प्रेम ही परमेश्वर है

पढ़े सो पंडित होय-ढाई अक्षर प्रेम के

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संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं, एक वह जो शक्तिशाली होते हैं, जिनमें अहंकार की प्रबलता होती है। शक्ति के बल पर वे किसी को भी डरा धमकाकर वश में कर लेते हैं। कम साहस के लोग अनायास ही उनकी खुशामद करते रहते हैं किन्तु भीतरभीतर उन पर सभी आक्रोश और घृणा ही रखते हैं। थोड़ीसी साँस दिखाई देने पर लोग उससे दूर भागते हैं, यही नहीं कई बार अहंभावना वाले व्यक्ति पर घातक प्रहार भी होता है और वह अन्त में बुरे परिणाम भुगतकर नष्ट हो जाता है। इसलिये शक्ति का अहंकार करने वाला व्यक्ति अन्ततः बड़ा ही दीन और दुर्बल सिद्ध होता है।

एक दूसरा व्यक्ति भी होता है भावुक और करुणाशील। दूसरों के कष्ट, दुःख, पीड़ायें देखकर उसके नेत्र तुरन्त छलक उठते हैं। वह जहाँ भी पीड़ा, स्नेह का अभाव देखता है वहीं जा पहुँचता है और कहता है लो मैं आ गया और कोई हो न हो तुम्हारा मैं जो हूँ। मैं तुम्हारी सहायता करूँगा तुम्हारे पास जो कुछ नहीं है, वह मैं दूँगा। उस प्रेमी, अन्तःकरण वाले मनुष्य के चरणों में संसार अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है इसलिये वह कमजोर दिखाई देने पर भी बड़ा शक्तिशाली होता है। प्रेम वह रचनात्मक भाव है, जो आत्मा की अनन्त शक्तियों को जागृत कर उसे पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचा देता है। इसीलिये विश्वप्रेम को ही भगवान् की सर्वश्रेष्ठ उपासना के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है।

जीवन के सुन्दरतम रूप की यदि कुछ अभिव्यक्ति हो सकती है तो वह प्रेम में ही है पर उसे पाने और जागृत करने का यह अर्थ नहीं होता कि मनुष्य सुख और मधुरता में ही विचरण करता रहे। वरन् उसे कष्ट, सहिष्णुता और उन वीरोचित प्रयत्नों का जागरण करना भी अनिवार्य हो जाता है, जो प्रेम की रक्षा और मर्यादा के पालन के लिये अनिवार्य होते हैं। प्रेम का वास्तविक आनन्द तभी मिलता है।

प्रेम संसार की ज्योति है और सब उसी के लिये संघर्ष करते रहते हैं। सच्चा समर्पण भी प्रेम के लिये ही होता है, इसीलिये यह जान पड़ता है कि विश्व की मूल रचनात्मक शक्ति यदि कुछ होगी तो वह प्रेम ही होगी और जो प्रेम करना नहीं सीखता उसे ईश्वर की अनुभूति कभी नहीं हो सकती। तुलनात्मक अध्ययन करके देखें तो भी यही लगता है कि परमेश्वर की सच्ची अभिव्यक्ति ही प्रेम है और प्रेम भावनाओं का विकास कर मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। प्रेम से बढ़कर जोड़ने वाली (योग) शक्ति संसार में और कुछ भी नहीं है।

पर यह भ्रांति नहीं होनी चाहिये कि हमें जो वस्तु परमप्रिय लगती है, उस पर हमारा अधिकार हो गया और यदि उसे सुविधापूर्वक नहीं प्रात कर सकते तो अनधिकार चेष्टाओं द्वारा प्राप्त करें। प्रेम-प्रेम की इच्छा तो करता है पर उसका रति आत्मा है, कोई और माध्यम या साधन नहीं। आत्मजगत् अपने आप में इतना परिपूर्ण है कि उसका रमण करने पर हमें वह सुख अपने आप मिलने लगता है, जिसकी हम प्रेमास्पद से अपेक्षा रखते हैं। इसलिये पदार्थों के प्रेम को क्षणभंगुर और ईश्वरीय प्रेम को दिव्य और शाश्वत मान लिया गया है।

वह निःस्वार्थ होता है और उसके लिये होता है, जो न कहीं दिखाई देता है और न सुनाई। मालूम नहीं पड़ता कि अपनी आवाज और भावनायें उस तक पहुँचती भी हैं अथवा नहीं पर हमारी हर कातर पुकार के साथ अन्तःकरण में एक सन्तोष और सान्त्वना की अन्तर्वृष्टि होती है वह बताती है कि तुम्हारा विश्वास और तुम्हारी प्रार्थना निरर्थक नहीं जा रही। मूल में बैठी हुई आत्मप्रतिभा स्वयं विकसित होकर मार्गदर्शन कर रही है। विकास की यह प्रक्रिया ईश्वर प्रेमी की अनेक प्रसुप्त प्रतिभाओं और बौद्धिक क्षमताओं का जागरण ही करती है। मेलों में उड़ाये जाने वाले गुब्बारों के नीचे एक प्रकार का ऐसा पदार्थ जलाया जाता है, जिससे गैस बनती है और वह गैस ही उस गुब्बारे को उड़ाकर दूर क्षितिज के पार तक पहुँचा देती है।

प्रेम की अन्तःकरण में उठने वाली लपटें भी ऐसी हैं, जो शरीर की, मन की, बुद्धि की और आत्मचेतना की शक्तियों का उद्दीपन कर उन्हें ऊपर उठाती रहती हैं और विकास की इस हलचलपूर्ण अवस्था में भी वह सुख और स्वर्गीय सौन्दर्य की रसानुभूति करता रहता है, भले ही माध्यम कुछ न हो। भले ही वह विकास के साथ ही रमण कर रहा हो, उसे अपना प्रेमी परमेश्वर दिखाई भी नहीं देता तो भी प्रकृति के अन्तराल से उसकी दिव्यवाणी और उसका दिव्य आश्वासन भरा प्रकाश फूटता ही रहता है।

निष्काम प्रेम में वह शक्ति है, जो प्रवाह बनकर फूटती है और न केवल दोचार व्यक्तियों में वरन् हजारों लाखों लोगों के जीवन में आनन्द का स्रोत बनकर उमड़ पड़ती है, वह हजारों कलुषित अन्तःकरणों को धोकर उन्हें निर्मल बना देती है। तुलसीदास जी ने भगवान से प्रेम किया था, प्रत्यक्ष में वह प्रेम किसी व्यक्ति के लिये नहीं था किन्तु उनका प्रेम जब बहुजन हिताय रामायण के रूप में फूटा तो न केवल परमात्मा के प्रति भक्ति श्रद्धा और विश्वास की लहरें फूटी वरन् सेवा, सहिष्णुता, दाम्पत्य प्रेम, पारिवारिक मर्यादा, सन्तोष, दया, करुणा, उदारता, आदि ऊर्ध्वमुखी चेतनाओं की लहरें समाज में फूट निकलीं।

तुलसीदास जी नहीं रहे पर उनकी आत्मा आज भी हजारों लोगों को अपनी आत्मा से मिलाकर ईश्वरीय आत्मा में परिणित करती है। ईश्वर के प्रति प्रेम का अर्थ स्वार्थ या संकीर्णता नहीं वरन् अपने आपको उस मूल बिन्दु के साथ जोड़ देना है, जो अपने आपको जनजन के जीवन में विकीर्ण करता रहता है। तात्पर्य यह है कि जब हम ईश्वर से प्रेम करते हैं तब संसार में व्यक्त चेतना के प्रत्येक कण से प्रेम करते हैं, ईश्वर की यही परिभाषा भी तो है। इसी छोटी सी बात को न समझ पाने के कारण या तो लोग ईश्वरप्रेम के नाम पर कर्त्तव्यपरायणता से विमुख होते हैं अथवा पदार्थ या शारीरिक प्रेम (वासना) में इतने आसक्त हो जाते हैं कि प्रेम की व्यापकता और अक्षुण्ण सौन्दर्य के सुख का उन्हें पता ही नहीं चल पाता। ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ विश्वसौन्दर्य के प्रति अपने आपको समर्पित करना होता है, उसमें कहीं न तो आसक्ति का भाव आ सकता है और न विकार। यह दोष तो उसी प्रेम में होंगे, जिसे केवल स्वार्थ और वासना के लिये किया जाता है।

जीवन भर हम जिन व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं, ईश्वर प्रेम का प्रकाश उन सबके प्रति प्रेम के रूप में भी प्रस्फुटित होता है। इसलिये ईश्वर प्रेम और समाजसेवा में कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही स्थितियों में आत्मसुख, आत्म विश्वास और आत्मकल्याण का उद्देश्य भगवान् की प्रसन्नता होनी चाहिए। भगवान् की प्रसन्नता का अर्थ ही है कि उस प्रेम में भय, कायरता, क्षणिक सुख का आभास न होकर शाश्वत प्रफुल्लता और प्रमोद होना चाहिए। ऐसा प्रेम कभी बन्धन कारक या रुकने वाला नहीं होता। उसकी धारायें निरन्तर जीवन को प्राणवान् बनाती रहती हैं, वह मनुष्य ऊपर से चाहे कितना ही कठोर क्यों न दिखाई देता हो।

प्रेमयोग का साधक उद्दाम भी होता है। इन्द्रियों के आकर्षण फुसलाने से नहीं कठोरता से दमन किये जाते हैं और इसके लिए साहस की ही आवश्यकता होती है। जो आत्मदमन कर सकता है, वही सच्चा विजेता है। सच्चा विजेता ही सच्चा प्रेमी और ईश्वर का भक्त होता है। यह बात कुछ अटपटीसी लगती है किंतु कर्मयोग के सच्चे साधक को कठोरता में भी भावनाशीलता का सम्पूर्ण आनन्द मिलता है। इसलिये उसे मोह की आवश्यकता नहीं होती वरन् वह मोह के बीच में भी एक दिव्य प्रकाश की अनुभूति का आनन्द लिया करता है।

मर्यादाओं के पालन में जो कठोरता है, उसमें प्रेम का आत्मीयता का अभाव नहीं होता। अपनत्व तो संसार के कण कण में विद्यमान् है। ऐसा कौन सा प्राणी है, ऐसा कौन सा पदार्थ है जहाँ मैं नहीं हूँ ? प्राणी, पशु कीटपतङ्ग सभी के अंदर तो ''अहंभाव'' से परमात्मा बैठा हुआ है पर तो भी किसी के लिये वह बन्धन तो नहीं है ? वह बन्धन मुक्त आनन्द की स्थिति है, इसलिये वह किसी को आनन्द से गिरायेगा क्यों। वह दया और करुणा का सागर है, लोगों को उनसे वंचित रखेगा क्यों ? लेकिन वह यह भी न चाहेगा कि एक जीव दूसरे जीव की आकाँक्षाओं और मर्यादाओं पर छा जाये। संसार उसी का है पर तो भी वह इतना दयालु है कि किसी पर अपनी उपस्थिति भी प्रकट नहीं करता। किन्तु मर्यादाओं के मामले में वह कठोर और निपुण है। किसी भी दुष्कर्म को प्राणी उससे छिपाकर नहीं ले जा सकता। उसका प्रेम निष्काम है, इसलिये जीवन लक्ष्य की प्राप्ति और अपने जीव भाव को ब्राह्मीभाव में परिणित करने के लिये मनुष्य को भी उन्हीं नियमों का पालन करना अनिवार्य हो जाता है। अर्थात् प्रेम करना तो आवश्यक है पर उसमें कामनाओं का समावेश न होने देने के लिये उसे उतना ही कठोर भी होना आवश्यक है। उसके बिना प्रेम कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता।

प्रेम पृथ्वी की मिट्टी, सूर्य के कण और विश्व के कण-कण में व्यास परमाणुओं में छिपा हुआ स्पन्दन है। वह स्वर्गीय है, वह मर्त्यभाव में भी अमृतत्च का संचार किया करता है, जड़ में भी चेतनता की अनुभूति कराया करता है। इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि अपनी साधना के अन्तिम दिनों में महर्षि विश्वामित्र ने नदियों से बातचीत की थी। ऋग्वेद में ऐसे सूक्त हैं जिनके देवता नदी है और दृष्टा ने उनसे बातचीत की है। उस वार्तालाप में और कुछ आधार भले ही न हो पर उसमें समस्त जड़चेतन जगत् के प्रति आत्मरोपण का अनौखा उदाहरण प्रस्तुत किया है।

उस विज्ञान को समझने में भले ही किसी को देर लगे, किन्तु भावनाओं में जड़ पदार्थों को भी चेतन कर देने की शक्ति है और प्रेम इन समस्त भावनाओं का मूल है इसलिए यह कहना अत्युक्ति नहीं कि प्रेमी के लिये संसार में चेतन ही नहीं जड़ भी इतने ही सुखदायक होते हैं। जड़ भी प्रेम के आधीन होकर नृत्य करते हैं। प्रेम के लिये सारा संसार तड़पता रहता है। जो उस तड़पन को समझ कर लेने की नहीं देने और निरन्तर देने की ही बात सोचता है सारा संसार उसके चरणों पर निवेदित हो जाता है।

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