वर्तमान चुनौतियाँ और युवावर्ग

वर्तमान चुनौतियां और युवावर्ग

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परिवर्तन चक्र तीव्र गति से घूम रहा है। सामाजिक स्थिति बहुत तेजी से बदल रही है। ऐसे में मनुष्य एक विचित्र से झंझावात में फंसा हुआ है। बाह्य रूप से चारों ओर भौतिक एवं आर्थिक प्रगति दिखाई देती है, सुख-सुविधा के अनेकानेक साधनों का अंबार लगता जा रहा है, दिन-प्रतिदिन नए-नए आविष्कार हो रहे हैं, पर आंतरिक दृष्टि से मनुष्य टूटता और बिखरता जा रहा है। उसका संसार के प्रति विश्वास, समाज के प्रति सद्भाव और जीवन के प्रति उल्लास धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है। अब तो समाज में चारों ओर आपसी सौहार्द, समरसता एवं सात्विकता के स्थान पर कुटिलता, दुष्टता और स्वार्थपरता ही दृष्टिगोचर होती है। बुराई के साम्राज्य में अच्छाई के दर्शन अपवाद स्वरूप ही हो पाते हैं।

जो देश कभी जगद्गुरु हुआ करता था, उसी भारतवर्ष के राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक एवं व्यक्तिगत जीवन में चतुर्दिक् अराजकता और उच्छृंखलता छाई हुई है। जीवन मूल्यों एवं आदर्शों के प्रति आस्था-निष्ठा की बात कोई सोचता ही नहीं। वैचारिक शून्यता और दुष्प्रवृत्तियों के चक्रव्यूह में फंसा हुआ दिशाहीन मनुष्य पतन की राह पर फिसलता जा रहा है। उसे संभालने और उचित मार्गदर्शन देने वालों का भी अभाव ही दिखाई देता है। कुछ गिने-चुने धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन, सामाजिक संस्थाएं और प्रतिष्ठान ही इस दिशा में सक्रिय हैं अन्यथा अधिकांश तो निजी स्वार्थ एवं व्यवसायिक दृष्टिकोण से ही कार्यरत लगते हैं। ईमानदारी, मेहनत और सत्यनिष्ठा के साथ निःस्वार्थ भाव से स्वेच्छापूर्वक जनहित के कार्य करने वालों को लोग मूर्ख ही समझते हैं। उनके परिश्रम एवं भोलेपन का लाभ उठाकर वाहवाही लूटने वाले समाज के ठेकेदार सर्वत्र दिखाई देते हैं।

समाज सेवा का क्षेत्र हो या धर्म-अध्यात्म अथवा राजनीति का, चारों ओर अवसरवादी, सत्तालोलुप, आसुरी प्रवृत्ति के लोग ही दिखाई देते हैं। शिक्षा एवं चिकित्सा के क्षेत्र, जहां कभी सेवा के उच्चतम आदर्शों का पालन होता था, आज व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के केन्द्र बन गए हैं। व्यापार में तो सर्वत्र कालाबाज़ारी, चोरबाजारी, बेईमानी, मिलावट, टैक्सचोरी आदि ही सफलता के मूलमंत्र समझे जाते हैं। त्याग, बलिदान, शिष्टता, शालीनता, उदारता, ईमानदारी, श्रमशीलता का सर्वत्र उपहास उड़ाया जाता है। सामान्य नागरिक से लेकर सत्ता के शिखर तक अधिकांश व्यक्ति अनीति-अनाचार के आकंठ डूबे हैं। प्रत्येक व्यक्ति के मन में निजी स्वार्थ व महत्वाकांक्षाओं के साथ-साथ ईर्ष्या, घृणा, बैर की भावनाएं जड़ जमाए हुए हैं। ऐसी विकृत मानसिकता के चलते मनुष्य वैज्ञानिक प्रगति से प्राप्त सुख-सुविधा के अनेकानेक साधनों का भी दुरुपयोग ही करता रहता है। फलतः उसका शरीर अन्दर से खोखला होकर अनेकानेक रोगों का घर बनता जा रहा है। मनुष्य की इच्छाओं व कामनाओं की कोई सीमा नहीं है, धैर्य व संयम की मर्यादाएं टूट रही हैं, अहंकार व स्वार्थ का नशा हर समय सिर पर सवार रहता है। ऐसी स्थिति में क्या सामाजिक समरसता व सहयोग की भावना जीवित रह सकती है? सुख, शान्ति व आनन्द के दर्शन हो सकते हैं? जहां चारों ओर धनबल और बाहुबल का नंगा नाच हो रहा हो, घपलों-घोटालों का बोलबाला हो, उस समाज में क्या वास्तविक प्रगति कभी हो सकती हैं?

मानव के इस पतन-पराभव का कारण खोजने का यदि हम सच्चे मन से प्रयास करें तो पता चलेगा कि सारी समस्याओं की जड़ पैसा है। सारा संसार की अर्थप्रधान हो गया है। प्रत्येक व्यक्ति हर समय अधिक से अधिक धन कमाने की उधेड़बुन में लगा रहता है। इसके लिए अनीति, अनाचार, भ्रष्टाचार जैसे सभी साधनों का खुले आम प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार कमाए हुए धन के कारण ही समाज में सर्वत्र मूल्यविहीन भोगवादी संस्कृति का अंधानुकरण और विलासिता का अमर्यादित आचरण चारों ओर देखा जा सकता है। यह सब जानते समझते हुए भी आदमी पैसे के पीछे पागल हो रहा है।

युवा वर्ग पर इसका प्रभाव

आज का युवा वर्ग ऐसे ही दूषित माहौल में जन्म लेता है और होश संभालते ही इस प्रकार की दुखद एवं चिन्ताजनक परिस्थितियों से रूबरु होता है। आदर्शहीन समाज से उसे उपयुक्त मार्गदर्शन ही नहीं मिलता और दिशाहीन शिक्षा पद्धति उसे और अधिक भ्रमित करती रहती है। ऐसे दिग्भ्रमित और वैचारिक शून्यता से ग्रस्त युवाओं पर पाश्चात्य अपसंस्कृति का आक्रमण कितनी सरलता से होता है, इसे हम प्रत्यक्ष देख ही रहे हैं। भोगवादी आधुनिकता के भटकाव में फंसी युवा पीढ़ी दुष्प्रवृत्तियों के दलदल में धंसती जा रही है। विश्वविद्यालय और शिक्षण संस्थान जो युवाओं की निर्माण स्थली हुआ करते थे आज अराजकता एवं उच्छृंखलता के केन्द्र बन गए हैं। वहां मूल्यों एवं आदर्शों के प्रति कहीं कोई निष्ठा दिखाई ही नहीं देती। सर्वत्र नकारात्मक एवं विध्वंसक गतिविधियां ही होती रहती हैं। ऐसे शिक्षक व विद्यार्थी जिनमें कुछ सकारात्मक और रचनात्मक कार्य करने की तड़पन हो, बिरले ही मिलते हैं। इसी का परिणाम है कि हमारा राष्ट्रीय एवं सामाजिक भविष्य अंधकारमय लग रहा है।

‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’—जैसा बीज होगा, जैसी पौध होगी, उसी के अनुरूप तो वृक्ष विकसित होगा, पुष्पित, पल्लवित और फलित होगा। आज की युवा पीढ़ी की जो दुर्दशा हो रही है उसका सर्वप्रथम दायित्व तो उनके माता-पिता और परिवार का ही है। वे स्वयं ही दुष्प्रवृत्तियों के शिकंजे में फंसे हुए हैं फिर अपनी संतान को उचित शिक्षा व संस्कार कहां से दे सकेंगे? युवावस्था की प्रारम्भिक स्थिति में अनेक शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होते हैं। जीवन का यह काल अत्यन्त उथल-पुथल भरा होता है जब वह चारों ओर की परिस्थितियों का अपने अनुसार विवेचन करता है। इसमें अनेक प्रतिमान ध्वस्त होते हैं और नए बनते हैं। इस अवधि में वह अपने अस्तित्व को परिवार व समाज में स्थापित करने का प्रयास करता है। अपनी अस्मिता को खोजता है और ऐसे मार्गदर्शक नायक की तलाश करता है जिसके अनुरूप स्वयं को ढाल सके। इस खोजबीन की उलझन में उसे घर से तो कुछ विशेष मिल नहीं पाता और बाहर उसका सर्वत्र शोषण ही होता है। एक समय था जब अभिमन्यु को गर्भावस्था में ही माता-पिता से शिक्षा और संस्कार प्राप्त हुए थे। आज के माता-पिता एवं समाज के कर्णधार स्वयं ही यह चिन्तन करें कि वे अपने अभिमन्युओं को क्या बना रहे हैं?

पहले युवापीढ़ी को अपने आदर्श ढूंढ़ने के लिए परिवार व समाज के अतिरिक्त पुस्तकों का भी सहारा रहता था जो कि भारतीय संस्कृति की बहुमूल्य धरोहर हैं। आज वेद, उपनिषद्, पुराण आदि को पढ़ना या उन पर चर्चा करना तो दूर, उनका नाम लेना भी पिछड़ेपन की निशानी समझा जाता है। आदर्श व प्रेरक साहित्य के प्रति अभिरुचि में भारी कमी आई है। अश्लील एवं स्तरहीन साहित्य की भरमार है। उच्चस्तरीय साहित्यिक रचनाएं पढ़ने की परम्परा लुप्त हो रही है। युवावर्ग समझ ही नहीं पाता कि वह क्या पढ़े और कैसे पढ़े? देव संस्कृति की इस उपेक्षा के कारण ही आज वह किसी सज्जन, वीर, महात्मा और महापुरुष को अपना आदर्श बनाने के स्थान पर टी.वी. और फिल्मों के पर्दे पर उनको खोजता है। वहां उसे फिल्मों के पर्दे पर उनको खोजता है। वहां उसे हिंसा, अश्लीलता, फैशनपरस्ती, स्वच्छंदता, फूहड़ता आदि के अतिरिक्त कुछ मिलता ही नहीं। इसी सब का अनुसरण करने को वह प्रगतिशीलता समझता है। यही कारण है कि चारों ओर अनुशासनहीनता की पराकाष्ठा और स्तरहीन आदर्शों की अंधभक्ति ही दिखाई देती है। ऐसे में टी.वी. पर अनेकानेक सैटेलाइट चैनलों द्वारा हमारी लोक-संस्कृति को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने का ही यह परिणाम है कि खान-पान, वेश-भूषा, आचार-व्यवहार आदि सभी क्षेत्रों में युवाओं द्वारा पाश्चात्य अपसंस्कृति का अंधानुकरण हो रहा है। भारत की बहुमूल्य सांस्कृतिक परम्पराओं की वह अवहेलना करता है या उपहास उड़ाता है। पाश्चात्य संस्कृति के जीवन मूल्य को अपनाती युवा पीढ़ी अपने देश की संस्कृति को हेय दृष्टि से देखने लगी है। प्रगतिशीलता के नाम पर नैतिकता का परित्याग और भारतीयता का विरोध विशेष उपलब्धियों को गिना जाता है। उसी को आदर्श हीरो का सम्मान मिलता है।

राजनीतिज्ञों के दुष्चक्र ने तो युवा पीढ़ी को और अधिक उलझा दिया है। शिक्षा केन्द्र तो पूरी तरह से राजनैतिक द्वंद्व का अखाड़ा बन गए हैं। इस युद्ध में युवावर्ग का प्रयोग कच्चे माल के रूप में खुले आम होता है। सुरा-सुंदरी तक उन्हें उपलब्ध कराने में राजनीतिक दलों को कोई हिचक नहीं होती। काले धन की थैलियां तो खुली ही रहती हैं। इस प्रकार के दूषित वातावरण में युवापीढ़ी ऐसी कुसंस्कृति को अपनाने के लिए मजबूर है जहां व्यक्तिगत जीवन में नैतिकता और नाते-रिश्तों की पवित्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यौन उच्छृंखलता को फैशन व आधुनिकता का प्रतीक समझा जाता है जिससे युवक-युवतियां आत्मघाती दुष्चक्र में उलझते जाते हैं। उनकी ऊर्जा और प्रतिभा किसी सार्थक कार्य में लगने के स्थान पर सौन्दर्य प्रतियोगिताओं, फैशन शो और फिल्मों में बर्बाद होती है तथा अपराधी व बुरे लोगों के जाल में उनके फंसने की संभावनाएं बढ़ती जाती हैं। उच्च आदर्शों एवं प्रेरणा स्रोतों के अभाव में वे नित नए कुचक्रों में उलझते रहते हैं। सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्व बोध से कटे हुए ऐसे लोगों का जीवन मात्र स्वार्थपरता के संकुचित घेरे तक ही सीमित रह जाता है।

भविष्य की संभावनाएं

ऐसे अन्धकारमय परिदृश्य में भी आशा की किरण तो होती ही है। माना कि हताशा व निराशा से ग्रस्त युवा पीढ़ी में परिस्थितियों से जूझने की क्षमता चुकती जा रही है पर वह समाप्त नहीं हुई है। उसे विकसित करने के अनेकानेक साधन उपलब्ध हैं। सांस्कृतिक एवं मानसिक परतन्त्रता के अदृश्य पाश से स्वयं को मुक्त करके विश्वक्रांति का अग्रदूत बनने की क्षमता भी उसमें है। युवाशक्ति की राष्ट्र की उज्ज्वल आशा का प्रतीक है। देश को दुर्गति से प्रगति के पथ पर ले जाने की शक्ति उसके रग-रग में समाई हुई है। शून्य से शिखर तक पहुंचने का पुरुषार्थ वही कर सकता है।

दुनिया में बुराई तो बहुत है। चारों ओर झूठ, फरेब, धोखा और बेईमानी फैली हुई है। पर हर समय इन्हीं बातों पर चिन्तन और चर्चा करते रहने से क्या लाभ? संसार में आसुरी प्रवृत्ति के लोग तो सदैव रहे हैं चाहे वह रामायण-महाभारत काल हो या आज का युग। उनकी संख्या अवश्य कभी कम तो कभी अधिक होती है। इसी सात्विक एवं दैवी प्रवृत्ति के लोग भी समाज में रह समय रहते हैं। हनुमान जी को भी रात के अंधेरे में लंका के राक्षसों के बीच एक देवस्वरूप व्यक्ति विभीषण के रूप में मिल गया था। हम भी यदि थोड़ा सा सजग होकर देखें तो अपने आस-पास अनेक अच्छे व्यक्ति हमें मिल जायेंगे जो ईमानदारी, अच्छे चरित्र वाले और नैतिक मूल्यों का पालन करने वाले हैं। वे सदैव जीवन के प्रति आशावादी एवं सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं।

युवा पीढ़ी में तो ऐसे सच्चरित्र लोगों की भरमार है। समस्या केवल इतनी भर है कि उन्हें बिगड़ने से किस प्रकार बचाया जाए और वे स्वयं भी किस प्रकार इस काजल की कोठरी से अपने को बचाकर बेदाग बाहर निकल सकें। असली दायित्व तो युवाओं का ही है। यदि वे सांसारिक दुष्प्रवृत्तियों के मकड़जाल में फंसने के कुप्रभावों को समय रहते समझ लें और उनके प्रलोभन में न आएं तो कोई भी उन्हें कुमार्ग पर नहीं ले जा सकेगा। यदि उनमें स्वयं को सुधारने की इच्छाशक्ति जागृत हो जाएगी तो अन्य सत्पुरुषों की बातें भी सरलता से उनके गले उतर जाएंगी। स्वयं को सुधार कर ही वे सारे संसार को सुधार सकेंगे। ‘अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है’, इस तथ्य को समझ लेने से ही सबका कल्याण है।

सामाजिक स्थिति में समय-समय पर बदलाव तो आते ही रहते हैं कभी सकारात्मक और कभी नकारात्मक। वर्तमान समय में तो परिवार, समाज और राष्ट्र की धुरी बुरी तरह से लड़खड़ा रही है और सम्पूर्ण व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन आवश्यक हो गया है। इसे कौन कर सकता है? और कौन करेगा?

इतिहास साक्षी है कि संसार में जितनी भी महत्वपूर्ण क्रान्तियां हुई हैं, उनमें युवाओं की भूमिका सदैव ही अत्यन्त महत्वपूर्ण रही है। मानव जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय युवावस्था ही होता है। उत्साह एवं उमंग से भरपूर युवाओं में पहाड़ से टकराने की ललक होती है। कठिन से कठिन परिस्थितियों से भी जूझने का साहस होता है। उनकी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियां भी अपने विभिन्न रूपों में प्रस्फुटित होती हैं और असंभव को भी संभव कर दिखाने की क्षमता रखती हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज के अनुसार भारत में 16 से 25 वर्ष के युवाओं की संख्या 21.5 करोड़ है। इतनी बड़ी जनशक्ति यदि नकारात्मक गतिविधियों में लिप्त हो जाए तो देश को शीघ्र ही रसातल में पहुंचा सकती है। पर यदि यह युवा शक्ति सकारात्मक और रचनात्मक मार्ग पर चल पड़े तो भारत को संसार का सिरमौर बना दे। आज अपने धनबल और बाहुबल के बूते कोई देश संसार में अपनी दादागीरी तो चला सकता है पर केवल कुछ समय के लिए ही। अपने सद्गुणों और सद्विचारों के बल पर ही भारत कभी विश्व में जगद्गुरु कहलाता था। उसे पुनः उसी पद पर पुनर्स्थापित करने का सामर्थ्य केवल हमारी युवा पीढ़ी में ही है।

क्या करें? कैसे करें?

सर्वप्रथम युवाओं को अपने मन से निराशा एवं हताशा के भावों को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा। अपनी शक्तियों पर अपनी क्षमता व प्रतिभा पर अटूट विश्वास जगाना होगा। नैपोलियन ने कहा था कि ‘असंभव’ शब्द उसके शब्दकोष में है ही नहीं। इसे अपने जीवन का आधार बनाकर सदैव यही विचार करना होगा कि संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं जो हम न कर सकें। कल्पना करें कि आपके शरीर में शक्ति स्रोत फूट रहा है ऊर्जा की धाराएं प्रवाहित हो रही हैं जो कठिन से कठिन कार्य को भी चुटकियों में पूरा कर सकती हैं। उज्ज्वल भविष्य हमारे स्वागत हेतु तत्पर है। अपने भीतर इस प्रकार का आत्मविश्वास दृढ़तापूर्वक स्थापित करने पर ही हम जीवन की अनेक चुनौतियों का सामना करने में सफल हो सकेंगे।

हमारे भीतर यह आत्मविश्वास कैसे जागे और कैसे परिपुष्ट हो? हम किस प्रकार अपने जीवन को उत्कृष्ट बनाएं और वर्तमान चुनौतियों का भी सफलतापूर्वक सामना कर सकें? इसे समझने से पहले हमें भारत के महान युवा संन्यासी स्वामी विवेकानन्द के एक संदेश को आत्मसात करना होगा। उन्होंने कहा है ‘‘प्रत्येक व्यक्ति की भांति प्रत्येक राष्ट्र का भी एक विशेष जीवनोद्देश्य होता है। वही उसके जीवन का केन्द्र है, उसके जीवन का प्रधान स्वर है, जिसके साथ अन्य सब स्वर मिलाकर समरसता उत्पन्न करते हैं। किसी देश में जैसे इंग्लैण्ड में राजनीतिक सत्ता ही उसकी जीवन शक्ति है। भारतवर्ष में धार्मिक जीवन ही राष्ट्रीय जीवन का केन्द्र है और वही राष्ट्रीय जीवन रूपी संगीत का प्रधान स्वर है। यदि कोई राष्ट्र अपनी स्वाभाविक जीवन शक्ति को दूर फेंक देने की चेष्टा करे, शताब्दियों से जिस दिशा की ओर उसकी विशेष गति हुई है, उससे मुड़ जाने का प्रयत्न करे और वह इस कार्य में सफल हो जाए तो वह राष्ट्र मृत हो जाता है। अतएव यदि तुम धर्म को फेंककर राजनीति, समाजनीति अथवा अन्य किसी दूसरी नीति को अपनी जीवनशक्ति को केन्द्र बनाने में सफल हो जाओ तो उसका फल यह होगा कि तुम्हारा अस्तित्व तक न रह जाएगा। यदि तुम इससे बचना चाहो तो अपनी जीवन शक्ति रूपी धर्म के भीतर से ही तुम्हें अपने सारे कार्य करने होंगे। अपनी प्रत्येक क्रिया का केन्द्र इस धर्म को ही बनाना होगा। सामाजिक जीवन पर धर्म का कैसा प्रभाव पड़ेगा, यह बिना दिखाए मैं अमेरिका वासियों में धर्म का प्रचार नहीं कर सकता था। इंग्लैण्ड में भी बिना यह बताए कि वेदांत के द्वारा कौन-कौन से आश्चर्यजनक परिवर्तन हो सकेंगे, मैं धर्म प्रचार नहीं कर सका। इसी भांति भारत में सामाजिक सुधार का प्रचार तभी हो सकता है, जब यह दिखा दिया जाए कि इस नई प्रथा से आध्यात्मिक जीवन की उन्नति में कौन सी विशेष सहायता मिलेगी? अतः भारत में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने से पहले धर्म प्रचार आवश्यक है।’’

लगभग सौ वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानन्द द्वारा कही गई इस बात पर गंभीरता से विचार करें। आज हमारी जो स्थिति बनती जा रही है, उसका कारण क्या यह तो नहीं है कि हम धर्म के पथ से भटक गए हैं? अपनी संस्कृति एवं परम्पराओं की अपेक्षा करने लगे हैं? और पाश्चात्य अंधानुकरणों के कारण स्वयं ही अपनी जड़ों को काटते जा रहे हैं? ऐसा लगता है कि स्वामीजी आज भी हमारे सामने खड़े हमें चेता रहे हैं, झकझोर रहे हैं। स्वामीजी की बात को आत्मसात करके ही हम वर्तमान चुनौतियों का सामना कर सकेंगे। धार्मिक जीवन के द्वारा ही हम स्वयं को सुधार सकेंगे और समाज व राष्ट्र को भी उन्नति के मार्ग पर ले जा सकेंगे। आवश्यक है कि हम स्वयं को पहचानें और धर्म के वास्तविक स्वरूप को भी जानें।

स्वयं को पहचानो

संसार में चौरासी लाख योनियां हैं। भांति-भांति के जीव-जन्तु, कीट-पतंग, पशु-पक्षी, जलचर-नभचर हमें अपने चारों ओर दिखाई देते हैं। इन्हीं प्राणियों में से एक मनुष्य भी है। यह तो निर्विवाद है कि संसार के सभी प्राणियों में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है। सर्वगुण सम्पन्न शरीर के साथ-साथ उसे बुद्धि-विवेक का वरदान भी प्राप्त है। वह सोच सकता है, चिन्तन-मनन कर सकता है, बोल सकता है, समझ सकता है, हंस सकता है, रो सकता है और हमारी कल्पना से भी परे यदि कोई कार्य हो तो उसे भी कर सकता है। अन्य किसी प्राणी में ऐसी क्षमता नहीं है। वे तो केवल इतना भर कर पाते हैं कि जिससे उनका जीवन चलता रहे। हजारों-लाखों वर्ष पूर्व भी वे जिस स्थिति में थे आज भी उसी रूप में हैं। उनके घोंसला या बिल आदि बनाने का जो ज्ञान तब था वही आज भी है। दूसरी ओर मनुष्य अपनी बुद्धि-विवेक के द्वारा प्रगति की नित नई ऊंचाइयों को छू रहा है। हमें यह विचार करना होगा कि इस सुर-दुर्लभ मानव योनि में हमारा जन्म क्यों हुआ है? भगवान ने हमारे ऊपर यह विशेष कृपा क्यों की है? इस जन्म से पूर्व हम क्या थे? और मृत्यु के बाद हमारा क्या होगा? हम आस्तिक हों या नास्तिक, पर यह तथ्य तो अब सभी मानते हैं कि आत्मा और शरीर अलग-अलग हैं। आत्मा के निकल जाने पर शरीर मृत हो जाता है, चाहे वह मनुष्य शरीर हो या फिर किसी भी जीव-जन्तु का। हमारे साथ भी हजारों लाखों वर्षों से ऐसा ही हो रहा है। अपने कर्मों के अनुसार फल तो सबको भोगना पड़ता है। हमने भी पूर्व जन्मों में जैसे अच्छे-बुरे कर्म किए थे, उन्हीं का फल भोगने हेतु विभिन्न योनियों में रहना पड़ा होगा। अब पुनः ईश्वर कृपा से मानव शरीर प्राप्त हुआ है। इस जीवन में भी हम जैसे कर्म करेंगे उसी के अनुरूप हमारा अगला जन्म होगा।

पूर्व जन्म, वर्तमान जन्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को हमें मानना ही होगा। साथ ही कर्मफल भोगने की धारणा पर अटूट विश्वास भी रखना होगा। हमारा कोई भी कर्म निष्फल नहीं होता। देर-सवेर उसका फल हमें मिलता ही है। हम किसी को गाली दें तो वह में तुरन्त थप्पड़ मार देता है। कर्म का फल तुरन्त मिल गया। कुछ उल्टा-सीधा खा पी लें तो उसका फल कुछ दिनों या वर्षों बाद शरीर में रोग के रूप में फूटता है। इसी प्रकार कुछ कर्मों का फल इसी जीवन में मिल जाता है। जबकि कुछ का अगले जन्मों में। भगवान के यहां देर है पर अंधेर नहीं।

भगवान को हम किसी भी नाम से पुकारें, उसे निराकार मानें या साकार, पर यह तो मानना ही होगा कि सब कुछ उसी की कृपा से होता है। ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्— इस संसार में जो कुछ भी है, कण-कण में, रोम-रोम में ईश्वर का वास है। वही सारे संसार का नियंता है, नियामक है। हम सारे संसार को भले ही धोखा दे लें पर भगवान को धोखा नहीं दे सकते। हमारे कर्मों का फल तो हमें अवश्य ही भोगना पड़ेगा।

हमारे जीवन में जो भी अच्छी-बुरी परिस्थितियां आती हैं वे भी हमारे कर्मों का फल हैं। पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार ही हमें इस जन्में में विभिन्न परिस्थितियों का सामना करना होता है। कोई अच्छे समृद्ध संस्कारी परिवार में जन्म लेता है, कोई दुराचारी निर्धन परिवार में। किसी को अनेकानेक सुख-सुविधाएं सरलता से उपलब्ध होती हैं। तो कोई सदैव अभाव व कष्ट में ही रहता है। इस सबके लिए हम किसी अन्य को दोष नहीं दे सकते। अब तभी यदि हम खराब कर्म करते रहेंगे तो अगले जन्म में हमें जीव-जन्तुओं की न जाने कितनी योनियों में कष्ट भोगने पड़ेंगे और फिर से मनुष्य शरीर मिला तो संभव है कि उस समय और अधिक विकट परिस्थितियों को सामना करना पड़े। यदि अच्छे कर्म करेंगे तो अगले जीवन में और अधिक सुखद परिस्थितियां प्राप्त होंगी।

हमें ईश्वर के अस्तित्व और कर्मफल के सिद्धांत को सदैव ध्यान में रखना होगा। यदि हम इससे आंखें फेरने का प्रयास करेंगे तो केवल स्वयं को ही धोखा देते रहेंगे। फिर हम न तो स्वयं को पहचान पाएंगे और न धर्म के वास्तविक स्वरूप को।

यह मानव जीवन हमें कर्म करने के लिए मिला है। इस योनि में रहते हुए ही हम पूर्वजन्म के कर्मों के फल भी भोगते रहते हैं और साथ ही नए कर्म भी करते हैं। शेष सभी योनियां तो केवल भोग योनियां ही है। वहां तो कोई नया कर्म होता ही नहीं, मात्र सामान्य जीवनचर्या की चलती रहती है। अब यह हमारे ऊपर है कि हम किस प्रकार के कर्म करें। परमात्मा ने हमें एक सुअवसर प्रदान किया है कि सत्कर्म करते हुए हम अपने जीवन को उन्नति के मार्ग पर ले जाएं। कुकर्मों द्वारा इसका सर्वनाश न करें। भगवान ने अपनी समस्त शक्तियों के साथ अपने प्रतिनिधि के रूप में हमें इस संसार में भेजा है जिससे हम साथी प्राणियों के कल्याण हेतु अपनी प्रतिभा व क्षमता का नियोजन कर सकें। अपने पुरुषार्थ से अपने पाप कर्मों का प्रायश्चित भी करें और सत्कर्मों द्वारा पुण्यफल भी प्राप्त करें।

इस प्रकार हम स्वयं को पहचानें और पूर्ण आस्था व ईश्वर विश्वास के साथ कर्मपथ पर बढ़ें। हमें पग-पग पर ईश्वरीय सहायता भी मिलती रहेगी। ईश्वर केवल उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता स्वयं करना चाहते हैं। हमें सतत सतर्क रहकर इसी विश्वास के साथ अपनी जीवनचर्या का निर्धारण करना होगा तभी हम सफलतापूर्वक वर्तमान चुनौतियों से पार पा सकेंगे।

अपनी उलटी जीवनचर्या को पलट कर सीधा करें

आज अधिकांश व्यक्तियों का जीवन उलटी दिशा में चल रहा है। मनुष्य स्वकेंद्रित हो गया है। वह केवल अपने लाभ की बात ही सोचता है। अपनी इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति में लगा रहता है। स्वार्थ के आगे संयम तो स्वतः ही टूट जाता है। अमर्यादित आचरण से भी उसे संकोच नहीं होता। स्वयं के बाद वह अपने परिवार की बात सोचता है। पति-पत्नी और बच्चों तक ही वह सीमित रह जाता है। आगे समाज व राष्ट्र के बारे में तो वह सोचता ही नहीं। होना तो यह चाहिए कि पहले राष्ट्र और समाज के कल्याण के कार्य करें और फिर अपने कुटुम्ब व परिवार के लिए। स्वयं का कल्याण तो स्वतः ही हो जाएगा। जब इस प्रकार की भावना मन में आएगी तो मनुष्य कभी भी दुखी नहीं होगा चाहे कैसी भी समस्याएं उसके सामने क्यों न आएं। इस उलटे मार्ग पर हम इसी लिए चल पड़े हैं क्यों हमने ‘पुरुषार्थ चतुष्टय’ के महामंत्र को भुला दिया है। पुरुषार्थ चतुष्टय का तात्पर्य है कि हमारा सारा पुरुषार्थ चार बिन्दुओं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पर आधारित हो। विद्वान मनीषियों ने गहन, चिन्तन-मनन के बाद हमारे कर्मों के लिए यह चार आधार निश्चित किए थे और इनका क्रम भी। उत्तम, चरित्रवान्, सुसंस्कारित और परिष्कृत व्यक्तियों से युक्त समाज का निर्माण करने के लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की नसैनी हमें सौंपी थी।

धर्म उसकी पहली सीढ़ी है फिर अर्थ और काम तब अंत में मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। आज हम धर्म को तिलांजलि देकर, अर्थ व काम में लिप्त होकर, मोक्ष की खोज में भटक रहे हैं। फिर चिन्तन सुख की प्राप्ति कैसे होगी? ऐसे में तो केवल अशांति और कुंठा ही हाथ लगेगी।

धर्म कोई उपासना पद्धति नहीं है। यह तो एक विराट एवं विलक्षण जीवनचर्या है, जीवन जीने की कला है। ऋषि परम्परा द्वारा सिंचित, अवतारों एवं महापुरुषों द्वारा संरक्षित धर्म का वट वृक्ष सनातन काल से पल्लवित एवं संवर्द्धित होता चला आ रहा है। इसमें ‘स्व’ का स्वार्थ नहीं है। इसकी छत्रछाया में समस्त विश्व ‘जीवेत एवं जीवयेत’ (जियो और जीने दो) के सिद्धान्त का पालन करते हुए सुख शांति पूर्वक जीवन यापन का आनन्द भोगता है। देश-विदेश में फैले अनेकानेक मत-मतान्तरों, उपासना पद्धतियों, कर्मकाण्डों के सह अस्तित्व के साथ अपने सांस्कृतिक व नैतिक मूल्यों में उत्तरोत्तर वृद्धि करना ही धर्म का मूल उद्देश्य है। इसी को हिंदुत्व भी कहते हैं। धर्म ही मानव के समस्त क्रिया-कलापों को संचालित करके संपुष्ट समाज रचना को आलंबन प्रदान करता है। व्यक्ति, परिवार, समाज या राष्ट्र जब भी धर्म से परे हट कर अधर्म के कार्यों में लिप्त हो जाते हैं, वह अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने का कार्य ही करते हैं।

धर्म का अर्थ है कर्तव्य। मनुष्य का मनुष्य के प्रति कर्तव्य, अन्य प्राणियों के प्रति कर्तव्य, पेड़-पौधों व पर्यावरण के प्रति कर्तव्य, समाज और राष्ट्र के प्रति कर्तव्य। पूरी निष्ठा व ईमानदारी से, निःस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्य का पालन करना ही सच्चा धर्म है। यही मानव धर्म है। हिंदू हो या मुसलमान, सिख हो या ईसाई, पारसी हो या यहूदी, यह तो सभी के लिए समान है।

धर्म के बाद दूसरा स्थान अर्थ का है। अर्थ के बिना, धन के बिना संसार का कार्य चल ही नहीं सकता। जीवन की प्रगति का मूल आधार ही धन है। उद्योग-धंधे, व्यापार, कृषि आदि सभी कार्यों के निमित्त धन की आवश्यकता होती है। यही नहीं, धार्मिक कार्यों, प्रचार, अनुष्ठान आदि सभी धन के बल पर ही चलते हैं। अर्थोपार्जन मनुष्य का पवित्र कर्तव्य है। इसी से वह प्रकृति की विपुल संपदा को अपने और सारे समाज के लिए प्रयोग भी कर सकता है और उसे संवर्द्धित व संपुष्ट भी। पर इसके लिए धर्माचरण का ठोस आधार आवश्यक है। धर्म से विमुख होकर अर्थोपार्जन में संलग्न मनुष्य एक ओर तो प्राकृतिक संपदा का विवेकहीन दोहन करके संसार के पर्यावरण संतुलन को नष्ट करता है और दूसरी ओर अपने क्षणिक लाभ से दिग्भ्रमित होकर अपने व समाज के लिए अनेकानेक रोगों व कष्टों को जन्म देता है। यही सब तो आजकल हो रहा है। धर्म ने ही हमें यह मार्ग सुझाया है कि अर्थोपार्जन करते हुए प्रकृति से, समाज से हमने जितना लिया है उससे अधिक वापस करने को सदैव प्रयासरत रहें। हमारी यज्ञ परम्परा भी इसी उत्कृष्ट भावना पर आधारित है।

धर्म और अर्थ के बाद काम को तीसरा स्थान दिया गया है। काम तो जीवन की प्राण-शक्ति है। यदि मनुष्य में कामना ही नहीं होगी, कुछ करने व पाने की लालसा नहीं रहेगी तो वह मृतप्राय हो जाएगा। प्रगति का चक्र ही रुक जाएगा। कामेच्छा से प्रेरित होकर ही मनुष्य तरह-तरह के आविष्कार करता है, भौतिक सुख के साधन तैयार करता है और इसी से चहुमुखी प्रगति के दर्शन होते हैं। परन्तु हमारे धर्मग्रंथों ने ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ का मंत्र भी तो हमें दिया है। त्याग भाव से भोग करो। संसार में जो कुछ भी है समाज के लिए है। धर्मानुसार, विवेकपूर्ण चिन्तन के आधार पर ही उसका उपभोग करो। पहले त्याग करो, अन्य सभी का ध्यान रखो फिर स्वयं उपभोग करो। दूसरों को खिलाकर तब स्वयं खाओ। काम को, अपनी इच्छाओं व लालसाओं को सब से ऊपर समझकर उनके भर से समाज को जर-जर मत बनाओ अन्यथा अंततोगत्वा यह तुम्हारे ही संहार का कारण बनेंगे।

मोक्ष का स्थान अंत में आता है। यह हमें तभी प्राप्त हो सकेगा। जब हमारा अर्थ व काम दोनों ही धर्म से संचालित होंगे। तभी चारों ओर सुख-शान्ति का साम्राज्य होगा। धर्मानुसार आचरण न करने पर हमें अर्थ-सुख तो मिल सकता है पर मन के कलुष व अशांति के अतिरेक में मोक्ष कहां मिलेगा? बाह्य दृष्टि से हम भले ही धन-धान्य, वैभव व सम्पन्न से परिपूर्ण दिखाई दें परन्तु अनगढ़, असभ्य और असंस्कृत होने से हम आर्थिक दृष्टि से भी कहीं अधिक घाटे में रहते हैं। दरिद्रता वस्तुतः असभ्यता की प्रतिक्रिया मात्र ही है। आलसी, प्रमादी, दुर्गुणी, दुर्व्यसनी मनुष्य यों तो उचित अर्थोपार्जन कर ही नहीं पाते और यदि कुछ अर्जित भी कर लेते हैं तो उसे नशेबाजी व अन्य फिजूलखर्चियों में नष्ट कर देते हैं। मन में हर समय अशांति व भय बना रहता है। ऐसे में मोक्ष की कल्पना रात्रि में सूरज की खोज के समान है।

आज मनुष्य के मानसिक संताप तथा समाज में व्याप्त अनेकानेक बुराइयों, आधि-व्याधियों का मूल कारण ही यह है कि हमने ‘पुरुषार्थ चतुष्टय’ की इस स्वर्ग नसैनी को खंडित कर दिया है, उसकी पवित्रता भंग कर दी है। धर्म के वास्तविक शाश्वत स्वरूप को तिलांजलि दे दी है। धर्म विमुख होने से हमारे समस्त क्रियाकलाप हमें पतन के गर्त में ही ले जा रहे हैं। स्वस्थ, संतुष्ट एवं समरस समाज की पुनर्स्थापना करने हेतु धर्म का ठोस आधार हमें अपनाना ही होगा। उसी से समाज का और हमारा स्वयं का भी कल्याण संभव होगा। स्वामी विवेकानन्द का यही संदेश है, यही निर्देश है।

पुरुषार्थ चतुष्टय की मूल भावना को समझकर ही हम अपनी उलटी जीवनचर्या की सही मार्ग पर ले जा सकते हैं।

लक्ष्य निश्चित करें

हमने यह समझ लिया है कि हमें यह मानव जीवन क्यों मिला है। जीवन में हमें जैसी भी परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है वह सब हमारे कर्मों का ही फल है। अब भी हम जैसे कर्म करेंगे उनका फल भी हमें ही भोगना होगा। हमने यह भी जान लिया है कि धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है और हमारे सारे क्रिया कलाप धर्मानुसार ही होने चाहिए।

इसी आधार पर हमें अपने जीवन का लक्ष्य निश्चित करना होगा। आज तो लगभग सभी ने पैसा कमाना ही अपने जीवन का एकमात्र ध्येय बना रखा है। युवावर्ग में शिक्षा का उद्देश्य भी धन कमाना ही रह गया है। शिक्षा की वास्तविक उपयोगिता तो इसमें है कि हमारा ज्ञान बढ़े, हमारी प्रतिभा व क्षमता का विकास हो और हम इसके द्वारा समाज का एवं स्वयं का भला कर सकें। पर आज शिक्षा का व्यवसायीकरण हो रहा है। लोग डॉक्टर व इंजीनियर भी इसी लिए बनना चाहते हैं कि उसमें अधिक से अधिक धन कमाने की संभावना होती है। ऐसी शिक्षा से क्या लाभ? धन तो अशिक्षित व्यक्ति भी कमा लेता है। चोरी, डकैती, स्मगलिंग, अपहरण आदि के द्वारा कम समय में ही मनचाही राशि लोग एकत्रित कर लेते हैं। जब किसी भी प्रकार से धन कमाना ही मुख्य ध्येय है तो फिर चोर-डकैत और डॉक्टर-इंजीनियर में क्या अन्तर रह जाता है? ध्येय का महत्व शिक्षा से कहीं अधिक है। यदि ध्येय उचित है, सारे समाज के भले का है, जन कल्याण के लिए है तो वह व्यक्ति वंदनीय है, पूजनीय है। अपने जीवन का लक्ष्य निश्चित करते समय हमें सुभाष, गांधी, विवेकानन्द, दयानन्द, सरदार पटेल, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव जैसे महान युवा क्रांतिकारियों से प्रेरणा लेनी चाहिए। एक बार भली भांति ठोक-बजा कर अपना लक्ष्य निर्धारित कर लें। अब दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ उस पथ पर बढ़ें। मार्ग में अनेक अड़चनें आएंगी, विरोधी भांति-भांति की समस्याएं उत्पन्न करेंगे, पर यदि आपका संकल्प दृढ़ है तो सारी उलझनें धीरे-धीरे समाप्त हो जाएंगी। धैर्यपूर्वक अपने पथ पर बढ़ते रहें। असफलताएं आएंगी, पुनः प्रयास करें, पुनः पुनः प्रयास करते रहें जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। ‘उत्तिष्ठत् जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत्’—इसे अपना ध्येय वाक्य बना लें। कठिनाइयों से, असफलताओं से कभी घबराएं नहीं। जीवन में जितनी अधिक कठिनाइयां आती हैं, जितनी समस्याएं आती हैं, हमारे अंतरमन में उनसे जूझने की क्षमता भी उसी अनुपात में बढ़ती जाती है। यदि हमारा आत्मविश्वास और ईश्वर विश्वास दृढ़ है तो कोई भी अवरोध अधिक समय तक टिक ही नहीं सकता।

साधना, संयम, स्वाध्याय, सेवा

अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, मार्ग में आने वाले अवरोधों पर विजय पाने के लिए साधना, संयम, स्वाध्याय और सेवा का अभ्यास करें। इस प्रकार आप शारीरिक एवं मानसिक रूप से किसी भी विकट समस्या का सामना करने के लिए स्वयं को तैयार कर सकेंगे। जिस प्रकार एक सैनिक सतत अभ्यास के द्वारा युद्ध के लिए स्वयं को सदैव तैयार रखता है, चाहे युद्ध की संभावना हो या न हो, उसी प्रकार हमें भी स्वयं को जीवन-संग्राम के लिए तैयार रखना चाहिए।

स्वयं को इस प्रकार तैयार करने का नाम ही साधना है। आलस व प्रमाद छोड़कर नियमित दिनचर्या रखें। शारीरिक स्वच्छता एवं स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहें। बाहरी पवित्रता के साथ-साथ वैचारिक पवित्रता पर विशेष बल दें। मन में बुरे विचारों का ‘प्रवेश निषेध’ कर दें। किसी के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, दुर्भावना, क्रोध आदि के विषधर यदि सिर उठाएं तो उन्हें तुरन्त कुचल दें। युवाओं की तो सबसे बड़ी साधना है अपनी योग्यता का विकास करना। अनुचित साधनों से लोग डिग्रियां व उपाधियां तो पा सकते हैं पर इसे उनमें ज्ञानवृद्धि नहीं हो पाती। इसी से आगे चलकर वे जीवन संग्राम में मुंह की खाते हैं।

संयम के बिना साधना तो संभव ही नहीं है। अपनी इंद्रियों पर कठोर नियंत्रण रखें। ये इंद्रियां यदि अपने वश में हों तो सर्वश्रेष्ठ सहयोगी की भूमिका निभाती हैं और यदि स्वच्छंद हो जाएं तो जीवन को नरकतुल्य बना देती हैं। इंद्रियों का स्वामी मन तो और भी अधिक उत्पाती होता है। न जाने कहां-कहां हमें भटकाता रहता है और हमारी ऊर्जा को व्यर्थ की नष्ट कराता है। किसी कवि ने मानव मन के बारे में लिखा है—

मौन हिलोर किधर से आती, कब आती, क्यों आती।
कौन जानता है पर वह नर को, कहां कहां ले जाती॥

इस मन पर नियंत्रण सबसे आवश्यक पुरुषार्थ है। यही हमारी इंद्रियों को भी भड़काता रहता है। स्वादेन्द्रियों का संयम हमारे स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जवानी के जोश में हम न जाने क्या-क्या उलटा-सीधा खाते पीते रहते हैं। अभी तो पता नहीं चलता पर आयु बढ़ने के साथ, 40-45 वर्ष की आयु से शरीर में अनेकानेक रोग फूटने लगते हैं। युवाओं को इस पर विशेष सतर्कता बरतनी चाहिए। ब्रह्मचर्य का पालन तो अवश्य ही करना चाहिए।

साधना और संयम द्वारा अपने शरीर और मन को हम हर प्रकार की समस्याओं का सामना करने हेतु भली-भांति तैयार कर सकते हैं। स्वाध्याय से इसमें हमें बहुत सहायता मिलती है। प्रेरक आदर्श साहित्य अंधेर में प्रकाश किरण के समान होता है। अच्छी पुस्तकों के अध्ययन से तत्काल प्रकाश और उल्लास मिलता है। उसकी आराधना देव प्रतिमाओं के समान करनी चाहिए। स्वाध्याय का एक अर्थ यह भी है कि हम स्वयं का अध्ययन करें। आत्मसमीक्षा करते रहने से हमें यह ज्ञात होता रहता है कि हमारे भीतर कौन-कौन दोष व दुर्गुण हैं। यह जानकर आत्मपरिष्कार करते रहना चाहिए। यदि यह कार्य सतत् होता रहे तो हम अनेकानेक बुराइयों से बचे रह सकते हैं। प्रतिदिन सोते समय अपने दिन भर के कार्यों की समीक्षा तो हमें अवश्य ही करनी चाहिए।

साधना, संयम और स्वाध्याय द्वारा अपने व्यक्तित्व का विकास करते हुए सदैव दूसरों की सेवा की भावना ही मन में रखें। परोपकार को जीवन का मूल उद्देश्य समझें। हमारे पास जो भी प्रतिभा और क्षमता है, जो भी धन-सम्पत्ति है, सब हमने समाज के सहयोग से ही अर्जित की है। समाज के इस उपकार का बदला चुकाना हमारा कर्तव्य है। निर्बल, निर्धन, पीड़ित लोगों की सेवा तन-मन-धन से सदैव तत्पर रहें। अपनी कमाई का एक भाग, कम से कम दस प्रतिशत, इस हेतु अवश्य लगाएं।

संस्कारवान बनें

एक अच्छे संस्कारित, चरित्रवान व्यक्ति के रूप में अपना विकास हम स्वयं ही कर सकते हैं। माता-पिता का, शिक्षकों का और समाज का मार्गदर्शन तो हमें मिल सकता है पर इस मार्ग पर चलना तो हमें ही पड़ेगा। संयम और साधना के द्वारा अच्छे संस्कारों का अभ्यास करें। इस कुसंस्कारी समाज के लोग आपका विरोध करेंगे पर इसकी चिन्ता न करें। लोग क्या कहेंगे, इस पर ध्यान न दें और अपने निश्चित पथ पर बढ़ते रहें। जैसी परिस्थितियां हों, उनका डॉक्टर सामना करें। मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं है, वह उनका निर्माता, नियन्त्रण करता और स्वामी है। जो विपरीत परिस्थितियों में भी ईमान, साहस और धैर्य को कायम रख सके वस्तुतः वही सच्चा शूरवीर होता है। संस्कारी व्यक्ति की यही पहचान है।

संस्कारवान व्यक्ति ही समाज के समक्ष आई चुनौतियों से सरलता से पार हो सकता है। वही सच्चा मनुष्य कहलाता है। मनुष्य का जन्म तो सरल है पर मनुष्यता उसे कठिन प्रयत्न से प्राप्त करनी होती है। जो अपने को मनुष्य बनाने में सफल हो जाता है उसे हर काम में सफलता मिल सकती है। ऐसा व्यक्ति अपनी निजी आवश्यकताओं को कम से कम रखता है और हर हाल में प्रसन्न रहता है। संस्कारित, सदाचारी और कर्तव्यपरायण व्यक्ति को ईश्वर भी बहुत प्यार करता है और हर प्रकार से उसकी सहायता करता रहता है। प्रत्यक्ष हमें भले ही न दिखाई दे पर न जाने किस-किस रूप में वह हमारी सहायता के साधन जुटा देता है।

गलतियों पर स्वयं को दंडित करें

गलतियां मनुष्यों से ही होती हैं। बच्चे, बूढ़े, छोटे-बड़े सभी जीवन में समय-समय पर गलतियां करते रहते हैं। दूसरों की गलतियों पर हम बहुत जल्दी उत्तेजित हो जाते हैं और उन्हें दंड देने को तत्पर रहते हैं। पर स्वयं अपनी गलतियों पर परदा डालते हैं। कहीं कोई हमें दंडित न कर दे, इसके लिए बचने के हर संभव प्रयास करते हैं। इसमें सफल भी हो जाते हैं। यही कारण है कि हम बार-बार गलतियां करते रहते हैं और उनके आदी भी हो जाते हैं।

हमें स्वयं को अपनी गलतियों पर दंडित करने का स्वभाव विकसित करना चाहिए। कोई दूसरा हमें दंड दे इससे पहले ही स्वयं अपने कान खींचें, गाल पर थप्पड़ लगाएं और अपने को डाटें कि अजब मूर्ख हो जो ऐसी गलती करते हो। यदि अपराध अधिक गंभीर हो तो स्वयं अपने को एक समय या पूरे दिन भूखा रहने का दंड दें। इसी प्रकार आप स्वयं ही न्यायाधीश के समान अपनी गलती की गंभीरता को देखते हुए दंड निर्धारित कर लें और कठोरता से उसका पालन करें। इसे प्रायश्चित भी कहते हैं। इससे एक ओर तो परिवार व समाज में आपका मान बढ़ता है वहीं दूसरी ओर आत्मसंतोष होता है, अपराध बोध से मुक्ति मिलती है और परमात्मा के दंड से छुटकारा भी होता है।

एकला चलो

संसार की चुनौतियों का सामना करने को तुम्हें अकेले ही आगे बढ़ाना होगा। संभव है कि आगे चलकर और लोग भी सहयोग करने को आ जाएं पर उसके लिए प्रतीक्षा करने में समय नष्ट करना बुद्धिमानी नहीं है। अपने पौरुष, अपने साहस और अपने विवेक पर भरोसा रखो, तथा परमात्मा की कृपा पर अटूट विश्वास भी। सत्य के लिए, धर्म के लिए, न्याय के लिए एकाकी आगे बढ़ने को सदैव तैयार रहो।

सफलता का मार्ग खतरों का मार्ग है। इन खतरों से जूझने का, कष्ट सहने का, कठोर परिश्रम करने का साहस हमें हर दशा में सफल बनाएगा। संसार की वर्तमान चुनौतियों का भी हम सफलतापूर्वक सामना कर सकेंगे।

कर्म करने से पहले सोचना बुद्धिमानी है।
कर्म करते समय सोचना सतर्कता है।
कर्म करने के बाद सोचना मूर्खता है।
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