जब तुलसी के निरंतर प्रयोग से ऋषियों ने यह अनुभव किया कि यह वनस्पति एक नहीं सैकड़ों छोटे-बड़े रोगों में लाभ पहुंचाती है और इसके द्वारा आसपास का वातावरण भी शुद्ध और स्वास्थ्यप्रद रहता है तो उन्होंने विभिन्न प्रकार से इसके प्रचार का प्रयत्न किया। उन्होंने प्रत्येक घर में तुलसी का कम से कम एक पौधा लगाना और अच्छी तरह से देखभाल करते रहना धर्म कर्त्तव्य बतलाया। खास-खास धार्मिक स्थानों पर ‘तुलसी कानन’ बनाने की भी उन्होंने सलाह दी, जिसका प्रभाव दूर तक के वातावरण पर पड़े।
धीरे-धीरे तुलसी के स्वास्थ्य प्रदायक गुणों और सात्विक प्रभाव के कारण उसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि लोग उसे भक्ति भाव की दृष्टि से देखने लगे, उसे पूज्य माना जाने लगा। इस प्रकार तुलसी की उपयोगिता और भी अधिक बढ़ गई, क्योंकि जिस वस्तु का प्रयोग श्रद्धा और विश्वास के साथ किया जाता है, उसका प्रभाव बहुत शीघ्र और अधिक दिखलाई पड़ता है। हमारे यहां के वैद्यक ग्रंथों में कई स्थानों पर चिकित्सा कार्य के लिए जड़ी-बूटियां संग्रह करते समय उनकी स्तुति-प्रार्थना करने का विधान बतलाया गया है और यह भी लिखा है कि उनको अमुक तिथियों या नक्षत्रों में तोड़कर या काटकर लाया जाए। इसका कारण यही है कि इस प्रकार की मानसिक भावना के साथ ग्रहण की हुई औषधियां लापरवाही से बनाई गई दवाओं की अपेक्षा कहीं अधिक लाभप्रद होती हैं।
कुछ लोगों ने यह अनुभव किया कि तुलसी केवल शारीरिक व्याधियों को ही दूर नहीं करती, वरन् मनुष्य के आंतरिक भावों और विचारों पर भी उसका कल्याणकारी प्रभाव पड़ता है। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार किसी भी पदार्थ की परीक्षा केवल उसके प्रत्यक्षगुणों से ही नहीं की जानी चाहिए, वरन् उसके सूक्ष्म और कारण प्रभाव को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। तुलसी के प्रयोग से ज्वर, खांसी, जुकाम आदि जैसी अनेक बीमारियों में तो लाभ पहुंचता ही है, उससे मन में पवित्रता, शुद्धता और भक्ति की भावनाएं भी बढ़ती हैं। इसी तथ्य को लोगों की समझ में बैठाने के लिए शास्त्रों में कहा गया है—
त्रिकाल बिनता पुत्र प्रयाश तुलसी यदि ।
विशिष्यते कायशुद्धिश्चान्द्रायण शतं बिना ।।
तुलसी गन्धमादाय यत्र गच्छन्ति मारुतः ।
दिशो दशश्च पूतास्तुर्भूत ग्रामश्चतुर्विधः ।।
अर्थात्, ‘यदि प्रातः, दोपहर और संध्या के समय तुलसी का सेवन किया जाए तो उससे मनुष्य की काया इतनी शुद्ध हो जाती है जितनी अनेक बार चांद्रायण व्रत करने से भी नहीं होता। तुलसी की गंध वायु के साथ जितनी दूर तक जाती है, वहां का वातावरण और निवास करने वाले सब प्राणी पवित्र-निर्विकार हो जाते हैं।’
तुलसी की अपार महिमा
तुलसी की यह महिमा, गुण-गरिमा केवल कल्पना ही नहीं है, भारतीय जनता हजारों वर्षों से इसको प्रत्यक्ष अनुभव करती आई है और इसलिए प्रत्येक देवालय, तीर्थस्थान और सद्गृहस्थों के घरों में तुलसी को स्थान दिया गया है। वर्तमान स्थिति में भी कितने ही आधुनिक विचारों के देशी और विदेशी व्यक्ति उसकी कितनी ही विशेषताओं को स्वीकार करते हैं और वातावरण को शुद्ध करने के लिए तुलसी के पौधों के गमले अपने बंगलों और कोठियों पर रखने की व्यवस्था करते हैं, फिर तुलसी का पौधा जहां रहेगा सात्विक भावनाओं का विस्तार तो करेगा ही।
इसलिए हम चाहे जिस भाव से तुलसी के संपर्क में रहें, हमको उससे होने वाले शारीरिक, मानसिक और आत्मिक लाभ न्यूनाधिक परिणाम में प्राप्त होंगे ही। तुलसी से होने वाले इन सब लाभों को समझकर पुराणकारों ने सामान्य जनता में उसका प्रचार बढ़ाने के लिए अनेक कथाओं की रचना कर डाली, साथ ही उसकी षोडशोपचार पूजा के लिए भी बड़ी लंबी-चौड़ी विधियां अपनाकर तैयार कर दीं। यद्यपि इन बातों से अशिक्षित जनता में अनेक प्रकार के अंधविश्वास भी फैलते हैं और तुलसी-शालिग्राम विवाह के नाम पर अनेक लोग हजारों रुपये खर्च कर डालते हैं, पर इससे हर स्थान पर तुलसी का पौधा लगाने की प्रथा अच्छी तरह फैल गई। पुराणकारों ने तुलसी में समस्त देवताओं का निवास बतलाते हुए यहां तक कहा है—
तुलसस्यां सकल देवाः वसन्ति सततं यतः ।
अतस्तामचयेल्लोकः सर्वान्देवानसमर्चयन ।।
अर्थात्, तुलसी में समस्त देवताओं का निवास सदैव रहता है। इसलिए जो लोग उसकी पूजा करते हैं, उनको अनायास ही सभी देवों की पूजा का लाभ प्राप्त हो जाता है।
तत्रे कस्तुलसी वृक्षस्तिष्ठति द्विज सत्तमा ।
यत्रेव त्रिदशा सर्वे ब्रह्मा विष्णु शिवादय ।।
जिस स्थान पर तुलसी का एक पौधा रहता है, वहां पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि समस्त देवता निवास करते हैं।
पुष्कराद्यानि तीर्थानि गंगाद्या सरितस्तथा ।
वासुदवादयो देवास्तिष्ठन्ति तुलसी दले ।।
‘तुलसी पत्रों में पुष्कर आदि तीर्थ, गंगा आदि सरिताएं और वासुदेव आदि देवों का निवास होता है।’
रोपनात् पालनात् सेकात् दर्शनात्स्पर्शनान्नृणाम् ।
तुलसी दह्यते पाप बाङ्मनः काय संचितम् ।।
‘तुलसी के लगाने एवं रक्षा करने, जल देने, दर्शन करने, स्पर्श करने से मनुष्य के वाणी, मन और काया के समस्त दोष दूर होते हैं।’
सर्वोषधि रसेन व पुराह अमृत मन्थने ।
सर्वसत्वोपकाराय विष्णुना तुलसी कृताः ।।
प्राचीनकाल में ‘अमृत मंथन’ के अवसर पर समस्त औषधियों और रसों (भस्मों) से पहले विष्णु भगवान ने समस्त प्राणियों के उपकारार्थ तुलसी को उत्पन्न किया।