युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग १

विशिष्टता का नए सिरे से उभार

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दूध में मक्खन घुला होता है, पर उसे अलग निकालने के लिए उबालने, मथने जैसे कई कार्य संपन्न करने पड़ते हैं। प्राणवान प्रतिभाओं की इन दिनों अतिशय आवश्यकता पड़ रही है, ताकि इस समुद्र मंथन जैसे युगसंधि पर्व में अपनी महती भूमिका निभा सकें। अनिष्ट के अनर्थ से मानवीय गरिमा को विनष्ट होने से बचा सके। उज्ज्वल भविष्य की संरचना में ऐसा प्रचंड पुरुषार्थ प्रदर्शित कर सकें, जैसे- गंगा अवतरण के संदर्भ में मनस्वी भगीरथ द्वारा संपन्न किया गया था।

    इन दिनों यह ढूँढ़- खोज ही बड़ा काम है। सीता को वापस लाने के लिए वानर समुदाय विशेष खोज में निकला था। समुद्र- मंथन भी ऐसी खोज का एक इतिहास है। गहरे समुद्र में उतरकर मणि- मुक्तक खोजे जाते हैं। कोयले की खदानों में से खोजने वाले हीरे ढूँढ़ निकालते हैं, धातुओं की खदान इसी प्रकार धरती को खोद- खोदकर ढूँढ़ी जाती है। दिव्य औषधियों को सघन वन प्रदेशों में खोजना पड़ता है। वैज्ञानिक प्रकृति के रहस्यों को खोज लेने का काम करते हैं। हाड़- माँस की काया में से देवत्व का उदय, साधना द्वारा गहरी खोज करते हुए ही संभव किया जाता है। महाप्राणों की इन दिनों इसी कारण भारी खोज हो रही है कि उनके बिना, युगसंधि का महाप्रयोजन पूरा भी तो नहीं हो सकेगा। आज तो व्यक्ति की सामयिक एवं क्षेत्रीय समस्याओं का निराकरण भी वातावरण बदले बिना संभव नहीं हो सकता। संसार में निकटता बढ़ जाने से, गुत्थियाँ भी वैयक्तिक न रहकर सामूहिक हो गई हैं। उनका निराकरण व्यक्ति को कुछ ले- देकर नहीं हो सकता। चेचक की फुंसियों पर पट्टी कहाँ बाँधते हैं? स्थायी उपचार तो रक्त- शोधन की प्रक्रिया से ही बन पड़ता है।

    प्रस्तुत चिंतन और प्रचलन में इतनी अधिक विकृतियों का समावेश हो गया है कि उन्हें औचित्य एवं विवेक से सर्वथा प्रतिकूल माना जा सकता है। अस्वस्थता, उद्विग्नता, आक्रामकता, निष्ठुरता, स्वार्थांधता, संकीर्णता, उद्दण्डता का बड़ों और छोटों में अपने- अपने ढंग का बाहुल्य है। लगता है मानवीय मर्यादाओं और वर्जनाओं की प्रतिबद्धता से इनकार कर दिया गया है। फलतः व्यक्ति को अनेकानेक संकटों और समाज को चित्र- विचित्र समस्याओं का सामना करना पड़ता है। न कोई सुखी दिखता है, न संतुष्ट। अभाव और जन बाहुल्य नयी- नयी विपत्तियाँ खड़ी कर रहे हैं। हर कोई आतंक और आशंका से विक्षुब्ध जैसा दिखता है।

    इन सबसे जूझने के लिए एक सुविस्तृत मोर्चेबंदी करनी होगी। सामान्यजन तो अपनी निजी आवश्यकताओं, उलझनों तक का समाधान नहीं कर पाते, फिर व्यापक बनी- हर क्षेत्र में समाई विपन्नताओं से जूझने के लिए उनसे क्या कुछ बन पड़ेगा? इस कठिन कार्य को संपन्न करने के लिए विशिष्टतायुक्त प्रतिभाएँ चाहिए। बड़े युद्धों को जीतना वरिष्ठ सेनानायकों द्वारा अपनाई गई रणनीति और सूझ- बूझ के सहारे ही संभव हो पाता है। यही बात बड़े सृजनों के संबंध में भी है। ताजमहल जैसी इमारत बनाने, चीन की दीवार खड़ी करने, हाबड़ा जैसे पुल खड़े करने जैसे महापुरुषार्थों के लिए वरिष्ठ लोगों की, वस्तुस्थिति के साथ तालमेल बिठाकर चलने वाली नीति ही सफल होती है। उनके लिए आवश्यक साधन एवं सहयोग जुटाना भी हँसी- खेल नहीं होता। बड़ी प्रतिभाएँ ही बड़ी योजनाएँ बनाती हैं, वे ही उतने भारी- भरकम दायित्व उठाती हैं। छोटे तो समर्थन भर देते हैं। सफलता पर हर्ष और असफलता पर विषाद प्रकट करने भर की उनमें क्षमता होती है।

    इन दिनों दो कार्य प्रमुख हैं- विपन्नता से जूझना और निरस्त करना, साथ ही नवसृजन की ऐसी आधारशिला रखना, जिससे अगले ही दिनों संपन्नता, बुद्धिमत्ता, कुशलता और समर्थता का सुहावना माहौल बन पड़े। इक्कीसवीं सदी को दूरदर्शी लोग सर्वतोमुखी प्रगति की संभावनाओं से भरी- पूरी मानते हैं। उस अवधि में सतयुग की वापसी पर विश्वास करते हैं। इस मान्यता के अनेकों कारण भी हैं। उनमें से एक यह है कि इन्हीं दिनों समर्थ प्रतिभाओं का सृजन, उन्नयन और प्रखरीकरण तेजी से हो रहा है। संभवतः अदृश्य शक्ति का ही इसमें हाथ हो? ऐसी शक्ति का जो समय- समय पर आड़े समय में बिगड़ता संतुलन संभालने के लिए अपने वर्चस्व का प्रकटीकरण करती रही है। कहना न होगा कि तेजस्वी प्रतिभाएँ ही भौतिक समृद्धि बढ़ाने, प्रगति का वातावरण उत्पन्न करने और अंधकार भरे वर्तमान को उज्ज्वल भविष्य में परिणत करने का श्रेय संपादित करती रही हैं। उन्हें ही किसी देश, समाज एवं युग की वास्तविक शक्ति एवं संपदा माना जाता है। स्पष्ट है कि वे उदीयमान वातावरण में ही उगती और फलित होती हैं। वर्षा में हरीतिमा और वसंत में सुषमा का प्राकट्य होता है। प्रतिभाएँ अनायास ही नहीं बरस पड़ती, न वे उद्भिजों की तरह उग पड़ती हैं। उन्हें प्रयत्नपूर्वक खोजा, उभारा और खरादा जाता है। इसके लिए आवश्यक एवं उपयुक्त वातावरण का सृजन किया जाता है।

इन दिनों ऐसा ही कुछ चल रहा है। असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए महाकाल की कोई बड़ी योजना बन रही है। उसे मूर्त रूप देने के लिए दो छोटे किंतु अति महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम सामने आए हैं। एक है आदर्शवादी सहायकों में उमंगों का उभारना और एक परिसर- एक सूत्र में संबद्ध होना। साथ ही कुछ नियमित एवं सृजनात्मक गतिविधियों को प्रारंभ करना, जो सद्विचारों को सत्कार्यों में परिणत कर सकने की भूमिका बना सकें। दूसरा कार्य यह है कि अनीति विरोधी मोरचा खड़ा किया जाए, उसे एक प्रयास से आरंभ करके विशाल- विकराल बनाया जाए। एक चिनगारी दावानल बनती है। छोटे बीज से वृक्ष बनता है। ध्वंस एवं सृजन दोनों का यही उपक्रम है। एक कदम शालीनता के सृजन का एवं दूसरा अनीति के दमन का। सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के दो मोरचे पर, दोधारी तलवार से, दो स्तर की रीति- नीति अपनाना। यह है वह अग्रगमन, जिस पर कदम- कदम बढ़ते हुए नवयुग का अवतरण संभव हो सकता है। उज्ज्वल भविष्य की सर्वतोमुखी प्रगति एवं चिरस्थायी शांति के लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है। इसी स्थिति में पहुँचने पर ‘सत्यमेव जयते’ का उद्घोष, प्रचंड प्रयासों का मार्ग पूरा करते हुए अपनी यथार्थता का परिचय दे सकता है।

    इस महाजागरण से ही प्रतिभाओं की मूर्च्छना हटेगी। वे अँगड़ाई लेते हुए लंबी मूर्च्छना से पीछा छुड़ाती और दिनमान की ऊर्जा प्रेरणा से कार्य क्षेत्र में अपने पौरुष का परिचय देती दृष्टिगोचर होंगी। इस भवितव्यता को हम सब इन्हीं आँखों से अपने ही सामने मूर्तिमान होते हुए देखेंगे।

    प्रयत्नपूर्वक खदानों से हीरे खोज तो लिए जाते हैं, पर उन्हें चमकदार, बहुमूल्य और हार में शोभायमान स्थान पाने के लिए खरादना अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है। धातुएँ अनेक बार के अग्नि संस्कार से ही संजीवनी जैसे रसायनों के रूप में परिणत होती हैं। पहलवान अखाड़े में लंबा अभ्यास करने के उपरांत ही दंगल में विजयश्री वरण करते हैं। शिल्पी और कलाकार अपने विषय में प्रवीण- पारंगत बनने के लिए लंबे समय तक अभ्यासरत रहते हैं। प्रतिभाओं का प्रशिक्षण और परिवर्धन, आदर्शवादी गतिविधियों में बढ़- चढ़कर भूमिका निभाने के उपरांत ही संभव हो पाता है। उस तथ्य के अनुरूप जहाँ प्रतिभाओं को खोजा जा रहा है, वहीं उनकी प्रखरता निखारने के लिए ऐसे कार्यों में जुटाया भी जा रहा है, जिनके कारण उनका ओजस्, तेजस् और वर्चस् जाज्वल्यमान हो सके। विश्वामित्र ने दशरथ पुत्रों को, युगसृजन प्रयोजन के लिए, उपयुक्त समय पर उनकी तेजस्विता उभारने के लिए यज्ञ की रक्षा करने और असुरों से जूझने का काम सौंपा था। हनुमान्, अर्जुन आदि ने ऐसी ही अग्निपरीक्षाओं से गुजरते हुए असाधारण गौरव पाया था। इनसे बचकर किसी पर भी महानता आकाश से नहीं बरसी है। पराक्रम से जी चुराने वाले तो कृपणों- प्रमादियों की तरह, मात्र हाथ ही मलते रहते हैं।

    इन दिनों जन्मान्तरों से संचित सुसंस्कारों वाली प्रतिभाएँ खोज निकाली गई हैं। उन्हें युगचेतना के साथ जोड़ा गया है। इन्हें नवसृजन साहित्य के माध्यम से पुष्प वाटिका में मधुमक्खियों की तरह, दिव्य सुगंध ने आमंत्रित किया है और उसी परिकर में छत्ता बनाकर रहने के लिए सहमत किया है। प्रज्ञा परिकर को इसी रूप में देखा, समझा और आँका जा सकता है। प्रज्ञा परिजनों को युगसृजन का लक्ष्य लेकर अवतरित हुई दिव्य आत्माओं का समुदाय कहा जा सकता है। वे अंतरात्मा को अमृत पिलाने वाले, युगसाहित्य का रसास्वादन करते रहे हैं, मिशन की पत्रिकाएँ नियमित रूप से पढ़ते रहे हैं। युगचेतना की भावभरी प्रेरणाओं का यथासंभव अनुसरण भी करते रहे हैं। उनके अब तक के योगदान को, परमार्थ पुरुषार्थ को, मुक्त कंठ से सराहा जा सकता है, पर बड़े प्रयोजनों के लिए इतना ही तो पर्याप्त नहीं? समय की बढ़ती माँग को देखते हुए, बड़े कदम भी तो उठाने पड़ेंगे। बच्चे का छोटा- सा पुरुषार्थ भी अभिभावकों द्वारा भली- भाँति सराहा जाता है, पर युवा होने पर बचपन की पुनरावृत्तियाँ करने भर से कौन यशस्वी बनता है?

    यहाँ परिजनों के पिछले दिनों के योगदान का मूल्यांकन घटाकर नहीं किया जा रहा है, पर इतने भर से बात तो नहीं बनती? महाकाल की अभिनव चुनौती स्वीकार करने के लिए उतने पर ही संतोष नहीं किया जा सकता, जो पिछले दिनों हो चुका है। यह लंबा संग्राम है- संभवतः प्रस्तुत परिजनों के जीवन भर चलते रहने वाला। इक्कीसवीं सदी आरंभ होने में अभी दस वर्ष से भी अधिक समय शेष है। इस युगसंधि वेला में तो हम सबको, उस स्तर की तप साधना में संलग्न रहना है, जिसे भगीरथ ने अपनाया और धरती पर स्वर्गस्थ गंगा का अवतरण संभव कर दिखाया था। महामानवों के जीवन में कहीं कोई विराम नहीं होता। वे निरंतर अनवरत गति से, शरीर छूटने तक चलते ही जाते हैं। इतने पर भी लक्ष्य पूरा न होने पर जन्म- जन्मान्तरों तक उसी प्रयास में निरत रहने का संकल्प संजोए रहते हैं। इसी परंपरा का निर्वाह उन्हें भी करना है, जिन्हें अपनी प्रतिभा निखारनी और निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र में ऐसी उपलब्धियाँ कमानी हों, जिन्हें प्रेरणाप्रद, अनुकरणीय, अभिनंदनीय एवं अविस्मरणीय कहा जा सके। अपने परिवार की प्रतिभाओं को उपेक्षित स्तर की नहीं रहना है। इनकी गणना उन लोगों में नहीं होनी चाहिए, जिन्हें परावलम्बी या निर्वाह के लिए जीवित भर रहने वाला कहा जाता है।

    कमल पुष्प, सामान्य तालाब में उगने पर भी अपनी पहचान अलग बनाते और दूर से देखने वाले के मन पर भी अपनी प्रफुल्लता की प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं। अपना स्वरूप एवं स्तर ऐसा ही होना चाहिए।
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