हमारे चिंतन में गहराई हो, साथ ही श्रद्धायुक्त नम्रता भी ।। अंतरात्मा में दिव्य- प्रकाश की ज्योति जलती रहे ।। उसमें प्रखरता और पवित्रता बनी रहे तो पर्याप्त है ।। पूजा के दीपक इसी प्रकार टिमटिमाते है ।। आवश्यक नहीं कि उनका प्रकाश बहुत दूर तक फैले ।। छोटे- से क्षेत्र में पुनीत आलोक जीवित रखा जा सके तो वह पर्याप्त है ।। परमात्मा के प्रति अत्यंत उदारतापूर्वक आत्म भावना पैदा होती है वही श्रद्धा है ।। सात्विक श्रद्धा की में अंतःकरण स्वत: पवित्र हो उठता है ।। श्रद्धायुक्त जीवन विशेषता से ही मनुष्य स्वभाव में ऐसी सुंदरता बढ़ती जाती है, जिसको देखकर श्रद्धावान् स्वयं संतुष्ट बना रहता है ।। श्रद्धा सरल हृदय की ऐसी प्रीतियुक्त भावना है, जो श्रेष्ठ पथ की सिद्धि कराती है ।।