अध्यात्म एक प्रकार का समरगायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
मित्रो! कर्म के आधार पर प्रत्येक अध्यात्मवादी को क्षत्रिय होना चाहिए, क्योंकि "सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्" अर्थात इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय ही लड़ते हैं। बेटे, अध्यात्म एक प्रकार की लड़ाई है। स्वामी नित्यानन्द जी की बंगला की किताब है 'साधना समर'। 'साधना समर' को हमने पढा, बड़े गजब की किताब है। मेरे ख्याल से हिंदी में इसका अनुवाद शायद नहीं हुआ है। उन्होंने इसमें दुर्गा का, चंडी का और गीता का मुकाबला किया है। दुर्गा सप्तशती में सात सौ श्लोक हैं और गीता में भी सात सौ श्लोक हैं। दुर्गा सप्तशती में अठारह अध्याय हैं, गीता के भी अठारह अध्याय हैं। उन्होंने ज्यों का त्यों सारे के सारे दुर्गा पाठ को गीता से मिला दिया है और कहा है कि साधना वास्तव में समर है। समर मतलब लड़ाई, महाभारत। यह महाभारत है, यह लंकाकाण्ड है। इसमें क्या करना पड़ता है? अपने आप से लड़ाई करनी पड़ती है, अपने आप की पिटाई करनी पड़ती है, अपने आप की धुलाई करनी पड़ती है और अपने आप की सफाई करनी पड़ती हैं। अपने आप से सख्ती से पेश आना पड़ता है।
हम बाहर वालों के साथ जितनी भी नरमी कर सकते हैं वह करें। दूसरों की सहायता कर सकते हैं, उन्हें क्षमा कर सकते हैं, दान दे सकते हैं, उदार हो सकते हैं, दूसरों को सुखी बनाने के लिए जितना भी, जो कुछ भी कर सकते हो, करें। लेकिन अपने साथ, अपने साथ हमको हर तरह से कड़क रहना चाहिए, अपनी शारीरिक वृत्तियों और मानसिक वृत्तियों के विरुद्ध हम जल्लाद के तरीके से, कसाई के तरीके से इस तरह से खड़े हो जाएँ कि हम तुमको पीटकर रहेंगे, तुमको मसलकर रहेंगे,तुमको कुचलकर रहेंगे। अपनी इंद्रियों के प्रति हमारी बगावत इस तरह की होनी चाहिए और अपनी मनःस्थिति के विरुद्ध बगावत इस स्तर की होनी चाहिए। हम अपनी मानसिक कमजोरियों को समझें, न केवल समझें, न केवल क्षमा माँगे, वरन उनको उखाड़ फेंके। गुरुजी, क्षमा कर दीजिए। बेटे, क्षमा का यहाँ कोई लाभ नहीं, अँग्रेजों के जमाने में जब कांग्रेस वह आंदोलन शुरू हुआ था, तब यह प्रचलन था कि माफी माँगिए, फिर छुट्टी पाइए। जब अँग्रेजों ने देखा कि ये तो माफी माँगकर छुट्टी ले जाते हैं, फिर दोबारा आ जाते हैं। उन्होंने कहा ऐसा ठीक नहीं है, जमानत लाइए पाँच हजार रुपए की। जो जमानत लाएगा, उसी को हम छोड़ेंगे, नहीं तो नहीं छोड़ेंगे। माफी ऐसे नहीं मिल सकती। फिर पाँच- पाँच हजार की जमानतें शुरू हुईं। जिनको जरूरी काम थे, उन्हें इस तरह की जमानत पर छोड़ देते थे। फिर पाँच हजार की इन्क्वायरी शुरू हुई। उन्हें सी०आई०डी० ने रिपोर्ट दी कि साहब, ये जमानत पर चले जाते हैं और पाँच हजार से ज्यादा का आपका नुकसान कर देते है। फिर उन्होंने जमानतें भी बंद का दी।
अपने साथ कड़ाई करिएमित्रो! भगवान ने भी ऐसा किया है कि माफी देने का रोड रास्ता बंद कर दिया है। किसी को माफी दीजिए गुरुजी! माफी कहाँ है यहाँ, दंड भोग। इसलिए क्या करना पड़ेगा? अपने साथ में कड़ाई करने की जिस दिन आप कसम खाते हैं, जिस दिन आप प्रतिज्ञा करते है कि हम अपनी कमजोरियों के प्रति कड़क बनेंगे। अपनी शारीरिक कमजोरियों के तई और अपनी मानसिक कमजोरियों के तई कड़क बनेंगे। बेटे, दोनों क्षेत्रों में इतनी कमजोरियों भरी पड़ी हैं कि इन्होंने हमारा भविष्य चौपट कर डाला, व्यक्तित्व का सत्यानाश कर दिया। अध्यात्म यहाँ से शुरू होता है। यहाँ से ही भगवान को मानने वाली बात शुरू होती है, भगवान का दर्शन शुरू होता है। अंगार के ऊपर चढ़ी हुई परत को जिस तरह हम साफ कर देते हैं और वह चमकने लगता है, उसी तरह हमारी आत्मा पर मलीनताओं की जो परत चढ़ी हुई हैं। मलीनताओं की इन परतों को हम धोते हुए चले जाएँ तो भीतर बैठे हुए भगवान का, आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है।
मंत्र नहीं, मर्म से जानेंक्यों साहब लक्स साबुन से हम कपड़ा धोए कि हमाम से धोएँ या सके से धोएँ। बेटे, मेरा दिमाग मत खा। तू चाहे तो सर्फ से धो सकता है, लक्स से- सम्राट से धो सकता है, हमाम से धो सकता है, नमक से, रीठा से धो सकता है। महाराज जी! क्या गायत्री मंत्र से मेरा उद्धार हो जाएगा? चंडी के मंत्र से उद्धार हो जाएगा या हनुमान जी के मंत्र से उद्धार होगा? बेटे, इसमें बस इतना फर्क है जितना कि सर्फ और सनलाइट में फर्क होता है और कोई खास बात नहीं है। हनुमान जी के मंत्र से भी साफ हो सकता है। तू हिंदू है या मुसलमान है तो भी साफ हो सकता है। बस तू ठीक तरीके से इस्तेमाल कर। गुरुजी! गायत्री मंत्र से मुक्ति मिल जाती है या 'राम रामाय नमः '' से। बेटे, अब मैं इससे कहीं आगे चला गया हूँ। अब मैं यह बहस नहीं करता कि गायत्री मंत्र का जप करेंगे तो आपकी मुक्ति होगी और हनुमान जी का जप करेंगे, तो मुक्ति नहीं होगी। बेटे, सब भगवान के नाम हैं। साबुन में केवल लेबल का फर्क है, असल में उनका उद्देश्य एक है।
मित्रो! साधना का उद्देश्य एक है कि हमारी भीतर वाली मनःस्थिति की सफाई होनी चाहिए, जो हमारी शरीर को विकृतियों और मानसिक विकृतियों के लिए जिम्मेदार है। हमारी मानसिक और शारीरिक विकृतियों ही हैं, जिन्होंने हमारे और भगवान के बीच में एक दीवार खड़ी की है। अगर हम इस दीवार को नहीं हटा सकते, तो हमारे पड़ोस में बैठा हुआ भगवान हमें साक्षात्कार नहीं दे सकता। बेटे, भगवान में और हम में दीवार का फर्क है, जिससे भगवान हमसे कितनी दूरी पर है? गुरुजी! भगवान तो लाखों- करोड़ों कि०मी० दूर रहता है? नहीं बेटे, करोड़ों कि०मी० दूर नहीं रहता। वह हमारे हृदय की धड़कन में रहता है, लपडप के रूप में हमारी साँसों में प्रवेश करता है। हमारी नसों में गंगा- जमुना की तरह से उसी का जीवन प्रवाहित होता है। हमारा प्राण भगवान है और हमारे रोम- रोम में समाया हुआ है। तो दूर कैसे हुआ? दूर ऐसे हो गया कि हमारे और भगवान के बीच में एक दीवार खड़ी हो गई। उस दीवार को गिराने के लिए जिस छेनी- हथौड़े का इस्तेमाल करना पड़ता है, उसका नाम है पूजा और पाठ।
पहले थ्योरी समझेंपूजा और पाठ किस चीज का नाम है? दीवार को गिरा देने का, इसी ने हमारे और भगवान के बीच में लाखों कि०मी० की दूरी खड़ी कर दी है, जिससे भगवान हमको नहीं देख सकता और हम भगवान को नहीं देख सकते। हम इस दीवार को गिराना चाहते है। उपासना का वास्तव में यही मकसद है। छेनी और हथौड़े को जिस तरह से हम दीवार गिराने के लिए इस्तेमाल करते हैं, उसी तरीके से अपनी सफाई करने के लिए पूजा−पाठ के, भजन के कर्मकाण्ड का, क्रियाकृत्य का उपयोग करते है। भजन उसी का उद्देश्य पूरा करता है। यह मैं आपको फिलॉसफी समझाना चाहता था। अगर आप अध्यात्म की फिलॉसफी समझ जाएँ, इस थ्योरी को समझ जाएँ तो आपको प्रेक्टिस से फायदा हो सकता है। नहीं साहब, हम तो प्रेक्टिस में इम्तिहान देंगे, थ्योरी में नहीं देंगे, किसका इम्तिहान देना चाहते हैं? हम तो साहब वाइवा देंगे और थ्योरी के परचे आएँगे तो? थ्योरी, थ्योरी के झगड़े में हम नहीं पड़ते, हम तो आपकी सुना सकते हैं। हम फिजिक्स जानते है। देखिए ये हाइड्रोजन गैस बना दी। देखिए, ये शीशी इसमें डाली और ये शीशी इसमें डाली, बस ये पानी बन गया। अच्छा अब आप हमको साइंस में एम०एस- सी० की उपाधि दीजिए। गैस क्या होती है? गैस, गैस क्या होती है हमें नहीं मालूम। इस शीशी में से निकाला और इस शीशी में डाला, दोनों को मिलाया, पानी बन गया। अब आपको शिकायत क्या है इससे? नहीं साहब, आपको साइंस जाननी पड़ेगी ,, फिजिक्स पढ़नी पड़ेगी, तब सारी बातें जानेंगे। नहीं साहब, जानेंगे नहीं।
बेटे, आपको जानना चाहिए और करना चाहिए। जानकारी और करना दोनों के समन्वय का नाम एक समग्र अध्यात्मवाद होता है। मैंने आपको अध्यात्म के बारे में इन थोड़े से शब्दों में समझाने की कोशिश की कि आप क्रिया- कृत्यों के साथ साथ आत्मसंकेतोपचार की प्रक्रिया को मिलकर रखे तो हमारा उद्देश्य पूरा हो सकता है। बच्चों को यहीं करना पड़ता है। पूजा का हर काम बड़ा कठिन है। नहीं साहब! सरल बता दीजिए। सरल तो एक ही काम है और वह है मरना। मरने से सरल कोई काम नहीं है। जिंदगी, जिंदगी बड़ी कठिन है। जिंदगी के लिए आदमी को संघर्ष करना पड़ता है, लड़ना पड़ता है। प्रगति के लिए हर आदमी को लड़ना पड़ा, संघर्ष करना पड़ा। मरने के लिए क्या करना पड़ता है? मरने के लिए तो कुछ भी नहीं करना पड़ता। छत के ऊपर चढ़कर चले जाओ और गिरो, देखो अभी खेल खत्म। गंगाजी में चले जाओ, झट से डुबकी मारना, बहते हुए चले जाओगे। बेटे, मरना ही सरल है। पाप ही मरता है, पतन ही सरल है। अपने आपका विनाश ही सरल है। दियासलाई की एक तीली से अपने घर को आग लगा दीजिए। आपका घर जो पच्चीस हजार रुपए का था, एक घटे में जलकर राख हो जाएगा। तमाशा देख लीजिए। आहा.... गुरुजी! देखिए हमारा कमाल, हमारा चमत्कार। क्या चमत्कार हैं? देखिए पच्चीस हजार रुपए का सामान था हमारे घर में, हमने दियासलाई की एक तीली से जला दिया। कमाल है न। वाह भई वाह। बहादुर को तो ऐसा, जो एक तीली से पच्चीस हजार रुपए जला दे।
कमाना कठिन, गँवाना सरलमित्रो! पच्चीस हजार रुपए कमाना कितना कठिन होता है, कितना जटिल होता है, आप सभी जानते हैं। इसी तरह जीवन को, व्यक्तित्व को बनाना, विकसित करना कितना कठिन, कितना जटिल है? यह उन लोगों से पूछिए जिन्होंने सारी जिन्दगी मेहनत- मशक्कत की और आखिर के दिनों में पंद्रह हजार रुपए का मकान बना पाए। देखिए साहब, अब हम मर रहे हैं, लेकिन हमने इतना तो कर लिया कि अपने बाल- बच्चों के लिए एक मकान बनाकर छोड़े जा रहे हैं। निज का मकान तो है। पंद्रह हजार रुपए बेटा क्या है? पंद्रह हजार रुपए हमारी सारी जिन्दगी की कीमत है। जिन्दगी की कीमत किसे कहते हैं? अपने व्यक्तित्व को बनाना, अपने जीवन को बनाना, अपनी जीवात्मा को महात्मा, देवता बनाना और परमात्मा बनाना, यह विकास कितना बड़ा हो सकता है? इसके लिए कितना संघर्ष करना चाहिए, कितनी मेहनत करनी चाहिए, कितना परिश्रम और कितना परिष्कार करना चाहिए।
अगर आपके मन में यह बात नहीं आई और आप यही कहते रहे कि सरल रास्ता बताइए, सस्ता रास्ता बताइए, तो मैं यह समझूँगा कि आप जिस चीज को बनाना चाहते हैं, असल में उसकी कीमत नहीं जानते। कीमत जानते होते तो आपने सरल रास्ता नहीं पूछा होता। आप इंग्लैण्ड जाना चाहते है? अच्छा साहब इंग्लैण्ड जाने के लिए छह हजार रुपए लाइए, आपको हवाई जहाज का टिकट दिलवाएँ। नहीं साहब, इतने पैसे तो नहीं खरच कर सकते। क्या करना चाहते हैं? सरल रास्ता बताइए इंग्लैण्ड जाने का। इंग्लैण्ड जाने का सरल रास्ता जानना चाहते हैं ?? कैसा सरल रास्ता बताऊँ बेटे? बस गुरुजी ज्यादा से ज्यादा मैं छह नए पैसे खरच कर सकता हैं, पहुँचा दीजिए न। अच्छा ला छह नए पैसे। इंग्लैण्ड अभी चुटकी में पहुँचाता हूँ। ये देख हरिद्वार मैं बैठा था और पहुँच गया इंग्लैण्ड देख ये लिखा हुआ है इंग्लैण्ड। अरे महाराज जी, यह तो आप चालाकी की बात कहते हैं। अच्छा बेटे, तू क्या कर रहा था? तू चालाकी नहीं कर रहा था ।। नहीं महाराज जी, भगवान तक पहुँचा दीजिए, मुफ्त में अपनी सिद्धि से पहुँचा दीजिए। यहाँ पहुँचा दीजिए वहाँ पहुँचा दीजिए। पागल कहीं का, पहुँचा दे तुझे ज़हन्नुम में। तू कहीं नहीं जा सकता, जहाँ है वहीं बैठा रह ।।
कीमत चुकाइएइसलिए मित्रो! ऊँचा उठने और श्रेष्ठ बनने के लिए जिस चीज की, जिस परिश्रम की जरूरत है, उसके लिए आप कमर कसकर रवड़े हो जाइए। कीमत चुकाइए और सामान खरीदिये। पाँच हजार रुपए लाइए, हीरा खरीदिये। नहीं साहब, पाँच पैसे का हीरा खरीदूँगा। बेटे, पाँच पैसे का हीरा न किसी ने खरीदा है और न कहीं मिल सकता है। सस्ते में मुक्ति बेटे हो ही नहीं सकती। अगर तुम कठिन कीमत चुकाना चाहते हो तो सुख- शांति पा सकते हो। सूख और शांति पाने के लिए हमको कितनी मशक्कत करनी पड़ी है, आप इससे अंदाजा लगा लीजिए। सुख बड़ा होता है या शांति? पैसे वाला बड़ा होता है या ज्ञानवान? बनिया बड़ा होता है या पंडित? तू किसको प्रणाम करता है- बनिया को या पंडित को और किसके पैर छूता है ?? लालाजी के या पंडित जी के? पंडित जी के। क्यों ?? क्योंकि वह बड़ा होता है। ज्ञान बड़ा होता है और धन कमजोर होता है। इसलिए सुख की जो कीमत हो सकती है, शांति की कीमत उससे ज्यादा होनी चाहिए। सुख के लिए जो मेहनत, जो मशक्कत, जो कठिनाई उठानी पड़ती है, शांति के लिए उससे ज्यादा उठानी पड़ती है और उठानी भी चाहिए। आपको यदि यह सिद्धांत समझ में आ जाए तो में समझूँगा कि आपने कम से कम वास्तविकता को जमीन पर खड़ा होना तो सीख लिया। आप इस पर अपनी इमारत भी बना सकते हैं और जो चीज पाना चाहते हैं, वह पा भी सकते "।
इतना बताने के बाद अब मैं आपको क्रियायोग की थोड़ी सी जानकारी देना चाहूँगा। उपासना की सामान्य प्रक्रिया हम आपको पहले से बताते रहे हैं। इसमें सबसे पहला प्रयोग चाहे वह उपासना के पंचवर्षीय साधनाक्रम में शामिल हो, चाहे हवन में, चाहे अनुष्ठान में, पाँच कृत्य आपको अवश्य करने पड़ते हैं। ये आत्मशोधन की प्रक्रिया पाँच हैं- ( १ )) पवित्रीकरण करना (२) आचमन करना (३) शिखाबंधन (४) प्राणायाम और (५) न्यास इन चीजों के माध्यम से मैंने आपको एक दिशा दी है, एक संकेत दिया है। हमने यह नियम बनाया है कि आपको स्नान करना चाहिए, प्राणायाम करना चाहिए, न्यास करना चाहिए। इन माध्यमों से आपको अपनी प्रत्येक इंद्रिय का परिशोधन करना चाहिए।
आत्मशोधनमित्रो! हमारी हर चीज संशोधित और परिष्कृत होनी चाहिए, स्नान की हुई होनी चाहिए। न्यास में हम प्रत्येक इंद्रिय के परिशोधन की प्रक्रिया की ओर आपको इशारा करते और कहते हैं कि इन सब इंद्रियों को आप सही कीजिए, इंद्रियों को ठोक कीजिए। न्यास में हम आपको आँख से पानी लगाने के लिए कहते हैं मुँह से, वाणी से पानी लगाने के लिए कहते हैं पहले आप इनको धोइए। मंत्र का जप करने से पहले जीभ को धोकर लाइए। तो महाराज जी! जीभ का संशोधन पानी से होता है? नहीं बेटे, पानी से नहीं होता। पानी से इशारा करते हैं जिह्वा के संशोधन का, इंद्रियों के संशोधन का। जिह्वा का स्नान कहीं पानी पीकर हो सकता है? नहीं, असल में हमारा इशारा जिह्वा के प्राण की ओर है, जिसका शोधन करने के लिए अपने आहार और विहार दोनों का संशोधन करना पड़ेगा।
मित्रो! हमारी वाणी दो हिस्सों में बाँटी गई है- एक को 'रसना' कहते हैं, जो खाने के काम आती हैं और दूसरी को 'वाणी' का भाग कहते हैं, जो बोलने के काम आती है। खाने के काम से मतलब यह है कि हमारा आहार शुद्ध और पवित्र होना चाहिए ईमानदारी का कमाया हुआ होना चाहिए। गुरुजी! मैं तो अपने हाथ का बनाया हुआ खाता हूँ। नहीं बेटे, अपने हाथ से बनाता है कि पराये हाथ वह खाता है, यह इतना जरूरी नहीं है। ठीक है सफाई का ध्यान होना चाहिए, गंदे आदमी के हाथ का बनाया हुआ नहीं खाना चाहिए, ताकि गंदगी आपके शरीर में न जाए, लेकिन असल में जहाँ तक आहार का संबंध है, जिह्वा के संशोधन का संबंध है, उसका उद्देश्य यह है कि हमारी कमाई अनीति की नहीं होनी चाहिए, अभक्ष्य की नहीं होनी चाहिए। आपने अनीति की कमाई नहीं खाई है, अभक्ष्य की कमाई नहीं खाई है, दूसरों को पीड़ा देकर आपने संग्रह नहीं किया है। दूसरों को कष्ट देकर, विश्वासघात करके आपने कोई धन का संग्रह नहीं किया है तो आपने चाहे अशोका होटल में बैठकर प्लेट में सफाई से खा लिया हो, चाहे पत्ते पर खा लिया हो, इससे कुछ बनता- बिगड़ता नहीं है।
अपने श्रम की कमाई खाएँमित्रो! ईमानदारी का कमाया हुआ धान्य, परिश्रम से कमाया हुआ धान्य हराम का धान्य नहीं हैं। ध्यान रखें, हराम की कमाई को भी मैंने चोरी का माना है। जुए की कमाई, लॉटरी की कमाई, सट्टे की कमाई और बाप दादाओं की दी हुई कमाई को भी मैंने चोरी का माना है। हमारे यहाँ प्राचीनकाल से ही श्राद्ध की परंपरा है। श्राद्ध का मतलब यह था कि जो कमाऊ बेटे होते थे, बाप -दादों की कमाई को श्राद्ध में दे देते थे, अच्छे काम में लगा देते थे, ताकि बाप की जीवात्मा, जिसने जिदंगीभर परिश्रम किया है, उसकी जीवात्मा को शांति मिले! हम तो अपने हाथ पाँव से कमाकर खाएँगे। ईमानदार बेटे यही करते थे ।। ईमानदार बाप यही करते थे कि अपने बच्चों को स्वावलंबी बनाने के लिए उसे इस लायक बनाकर छोड़ा करते थे कि अपने हाथ- पाँव की मशक्कत से वे कमाएँ खाएँ।
अपने हाथ की कमाई, पसीने की कमाई खा करके कोई आदमी बेईमान नहीं हो सकता, चोर नहीं हो सकता, दुराचारी नहीं हो सकता, व्यभिचारी नहीं हो सकता, कुमार्गगामी नहीं हो सकता। जो अपने हाथ से कमाएगा, उसे मालूम होगा कि खरच करना किसे कहते हैं। जो पसीना बहाकर कमाता है, वह पसीने से खरच करना भी जानता है। खरच करते समय उसको कसक आती है, दर्द आता है, लेकिन जिसे हराम का पैसा मिला है, बाप- दादों का पैसा मिला है, वह जुआ खेलेगा, शराब पीएगा और बुरे से बुरा कर्म करेगा। कौन करेगा पाप? किसको पड़ेगा पाप? बाप को ?? क्यों पड़ेगा? मैं इसे कमीना कहूँगा, जिसने कमा- कमाकर किसी को दिया नहीं। बेटे को दूँगा, सब जमा करके रख गया है दुष्ट कही का। वह सब बच्चों का सत्यानाश करेगा। मित्रों! हराम की कमाई एक और बेईमानी की कमाई दो, दोनों में कोई खास फर्क नहीं है, थोड़ा सा ही फर्क है। ईमानदार और परिश्रमी व्यक्ति हराम की और बेईमानी की कमाई नहीं खाते।
वाणी का सुनियोजन करिएमित्रो! आपकी जिह्वा इस लायक है कि इससे जो भी आप मंत्र बोलेंगे, सही होते हुए चले जाएँगे और सार्थक होते चले जाएँगे, अगर आपने जिह्वा का ठीक उपयोग किया है, तब और आपने दूसरों को बिच्छू के से डंक चुभोए नहीं हैं, दूसरों का अपमान किया नहीं हैं। दूसरों को गिराने वाली सलाह दी नहीं है, दूसरों की हिम्मत तोड़ने वाली सलाह दी नहीं है। जो यह कहते है कि हम झूठ नहीं बोलते। अरे! झूठ तो नहीं बोलता, पर दूसरों का दिल तोड़ता है दुष्ट। हमें हर आदमी की हिम्मत बढानी चाहिए और ऊँचा उठाना चाहिए। आप तो हर आदमी का 'मॉरल' गिरा रहे हैं उसे 'डिमारलाइज' कर रहे हैं। आपने कभी ऐसा किया है, कि किसी को ऊँचा उठाने की बात की हैं। आपने तो हमेशा अपनी स्त्री को गाली दी कि तू बड़ी पागल है, बेवकूफ है,जाहिल है। जब से घर में आई है सत्यानाश कर दिया है। जब से वह आपके घर आई, तब से हमेशा बेचारी की हिम्मत आप गिराते हुए चले गए। उसका थोड़ा- बहुत जो हौसला था, उसे आप गिराते हुए चले गए।
महाभारत में कर्ण और अर्जुन दोनों का जब मुकाबला हुआ तो श्रीकृष्ण भगवान ने शल्य को अपने साथ मिला लिया। उससे कहा कि तुम एक काम करते रहना, कर्ण की हिम्मत कम करते जाना। कर्ण जब लड़ने के लिए खड़ा हो तो कह देना कि अरे साहब! आप उनके सामने क्या है? कहाँ भगवान और अर्जुन और कहाँ आप सूत के बेटे, दासी के बेटे? भला आप क्या कर लेते हैं? देखिए अर्जुन सहित पाँचों पांडव संगठित हैं। वे मालिक हैं और आप नौकर हैं। आपका और उनका क्या मुकाबला? बेचारा कर्ण जब कभी आवेश में आता, तभी वह शल्य ऐसी फुलझड़ी छोड़ देता कि उसका खून ठंडा हो जाता। आपने भी हरेक का खून ठंडा किया है। आपने झूठ बोलने से भी ज्यादा जुर्म किया है, एक बार आप झूठ बोल सकते थे। आपके झूठ में इतनी खराबी नहीं थी, जितनी कि आपने हर आदमी को जिसमें आपके बीबी बच्चे भी शामिल हो, आपने हरेक को नीचे गिराया। आपने किसी का उत्साह बढ़ाया, हिम्मत बढ़ाई? किसी की प्रशंसा की? नहीं, आपने जीभ से प्रशंसा नहीं की, हर वक्त निंदा की, इसकी निंदा की, उसकी निंदा की। आप निंदा ही करते रहे। मित्रो! हमारी जीभ लोगों का जी दुखाने वाली, टोंचने वाली नहीं होनी चाहिए। टोंचने वाली जीभ से जब भी हम बोलते हैं, कड़ुवे वचन बोलते हैं। क्या आप मीठे वचन कहकर वह काम नहीं करा सकते, जो आप कड़ुवे वचन बोलकर या गाली देकर कराना चाहते हैं, वह प्यार भरे शब्द, सहानुभूति भरे शब्द कहकर नहीं करा सकते? करा सकते है।
जिह्वा ही नहीं, हर इंद्रिय का सदुपयोग करेंमित्रो! ये जिह्वा का संकेत है, जो हम बार- बार पानी पीने के नाम पर, पवित्रीकरण के नाम पर, आचमन करने के नाम पर आपको सिखाते हैं और कहते हैं कि जीभ को धोइए, जीभ को साफ कीजिए। जिह्वा को आप ठीक कर लें तो आपका मंत्र सफल हो जाएगा। तब राम नाम भी सफल हो अता है, गायत्री मंत्र भी सफल हो सकता है और जो भी आप चाहे सफल हो सकता है।
यह आत्मसंशोधन की प्रक्रिया है। जीभ का तो मैंने आपको एक उदाहरण दिया है। इसके लंबे में कहाँ तक जाऊँ कि आपको सारी की सारी इंद्रियों का वर्णन करूँ और उनके संशोधन की प्रक्रिया बताऊँ कि आप अमुक इंद्रिय का संशोधन कीजिए। आँखों का संशोधन कीजिए। आँखों में जो आपके शैतान बैठा रहता है, जो छाया के रूप में प्रत्येक लड़की को आपको वेश्या दिखाता है। स्कूल पाने कौन जाती है वेश्या। ये कौन बैठी है वेश्या! सड़क पर कौन जाती है? गंगाजी पर कौन नहा रही है? सब वेश्या। श्री साहब! दुनिया में कोई सती, साध्वी, बेटी, माँ, बहन कोई है ?? नहीं साहब! दुनिया में कोई बहन नहीं होती, कोई बेटी नहीं होती। जितनी भी रेलगाड़ियों में चल रही हैं, जितनी भी गंगाजी में नहाती हैं जो स्कूल जा रही हैं, ये सब वेश्या हैं। नहीं बेटे, ये वेश्या कैसे हो सकती हैं। तेरी भी तो कन्या होगी? तेरी भी तो लड़की स्कूल जा रही होगी। वह भी फिर वेश्या है क्या? नहीं साहब! हमारी लड़की तो वेश्या नहीं है। बाकी सब वेश्या हैं। ये कैसे हो सकता हैं? बेटे, यह तेरे आँखों का राक्षस, आँखों का शैतान, आँखों का पशु और आँखों का पिशाच तेरे दिल दिमाग में छाया हुआ है। यही तुझे यह दृश्य दिखाता है। इसका संशोधन कर, फिर देख तुझे हर लड़की में, हर नारी में अपनी बेटी, अपनी बहन, और अपनी माँ की छवि दिखाई देगी।
दृष्टि बदले, अपने आपे को संशोधित करेंबेटे, इन आँखों से देखने की जिस चीज की जरूरत हैं, वह माइक्रोस्कोप तेरे पास होना चाहिए। क्या देखना चाहता है? गुरुजी! सब कुछ देखना चाहता हूँ। बेटे, इन आँखों से नहीं देखा जा सकता। इसको देखने के लिए माइक्रोस्कोप के बढ़िया वाले लेंस चाहिए। कौन से बढ़िया वाले लेंस 'दिव्यं ददामि ते चक्षुः' तुझे अपनी आँखों में दिव्यचक्षु को फिट करना पड़ेगा। फिर देख कि तुझे भगवान दिखाई पड़ता है कि नहीं पड़ता। 'सीय राममय सब जग जानी' की अनुभूति होती है कि नहीं। फिर जर्रे- जर्रे में भगवान, पत्ते- पत्ते में भगवान तुझे दिखाई पड़ सकता है, अगर तेरी आँखों के लेंस सही कर दिए जाएँ तब। अगर लेंस यही रहें तो बेटे, फिर तुझे पाप के अलावा, शैतान के अलावा, हर जगह चालाकी, बेईमानी, हर जगह धूर्तता और दुष्टता के अलावा कुछ भी नहीं दिखाई पड़ सकता।
मित्रो! अध्यात्म पर चलने के लिए आत्मसंशोधन की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। पूजा- उपासना के सारे कर्मकाण्ड, सारे के सारे क्रियाकृत्य आत्मसंशोधन की प्रक्रिया की ओर इशारा करते है। मैंने आपको जो समझाना था, यह सूत्र बता दिया। हमारा अध्यात्म यहीं से शुरू होता है। इसलिए यह जप नहीं हो सकता, भजन नहीं हो सकता, कुछ नहीं हो सकता। केवल यहीं से अर्थात आत्मसंशोधन से हमारा अध्यात्म शुरू होता है। आत्मसंशोघन के बाद ही देवपूजन होता है। देवता बनकर ही देवता की पूजा की जाती है।
आज की बात समाप्त ।।
।। ॐ शांति: ।।