हमारी आध्यात्मिक साधना का चरम लक्ष्य क्या है? यह उपनिषद् के निम्न वाक्य से स्पष्ट होता है।
‘‘ते सर्वगं सर्वतः प्राप्त धारा युक्तात्मानं सर्व मेवा विशन्ति’’। ‘‘धीर गण सर्वव्यापी को सकल दिशाओं से प्राप्त कर युक्तात्मा होकर सर्वत्र ही प्रवेश करते हैं।’’ सर्व में प्रवेश करना युक्तात्मा होना, उस विश्वात्मा की अनुभूति प्राप्त करना ही हमारी साधना का लक्ष्य है। आत्मा द्वारा विश्वात्मा में प्रवेश करना ही आध्यात्मिक साधना की कसौटी है।
साधारण स्थिति में अथवा प्रारम्भिक अवस्था में मनुष्य एक सीमित आवरण में आवृत होकर पृथ्वी पर विचरण करता है। जिस प्रकार एक अंडे में स्थित पक्षी का बच्चा पृथ्वी पर जन्म लेता है किन्तु अंडे के आवरण में लिप्त हुआ जीवन लाभ नहीं करता, ठीक इसी प्रकार साधारण स्थिति में मनुष्य एक अस्फुट चेतना के अंडे में आवृत्त होता है उस समय वह अपनी उस क्षुद्र इकाई को नहीं देख पाता, जहां संकीर्णता होती है, खण्डता होती है, विभिन्नता होती है। जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति विस्तृत संसार की जानकारी नहीं कर पाता वह सोचता है शायद विश्व में और कुछ भी नहीं है। सर्वत्र अन्धकार ही है किन्तु यदि उसकी आंख ठीक हो जाय अथवा विशेष उपकरणों के उपयोग से उसे दिखाई देने लगे तो विस्तृत विश्व की झांकी, संसार के क्रिया-कलापों को वह देख सकता है। विश्व भुवन के वैचित्र्य की, जिसकी उसे अन्धेपन की अवस्था में जरा भी जानकारी न थी उसे देख कर वह सोचने लगता है मैं इतने दिन तो इसी प्रकार कुछ नहीं समझते हुए घूमता रहा आज मुझे इस संसार का दर्शन हुआ है। ठीक इसी प्रकार आत्मदृष्टि प्राप्त कर लेने पर होता है।
मनुष्य अपने आवरण में, अस्फुट चेतना के अंडे में खण्डता, अनेकता के रंगीन चश्मे के परदे से जब अपने आपको निरावृत्त कर आत्मा द्वारा विश्वात्मा में प्रवेश कर लेता है तब वह अपने विराट एवं सर्वव्यापी स्वरूप को सकल दिशाओं में प्राप्त कर युक्तात्मा बन जाता है। सर्वत्र प्राप्त करने की क्षमता प्राप्त करता है। परमात्मा की परम सत्ता में प्रविष्ट होकर ही आध्यात्मिक साधन का चरम लक्ष्य प्राप्त होता है। आत्मा विश्वात्मा में मिलकर ही अनेकों जन्मों की यात्रा पूरी करती है, यही मोक्ष, जीवन मुक्ति, प्रभु दर्शन, आत्म साक्षात्कार का वास्तविक स्वरूप है? जीव चैतन्य और विश्व चैतन्य की एकता एकरसता प्राप्त कर लेना अध्यात्म जीवन की कसौटी है।
वह विश्व चैतन्य, विश्वात्मा क्या है? इस पर उसकी अनुभूति प्राप्त करने वाले उपनिषद्कार कहते हैं।
‘‘वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येक स्तेनेद पूर्ण पुरुषेण सर्वम्’’ वृक्ष की भांति आकाश में स्तब्ध हुए विराज रहे हैं वही एक। उस पुरुष में उस परिपूर्ण में यह समस्त ही पूर्ण हैं।
यथा सौम्यं वयांसि वासो वृक्षं सम्प्रतिष्ठते ।
एव ह वै तत् सर्व पर आत्मनि सम्प्रतिष्ठिते ।।
हे सौम्य! जिस प्रकार वास वृक्ष में पक्षी आकर स्थित होते हैं, निवास करते हैं, वैसे ही यह जो कुछ है समस्त ही परमात्मा में प्रतिष्ठित हुआ रहता है।
परमात्मा की विराट सत्ता ही सर्वत्र व्याप्त है। यह सारा दृश्य जगत उसी में स्थित है। जब आत्मा उस विश्वात्मा की अनुभूति प्राप्त कर उसी में लीन हो जाती है जब जीव चैतन्य और विश्व चैतन्य में एकाकार स्थापित हो जाता है तभी अनिवर्चनीय आनन्द की प्राप्ति होती है। उस प्राप्ति में ही जीवन का सौन्दर्य है, शान्ति है, मंगल है, अमृत है। उस विश्वात्मा की, जो सर्वत्र ही व्याप्त है, अनुभूति प्राप्त कर मनुष्य निर्भय होकर विचरण करता है। सर्वत्र उसी के दर्शन करता है तब उसे दूसरा कुछ और दिखाई ही नहीं देता।
हम जीवन को तथा विश्वात्मा के विराट स्वरूप को खण्ड-खण्ड करके देखते हैं। हम आत्म दृष्टि से न देखकर स्थूल से देखते हैं और खण्डता विभिन्नता को प्रधानता देते हैं। मनुष्य को हम आत्मा द्वारा न देख कर इन्द्रियों द्वारा, युक्तियों द्वारा, स्वार्थ, संस्कार और संसार द्वारा देखते हैं। अमुक वकील है। डॉक्टर हैं, सन्त हैं, दुष्ट हैं, नीच हैं, दयालु हैं, कुरूप हैं, सुन्दर हैं आदि निर्णय दे हम मनुष्य को विशेष प्रयोजन युक्त अथवा विशेष श्रेणीयुक्त के आकार में देखते हैं। यहां हमारी परिचय शक्ति रुक जाती है। इस संकीर्ण आवरण के कारण हम आगे प्रविष्ट नहीं होते। इस खण्डता, विभिन्नता में ही हम अपने को रक्षित समझते हैं। हमारे विषय प्रबल हो उठते है, धन, मान, पद प्रतिष्ठा हमें तरह-तरह से नाच नचाते हैं। हम दिन रात ईंट, काठ, लोहा सोना इकट्ठा करने में लगे रहते हैं; द्रव्य सामग्री संग्रह करने का अन्त नहीं होता। जीवन के शेष दिन परस्पर की छीना झपटी मारकाट अपने प्रतिवेषियों के साथ निरन्तर प्रतियोगिता में बीतते हैं। इस खण्डता में दुःख अशान्ति क्लेश उद्वेग नाटकीय यातनाओं का भारी बोझ लादे हुए जीवन पथ पर चलना पड़ता है। और इनका तब तक अन्त नहीं होता जब तक हमारी दृष्टि इन नानात्व से हटकर सर्वात्मा की ओर नहीं लगती। कहा भी है—
‘‘मृत्योः च मृत्यु माप्नोति य इह नानेव पश्यति’’ जो उसे नाना करके खंड-खंड करके देखता है वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता।
येना हं नामृत स्यां किमहं तेन कुर्यांन—
अध्यात्म पथिक कहता है ‘‘जिसके द्वारा मुझे अमृत की प्राप्ति न हो उसे लेकर मैं क्या करूंगा?’’ जो बंटा है, विछिन्न है, खंड-खंड है वही मृत्यु के द्वारा आक्रान्त है अतः इसका त्याग आवश्यक है और उस विश्वात्मा की अनुभूति उस परम पुरुष, परम सत्ता जिससे परिपूर्ण यह समस्त ही पूर्ण है उसे वरण करना, आत्मा का—जीव चैतन्य का प्रधान धर्म है। यही परम गति है—
एसास्य परमागतिः एसास्य परमा सम्पद् ।
ऐसोअस्य परमो लोक: एसोअस्य परम आनन्द ।।
वह परमात्मा ही जीवों की परम गति है, परम सम्पद है, वह ही जीवों का परम लोक एवं परम आनन्द है।’’
ऐस सर्वेश्वर एस भूताधिपतिरेस भूतपाल
एस सेतुविधरणा एसां लोकानाम सम्मेदाय
‘‘यह परमात्मा ही सबका ईश्वर है समस्त जीवों का अधिपति है और समस्त जीवों का पालनकर्ता है। यह विश्वात्मा ही सेतु स्वरूप होकर समस्त लोक को धारण करके ध्वंस से उसकी रक्षा करता है।
आध्यात्म साधना का परम लक्ष्य अपने दृष्टिकोण को खण्ड खण्डता, विभिन्नता, संकीर्णता से हटाकर सर्वत्र उस विश्वात्मा, परमात्मा की विराट सत्ता का दर्शन और उसकी अनुभूति प्राप्त करना है। मनुष्य के लिए यही सत्य और सनातन राजमार्ग है। जब जाति, गुण, कर्म, स्वभाव संस्कार आदि समाप्त हो जाते हैं। मानव-मात्र में आत्म-दृष्टि से देखने पर सर्वत्र उस विश्वात्मा की प्रतिष्ठापना के दर्शन होते हैं। इतना ही नहीं प्राणी मात्र वृक्ष, वनस्पतियां, जड़ चैतन्य में उसी परम शक्ति का क्रिया-कलाप दिखायी देता है और तभी अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है। जिस क्षण उस विश्वात्मा की अनुभूति प्राप्त होगी, उसी क्षण समस्त पाप, ताप अभ्यास जनित संस्कार और आचरण का अन्त हो जाएगा; अनन्त आत्मबल विकसित होगा, और सर्वत्र आनन्द रूपी अमृत के ही दर्शन होंगे।
इस अनन्त आत्मबल और अनन्त आनन्द की उपलब्धि ही अध्यात्म दृष्टिकोण का अत्युत्तम सर्वोत्तम सत्परिणाम है।