प्रेम ही परमेश्वर है
प्रेम' एक बहुत व्यापक शब्द है । इसका अर्थ ईश्वरप्रेम और विश्व प्रेम से लेकर निकृष्ट वासनाओं तक लगाया जाता है । निम्रकोटि के मनुष्यों ने तो इसका मतलब केवल कामुकता जन कृत्यों से मान लिया है । उससे कुछ ऊँचे सामान्य श्रेणी वाले अपने स्त्री-पुत्र, सगे-सम्बन्धियों से लगाव, हित चिन्तन को ही प्रेम मानते हैं । कुछ बुद्धिमान व्यक्ति कला, साहित्य, संगीत, ज्ञान विज्ञान आदि की साधना को भी प्रेम की संज्ञा देते हैं । पर इनमें से वास्तव में कोई 'प्रेम' कहे जाने लायक नहीं है । ये सब स्वार्थ की सीमा में ही आते हैं जबकि सच्चा प्रेम परमार्थ का प्रमुख अंग है ।
Write Your Comments Here: