आस्तिकता की उपयोगिता और आवश्यकता

ईश्वर की कर्म फल व्यवस्था

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ईश्वरीय सत्ता का मानवी चेतना पर अंकुश रखा जा सके तो इस बहुमूल्य मनुष्य जन्म को सच्चे अर्थों में में सार्थक बनाने का अवसर मिल सकता है। यों शरीर यंत्र और मानसिक तन्त्र दोनों ही ईश्वर विनिर्मित हैं। वही उनकी मूल गतिविधियों का संचालन करता है। हम अपने आप तो मिट्टी का खिलौना भर बना सकते हैं। जीवन्त प्राणियों का जन्म प्राणियों के प्रयत्न और शरीर से होता है पर कोई नहीं जानता कि इस काया का निर्माण किस प्रकार किया जा सकता है। प्रयोगशालाओं में मनुष्य कृत रसायनिक यांत्रिक प्राणी उत्पन्न नहीं किये जा सके रक्त मांस अस्थि जैसे पदार्थ यदि कोई बना सका होता तो रक्तदान या अंगदान की आवश्यकता क्यों पड़ती? आंखों जैसी दृष्टि और कानों जैसी श्रवण शक्ति वाले यन्त्र यदि बनाये जा सके होते तो कितना अच्छा होता। मस्तिष्क की संरचना देखकर तो उसके सृजेता की सूझ-बूझ, कारीगरी और सूक्ष्मता पर चकित रह जाना पड़ता है। इन्द्रियों की संवेदना और सक्रियता कितनी अद्भुत है जिसकी तुलना मानव कृत प्रयासों में कहीं भी नहीं देखी जा सकती।

अनवरत चलने वाला रक्त संचार, निमेष, उन्मेष, आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास-प्रश्वास जैसी हलचलों को देख कर इस यन्त्र का अनोखापन देखते-देखते तृप्ति नहीं होती। मन की विचार शक्ति की उपयोगिता और गरिमा का तो कहना ही क्या? निर्जीव जड़ पदार्थों से बनी सृष्टि को कितनी सुन्दर, सुखद और संवेदनशील बना दिया है, इस मन ने। यदि मन न होता तो गुल्म पादपों की तरह उगते बढ़ते जरूर पर अनुभूति के हाथ सरसता का कोई आनन्द ले सकना संभव न रहा होता।

हम न तो शरीर यन्त्र बना सकते हैं और न मनः तन्त्र। यह ईश्वर की अतीव मूल्यवान कला कृतियां हैं, जिन्हें सृजेता ने अपनी समस्त कुशलता का समावेश करके बड़ी आशा और भावना के साथ बनाया है। इसके संचालन का उत्तरदायित्व मनुष्य को सौंपा गया है और अपेक्षा की गई है कि वह उसका सदुपयोग करके स्वयं लाभान्वित होगा और सृष्टि की सुव्यवस्था में सहायक सिद्ध होगा। निर्माण ईश्वर के हाथ, संचालन मनुष्य के हाथ। इस प्रकार की साझेदारी इस कारखाने के साथ जुड़ी हुई है। ईश्वर ने अपना कार्य पूरा कर दिया अब मनुष्य की बारी है कि वह सुसंचालन करते हुए अपनी प्रामाणिकता और कुशलता का प्रमाण प्रस्तुत करे।

परीक्षा से ही किसी की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। प्रतियोगिताओं में भाग लेकर ही विजेता अपना वर्चस्व सिद्ध करते हैं। बहुमूल्य जीवन तन्त्र का संचालन कुशलता पूर्वक किया गया या उसे मूर्खता अपना कर नष्ट-भ्रष्ट, अस्त व्यस्त कर दिया गया यही परीक्षा काल जीवन अवधि के रूप में सामने प्रस्तुत है। उत्तीर्ण छात्रों को प्रमाण पत्र मिलते हैं और प्रतियोगिता में खरे सिद्ध होने वालों को गौरवशाली पद एवं उत्तरदायित्व सौंपे जाते हैं। जीवन सम्पदा का उपयोग किस प्रकार किया गया है यही वह परख जिसमें मनुष्य की कुशलता एवं प्रामाणिकता परखी जा रही है। यदि हम खरे सिद्ध होते हैं तो अन्य बढ़े चढ़े बहुमूल्य उपहारों एवं उत्तरदायित्वों को प्राप्त कर सकने की अपेक्षा कर सकते हैं।

शरीर हम बना तो नहीं सकते पर उसकी क्रिया शक्ति का इच्छानुसार उपयोग कर सकते हैं। विचारशक्ति, इच्छाशक्ति जैसी चेतनाओं का निर्माण हम नहीं कर सकते यदि कर सके होते तो पालतू पशुओं को अपने जैसे बना लेते और पागलों को बुद्धिमान कर देते। इतने पर भी इतना अधिकार हर किसी को प्राप्त है कि वह अपनी मानसिक क्षमता का कुछ भी—कैसा भी-उपयोग करें। उपयोग की छूट तो मिली है पर एक अधिकार ईश्वर के हाथ में सुरक्षित है कि कर्तृत्व के अनुरूप दंड और पुरस्कार देने की व्यवस्था अपने हाथ में रखे। हम इच्छानुसार भले और बुरे कर्म करने में पूर्णतया स्वतन्त्र हैं, पर उसके परिणामस्वरूप जो सुख और दुख मिलते हैं उनसे बच नहीं सकते। आमतौर से यही चूक होती रहती है। इसी चौराहे पर लोग भटक जाते हैं और प्रलोभनों से प्रेरित होकर उस राह पर चल पड़ते हैं जो आकर्षक सी लगती है पर अन्ततः ले पहुंचती है कंटीली झाड़ियों से भरे जंगल में—चिपकन और सड़न भरे दल दल में।

शरीर और मन का कुछ भी उपयोग कर सकने में हम स्वतन्त्र हैं। यह एक लक्ष्य है। हम चाहें तो आत्म हत्या तक कर सकते हैं। चाहें तो आत्म साधना में निरत होकर कुछ भी समय में देवत्व की साधना में लग सकते हैं। दोनों में से किसी भी मार्ग पर चलने की छूट है। पर वहां एक भयंकर भ्रान्ति भी अपनाली जाती है कि कर्म फल से बचे रहने की छूट भी हम प्राप्त कर सकते हैं। ऐसा नहीं हो सकता। जमालगोटा खाया जा सकता है पर उसके फल-स्वरूप दस्त होने की बात रोकी नहीं जा सकती। विष पीने की हर किसी को स्वतन्त्रता है पर उसके फलस्वरूप मरण से बच सकना संभव नहीं। नशा पीना अपने हाथ में है पर उन्माद से बचाव कैसे हो सकता है? हम में से अधिकांश की मान्यता यही बनी होती है कि दुष्कर्म करते हुए भी उसके दंड से बचे रह सकते हैं। समाज के तिरस्कार और शासकीय दंड से बच निकलने में अपनी चतुरता के आधार पर सफल हो सकते हैं। इसी मान्यता के कारण पाप कर्म होते हैं और लोग उस राह पर चलते हैं जिसमें पग पग पर कांटे और कंकड़ बिछे हैं।

नास्तिकता की परिभाषा कर्म फल की निश्चितता से इनकारी के रूप में की जा सकती है। नास्तिकता की शास्त्रकारों ने कटु भर्त्सना की है। इसमें ईश्वर के सृजेता और संचालक होने की बात को मानना न मानना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना इस सृष्टि में कर्म फल से बच निकलने की बात सोचना। इसमें इतना भर हो सकता है कि कोई अति धूर्तता बरतने पर सामाजिक तिरस्कार और शासकीय दंड से बच जाय पर ईश्वरीय व्यवस्था से चल रहे कर्म विपाक से कोई बच नहीं सकता। जो यह सोचता है कि चतुरता इस क्षेत्र में भी काम दें सकती है पर ईश्वरीय न्याय और शासन से इन्कार करता है। यही है वह बिन्दु जहां नास्तिकता पनपती है और व्यक्ति तथा समाज का भारी अहित होता है।

ईश्वर का ब्रह्म-सृजेता होना असंदिग्ध है। यदि संयोग से प्राणी और पदार्थ बनते हैं तो ईश्वरीय व्यवस्थाक्रम का व्यतिरेक करके मानवी कुशलता के सहारे किसी अन्य प्रकार से प्राणियों और पदार्थों का नव निर्माण किया जाना चाहिए। ऐसा कर सकना मनुष्य के लिए संभव नहीं है। वह चल रही प्रकृति प्रक्रिया की गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करके—उस व्यवस्था का लाभ भर उठा सकता है। नया परमाणु—नया तत्व—नया जीवाणु मनुष्य की सारी कुशलता मिलकर भी नहीं बना सकती। अस्तु ईश्वर का सृजेता, सृष्टा ब्रह्म होना स्वयं सिद्ध है। इस क्षेत्र में ईश्वर के न मानने का दुराग्रह कहीं आड़े नहीं आता और सृष्टि कर्त्ता प्रकृति है अथवा पुरुष इस विवाद से कुछ बनता नहीं। जब हम नये सूर्य चन्द्र, तारागण, समुद्र, पर्वत, वृक्ष प्राणी आदि नहीं बना सकते। सृष्टि में चल रही हलचलों से भिन्न प्रकार की परिपाटी खड़ी नहीं कर सकते तो ईश्वर को सृष्टि कर्ता एवं ब्रह्मा मानने की बात स्वीकार करने न करने से किसी का कुछ बनता बिगड़ता नहीं। कोई सूर्य के अस्तित्व से इनकार करता रहे तो इससे उसे ही विक्षिप्त दुराग्रही आदि माना जायगा। सूर्य पर अथवा उससे लाभान्वित होने वाली सृष्टि पर इस इनकारी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

भगवान का दूसरा स्वरूप है पोषण कर्ता—विकासवान, अग्रगामी विष्णु। यह सत्ता भी सर्वत्र काम करती हुई देखी जा सकती है। परमाणु परिवार से लेकर सौरमण्डल तक सर्वत्र अग्रगामी सक्रियता काम कर रही है। प्राणि जगत में शैशव, यौवन, वृद्धत्व और परिवर्तन का क्रम यथावत चल रहा है। अमीवा से बढ़कर मनुष्य बनने तक की—आदिम काल से लेकर आज के सभ्य युग की—गवेषणा करने पर प्रगति चक्र के गतिशील होने की बात स्पष्ट है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त मनुष्य जन्म पाने की पौराणिक मान्यता की भी विवेक युक्त संगति बैठती है। यह ब्रह्माण्ड गोल है। अणु की सत्ता भी गोल है इसलिए आगे ही आगे चलते रहने पर गोलाई के धरातल पर भ्रमण करने वाले को अन्ततः वहीं आ पहुंचना पड़ता है जहां से वह चला था। चक्र गति की व्यापकता सर्वमान्य है। इसे दूसरे शब्दों में अग्रगमन कह सकते हैं।

हर पदार्थ को कहीं न कहीं से पोषण मिलता है। अन्यथा गतिशीलता में खर्च होने वाली शक्ति की क्षति पूर्ति कैसे होगी। हम अन्न, जल और वायु से आहार प्राप्त करते हैं। वृक्षों को जड़ों के और पत्रों के माध्यम से खुराक मिलती है। धरती को आकाश से पोषण मिलता है और आकाश को धरती से। खाद से खेत की भूख बुझती है और उसके उत्पादन को खाकर प्राणियों की मल विसर्जन क्रिया से उस खाद की पुनः पूर्ति होती है। यह पोषण चक्र असंदिग्ध है। विष्णु का कर्तृत्व प्रत्यक्ष है। इससे जो इन्कार करे वह अन्न, जल और वायु के बिना जीवित रहकर दिखाये बिना ईंधन और ऊर्जा का साधन जुटाये मशीन चलाये। बिना खाद पानी के पौधे उगाये। भगवान के विष्णुत्व से इनकारी या स्वीकृति भी कुछ महत्व नहीं रखती। जो प्रत्यक्ष है उसे अस्वीकार करना अपनी ही मूर्खता का परिचय देता है।

गड़बड़ तब मचती है जब भगवान के शिव स्वरूप से इनकार किया जाता है। शिव को नियामक कहा गया है। वह स्वच्छन्द को सीमित करता है और नियन्त्रण का अंकुश लगाये रहता है। यदि ऐसा न होता तो स्वेच्छाचारी परमाणु एक दूसरे से टकरा कर भयंकर विस्फोट खड़े करते। ग्रह नक्षत्र आये दिन परस्पर टकराया करते। बकरी के पेट से बन्दर होते और चने के पौधों में चावल उग पड़ते। सूर्य की जब मर्जी होती निकलता और जब मौज आती चादर तानकर सो जाता। उस दशा में जो अव्यवस्था उत्पन्न होती उससे दृश्यमान सृष्टि का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता। इस सृष्टि क्रम में सन्निहित मर्यादा और नियन्त्रण की व्यवस्था कूट कूटकर भरी देखकर हम चेतना ब्रह्म की शिव शक्ति का प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं। पर इसी क्रम को जब मानवी कर्म व्यवस्था में से काट देने हटा देने का दुस्साहस किया जाता है तब उसे अनास्था या नास्तिकता कहते हैं। जो है—उसे नहीं है, कहा जाय माना जाय तो उससे गतिविधियों में अवांछनीय व्यतिरेक उत्पन्न होगा। इसका परिणाम दुर्भाग्य पूर्ण ही हो सकता है। नास्तिकता से उत्पन्न होने वाले विग्रहों को ध्यान में रखते हुए उससे बचने के लिए ही नास्तिकता को अवांछनीय ठहराया गया है और उसकी कटु भर्त्सना की गई है।

एक शब्द में नास्तिकता का अर्थ कर्म फल की इनकारी कहा जा सकता है। यह भ्रान्ति पनपती इसलिए है कि मनुष्य की विवेक शीलता और उत्कृष्टता को चरितार्थ होने का अवसर देने के लिए इतनी गुंजाइश छोड़ी गई है कि कर्मों का स्तर निर्धारित करने में मनुष्य अपने स्तर का परिचय दे सके। यदि इतनी भी छूट न मिली होती तो हम यन्त्रवत बन जाते। जिस प्रकार सांस लेने और पलक झपकने का क्रम चलता है उसी प्रकार कर्म करने की इच्छा और प्रक्रिया भी ईश्वर ने अपने हाथ में रखी होती तो फिर हर कोई एक ही प्रकार के कर्म करते रहने के लिए विवश होता। उससे जीवन्त प्राणी भी मशीन जैसे बन जाते उनमें जो विचित्रता और विविधता पाई जाती है उसके दर्शन भी न होते। तब कोई न ऊंचा उठने का श्रेय प्राप्त करता और न पतन के कारण किसी की भर्त्सना होती। ईश्वर ने अपने जेष्ठ पुत्र पर उतना अंकुश लगाना उचित नहीं समझा और उसे स्वेच्छा पूर्वक कर्म करने की पूरी पूरी छूट प्रदान कर दी। यह उचित भी था और प्रत्यक्ष भी है। हम कुछ भी भला बुरा कर सकने की अपनी स्वतन्त्रता से परिचित है और उसका उपयोग भी करते हैं। कठिनाई तब उत्पन्न होती है जब कर्म फल पाने न पाने की छूट भी पाने की उच्छृंखलता अपनाई जाती है। इसी मर्यादा व्यतिरेक का नाम नास्तिकता है। निन्दा उसी की होती है।

मनुष्य की स्वतन्त्र विवेकशीलता को परखने के लिए, तत्काल कर्मफल न मिलने की ढील दी गई है और परखा गया है कि देखें यह सृष्टि का मुकट मणि प्राणी अपनी गरिमा, शालीनता और मर्यादा का स्वेच्छा पूर्वक पालन कर सकता है या नहीं? इसी परख के लिए तत्काल कर्म फल न मिलने की ढील पोल चलती है। देखा जाता है कि नशा पीने से उन्माद, रेचक खाने से दस्त व विषपान से मरण और आग छूने से जलने की तरह तत्काल कर्म फल नहीं मिलते। उनकी प्रतिक्रिया समाज तिरस्कार और राजदंड के रूप में तो मिलती रहती है पर जो चतुरता पूर्वक उस पकड़ से बच आते हैं वे तत्काल ईश्वरीय दण्ड नहीं पाते। प्रतिफल में प्रायः देर लग जाती है इसी प्रसंग में यह समझ लिया जाता है कि चतुरता सफल हो गई। मानवी न्याय व्यवस्था को चकमा देने की तरह ईश्वरीय विधान को झुठलाना भी संभव हो गया। इस भ्रान्ति के कारण ही मनुष्य दुष्कर्म करने का दुस्साहस करते हैं और सत्कार्यों के सत्परिणाम तत्काल सामने न आने के कारण निराश होकर बैठ जाते हैं। इसी दुस्साहस एवं नैराश्य को प्रकारान्तर से नास्तिकता कहा जाता है।

झूठ बोलने से मुंह में छाले पड़ जाने, चोरी करने वालों के हाथ में दर्द उठ पड़ने, कुमार्ग गामियों को लकवा मार जाने, अचिन्त्य चिन्तन से सिरदर्द होने, कुदृष्टि वालों पर अन्धता छा जाने जैसी तत्काल कर्म फल की व्यवस्था रही होती तो अपनी दुनिया में कोई भी कुकर्म करने का दुस्साहस न करता। आग पकड़ने, बिजली छूने और विष पीने की गलती कोई इसीलिए नहीं करता कि उनके परिणाम तत्काल सामने आ खड़े होते हैं। सत्कर्म करने के प्रतिफल यदि तुरन्त मिला करते तो हर व्यक्ति की रुचि उसी मार्ग पर होती। इन्द्रियों की ललक लिप्सा अपनाने के लिए हर व्यक्ति इसीलिए आतुर दिखाई पड़ता है कि उस उपभोग में तत्काल रसास्वादन मिलता है। चोरी, बेईमानी की नीति इसी से अपनाई जाती है कि उनसे अर्थ लाभ तुरन्त होता है इसी प्रकार यदि सत्कर्म से सत्परिणाम तुरन्त मिलते तो हर व्यक्ति अपनी सहज बुद्धि से उन्हें ही इन्द्रिय भोगों की तरह अपनाते हुए दृष्टिगोचर होता, पर वैसी व्यवस्था इस संसार में है नहीं दुष्कर्मों के दुष्परिणाम और सत्कर्मों के पुण्य फल प्रायः देर से मिलते हैं। इसी से अधीर होकर मनुष्य उस व्यवस्था को ही अमान्य ठहराने पर उतारू हो जाता है। इसी अधीरता को नास्तिकता कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में इसे अदूरदर्शिता कहना भी उचित होगा।

बीज को वृक्ष बनने में देर लगती है। खेत बोते ही किसान फसल कब काटता है? विद्यालय में भर्ती होते ही स्नातक कौन बनता है। व्यायामशाला में प्रवेश करते ही पहलवान बन सकना कहां संभव होता है। नवजात शिशु को प्रौढ़ बनने में समय लगता है। क्रिया और प्रक्रिया के बीच जो अन्तर रहता है उसकी धैर्य और विश्वास के साथ प्रतीक्षा करने वालों को ही दूरदर्शी कहा जाता है। वे ही कोई महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं और दूरगामी योजना बना सकते हैं। हथेली पर सरसों जमाने और बालू के महल बनाने के लिए आतुर लोगों को उतावले और उपहासास्पद कहा जाता है। ऐसी ही बाल बुद्धि यदि कर्म फल के सम्बन्ध में बरती जाय तो उसे नास्तिकता कहा जायगा।

अपने संसार की सबसे बड़ी भूल भुलैया यही है कि राजदण्ड की हलकी सी पकड़ से बच जाने वालों को यह भ्रम हो जाता है कि ईश्वरीय व्यवस्था में भी ऐसी ही ढील पोल है और यदि कोई सुव्यवस्थित विधान है भी तो उसे चापलूसी, भेंट उपहार जैसे हथकण्डों के सहारे झुठलाया जा सकता है। अमुक पूजा विधानों के सहारे दुष्कर्मों का प्रतिफल समाप्त हो जाने की मान्यता ऐसे ही हथकंडे बाजों ने गढ़ ली है और सोच लिया है कि गंगा स्नान, देव दर्शन पूजा प्रसाद जैसे सस्ते उपचारों के सहारे पाप दंड से छुटकारा मिल सकता है। ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त करने के लिए जीवन शोधन एवं परमार्थ प्रयास जैसे कष्ट साध्य कदम उठाने की जरूरत नहीं है। अमुक विधि विधान से की गई छोटी सी पूजा पत्री से ईश्वर एवं देवताओं को वशवर्ती बनाया जा सकता है और उनसे उचित अनुचित कुछ भी करा लेने का उल्लू सीधा हो सकता है। आज आस्तिकता के नाम पर यही भ्रम जंजाल सर्वव्यापी हो रहा है। पूजा पाठ के छोटे विधि विधान भी बड़े धर्मानुष्ठान प्रायः इसी दृष्टि से किये जाते हैं। कैसी विचित्र विडम्बना है कि आस्तिकता की आड़ में नास्तिकता ने अपना डेरा जमा लिया है और कर्म फल के सिद्धान्त को झुठलाना ही पूजा का माहात्म्य बन गया है। यदि यह मान्यता सच है भी तो इसकी प्रतिक्रिया सर्वनाशी होगी। फिर किसी को पाप दण्ड से डरना न पड़ेगा। फिर कोई सत्कर्म करने में समय और शक्ति नष्ट न करेगा। जब सस्ती पूजा पत्री से ही पाप से डरने और पुण्य करने की आवश्यकता पूरी हो जाती है तब फिर किसी को क्या पड़ी है जो सत्प्रवृत्तियां अपनाने के लिए साधन जुटाये और दुष्प्रवृत्तियों से मिलने वाले लाभों को छोड़ने की बात सोचे? जो मान्यताएं कर्म फल सिद्धान्त को झुठलाती है वे नास्तिकता के अग्रदूत है भले ही उनका नाम पूजा पाठ—धर्मानुष्ठान या और कुछ भी नाम देकर प्रतिष्ठा के सिंहासन पर बिठाया जाता रहे। दुर्भाग्य वश आज प्रच्छन्न नास्तिकता ही आस्तिकता का मुखौटा पहन कर जन मानस को भ्रमित करने पर उतारू हो रही दृष्टिगोचर होती है।

व्यक्तित्व का स्तर सुसंस्कृत बना रहे और समाज का ढांचा सुव्यवस्थित बना रहे यह उभय पक्षीय श्रेय साधन मात्र आस्तिकता की मान्यता अपनाने से ही संभव हो सकता है। ईश्वर का अस्तित्व मानना उस स्तर पर नितान्त आवश्यक है कि कर्म फल की व्यवस्था का सुनिश्चित सूत्र संचालक है। उसकी इस व्यवस्था में देर की गुंजाइश तो है पर अन्धेर की संभावना तनिक भी नहीं है। बीज बोने और फल तोड़ने के बीच समय का व्यवधान तो है पर फिर भी अमान्य नहीं ठहराया जाना चाहिये। जो अमान्य ठहरायेगा उसे नास्तिक कहा जायगा। ऐसे बधीर लोग तो कभी उद्यान लगाने विलम्ब साध्य किन्तु अत्यन्त महान कार्यों को हाथ ही नहीं लगायेंगे। इस आधार पर तो नशे बाजी जैसी धीमी आत्म हत्या से बचने की बात भी नहीं सोची जा सकेगी। प्रत्यक्ष लाभ की उतावली में ही तो ये अवांछनीय कार्य किये जाते हैं जिनके कारण भविष्य अन्धकारमय बनता है और वातावरण दुष्प्रवृत्तियों की घुटन से भरता है। यही है अनास्था की दुखद प्रतिक्रिया जिसके कारण उसे निन्दनीय और विधातक ठहराया गया है।

मनुष्य की पतनोन्मुख चतुरता सर्वविदित है। लाखों क्षुद्र योनियों में भ्रमण करते करते उसकी चेतना पर क्षुद्रता के कुसंस्कारों की गहरी परतें जम गई हैं। पानी ढुलकते ही नीचे की ओर बहता है। मनुष्य को अवसर मिले तो वह पशु प्रवृत्तियों की ओर ही बढ़ेगा। चतुरता उसका साथ देगी और वे सामाजिक एवं राजनैतिक प्रतिबन्धों को तोड़ते हुए भी अपने को सुरक्षित रख सकने में सफलता प्राप्त कर लेगा। मदोन्मत्त हाथी कुछ भी कर गुजरता है। फसल को रौंद डालना, पेड़ पौधों को उखाड़ फेंकना और प्राणियों को पछाड़ देना उसके लिए खेल है। इसी प्रकार कर्म फल से निर्भय होकर मनुष्य भी उद्दंडता पर उतारू होता है और नैतिक एवं सामाजिक मर्यादाओं को कुचलता रौंदता चला जाता है। इन पशु प्रवृत्ति पर अंकुश ईश्वर की सुदृढ़ और सुनिश्चित क्रम व्यवस्था पर विश्वास उत्पन्न करने वाली आस्तिकता की आस्था अपनाने पर ही संभव हो सकती है।

आस्तिकता का निष्कर्ष है कि मनुष्य ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था के अप्रत्यक्ष रहते हुए भी उसे प्रत्यक्ष की तरह अनुभव करे। इथर तत्व आकाश में भरा है उसे खुली इन्द्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता उसे बुद्धि की सूक्ष्मता से ही जाना जा सकता है। ईश्वर के अस्तित्व को किसी प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं किया जा सकता तो भी उसकी सृष्टि व्यवस्था में संतुलन और सामंजस्य देखकर किसी सृजनकर्ता और नियामक सत्ता को मान्यता देनी पड़ती है। बिना बताये कपड़ा, बर्तन मकान पुस्तक आदि कुछ भी नहीं चलता। जड़ पदार्थों का क्रमबद्ध संचालन किसी चेतना की प्रेरणा से ही हो सकता है। मशीनें बहुत शक्तिशाली और उपयोगी होती हैं, पर वे अपने आप नहीं चलतीं। रेल, मोटर वायुयान, जलयान यदि सभी यंत्र यहां तक कि स्वसंचालित होने पर भी किसी मनुष्य की इच्छा एवं चेष्टा से ही चलते हैं। शरीर यन्त्र भी तभी चलता है जब उसमें जीव रहता है और उसका संकल्प काम करता है। फिर इतने बड़े विश्व ब्रह्माण्ड की सुव्यवस्था किसी कर्ता एवं नियामक के बिना बन और चल नहीं सकती। यही ईश्वर है। उसे जानते तो बहुत हैं पर मानता कोई कोई ही है। मानने का अर्थ है उसके अनुशासन को स्वीकार करना।

बिजली बड़ी समर्थ है और उपयोगी भी। पर उससे लाभ उठाने के लिये तद् विषयक विधि विधान और अनुशासन का पालन आवश्यक है। सही उपयोग करके बत्ती, पंखा, हीटर, कूलर, रेफ्रिजरेटर आदि छोटे उपयोगी और विशालकाय यंत्रों के कल कारखाने चल सकते हैं और तरह तरह के लाभ उठाये जा सकते हैं, पर यदि अनुचित रीति से छेड़ छाड़ की जाय और खुले तार पकड़ लिये जायं तो उससे प्राण संकट उपस्थित हो जाने का खतरा है। ईश्वर की विधि व्यवस्था को समझा जाय और अपने दृष्टिकोण, चिन्तन एवं क्रिया कलाप को सही रखा जाय तो परम पिता के अजस्र अनुदानों का अधिकाधिक लाभ उठाया जा सकता है। उद्धत आचरण करने पर ईश्वरीय रोष का भागी बनना पड़ेगा और आधि दैविक, आधि भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रताड़नाएं सहने के लिये विवश होना पड़ेगा। माता का प्यार सर्व विदित है पर उद्दंडता बरतने पर उसे भी लाल पीली आंखें निकालते, कान ऐंठते और चपत लगाते देखा जाता है। राज सत्ता का उद्देश्य सबकी सुख सुविधा बढ़ाना और सुरक्षा का प्रबंध करना है। उसकी मूल प्रवृत्ति रचनात्मक है। शिक्षा, चिकित्सा, यातायात, संचार, उद्योग आदि के अभिवर्धन में ही उसकी अधिकांश शक्तियां नियोजित रहती हैं किन्तु उद्दंडता बरतने वालों के साथ कठोरता बरतने का काम भी—निषेधात्मक कार्य भी उसी को करना पड़ता है। ईश्वर के प्यार दुलार का लाभ हम पग पग पर प्राप्त कर सकते हैं किन्तु यह भी नितान्त सत्य है कि मर्यादायें तोड़ने पर उतारू लोग उसकी पकड़ और प्रताड़ना से बच नहीं सकते।

स्थूल दृष्टि से देखने पर तत्काल कर्म फल न मिलने के कारण यह भ्रम होता है कि उत्पादन का कोई क्रम भले ही हो नियंत्रण की व्यवस्थता यहां नहीं है। ऐसे ही अंधेरगर्दी मची हुई है। पाप कर्म का दंड और पुण्य का पुरस्कार संदिग्ध है। इसी भ्रांति से नास्तिकता का जन्म होता है। आस्तिकता का उद्देश्य मनुष्य की चिन्तन की गहराई में उतरना और यह समझना है कि देर से कर्म फल मिलने की व्यवस्था देख कर अधीर होने और अनुचित पर उतारू होने की आवश्यकता नहीं है। गंभीर बना जाय और देखा जाय कि अवांछनीयता की प्रतिक्रिया न सही मंद गति से होने की व्यवस्था किस प्रकार चल रही है।

अपना अंतःकरण ‘समाज का प्रचलन’ राजकीय कानून जिस अनैतिक आचरणों का निषेध करता है उन्हें ही अपनाने पर अन्य सूत्रों की दंड व्यवस्था तो पीछे लागू होगी पहले अपना ही अन्तरात्मा विद्रोह खड़ा कर देता है अंतर्द्वन्द उठना अनिवार्य है। क्रूर कर्म करने वाले प्रायः नशा पीकर या कृत्रिम आवेश उत्पन्न करके ही आत्म विद्रोह को शिथिल कर पाते हैं अन्यथा कई बार तो हाथ कांपने, पैर लड़खड़ाने और दिल धड़कने की घबराहट में वे कार्य बन ही नहीं पड़ते और उलटे पैर लौटना पड़ता है। नौसिखियों पर तो प्रायः यही बीतती है और वे अनेक बार परिस्थिति की विषमता में न ही मनःस्थिति की विषमता में ही घबराकर वापिस लौट आते हैं। इस प्रकार की असफलताएं ईश्वरीय विद्रोह की विजय और अनास्था की पराजय कही जा सकती है। आत्मा की पुकार को निरन्तर दवाते चलने पर जब दुष्टता चरम सीमा पर पहुंच जाती है, तभी क्रूर कर्मों को सरलता पूर्वक कर सकने का अभ्यास बनता है अन्यथा कोई भीतर ही भीतर नोंचता काटता रहता है। रुकने और लौटने के लिये कहता रहता है। इस उपदेष्टा को आत्मा की पुकार और परमात्मा की ज्योति कह सकते हैं। इसे धूमिल किया जा सकता है पर सर्वथा बुझा देना किसी के भी बस की बात नहीं है।

मनुष्य की सबसे बड़ी सम्पत्ति उसका मनोबल है इसी के सहारे वह पतन को रोकने और उत्थान के क्रम को बढ़ाने में समर्थ होता है। कुकर्म उद्धत तो हो उठता है आतंक फैलाने एवं ध्वंस करने में आवेश ग्रस्त उन्मादियों की तरह एक सीमा तक सफल भी हो जाता पर उसके लिए व्यक्तित्व को कुछ महत्वपूर्ण बना सकना संभव नहीं रहता। सृजन की क्षमता ही किसी को सफल सम्पन्न एवं सुविकसित बनाती है। इसके लिए प्रखर मनोबल चाहिए। कुकर्मी का मनोबल निरन्तर गिरता चला जाता है। इस दुर्बलता के कारण वह अपनी आंखों में गिरता है साथ ही हर कोई उसे घृणा की दृष्टि से देखता है। धन-हीन की उपेक्षा होती है और क्षीण मनोबल वाले पर तिरस्कार बरसता है। उसका सच्चा मित्र एक भी नहीं रहता। स्वार्थ वश जो मित्रता का ढोंग बनाते थे वे भी कुसमय आने पर पल्ला झाड़कर दूर जा खड़े होते हैं। पाप की प्रतिक्रिया घृणा के रूप में होकर ही रहती है। कुकर्मी के मित्र मुंह से समर्थन भले ही करें पर भीतर ही भीतर घोर तिरस्कार भरे रहते हैं। जब अशक्ति एवं विपत्ति ग्रस्तता आती है तो वे तथा कथित मित्र उचित अवसर पाकर अपनी दबी हुई घृणा को उभारते हैं और असहयोग ही नहीं उलटे प्रहार भी करते हैं। चोर, डाकुओं के वर्ग में आज के मित्र कल शत्रु बनते रहते हैं। मुखबिरी करने और पकड़वाने में प्रायः उनके साथियों का ही हाथ रहता है। गुंडे आपस में ही कटते मरते रहते हैं।

जिसे किसी का प्यार नहीं मिल सके, जिसके लिए किसी के अंतःकरण में श्रद्धा नहीं जग सके, जिसका कोई सच्चा सहयोगी न हो वह बाहर से कितना ही ठाठ-बाट बना ले भीतर से अशान्त और अतृप्त ही बना रहेगा। इस विक्षोभ की जलन से उत्पन्न उद्विग्नता की अनुभूति हलकी करने के लिए ही प्रायः ऐसे लोग नशेबाजी के अभ्यस्त बनते हैं। इतना तो सुनिश्चित है कि उद्धत मनुष्य कोई महत्वपूर्ण सृजनात्मक कार्य करने में सफल नहीं हो सकते। ध्वंस में किसी की गरिमा नहीं। एक छोटा बच्चा भी दियासलाई की तीली लेकर किसी बड़े कारखाने को भस्म करने की भूमिका बना सकता है। गरिमा की परीक्षा तो सृजन कार्यों से होती है। कारखाना खड़ा करने में किसी की क्षमता आंकी जायगी। जला देने का कार्य तो कोई बीमार और पागल भी कर सकता है।

कुकर्मी में ध्वंस क्षमता तो एक सीमा तक पाई जाती है पर वह भी निर्विरोध नहीं रहती। समाज और शासन उस पर अंकुश लगाते हैं। स्वजन सविधियों तक में भरी रहने वाली घृणा और अनवरत बनी रहने वाली आत्म प्रताड़ना ऐसे लोगों को सदा ही विक्षुब्ध बनाये रहती है। यदि गंभीरता पूर्वक देखा जाय तो घुन की तरह व्यक्तित्व को खोखला करती चलने वाली यह पाप प्रतिक्रिया कम-विधातक नहीं है। तीव्र गति से न सही मंद गति से सही ईश्वरीय दण्ड व्यवस्था का वह चाबुक प्रत्येक कुकर्मी पर बरसता देखा जा सकता है। पेड़ को कुल्हाड़ी से काटने की प्रत्यक्ष क्रिया दीखती है और उस घटना का प्रत्यक्ष चित्र आंख के सामने आता है। पेड़ को खाद-पानी न देकर सुखा दिया जाय तो लोगों को इसमें कोई अनहोनी या काटने जैसी विद्रूप घटना प्रतीत न होगी पर परिणाम की दृष्टि से दोनों ही स्थितियां पेड़ के लिए समान रूप से घातक है। राजदण्ड मिले अथवा आत्म दण्ड, तलवार से काटा जाय या सांस बन्द करके हत्या की जाय, इससे दृश्य का अन्तर हो सकता है पर परिणाम तो एक ही हुआ। आत्म प्रताड़ना से पीड़ित व्यक्ति जीवन की महत्व पूर्ण उपलब्धियों से प्रायः सर्वथा ही वंचित रह जाता है। गुणकर्म स्वभाव की दृष्टि से जो व्यक्ति ओछे हैं वे सदा ओछे ही बने रहेंगे।

यह मनोविज्ञान सम्मत तथ्य है कि अवांछनीयता अपनाने के कारण उत्पन्न हुए अन्तर्द्वन्द के कारण अचेतन मन में कितनी ही विघातक ग्रन्थियां बनती हैं और उनके कारण अनेकों शारीरिक एवं मानसिक रोग उठ खड़े होते हैं। आधि व्याधियों से घिरे रहने वाले ये प्रायः वे ही बहु संख्यक होते हैं जिन्होंने सरल नहीं जटिल जीवन जिया। सरल अर्थात् सीधा, नैतिक, सौम्य। जटिल अर्थात् कुटिल अनैतिक एवं उद्धत। दूसरे शब्दों में धर्म को सरल और अधर्म को जटिल कह सकते हैं। पाप में उद्विग्नता की जलन और पुण्य में सन्तोष की शान्ति है। कोई समय था जब रोगों का कारण वात पित्त कफ को—आठी वादी खाकी को विषाणु को—रासायनिक पदार्थों की कमी वेशी को माना जाता था और उसी आधार पर निदान उपचार का क्रम चला करता था। अब नवीनतम वैज्ञानिक शोधों ने सिद्ध किया है कि जड़ शरीर के कण कण पर मस्तिष्कीय चेतना का आधिपत्य होने के कारण उसी को भली बुरी स्थिति स्वस्थता और अस्वस्थता के रूप में परिलक्षित होती है। पागल निर्द्वन्द रहते हैं अस्तु आहार विहार की अस्त व्यस्तता रहने पर भी वे मस्त और निरोग देखे गये हैं। हंसोड़ व्यक्ति प्रायः निरोग रहते हैं इसके विपरीत घुटने और कुढ़ने वाले व्यक्ति अनेक रोगों के शिकार रहते पाये जाते हैं। नवीनतम मनो वैज्ञानिक निष्कर्ष यह है कि शारीरिक स्वास्थ्य रूपी वृक्ष की जड़ें मानसिक स्वास्थ्य रूपी जमीन में गहरी घुसी होती हैं। खुराक से रक्त मांस बन सकता है पर आरोग्य की आधार शिला मानसिक स्तर पर जमी रहती है और उसी केन्द्र से वास्तविक पोषण मिलता है। निर्द्वन्द वनवासियों के सुदृढ़ शरीर और एकान्त वन पर्वतों में रहने वाले सन्त महात्माओं का दीर्घ जीवन इस बात का प्रमाण है कि घटिया कहे जाने वाले आहार विहार के रहते हुए भी चिर स्थायी आरोग्य प्राप्त कर सकना किस प्रकार संभव होता है। इसके विपरीत जो घुटते जलते रहते हैं वे किसी प्रकार चिंता और खीज को आग में तिल तिल करके अपने को जलाते घुलाते रहते हैं और रुग्ण रहकर अकाल मृत्यु के शिकार होते हैं। ऐसे लोग बढ़िया आहार विहार उपलब्ध करने पर भी उसका कोई लाभ नहीं उठा पाते।

कहना न होगा कि मानसिक संतुलन—सौमनस्य सन्तोष एवं उल्लास बनाये रहने में कोई कृत्रिम तरकीब कार्य नहीं दें सकती। दूसरों को झुठलाया जा सकता है पर अपने आपे के साथ चालबाजी नहीं हो सकती। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाये बिना किसी का अंतरात्मा आनन्द और उल्लास की अनुभूति नहीं कर सकता। यह वरदान मात्र आस्तिकता की देवी के दरबार से ही मिलता है। ईश्वर विश्वास जीभ से कहने भर का अथवा मस्तिष्क की जानकारी तक सीमित हो तो बात दूसरी है अन्यथा यदि उसे अन्तःकरण में प्रवेश पाने और आस्था रूप में जड़ जमाने का अवसर मिल गया तब तो उसकी सुनिश्चित प्रतिक्रिया अध्यात्मवादी आदर्शवादिता अपनाने के रूप में ही दृष्टिगोचर होगी। ईश्वर को हाजिर नजीर मानने वाला कर्म फल के विधान पर विश्वास करेगा और अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने की मूर्खता न करेगा। आस्तिकता और सज्जनता दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। जो अपने को आस्तिक तो कहता है पर कुमार्ग पर चलता है उसे विसंगतियों का केन्द्र ही कहना चाहिए। पूर्व को मुंह और पश्चिम को पैर करके चलने वाले को विक्षिप्त कहा जाय या और कुछ! आस्तिकता के साथ अनीति को जोड़े रहना असंभव है। जो दोनों को मिला कर चल रहा है उसे आस्तिकों की गणना में नहीं ही गिना जा सकता भले ही वह पूजा पाठ के ढोंग ढकोसले कितने ही रचता रहता हो।

देर सवेर से क्या कुछ बनता बिगड़ता है। आज का लिया कर्ज कमाई नहीं है कल ब्याज सहित देना पड़ता है। आज का दूध कल दही बनता है। आज का पौधा कल वृक्ष बनता है। आज प्रश्न-पत्र हल करने का प्रमाण पद कल मिलता है। इस विलम्ब से विचलित होने और आस्था खोने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा अमर है, उसे नित नये जन्म लेने पड़ते हैं। एक जन्म का प्रति फल दूसरे में मिल सकता है। आज चोरी करने पर आज ही गिरफ्तारी नहीं होती या सजा नहीं मिलती तो उसमें किसी को यह नहीं समझ लेना चाहिए कि चोरी अपराध नहीं है और उसका दण्ड नहीं मिलेगा। कितने ही जन्मजात अविकसित एवं अपंग होते हैं। कितने ही अप्रत्याशित दुर्घटना और विपत्तियों से आच्छादित होते हैं। अस्पतालों, पागलखानों, जेलखानों, मरघटों में जाकर यह जाना जा सकता है कि तत्काल का न सही कोई पूर्वकृत कदम भी मनुष्य के आड़े आ सकता है। कुकर्मियों को निम्न योनियों में जन्मने और नरक भुगतने की जो शास्त्र मान्यता है वे झुठलाने योग्य नहीं है। कुमार्गगामी की अन्तःचेतना पर जमे हुए कुसंस्कार मनोविज्ञान-शास्त्र के अनुसार जब शारीरिक और मानसिक व्याधियां खड़ी कर सकते हैं तो अवांछनीयता की गहरी परतों द्वारा अगले जन्म में कष्टकारक परिस्थितियों के घेरे में जकड़े जाने की बात भी अमान्य नहीं ठहराई जा सकती।

कितने ही बालक जन्म से ही असाधारण मेधावी, सद्गुणी, प्रतिभावान और दूरदर्शी होते हैं। इनका चिन्तन और कर्तृत्व एक निश्चित दिशा में चलता है फलतः वे स्वल्प काल में ही असाधारण प्रगति के उच्च शिखर तक जा पहुंचते हैं। कितने ही बच्चे ऐसी परिस्थितियों में जन्मते हैं जिन्हें प्रगति की विशिष्ट सुविधाएं उपलब्ध रहती हैं अथवा उत्साह वर्धक संयोग मिलते हैं। इन्हें पूर्व कृत पुण्यों का प्रतिफल कहा जा सकता है। कई बालकों में दुर्बुद्धि और कुप्रवृत्तियों का प्रचंड उभार होता है वे न वातावरण से प्रभावित होते हैं न व्यक्तियों से। उनकी उद्धत प्रकृति उन्हें पतनोन्मुख बनाती चली है फलतः वे दुर्भाग्य पूर्ण विपत्तियों के शिकार बनते हैं। ऐसे लोगों में उनके प्रारब्ध का उदय हुआ देखा जा सकता है। मनुष्य-मनुष्य के बीच पायी जाने वाली भिन्नता को पूर्व कृत का प्रतिफल मानने के अतिरिक्त और कोई समाधान नहीं मिलता। यदि यह भिन्नता ईश्वर कृत हो तो ईश्वर समदर्शी कैसे रहा? यदि प्रकृति कृत है तो प्रकृति की सर्वव्यापी नियम निष्ठा का व्यतिरेक कैसे हुआ? एक जाति के प्राणी प्रायः एक ही आकृति प्रकृति के होते हैं उनकी मनः स्थिति एवं परिस्थिति लगभग एक ही होती है अन्तर रहता भी है तो नगण्य ही पर मनुष्य-मनुष्य के बीच जो आकाश पाताल जितना अन्तर पाया जाता है उसे न तो ईश्वर कृत मानते बनता है न प्रकृति की अव्यवस्था कहा जा सकता है। इसे पूर्व कृत कर्मों की प्रतिक्रिया कहने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। सन्मार्गगामियों को सत्य परिणाम देने और कुमार्गगामियों को दुष्परिणाम भुगतने के लिए बाध्य करने वाली सर्वव्यापी व्यवस्था को ईश्वर माना गया है। ईश्वर विश्वास की प्रतिक्रिया आत्म हित सोचते हुए सन्मार्ग पर चलने की तत्परता के रूप में ही परिलक्षित हो सकती है। आस्तिक और नास्तिक का वर्गीकरण पूजा करने न करने के आधार पर नहीं, इस कसौटी पर कसा जाना चाहिए कि कर्मफल की व्यवस्था पर सुनिश्चित विश्वास किया गया या नहीं। यदि किया गया होगा तो आग को छूने की गलती न करने की तरह पाप वृत्तियों को अपनाने से ही परहेज किया जा रहा होगा। सच्ची आस्तिकता की सही कसौटी यही हो सकती है।

ईश्वर ने मनुष्य जीवन जैसा सृष्टि का अनुपम, अद्भुत और अद्वितीय साधन हमें इसलिए दिया है कि इसकी गरिमा समझें और अवसर का श्रेष्ठतम सदुपयोग करके अपनी दूरदर्शिता एवं प्रामाणिकता सिद्ध करें पशु प्रकृतियों को काटने उखाड़ने में प्रवृत्त होकर यदि उसमें देव प्रवृत्तियों का उद्यान लगा सकें तो इसे सराहनीय दूरदर्शिता कहा जायगा। पद के अनुरूप ही वेषभूषा धारण करनी पड़ती है। वैसे ही आचार-व्यवहार एवं शिष्टाचार का निर्वाह करना पड़ता है। बड़े अधिकारी इस सम्बन्ध में आवश्यक सतर्कता बरतते हैं। मनुष्य भगवान का ज्येष्ठ पुत्र एवं राजकुमार है उसकी समस्त गतिविधियां ऐसी होनी चाहिए जिससे मानवीय गरिमा पर आंच न आवे उसकी धवलता पर दाग धब्बा न लगे। अपूर्णता से पीछा छुड़ा कर पूर्णता प्राप्त करने का अवसर केवल मनुष्य योनि में ही है। यही वह द्वार है जिसमें प्रवेश करके स्वर्ग एवं मुक्ति जैसी दिव्य उपलब्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। सामान्य जीवात्मा से ऊंचा उठकर महान आत्मा, देवात्मा और परमात्मा बनने का एक मात्र यही अवसर है। ईश्वर पर आस्था रखने वाला न केवल परमात्मा पर वरन् उसके दिये दैव उपहार की गरिमा पर भी आस्था रखता है और जीवन के सदुपयोग की उच्च स्तरीय व्यवस्था बनाता है। कहना न होगा कि उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाने से ही यह प्रयोजन पूरा होता है। व्यक्तित्व की उत्कृष्टता से ही ईश्वर भक्ति की झांकी की जा सकती है।

साधन सम्पन्न मनुष्य जीवन मौज-मजा करने के लिए ठाठ बाठ रोपने और लोभ मोह की अहंता प्रदर्शित करने के लिए नहीं मिला है। ऐसा करने से ईश्वर पक्षपाती नहीं कहा जा सकता है। इससे तो उसका समदर्शी गौरव ही नष्ट हो जाता है। अन्य प्राणियों को जो नहीं दिया गया है वह मनुष्य को मिला तो इसका कोई विशेष प्रयोजन होना ही चाहिए। समझा जाना चाहिए कि यह विशुद्ध अमानत है जिसे इस सृष्टि को सुसंस्कृत समुचित बनाने के लिए ही नियोजित किया जाना चाहिए। कहा जा चुका है कि खजांची-मिनिस्टर-अफसर, स्टोरकीपर आदि के हाथों में कई तरह के साधन रहते हैं और वे उन्हें निजी लाभ के लिए नहीं वरन् निदिष्ट उद्देश्य के लिए ही प्रयुक्त करते हैं। आस्तिकता की आस्था निरन्तर यही स्मरण दिलाती है कि इस धरोहर को लोक मंगल के लिए ही प्रयुक्त किया जाना है। व्यक्तिगत आवश्यकताएं न्यूनतम रखी जायं। सादगी और मितव्ययिता का जीवन जीया जाय। न ठाठ बाठ का अपव्यय बढ़ाया जाय और न संतान संख्या बढ़ाने जैसा अनावश्यक भार सिर पर लादा जाय। व्यक्तिवादी संकीर्ण स्वार्थपरता से जो जितना छूट सके और ईश्वरीय प्रयोजनों में अपने को जितना निरत रख सके वह उतना ही ईश्वर भक्त है। हनुमान को आदर्श ईश्वर भक्त माना गया है। वे अपने लिए नहीं भगवान के लिए जिए और अपने को भूले रहे और भगवान को याद रखे रहे। याद रखने का तात्पर्य है उसी प्रयोजन में निरत रहना। केवल स्मरण करते रहने से तो कुछ बनता बिगड़ता नहीं। ऐसे तो कितने ही तथा कथित भक्त लोग ईश्वर की कल्पना करते हुए चित्र विचित्र उड़ाने उड़ते रहते हैं। सच्चा स्मरण तो लक्ष्य के साथ एकाकार होने में अपने को इसी के साथ घुला देने से सम्पन्न एवं सार्थक होता है।

आस्तिकता का फलितार्थ है सर्वव्यापी परमेश्वर सत्ता का दर्शन—विराट ब्रह्म की दिव्य साक्षात्कार करने वाले को जड़ पदार्थों का सदुपयोग और चेतन प्राणियों का सद्भाव भरा सहयोग करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता रहता ही नहीं। ईश्वर भक्त को अपना यही संसार विशालकाय शिवलिंग की तरह सुविस्तृत शालिग्राम की तरह दीखता है। गोलाकार शिवलिंग और शालिग्राम की प्रतिमाएं विराट ब्रह्म का स्मरण दिलाती हैं। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता सुनाते समय और माता यशोदा को मिट्टी खाने के अपराध में मुंह खोल कर दिखाते समय अपना यही विराट रूप दिखाया है। भगवान कृष्ण ने कौशिल्या को पालने में झूलते समय और काकभुशुंडि के उदर प्रवेश को प्रवेश करने का अवसर देकर इसी विराट की झांकी कराई थी। तुलसीदास सियाराम मय सब जग जानी के रूप में इसी ब्रह्म का दर्शन करते थे। श्रुति ने ‘‘ईशा वास्यमिदं सर्व’’ के रूप में ईश्वर के सर्वव्यापी रूप का दिग्दर्शन कराया है। आस्तिकता की प्रेरणा इस विराट विश्व को सींचने संजोने की, पूजा आराधना में निरत रहने की दिशा में चल पड़ने के लिए प्रोत्साहन देती है।

आस्तिकता की मान्यता को सुस्थिर बनाने के लिए ही पूजा उपासना के विभिन्न कर्म कांड बनाये गये हैं। हम मानवी आदर्शों से भटककर पशु प्रवृत्तियों में लोट-पोट करते हैं इसी अवांछनीय स्तुति से उबारने के लिए प्रार्थना की पुकार की जाती है। ईश्वर के साथ जीव की असीम दूरी को निकटता, घनिष्ठता में परिणत करने के लिए उपासना की जाती है। उसी की ईश्वर भक्ति सार्थक है जो कर्मफल पर अटूट विश्वास करे और अपने जीवन को आदर्श बनाने की शपथ ग्रहण करें। आस्तिक वही है जो चरित्र निष्ठ रहता है और लोक मंगल के लिए बढ़ चढ़ कर अनुदान प्रस्तुत करता है। ऐसी वास्तविक ईश्वर भक्ति ही अमृत, पारस और कल्पवृक्ष की तरह मनुष्य को सर्व सम्पन्न बनाती है और उसी आधार पर जीव को ब्रह्म, नर को नारायण, पुरुष को पुरुषोत्तम, लघु को महान और दीन दुर्बल को ऋद्धि सिद्धि सम्पन्न बनाने का अवसर मिलता है।

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*समाप्त*

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