हिक्काज विषश्वास पार्श्व शूल विनाशिनः ।
पित्तकृतत्कफवातघ्न सुरसः पूर्ति गन्धहा ।।
अर्थात् ‘सुरसा (तुलसी) हिचकी, खांसी, विष विकार, पसली के दर्द को मिटाने वाली है। इससे पित्त की वृद्धि और दूषित कफ तथा वायु का शमन होता है, यह दुर्गंध को भी दूर करती है।’
दूसरे प्रसिद्ध ग्रंथ ‘भाव प्रकाश’ में कहा गया है—
तुलसी कटुका तिक्ता हृदयोष्णा दाहिपित्तकृत ।
दीपना कष्टकृच्छ् स्त्रापर्श्व रुककफवातजित ।।
तुलसी कटु, तिक्त हृदय के लिए हितकर, त्वचा के रोगों में लाभदायक, पाचन शक्ति को बढ़ाने वाली, मूत्रकृच्छ के कष्ट को मिटाने वाली है, यह कफ और वात संबंधी विकारों को ठीक करती है।
आयुर्वेद के ज्ञाताओं ने समस्त औषधियों और जड़ी-बूटियों के गुण जानने के लिए ‘निघंटु’ ग्रंथों की रचना की है, उसमें भी तुलसी के गुण विस्तारपूर्वक लिखे गए हैं। ‘धन्वन्तरि निघंटु’ में कहा गया है—
तुलसी लघुरुष्णाच्य रुक्ष कफ विनाशिनी ।
क्रिमिदोषं निहन्त्यैषा रुचि कृद्बह्निदीपनी ।।
‘तुलसी हलकी उष्ण, रूक्ष, कफ दोषों और कृमि दोषों को मिटाने वाली और अग्निदीपक होती है।’
दूसरे ‘राजबल्लभ निघंटु’ में कहा गया है—
तुलसी पित्तकृद्वाता क्रिमी दौर्गन्धनाशिनी ।
पश्विशुलापूरतिश्वास कास हिक्काविकारजित ।।
‘तुलसी पित्तकारक तथा वात कृमि और दुर्गंध को मिटाने वाली है, पसली के दर्द, खांसी, श्वास, हिचकी में लाभकारी है।’
‘कैयेदेव निघंटु’ में तुलसी के गुणों का इस प्रकार वर्णन किया गया है—
तुलसी तुरवातिक्ता तीक्ष्णोष्णा कटुपाकिनी ।
रुक्षा हृद्या लघुः कटुचौदाहपिताग्नि वर्द्धिनी ।।
जयेद बात कफ श्वासा कारुहिध्मा बमिकृमनीन ।
दौरगन्ध्य पार्वरूक कुष्ट विषकृच्छन स्त्रादृग्गदः ।।
‘तुलसी तीक्ष्ण कटु, कफ, खांसी, हिचकी, उलटी, कृमि, दुर्गंध, पार्श्व, शूल, कोढ़, आंखों की बीमारी आदि में लाभकारी है।’
तुलसी प्रकृति के अनुकूल औषधि है
यद्यपि इन ग्रंथों में तुलसी को तीक्ष्ण भी लिखा है, पर उसकी तीक्ष्णता केवल विशेष प्रकार की और छोटे कृमियों को दूर करने तक ही सीमित है। जिस प्रकार वर्तमान समय की कीटाणुनाशक और दुर्गंध मिटाने वाली औषधियां कुछ भी अधिक हो जाने से हानि भी हो सकती है, वैसी बात तुलसी में नहीं है। यह एक घरेलू वनस्पति है, जिसके प्रयोग में किसी प्रकार का खतरा नहीं रहता। इस दृष्टि से वह अन्यान्य डॉक्टरी और वैद्यक औषधियों से भी श्रेष्ठ सिद्ध होती है। तुलसी को प्रायः भगवान के प्रसाद, चरणामृत, पंचामृत आदि में मिलाकर सेवन किया जाता है, इसलिए वह एक प्रकार से भोजन का अंश बन जाती है जबकि अन्य औषधियों को तरह-तरह की रासायनिक प्रक्रियाएं करके व्यवहार में लाया जाता है, जिससे उनके स्वाभाविक गुणों में बहुत अंतर पड़ जाता है। वहां तुलसी प्रायः ताजा और प्राकृतिक रूप से पाई जाती है, उससे शरीर में किसी प्रकार का दूषित विजातीय तत्त्व उत्पन्न होने की संभावना नहीं रहती। यदि कभी उसके साथ दो-चार अन्य पदार्थ मिलाए जाते हैं तो वे सौंठ, कालीमिर्च, अजवाइन, बेलगिरी, नीम की कोंपल, पीपल, इलायची, लौंग आदि ऐसी चीजें होती हैं जो प्रायः हर घर में रहती और नित्य व्यवहार में आया करती हैं।
इसलिए औषधियों के रूप में सेवन करने पर भी तुलसी की कोई विपरीत प्रतिक्रिया नहीं होती, न उसके कारण शरीर में किसी प्रकार के दूषित तत्त्व एकत्रित होते हैं। तुलसी स्वाभाविक रूप से शारीरिक यंत्रों की क्रिया को सुधारती है और रोग को दूर करने में सहायता पहुंचाती है। डॉक्टरों के तीव्र इंजेक्शन जिनमें कई प्रकार के विष भी हुआ करते हैं और वैद्यों की भस्मों की तरह उससे किसी तरह के कुपरिणाम या प्रतिक्रिया की आशंका नहीं होती। वह तो एक बहुत सौम्य वनस्पति है, जिसके दस-पांच पत्ते लोग चाहे जब चबा लेते हैं, पर उनसे किसी को हानि होते नहीं देखी गई।
तुलसी की कई जातियां
यद्यपि सामान्य लोग तुलसी के दो भेदों को जानते हैं, जिनको ‘रामा’ और ‘श्यामा’ कहा जाता है। ‘रामा’ के पत्तों का रंग हलका होता है, जिससे उसका नाम गौरी भी पड़ गया है। श्यामा अथवा कृष्ण तुलसी के पत्तों का रंग गहरा होता है और उसमें कफनाशक गुण अधिक होता है, इसलिए औषधि के रूप में प्रायः कृष्ण तुलसी का ही प्रयोग किया जाता है, क्योंकि उसकी गंध और रस में तीक्ष्णता होती है। इस पुस्तक में आगे चलकर तुलसी चिकित्सा के जो प्रयोग लिखे गए हैं, उनमें जब तक स्पष्ट रूप से अन्य प्रकार की तुलसी का उल्लेख न हो तब तक उसका आशय कृष्ण तुलसी से ही समझना चाहिए।
तुलसी की दूसरी जाति ‘वन तुलसी’ है, जिसे ‘कठेरक’ भी कहा जाता है। इसका गंध घरेलू तुलसी की अपेक्षा बहुत कम होती है और इसमें विष का प्रभाव नष्ट करने की क्षमता विशेष होती है। रक्त दोष, कोढ़, चक्षु रोग और प्रसव की चिकित्सा में भी यह विशेष उपयोगी होती है। तीसरी जाति को ‘मरूवक’ कहते हैं। ‘राजमार्तण्ड’ ग्रंथ के मतानुसार हथियार से कट जाने या रगड़ लगकर घाव हो जाने पर इसका रस लाभकारी होता है। किसी विषैले जीव के डंक मार देने पर भी इसको लगाने से आराम मिलता है। चौथी ‘बरबरी’ या ‘बुबई-तुलसी’ होती है, जिसकी मंजरी की गंध अधिक तेज होती है। बीज, जिनको यूनानी चिकित्सा पद्धति हकीमी में तुख्म रेहां कहते हैं। बहुत अधिक बाजीकरण गुणयुक्त माने गए हैं। वीर्य को गाढ़ा बनाने के लिए उनका प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त और दो-एक जातियां विभिन्न प्रदेशों में होती हैं। इन सबमें तीव्र गंध होती है और कृमिनाशक गुण पाया जाता है। अब हम विभिन्न व्याधियों में तुलसी के कुछ चुने हुए प्रयोग नीचे देते हैं।