युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग १

उत्कृष्टता के साथ जुड़ें, प्रतिभा के अनुदान पाएँ

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प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं टपकती। उसे पुरुषार्थपूर्वक, मनोबल के सहारे अर्जित करना पड़ता है। अब तक के प्रतिभाशालियों के प्रगतिक्रम पर दृष्टिपात करने से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि अपनाए गये काम में उल्लास भरी उमंगें उमड़ती रहीं, मानसिक एकाग्रता के साथ तन्मयता जुटाई गई, पुरुषार्थ को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अवरोधों से जूझा गया तथा प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलकर अपनी प्रखरता का परिचय दिया गया। सफलताएँ इसी आधार पर मिलती हैं। सफलता मिलने पर हौसले बुलंद होते हैं। दूने उत्साह से काम करने को जी करता है। इस प्रयास में प्रतिभा विकसित होती है और परिपक्व भी बनती है, उत्कर्ष यही है। अभ्युदय का श्रेय इसी आधार पर आँका जाता है। इक्कीसवीं सदी प्रतिभावानों की क्रीड़ास्थली होगी। उन्हीं के द्वारा वह कर दिखाया जाएगा जो असंभव नहीं तो कष्टसाध्य तो कहा ही जाता रहा है।

    हवा का रुख पीठ पीछे हो तो गति में अनायास ही तेजी आ जाती है। वर्षा के दिनों में बोया गया बीज सहज ही अंकुरित होता है और उस अंकुर को पौधे के रूप में लहलहाते देर नहीं लगती। वसंत में मादाएँ गर्भधारण के कीर्तिमान बनाती हैं। किशोरावस्था बीतते- बीतते जोड़ा बनाने की उमंग अनायास ही उभरने लगती है। वातावरण की अनुकूलता में, उस प्रकार के प्रयास गति पकड़ते हैं और प्राय: सफल भी होते हैं।

    दिव्यदर्शी अंत: स्फुरणा के आधार पर यह अनुभव करते हैं कि समय के परिवर्तन की ठीक यही वेला है। नवयुग के अरुणोदय में अब अधिक विलंब नहीं है। जनमानस वर्तमान अवांछनीयताओं से खीझ और ऊब उठा है। उसकी आकुलता, आतुरता के साथ वह दिशा अपना रही है, जिस पर चलने से घुटन से मुक्ति मिल सके और चैन की साँस लेने का अवसर मिल सके। साथ ही विश्व वातावरण ने भी अपना ऐसा निश्चय बनाया है कि अनौचित्य को उलटकर औचित्य को प्रतिष्ठित करने में अनावश्यक विलंब न किया जाए। उथल- पुथल के ऐसे चिह्न प्रकट हो रहे हैं जो बताते हैं कि नियति की अवधारणा- सदाशयता की ज्ञानगंगा का अवतरण, आज की आवश्यकता के अनुरूप इन्हीं दिनों बन पड़ना सुनिश्चित है।

    दुर्दांत रावण का अंत होना था, तो दो तापसी युवक ही उस विशाल परिकर को धराशायी करने में समर्थ हो गए। दुर्धर्ष हिरण्यकश्यपु हारा और प्रह्लाद का सिक्का जम गया। समय आने पर, किसी दिग्भ्रांत करने वाले झाड़ -झंखारों के जंगल को दावानल बनकर नष्ट करने में एक चिनगारी भी पर्याप्त हो सकती है। प्रलय की चुनौती जैसी ताड़का को राम ने और पूतना को कृष्ण ने बचपन में ही तो धराशायी कर दिया था। महाकाल का संकल्प यदि युग परिवर्तन का तारतम्य इन्हीं दिनों बिठा ले, तो किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

    निकट भविष्य की कुछ सुनिश्चित संभावनाएँ ऐसी हैं, जिनमें हाथ डालने वाले सफल होकर ही रहेंगे। अर्जुन की तरह नियति द्वारा पहले से ही मारे गए विपक्षियों का हनन करके अनायास ही श्रेय और प्रेम का दुहरा लाभ प्राप्त करेंगे। इसी माहौल में उन्हें प्रतिभा परिवर्धन का वह लाभ भी मिल जाएगा, जिसके आधार पर मूर्द्धन्य युगशिल्पियों में उनकी गणना हो सके।

    अगले दिनों प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों में से अधिकांश अपनी मौत मरेंगी, जिस प्रकार शीत ऋतु में मक्खी- मच्छरों का प्रकृति परंपरा के अनुसार अंत हो जाता है। अंधविश्वास, मूढ़मान्यताएँ, रूढ़ियाँ अंधपरम्पराएँ, दूरदर्शी विवेकशीलता का उषाकाल प्रकट होते ही, उल्लू- चमगादड़ों की तरह अपने कोटरों में जा घुसेंगी। संग्रही और अपव्ययी जिस प्रकार आज अपना दर्प दिखाते हैं, उसके लिए तब कोई आधार शेष न रहेगा। संग्रही, आलसी और लालची तब भाग्यवान होने की दुहाई न दे सकेंगे। एक और भी बड़ी बात यह होगी कि चिरकाल से उपेक्षित नारी वर्ग न केवल अपनी गरिमा को उपलब्ध करेगा, वरन् उसे नर का मार्गदर्शन- नेतृत्व करने का गौरव भी मिलेगा। पिसे हुए, पिछड़े हुए ग्राम उभरेंगे और उन सभी सुविधाओं से संपन्न होंगे, जिनके लिए उस क्षेत्र के निवासियों को आज शहरों की ओर भागना पड़ता है। समता और एकता के मार्ग में अड़े हुए अवरोध एक- एक करके स्वयं हटेंगे और औचित्य के विकसित होने का मार्ग साफ करते जाएँगे। सम्मान वैभव को नहीं, उस वर्चस्व को मिलेगा जो आदर्शों के लिए उत्सर्ग करने का साहस सँजोता है। पाखण्ड का कुहासा पिछले दिनों कितना ही सघन क्यों न रहा हो, अगले दिनों उसके लंबे समय तक पैर जमाए रहने की कोई संभावना नहीं है।

इन तथ्यों के प्रकटीकरण पर विश्वास करते हुए जो तदनुरूप अपनी गतिविधियों में परिवर्तन करेंगे, वे हर दृष्टि से नफे- ही में रहेंगे। आज का दृष्टिकोण जिसे घाटा बताता है, उपहासास्पद बताता है कल वैसी स्थिति न रहेगी। लोग वास्तविकता को अनुभव करेंगे और समय रहते अपनी भ्रांतियों को बदल लेंगे।

    जीवंतों और जाग्रतों को इन दिनों युगचेतना अनुप्राणित किए बिना रह नहीं सकती। उन्हें ढर्रे का जीवन जीते रहने से ऊब उत्पन्न होगी और चेतना अंतराल में ऐसी हलचलों का समुद्र मंथन खड़ा करेगी, ऐसा कुछ करने के लिए बाधित करेगी, जो समय को बदलने के लिए अभीष्ट एवं आवश्यक है। साँप नियत समय पर केंचुली बदलता है। अब ठीक यही समय है कि प्राणवान, प्रज्ञावान अपना केंचुल बदल डालें। अपनी समग्र क्षमता सँजोकर दृष्टिकोण में ऐसा परिवर्तन करें, जिससे भावी क्रियाकलापों में ऐसे तत्त्वों का समावेश हो, जिन्हें अनुकरणीय- अभिनंदनीय माना जा सकें। अंतराल में उत्कृष्ट उमंगें और क्रियाकलापों का, आदतों का, नये सिरे से ऐसा निर्धारण करें, जो युगशिल्पियों के लिए प्रेरणाप्रद बन सकें ।। आदर्शों को महत्त्व दें। यह न सोचें कि तथाकथित सगे संबंधी क्या परामर्श देते हैं? प्रह्लाद, विभीषण, भरत, मीरा आदि को कुटुंबियों का नहीं, आदर्शों का अनुशासन अपनाना पड़ा था। उच्चस्तरीय साहस के प्रकटीकरण का यही केंद्र बिंदु है कि जीवन को श्रेय साधना से ओत- प्रोत करके दिखाया जाए। यह प्रयोजन संयम और अनुशासन अपनाए जाने की अपेक्षा करता है। प्रचलन तो ढलान की ओर लुढ़कने का है। पानी नीचे की ओर बहता है, ऊपर से नीचे गिरता है। उत्कृष्टता की ऊँचाई तक उछलने के लिए शूरवीरों जैसा साहस दिखाना पड़ता है। इस प्रदर्शन को अभी टाल दिया जाए तो संभव है ऐसा अवसर फिर जीवन में आए ही नहीं।

    मेघ मंडल जब घटाटोप बनकर उमड़ते- गरजते हैं तो कृषि कर्मियों के मन आशा- उत्साह से भरकर बल्लियों उछलने लगते हैं इंद्र वज्र सौ- सौ बार झुककर उनकी सलामी देता है। अँधेरा आकाश प्रकाश से भर जाता है और मोर नाचते एवं पपीहे कूकते हैं। हरीतिमा उनकी प्रतीक्षा में मखमली चादर ओढ़े मुस्कराती पड़ी रहती है। यह मनुहार मेघों की ही क्यों होती है? खोजने पर पता चलता है कि वे संचित जलराशि समेट, अपने आपको अति विनम्र बनाकर उसे धरती पर बिखेर देते हैं।

    प्रतिभा परिवर्धन के उद्दण्ड उपाय तो अनेक हैं। उन्हें आतंकवादी- अनाचारी तक अपनाते और प्रेत पिशाचों की तरह अनेक को भयभीत कर देते हैं, किंतु स्थिरता और सराहना उन्हीं प्रतिभावानों के साथ जुड़ी रहती है, जो शालीनता अपनाते और आदर्शों के प्रति अपने वैभव को उत्सर्ग करने में चूकते नहीं। ऐसे लोग शबरी, गिलहरी, केवट स्तर के ही क्यों न हों, अपने को अजर- अमर बना लेते हैं और अनुकरण करने के लिए अनेकों को आकर्षित करते हैं। उनकी चुंबकीय विलक्षणता न जाने क्या- क्या कहाँ- कहाँ से बटोर लाती है और बीज को वृक्ष बनाकर खड़ा कर देती हैं।

    प्रतिभा परिष्कार का अजस्र लाभ उठाने के लिए इन दिनों स्वर्ण सुयोग आया है। युगसंधि की वेला में, जीवट वाले प्राणवानों की आवश्यकता अनुभव की गई है। अवांछनीयताओं से ऐसे ही पराक्रमी जूझते हैं और हनुमान, अंगद जैसे अनगढ़ होते हुए भी लंका को धराशायी बनाने के एवं रामराज्य का सतयुगी वातावरण बनाने के दोनों मोरचों पर अपनी समर्थ क्षमता का परिचय देते हैं। ऐसी परीक्षा की घड़ियाँ सदा नहीं आती। जो समय को पहचानते और बिना अवसर चूके अपने साहस का परिचय देते हैं, उन्हें प्रतिभा का धनी बनने में किसी अतिरिक्त अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। संयम और साहस का मिलन ही वरिष्ठता तक पहुँचा देता है। पुण्य और परमार्थ का राजमार्ग ऐसा है जिसे अपनाने पर वरिष्ठता का लक्ष्य हर किसी को मिल सकता है। आत्मसाधना और लोकसाधना दोनों एक ही लक्ष्य के दो पहलू हैं। जहाँ एक को सही रीति से अपनाया जाएगा, वहाँ दूसरा उसके साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ जाएगा।

    लक्ष्य और उपक्रम निर्धारित कर लेने के उपरांत यह निर्णय करना अति सरल पड़ता है कि कौन अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति के अनुसार, संपर्क परिकर की आवश्यकताओं को देखते हुए, किन क्रियाकलापों में हाथ डाले और प्रगति का एक- एक चरण उठाते हुए, अंततः: बड़े- से स्तर का क्या कुछ कर गुजरे? यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि व्यक्ति अपने प्रभामंडल संपन्न क्षेत्र के साथ जुड़कर ही पूर्ण बनता है। अकेला चना तो कभी भी भाड़ फोड़ सकने में समर्थ नहीं होता। अपने जैसे विचारों के अनेक घनिष्ठों को साथ लेकर और सहयोगपूर्वक बड़े कदम उठाना ही वह रीति- नीति है, जिसके सहारे अपनी और साथियों की प्रतिभा को साथ- साथ चार चाँद लगते हैं।

    सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय परब्रह्म- परमात्मा प्रतिभाओं का पुंज है। उसके साथ संबंध जोड़ने पर संकीर्ण स्वार्थपरता में तो कटौती करनी पड़ती है पर साथ ही यह भी सत्य है कि अग्नि के साथ संबंध जोड़ने वाला ईंधन का ढेर, ज्योतिर्मय ज्वाल माल की तरह दमकने लगता है। उत्कृष्टता के साथ जुड़ने वालों में से किसी को भी यह नहीं कहना पड़ता कि उसे प्रतिभा परिकर के भाण्डागार में से किसी प्रकार की कुछ कम उपलब्धि हस्तगत हुई।

    दिशा निर्धारित कर लेने पर मार्गदर्शक तो पग- पग पर मिल जाते हैं। कोई न भी मिले तो अपनी ही अंतरात्मा उस आवश्यकता की पूर्ति कर देती हो। प्रतिभा का धनी न कभी हारता है और न अभावग्रस्त रहने की शिकायत करता है। उसे किसी पर दोषारोपण करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती कि उन्हें अमुक ने सहयोग नहीं दिया या प्रगति पथ को रोके रहने वाला अवरोध अटकाया। प्रतिभा ही तो शालीनता और प्रगतिशीलता की आधारशिला है।

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