धातु नहीं वह भी तो अनेक खनिज लवण और धातुओं का सम्मिश्रण है।

शोरे का तेजाब पृथ्वी में पाये जाने वाले लवण (साल्ट्स) से प्रतिक्रिया (रि-एक्शन) करता, उससे नाइट्रेट लवण बन जाता है। नाइट्रोजन का इतना सब परिश्रम पृथ्वी की सतह तक पहुंचने के लिये होता है। महापुरुष संसार का उपकार करने के लिये छोटे से छोटे व्यक्ति का भी विश्वास प्राप्त करते हैं और तब उनके अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर अपनी विशेषताओं के बीज प्रकट कर उसके विकास में सहायक होते हैं, यह अनुभूति नाइट्रोजन की इस अवस्था से सहज ही में मिलती है।

पौधों की जड़ें इस समय पास होती हैं, वह नाइट्रोजन लवण से नाइट्रोजन उसी तरह खींच लेती हैं, जिस प्रकार किसी महापुरुष के सम्पर्क में आने से चतुर लोग उनके स्वभाव की बारीकियों को पढ़कर अपने जीवन में धारण कर लेते हैं और अपनी योग्यता, महत्ता एवं उपयोगिता बढ़ा लेते हैं। जड़ें नाइट्रेट लवण से खींचे हुये नाइट्रोजन का लाभ अपनी मोटाई बढ़ाने में नहीं करतीं वरन् सन्त-पुरुष जिस तरह धन, सम्पत्ति, तप और योग्यता का लाभ सारे शरीर को देते रहते हैं, उसी प्रकार जड़ें नाइट्रोजन को सारे वृक्ष—तने, डालों, पत्तियों और फल-फूल में पहुंचाती रहती हैं।

मनुष्य मर जाते हैं पर उनके कारण शरीर कभी नष्ट नहीं होते, सच पूछा जाय तो महापुरुषों के शरीर हाड़-मांस के नहीं गुणों के बने होते हैं और जन्म-जन्मान्तरों तक बरतते रहते हैं, नाइट्रोजन जिसे पत्तियों, फल-फूलों, टहनियों ने सोख लिया था, उनके सूख जाने पर भी विद्यमान रहता है। पत्ते आदि सूख कर पृथ्वी में गिर जाते हैं या हरे होने पर जानवरों द्वारा चल लिये जाते हैं। दूसरी अवस्था में वह शरीर के उपयुक्त न होने पर मल-मूत्र के द्वारा अमोनिया के रूप में बाहर निकल आता है। मृत्यु हो जाने पर भी वह जानवरों के शरीर से बाहर आ जाता है, पहली अवस्था में भी वह पृथ्वी में आ जाता है और इधर-उधर बिखर जाता है।

कुसमय में लोग कई बार ऐसे हतवीर्य हो जाते हैं कि अपने हाथ-पांव भी डुलाना बन्द कर देते हैं और विनाश को निमन्त्रण दे लेते हैं पर नाइट्रोजन ऐसी अवस्था में भी धैर्य नहीं खोता। बाहर से जान पड़ता है कि पत्ते सूख गये और नाइट्रोजन समाप्त हो गया, लेकिन ऐसा नहीं होता, वह इस विषम स्थिति में अपने सहारे की खोज करते रहते हैं। ‘जिन खोजा तिन पाइयां’ वाली कहावत चरितार्थ होती है, वर्षा का पानी गिरा और नाइट्रोजन को अमोनिया नाइट्रेट या नाइट्रेट लवणों में बदल दिया। उपकारी मनुष्य को एक-एक अनेक सहयोगियों की तरह एक दूसरा बैक्टीरिया जिसे डिनाइट्रीफाइंग कहते हैं, से भेंट होती है और वह अमोनिया नाइट्रेट या नाइट्रेट लवणों को नाइट्रोजन में बदल देता है और इस तरह वह नाइट्रोजन पुनः वातावरण (एटमास्फियर) में विलीन हो जाता है।

नाइट्रोजन मरुतदेव की त्रिपुणात्मक शक्ति का एक अंश है। हमारे वेदों और उपनिषदों में मरुत देवता के गुणों की प्रशंसा की गई है, उसका कारण यही है कि उनकी यह शक्ति ही पृथ्वी पर वृक्ष और वनस्पति को जीवन देती रहती है। काल-चक्र रुक सकता है पर वह शक्ति अपने नियत व्रत का उल्लंघन यों नहीं करती कि उससे सारे प्राणि जगत् को पोषण और शक्ति मिलती है।

ब्रह्माण्ड की एक विलक्षण शक्ति के रूप में नाइट्रोजन का अवतरण और एक जीवन व्रत बनाकर प्राणिमात्र के कल्याण के लिए आवागमन के चक्र में पड़े रहने से मनुष्य को बड़ी प्रेरणायें मिलती हैं। हम भी किसी अज्ञात शक्ति की इच्छा और अंश से जीवन धारण कर रहे हैं पर हम न तो मनुष्य शरीर में आने के उद्देश्य को पहचानते हैं, न उसे पूरा करते हैं, होना यह चाहिये था, सांसारिक प्रपंच में उतना फंसते हैं, जितना आत्म-विकास के लिये आवश्यक होता है। सेवा औरों का उत्थान और आत्म-प्रगति के लिये सहयोगी तत्त्वों का अर्जन नाइट्रोजन की तरह मनुष्य को भी इन तीनों में समरूप बने रह कर अपना लक्ष्य पूरा करना चाहिये पर ऐसा होता कहां है, हम तो अपने ही स्वार्थों की इन्द्रिय सुखों की अधोगामी मृग मरीचिका में भटकते रहते हैं।

सहअस्तित्व का—परस्पर सहयोग का यह अनोखा उदाहरण है। कीड़े पौधों को खुराक देते हैं और पौधे कीड़ों को। इस प्रकार दोनों एक-दूसरे के लिए जीवन के साधन प्रदान करते रहते हैं।

पृथ्वी में भी कुछ ऐसे सूक्ष्म कीड़े रहते हैं जो पदार्थों में से नाइट्रोजन बनाते हैं और वायुमण्डल से जितना अंश धरती निवासियों को प्राप्त होता है उसी वापिस करते रहते हैं।

वायुमण्डल में नाइट्रोजन का बहुत बड़ा भण्डार है। धरती की सतह से दो सौ मील तक की ऊंचाई में जो वायु का आवरण है उसमें 78 प्रतिशत नाइट्रोजन गैस का भाग है। जिस तरह ऑक्सीजन श्वास नलिका से फेफड़े तक जाकर रक्त की अशुद्धि दूर कर उसे शुद्ध बनाती हैं। उसी तरह नाइट्रोजन मनुष्यों, पेड़-पौधों तथा अन्य जीवधारियों के भोजन की व्यवस्था जुटाती है। जैसे आटा ऐसे ही कच्चा नहीं खाया जा सकता, उसकी रोटी बनाकर खाने से काम चलता है उसी तरह नाइट्रोजन सीधा भोजन नहीं है, उसके कारण प्रोटीन तथा दूसरे पदार्थ बनते हैं और वे हमारे आहार का प्रयोजन पूरा करके जीवन रक्षक ही सिद्ध होते हैं।

चाहे जन-जीवन की बात हो चाहे प्रकृतिगत जड़ समझे जाने वाले पदार्थों की, सबके मूल में एक ही प्रधान तथ्य काम करता दिखाई पड़ेगा संगठन और सहयोग। जहां इस प्रक्रिया को जितना अधिक अपनाया जायेगा वहां उतना ही अधिक उत्कर्ष दिखाई पड़ेगा जहां उसमें न्यूनता पड़ेगी वहीं अवांछनीय एवं असुखकर परिस्थितियां उत्पन्न होंगी।
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