प्रखर प्रतिभा की जननी इच्छा शक्ति

बनोबल की शक्ति : एक दैवी विभूति

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साधनों के आधार पर सफलतायें मिलती हैं। साधनों को ही बल भी कहते हैं। प्रत्यक्ष बलों में धनबल, बाहुबल, शस्त्रबल, बुद्धिबल आदि प्रमुख हैं, पर इन सबसे बढ़कर है मनोबल। मनोबल का तात्पर्य शिक्षा की कल्पना, बहुज्ञता, अनुभवशीलता से नहीं वरन् दृढ़ निश्चय से है। यह यदि आदर्शों के निमित्त प्रयोग किया जाता है तो उसी को संकल्प बल भी कहते हैं। जिसकी संकल्प शक्ति जितनी बलवान है, उसे उतने ही स्तर का बलवान कहना चाहिए।

किसी-किसी में यह शक्ति जन्मजात भी होती है, पर यह आवश्यक नहीं। उसे अभ्यास से बढ़ाया जा सकता है। छोटे कामों में हाथ डालना और उन्हें पूरा करके ही चैन लेना, यह मनोबल बढ़ाने का तरीका है। एक के बाद दूसरा काम हाथ में लेना और उसकी कठिनाइयों से निपटना यही है वह मार्ग जिस पर चलते हुए मनोबल अर्जित किया जा सकता है। यह विभूति जिसके हाथ लग गयी समझना चाहिए कि महामानव बनने का सूत्र उसके हाथ लग गया।

प्रायः देखा जाता है कि बहुत साधन होते हुए भी लोग साधारण से काम भी नहीं कर पाते। इनके विचार डगमगाते रहते हैं। जो काम हाथ में लिया है वह उचित भी है या नहीं, अपने से बन पड़ेगा या नहीं, ऐसे विकल्प मन उठते रहते हैं। कच्चा मन एक को छोड़ दूसरा काम हाथ में लेता है। कुछ दिन बाद दूसरा भी हाथ से छूट जाता है और तीसरे को अपनाते हैं। इस तरह अनिश्चय की दशा में शक्ति का अपव्यय होता रहता है। दिशा निश्चित न होने पर कुछ दूर पूर्व को, कुछ उत्तर-पश्चिम-दक्षिण को चलने वाले दिन भर घोर परिश्रम करते रहने पर भी थकान सिर पर ओढ़ते हैं अच्छा यही है कि पहले ऊंच-नीच के हर पहलू पर विचार कर लिया जाय। बुद्धिपूर्वक जो निश्चय निकले उसे दृढ़तापूर्वक अपनाया जाय।

काम देखने को शरीर से किया जाता प्रतीत होता है, पर वास्तविकता यह है कि वह मन में होता है। मनोयोग लगा देने से योजना के सब पक्ष सामने आते हैं अन्यथा बाल कल्पनायें मन में उठती रहती और पानी के बबूले की तरह अस्त-व्यस्त होती रहती हैं। बच्चे सारे दिन उछल-कूद करते रहते हैं। इनमें से हर एक क्रिया के पीछे एक उद्देश्य होता है, पर ये उद्देश्य ठहरने नहीं पाते। एक के बाद दूसरी इच्छा सामने आ जाती है और पिछली को छोड़कर अगली में हाथ डालते हैं। इस प्रकार दिन भर में ढेरों मनोरथ सामने आते हैं और वे सभी आधे-अधूरे रहकर अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। इसी को बाल बुद्धि कहते हैं। इसी प्रकार की राजनीति कितने ही बड़ी आयु के व्यक्ति भी अपनाते देखे जाते हैं। फलतः उनमें से एक भी पूरा नहीं हो पाता।

काम को पूरा करने के लिए आवश्यक है कि योजना सर्वांगपूर्ण बने। उसके लाभ-हानि पर सांगोपांग विचार किया जाय। साधन जुटाने के लिए जो करना पड़ेगा, उसका मानचित्र मस्तिष्क में रहना चाहिए। जो कार्य वर्तमान साधनों के सहारे किया जा सकना सम्भव है उसमें हाथ डाला जाय। भविष्य में जितने साधन बढ़ते जायं, उतना काम बढ़ाता चला जाय। साधन कम पड़े तो काम की रूपरेखा में काट-छांट कर ली जाय। यह सब तभी बन पड़ता है जब प्रस्तुत योजना पर समग्र मनोयोग एकत्रित किया जाय। अधूरे चिन्तन से न पूरी रूपरेखा समझ में आती है और न उसका क्रम बनाने का तारतम्य ठीक से बनता है। दिलचस्पी जितनी जिस काम में रहेगी वह कार्य ठीक तरह बन पड़ेगा। साधनों का नियोजन भी तभी होता है, जब पूरा मन उसमें लग पा रहा है अन्यथा उपयुक्त साधन होते हुए भी उनका उपयोग ठीक तरह नहीं हो पाता। आधे-अधूरे मन से किए हुए काम सदा अधूरे रहे हैं।

मनोबल का एक अर्थ हिम्मत भी है। जिसमें दिलचस्पी भी शामिल है। किसी काम को रुचिपूर्वक किया जाय तो उसका प्रतिफल दूसरा होगा और बेगार भुगतने की तरह निबटाया जाय तो उसकी उपलब्धि बिल्कुल दूसरी होगी। रुचिपूर्वक बया घोंसला बनाती है तो उसकी सुन्दरता और मजबूती देखते ही बनती है। मन्दबुद्धि कबूतर आड़ी-तिरछी लकड़ियां डाल देता है, उसका परिणाम ऐसे घोंसले के रूप में सामने आता है जो जरा-सा हवा का झोंका भी बरदाश्त नहीं कर सकता। नौकरों द्वारा कराये गये काम और मालिक के द्वारा अपने हाथों किये गये काम में जमीन-आसमान जैसा अन्तर होता है। यही कारण है कि मजदूरों द्वारा कराई गई लम्बी-चौड़ी काशत में भी कुछ लाभ नहीं होता वरन् उलटा घाटा जाता है। इसके विपरीत जिस खेती को घर मालिक मिल-जुलकर करते है, वह सोना उगलती है। सेना का इतिहास इसी तथ्य से भरा पड़ा है। जिसके सैनिक भले ही कम रहे हों पर जो हार-जीत को निजी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर लड़ते हैं वे कमाल दिखाते हैं। सफलता उनके चरण चूमती है किन्तु जो नौकर की तरह जान बचाते हुए लड़ते हैं उनकी संख्या बहुत होते हुए भी, साधन बढ़िया होते हुए भी हारते हैं। मनोबल ऊंचा बना रहे तो पीछे हटती हुई सेना पुनः आक्रमण करके अपने खोये हुए इलाके पुनः प्राप्त कर लेती है। इसके अभाव में बेखबरी से ग्रसित सेनापति अपने जीते हुए इलाके भी हाथ से गंवा बैठते हैं।

संसार में महापुरुषों का अपना विशेष इतिहास है। कोलम्बस नेपोलियन आदि के पराक्रम ऐसे हैं कि जिन्हें पढ़-सुनकर दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है। इनकी शारीरिक, मानसिक बनावट में कोई खास विशेषता नहीं थी। वे भी दूसरे लोगों जैसे ही थे पर बढ़े-चढ़े मनोबल के सहारे बड़ी योजनायें बनाने और उसे सफल बनाने में जो पराक्रम दिखाया उसके पीछे उनका बढ़ा-चढ़ा मनोबल ही जादू-चमत्कार दिखाता रहा है।

कितने ही महान आन्दोलन संसार में चले और व्यापक बने हैं। इनके मूल में एक-दो व्यक्तियों का ही पराक्रम काम करता रहा है। जो अपनी उड़ाई आंधी के साथ अनेकों को आसमान तक उठा ले गये, वे न तो महाबली योद्धा थे और न साधन सम्पन्न करोड़पति। गांधीजी ने जो आंधी चलाई उसके साथ लाखों पत्ते और तिनके जैसी हस्ती वाले गगनचुम्बी भूमिकायें निभाने लगे। ऐसे आन्दोलन समय-समय पर अपने देश और विदेशों में उठते रहे और व्यापक बनते रहे हैं। इनके मूल में एक दो मनस्वी लोगों के संकल्प और प्रयत्न ही काम करते रहे हैं। इसीलिए संसार के मनुष्यों में सबसे बड़ा बल मनोबल ही माना गया है। संकल्प और निश्चय तो कितने ही व्यक्ति करते हैं, पर उन पर टिके रहना और अन्त तक निर्वाह करना हर किसी का काम नहीं। विरोध-अवरोध सामने आने पर कितने ही हिम्मत हार बैठते हैं और किसी बहाने पीछे लौट पड़ते हैं, पर जो हर परिस्थिति से लोहा लेते हुए अपने पैरों अपना रास्ता बनाने और अपने हाथों अपनी नाव खेकर उस पार तक पहुंचाते हैं, ऐसे मनस्वी बिरले ही होते हैं। मनोबल ऐसे साहस का नाम है जो समझ-सोचकर कदम उठाते और उसे प्राणप्रण से पूरा करते हैं।

चाहे व्यक्तिगत जीवन हो चाहे सामाजिक, सफलता के लिए मनुष्य का मनस्वी होना स्वाभाविक है। पैसा से पैसा कमाने की विद्या तो वणिक बुद्धि को भी आती है। अपराधियों जैसी हिम्मत तो चोर-उचक्कों में भी होती है। आवेश में आकर लड़-झगड़ बैठना तो क्षुद्र स्तर के व्यक्ति भी कर सकते हैं, किन्तु जिसमें अपना कोई विशेष लाभ न होता हो, मात्र सिद्धान्तों का परिपोषण अथवा सार्वजनिक हित साधन ही बन पड़ता हो ऐसे कामों में हाथ डालना, उनके मार्ग में आने वाले अवरोधों से टकराना, बिगड़ती हुई परिस्थितियों में धैर्य न खोने और साथियों का उत्साह ढीला न पड़ने देना हर किसी का काम नहीं है। ऐसे लोगों में एक ही विशेषता पाई जाती है—उसका नाम है—मनोबल।

मनोबल की संजीवनी संकल्प शक्ति का कल्पवृक्ष :

निश्चय ही मानव की संकल्प शक्ति में अपरिमित सामर्थ्य है। घोर से घोर प्रतिकूलताओं के बीच भी यदि मनोबल बना रहे, तो व्यक्ति उसी के सहारे अपनी नैया पार लगा सकता है। चूंकि यह सामर्थ्य अधिकांश व्यक्तियों में प्रसुप्त पड़ी रहती है और दिखाई नहीं देती और उनका उपयोग नहीं करते। ऐसे अनेक घटनाक्रम हैं, जिनमें व्यक्ति मरणासन्न स्थिति में पहुंचकर भी वापस लौट आये व किसी कारणवश कोई विकलांगता भी रह गयी हो तो उस दुर्भाग्य को भी वरदान मान लिया। कुछ ऐसी ही घटनायें यहां वर्णित हैं।

न्यूजर्सी, अमेरिका का एक ट्रैक्टर चालक एंडीरोबिनसन अपनी 19000 किलोग्राम भारी गाड़ी को लेकर राजमार्ग पर चला जा रहा था। 12 फरवरी 71 सवेरे की बात है, सामने से आती हुई एक कार फिसली और सड़क पर लुढ़क गई। उसने ट्रैक्टर को रोका भी—बैलेंस सधा नहीं। वह पुल के जंगलों को तोड़कर बारह मीटर नीचे गिरा और गाटरों में फंस गया। उसका सिर बुरी तरह फट गया। खून की धारा बह रही थी और मांस लटक रहा था तो भी वह घबराया नहीं, किसी प्रकार अपने को संभाला और निकाला। पंजों के सहारे रेंगता हुआ बाहर आया और पास के अस्पताल में ज्यों-त्यों करके जा पहुंचा। डाक्टरों ने अधिक ध्यान न दिया। ज्यों की त्यों मरहम पट्टी करके घर वापस भेज दिया। इतने पर भी उसका दर्द कम न हुआ।

अस्पताल से फिर बुलाया आया। दुबारा मुआयना हुआ। उसकी पसलियां टूटी मिलीं। खोपड़ी और कूल्हे की हड्डियों में भी भारी टूट-फूट थी। इलाज चलता रहा, पर स्वास्थ्य दिनों-दिन गिरता ही गया और वह घर लौट आया।

मस्तिष्क की गहराई तक में आघात पहुंचे थे। धीरे-धीरे उसकी नेत्र ज्योति चली गयी। अब वह क्या करे। सोचने लगा उसे अन्धों के स्कूल में भर्ती होना चाहिए। सो उसने स्पर्श लिपि के सहारे कुछ पढ़ना-लिखना भी सीख लिया। मन बहलने लगा।

अब नई मुसीबत खड़ी हुई। दाहिने हाथ ने भी जवाब दे दिया। उसे लकवा जैसा मार गया। बात यहीं समाप्त नहीं हुई उसके कान भी बहरे हो गये। अब उसने एक कान में लगने वाली मशीन का प्रबन्ध किया इससे बहुत जोर से बोलने पर वह मतलब की बात सुन लेता था। इन परिस्थितियों में घिरा रहने पर भी वह हताश नहीं हुआ। कुशल पूछने वालों से इतना ही कहता—‘‘ईश्वर को धन्यवाद है, संसार में अनेक संकटग्रस्तों की अपेक्षा अभी भी मैं अच्छा हूं।’’

बेकार बैठा-बैठा क्या करे? काम के बिना चैन न पड़ता था। सो उसने पत्नी के घरेलू काम-काज में हाथ बंटाना आरम्भ कर दिया। इससे पत्नी का समय बचा और वह उतनी देर में कुछ कमा लेने का प्रयत्न करती। सामने पार्क जैसा मैदान था उसमें घास काटने का काम उसने प्राप्त किया। उसके लिए उसने एक तरकीब निकाली। बीच-बीच में खूंटा गाड़ा, उसमें रस्सी लपेटी, उसे थामने से यह पता चलता रहता कि कितने घेरे की घास कट रही है। एक घेरा साफ हो जाता तो रस्सी को कुछ और खोलकर घेरा बढ़ा लेता और उसमें घास काटने लगता। इस प्रकार पूरे पार्क की घास मशीन से काटने का अभ्यास उसे हो गया। काम से लगे रहने पर व्यर्थ की चिन्ताओं से बचा रहता और थक जाने पर गहरी नींद सोता।

अब उसने एक नया शौक अपनाया। चिड़ियों की बोली की नकल करना। इस कारण कितने ही पक्षी उसके पास दौड़ आते और हाथ पर रखा भोजन निर्भय होकर खाते। एक अच्छा मनोरंजन हाथ लग गया।

एक दिन कोई मुर्गियों से लदा ट्रक पास में ही उलट गया। उसकी एक घायल मुर्गी रोबिनसन के घर में घुस गई। टांगें कट जाने पर भी वह कुछ दिन में अच्छी हो गई और प्यार-दुलार के वातावरण में सहेली बन गई। बिना पैरों के भी किस तरह चला जा सकता है? यह कला सिखाई गई तो मुर्गी ने सीख भी ली। दोनों की खूब पटती। नाम रख लिया—‘‘टुक-टुक’’ ऐसा ही कुछ वह बोलती जो थी। दर्द उसके सीने में अभी-भी होता रहता था, पर भगवान को यही धन्यवाद देता रहता कि ‘‘मैं जीवित तो हूं।’’ 4 जून सन् 1980 की बात है। शाम होते-होते घटा उठी और तेज वर्षा होने लगी। मुर्गी को पास न देखकर वह उसके किसी संकट में फंस जाने की आशंका से ढूंढ़ने घर से बाहर निकला और टुक-टुक की आवाज लगाकर उसे खोजने का प्रयत्न करने लगा। इस प्रयास में वह भीगता भी जा रहा था।

अचानक आसमान से बिजली गिरी। दिल दहलाने वाली भयंकर गर्जना हुई। चौंधियाने वाले प्रकाश से वह सारा क्षेत्र भर गया। रोबिनसन को भयानक झटका लगा। वह धड़ाम से गिरा और बेहोश हो गया। आधा घण्टे में होश आया, तो प्यास से गला सूख रहा था। सारा शरीर कांप रहा था। पड़ौसी का घर सामने था, वह उसी में घुस गया और मांगकर कितने ही गिलास पानी पीता चला गया। प्यास अभी भी शान्त नहीं हो रही थी, पड़ौसियों ने उसे घर पहुंचा दिया।

आश्चर्य यह कि उसकी दृष्टि लौट आई। सामने दीवार पर टंगे पोस्टरों को वह पढ़कर सुनाने लगा। पत्नी ने घड़ी का समय बताने कहा तो उसने देखकर वह भी सही बता दिया।

कान में लगने वाली मशीन भी इस झटके में कहीं गिर गई थी,पर अब वह बिना उसके ही सुनने लगा। पत्नी से सामान्यकाल की तरह वार्तालाप करते हुए उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न था। सीने का दर्द भी बन्द था और लंगड़ाकर चलने में सहायता करने वाली छड़ी की भी आवश्यकता नहीं रह गई थी।

दूसरे दिन रविवार था वह गिरजाघर बिना किसी सहायता के पत्नी के साथ पहुंचा और सामान्य लोगों की तरह बैठा तो उपस्थित लोगों को आश्चर्य से चकित रह जाना पड़ा। चर्चा दूर-दूर तक पहुंची। टेलीविजन पर उसने अपना विवरण सुनाया और कहा—‘‘मुसीबत के दिनों में मैंने उतना जाना जितना कि पिछली पूरी जिन्दगी में भी नहीं सीख पाया था। मैंने कभी भी हिम्मत और उम्मीद नहीं छोड़ी।’’ यह घटना मानव की अपराजेय सामर्थ्य, उसकी संकल्प शक्ति का ही सत्यापन करती है और सिद्ध करती है कि कोई भी व्यक्ति प्रतिकूलताओं से जूझकर परिस्थितियां को अपने अनुकूल बना सकता है।

सन्तुलन खोया नहीं

हान्स हयूगर एक टैंकर ट्राइवर था और प्रायः दक्षिण-पश्चिम जर्मनी के एक छोटे शहर टेनिनजेन से स्यूलिन एल्युमिनियम फैक्ट्री में एसीटोन लाया करता था। वह अपने इस कार्य में इतना दक्ष ही चुका था कि उसे इस काम में कोई डर-भय का एहसास नहीं होता और इसे भी अपना रूटीन कार्य मानता।

सितम्बर 1968 के दिन भी उसने छह हजार गैलन एसीटोन युक्त 35 फुट लम्बे विशाल टैंकर को लेकर गन्तव्य के लिए प्रयास किया। रास्ते में किसी प्रकार का कोई अशुभ नहीं घटा, स्यूलिन पहुंचकर उसने टैंकरों को खाली करना आरम्भ किया। एक घण्टे के भीतर टैंकर हयूगर ने सुरक्षित खाली कर लिये, छठवें टैंकर का एसीटोन जब भूमिगत स्टोरेज टैंक में डाल रहा था तभी अचानक न जाने कैसे उस टैंकर में आग लग गई और उससे पांच फुट लम्बी ज्वाला निकलने लगी। इस समय तक छह बज चुके थे फैक्ट्री की दिवा वाली समाप्त हो चुकी थी। लोग अपनी ड्यूटी पूरी कर बाहर आ रहे थे और नयी पारी के कर्मचारी अन्दर प्रवेश कर रहे थे, बाहर इनका भारी जमघट था। ह्यूगर ने सोचा कि यदि यह आग होज पाइप के माध्यम से किसी प्रकार स्टोरेज टैंक में पहुंच गई तो क्षण में ही पूरी फैक्ट्री और कर्मचारी रखा के ढेर में बदल जायेंगे। फैक्ट्री के पास-पड़ौस के गांवों को जो हानि उठानी पड़ेगी सो अलग। ज्ञातव्य है कि एसीटोन एक कार्बनिक यौगिक है जो भारी ज्वलनशील होता है। अस्तु उसने निर्णय किया कि इस भयंकर दुर्घटना को वह घटित नहीं होने देगा और अपना प्राणोत्सर्ग करके भी हजारों जानों की रक्षा करेगा, यह सब विचार क्षण मात्र में ही हयूगर के दिमाग में कौंध गये। एक पल की भी देरी करना उसने दुर्घटना को आमन्त्रण करने जैसा ही समझा। अतः तत्क्षण इस दिशा में क्रियाशील हो गया, धधकती लपटों में उसने हाथ डाला और स्टोरेज टैंक का बल्ब बन्द कर दिया, तत्पश्चात् उससे जुड़े हौज पाइप को पृथक किया। हौज पाइप के खुलते ही आग का एक फव्वारा छूटा और देखते-देखते टैंकर के पिछले भाग को बुरी तरह अपने गिरफ्त में ले लिया। ह्यूगर ने अविलम्ब ट्रक चालू की और धधकते टैंकर को किसी निर्जन सुरक्षित स्थान में छोड़ देने के लिए चल पड़ा। डेढ़ घंटे पहले वह जिस रास्ते से आया था उसी से लौट रहा था किन्तु वह इस बात से आश्वस्त था कि उसने शहर का पुल पार कर लिया था क्योंकि उसके बाद शहर की जनसंख्या विरल होती चली गई थी, मगर दूसरे ही क्षण उसकी नजर टैंकर के पिछले हिस्से पर पड़ी तो वह गहरे शोक में डूब गया। लपटें निरन्तर बढ़ती ही जा रही थीं और अब उसने दस फुट की ऊंचाई प्राप्त कर ली थी।

ह्यूमर ने ट्रक की गति बढ़ा दी। गति बढ़ते ही ज्वाला नीची और चपटी हो गई, दमकल के आने तक किसी संभावित दुर्घटना से बचने के लिए उसने गति तेज रखना ही उचित समझा क्योंकि अभी उसे लगातार बढ़ना था। अब तक उसे कोई ऐसा उपयुक्त स्थान मिल नहीं पाया था जहां वह ट्रक को छोड़ सके—पास-पड़ौस के क्षेत्र की आबादी अभी भी घनी थी।

कुछ आगे बढ़ा तो एक रेल रोड क्रासिंग था जहां से एक ट्रक गुजर रहा था। ह्यूमर का टैंकर उसके पिछले डिब्बे से टकराते टकराते बचा।

कुछ और आगे बढ़ा तो शाम की भीड़ से यातायात पूरा जाम था, उसे अब प्रत्यक्ष मौत सामने दिखाई पड़ने लगी क्योंकि क्षण भर के लिए रुकने से आग केबिन में पहुंच सकती थी मगर वह लाचार था। अब निकलने के सारे रास्ते बन्द थे, रोड की एक ओर गहरी खाई थी तो दूसरी ओर भीड़भाड़ युक्त शहर—जायें तो किधर? इस वक्त उसे अपनी जान से अधिक प्यारी और कीमती सैकड़ों निरीह लोगों की जान लग रही थी। चिन्ता इसी बात की सता रही थी कि वह इस भयंकर अग्निकाण्ड से धन-जन की रक्षा कैसे करे? किन्तु इस समय ह्यूगर मजबूर था, विवशता में गाड़ी रोकनी पड़ी।

गाड़ी रुकते ही ज्वाला दुर्धर्ष बनी और ह्यूगर को निगलने की हर चन्द कोशिश करने लगी, पर ह्यूगर अपने दीमक का सा धैर्य का परिचय देता रहा। इस बीच वह लगातार हॉर्न बजाता रहा। अल्प विराम के बाद मैदानी भाग की ओर जैसे ही भीड़ कुछ छंटी उसने उसी ओर ट्रक दौड़ा दी। गाड़ी मैदानी भाग से होते हुए शहर से दूर देहात की ओर भागने लगी। ह्यूगर अभी भी अपने इस निश्चय पर दृढ़ था कि भले ही इस भाग-दौड़ में उसे अपने प्राणों की आहुति देनी पड़े मगर जनहानि को वह हर हालत में रोकेगा और इसी लक्ष्य-पूर्ति के लिए वह अपनी गाड़ी सड़क पर किसी जनहीन स्थान की तलाश में भगाये जा रहा था कि उसके मार्ग में किसी प्रकार का अवरोध न आये। ट्रक निरन्तर दौड़ती जा रही थी, परन्तु ह्यूगर को सड़क के किसी ओर कोई ऐसा स्थान नहीं मिल पा रहा था जहां से वह निकलकर किसी मैदानी गांव में प्रवेश कर सके। रोड के दोनों ओर गहरे खड्ड थे, ऐसी स्थिति में संतुलन का जरा भी बिगड़ना ह्युगर के लिए मौत का बुलावा हो सकता था। इसी बीच बारिश शुरू हो गई, इससे अग्नि शांत तो हुई नहीं उल्टे सड़क फिसलनयुक्त हो गई। इससे ह्यूगर की परेशानी और बढ़ गई। हल्का ब्रेक भी उसकी जान खतरे में डाल सकता था, मगर इसकी परवाह किये बिना वह लगातार बढ़ता ही जा रहा था, अभी भी कोई उपयुक्त स्थान उसे मिल नहीं पाया था।

अब वह एक ऐसे स्थान से गुजर रहा था जहां ट्रैफिक बहुत विरल मगर दुर्भाग्य था कि यहां भी उसके पीछे कारों की एक टुकड़ी भागी चली आ रही थी मानों पुच्छल तारे की पूंछनुमा ह्यूगर ट्रक से वे सम्मोहित हो खिंचे चले आ रहे हों। इस स्थिति में ट्रक रोकना अथवा गति कम करना कारों के लिए खतरनाक हो सकता था अतः वह गाड़ी दौड़ाता ही रहा। 12 मील तक वह उसी गति से बढ़ता रहा तब जाकर उन कारों से पीछा छूटा।

अब तक उसका दाहिना हाथ स्टियरिंग व्हील को पकड़े-पकड़े अकड़ चुका था, बांये हाथ की अंगुलियां हॉर्न दबाते-दबाते सुन्न पड़ चुकी थीं, आगे काम करने से सारे अंग-अवयव इन्कार कर रहे थे। पसीने से वह तर-बत्तर हुआ जा रहा था। उम्मीदें समाप्त हो गई थीं, वह निराश हो चला था कि तभी उसे अपनी गाड़ी के दर्पण में नीली रोशनी खुलती-बुझती दिखाई पड़ी। दो फायर इंजिन उसके पीछे भागे चले आ रहे थे। ह्यूगर की कुछ आशा बंधी, दमकलों के इशारे पर उसने गति कम कर दी। एक दमकल ने आगे बढ़कर गाड़ी रोक दी, फलतः ह्यूगर को भी ब्रेक लगाना पड़ा। एक झटके से गाड़ी रुकी, वह नीचे कूदा और ‘एसीटोन’ चिल्लाता हुआ भागा। दमकल सावधान हो गये, उनने अग्नि शामक पाउडर और हजारों गैलन पानी की सहायता से बीस मिनट के कठिन संघर्ष के उपरान्त उस पर काबू पाया। आग बुझ चुकी थी और रक्ततप्त टैंकर ठण्डा हो गया था।

ह्यूगर इस अग्नि परीक्षा में सफल रहा किन्तु डेढ़ घण्टे के इस जीवन-मौत के झूले में झूलते हुए उसकी सारी शक्ति चुक चुकी थी। वह पूरी तरह बेहोश हो गया था, तत्काल उसे अस्पताल ले जाया गया—जहां कुछ दिनों के उपचार के बाद ही वह स्वस्थ हो पाया।

जिजीविषा की चमत्कारी शक्ति

एक घटना 19वीं सदी के आरम्भ की है। लन्दन की टेम्स नदी से ‘जूलियन’ नामक एक जहाज बैंकाक के लिए रवाना हुआ। उसमें पत्थर का कोयला एवं अन्य सामान भरे हुए थे। जहाज अभी अपनी यात्रा का एक घण्टा भी पूरा नहीं कर पाया था कि मुश्किल में फंस गया। उसके निचले तल में रखे कोयले में न जाने कैसे आग लग गये। आरम्भिक दौर में इसकी जानकारी नहीं मिल सकी, अतः नाविकों द्वारा तत्काल कोई उपचार भी नहीं किया जा सका। ऐसी स्थिति में आग अन्दर ही अन्दर सुलगती और फैलती रही, जब इसका विस्तार बढ़ा तो लपटें भी बाहर निकलने लगीं। तभी कप्तान को इस अग्निकाण्ड की जानकारी मिल पाई किन्तु अब तक आग निचले तल में बुरी तरह फैल चुकी थी। कप्तान को चिन्ता हुई कि यदि आग को जल्दी ही नियन्त्रित नहीं किया जा सका तो जहाज के साथ उसके कीमती सामान भी जलकर नष्ट हो जायेंगे अतः सबने मिलकर उसे बुझाने का प्रयास आरम्भ किया। उसमें पानी डाला जाने लगा किन्तु पानी डालने से उसकी भाप और धुंए से नाविकों का दम घुटने लगता, अस्तु यह उपक्रम भी देर तक नहीं चल सका और बीच में ही छोड़ना पड़ा। इस समय तक जहाज अन्ध महासागर में प्रवेश कर चुका था। यह सागर अपने भयंकर तूफानों के लिए प्रसिद्ध है। नाविकों को अब तक सिर्फ अग्नि की भयंकरता का ही सामना करना पड़ रहा था, पर इस सागर में आते ही उन पर एक साथ दो-दो विपत्तियां टूट पड़ीं। आग सर्वनाश पर तुली थी तो सागर की तूफानी लहरें उन्हें निगल जाना चाहती थीं। बचें तो किससे और कैसे? हर पल उनके लिए परीक्षा की घड़ी सिद्ध हो रही थी।

अनुभवी बूढ़े कप्तान ने सोचा, यदि ऐसे वक्त मनोबल खोया तो सभी की जान चली जायेगी, अतः वह अन्य साथियों को ढाढ़स बंधाता रहा और बचाव अभियान भी जारी रखा। लहरें इतनी ऊंची और तेज हो रही थीं कि अब पानी भी जहाज में प्रवेश करने लगा। यह देख नाविकों ने पम्प चालू कर दिया और उससे बराबर पानी निकलता रहा। इधर आग भी दुर्धर्ष बनती जा रही थी, इसकी प्रचण्डता से लंगर और मसरूल समुद्र में गिर गये। जंजीरें पिघल गयीं और अब डेक भी जलने लगा था, यदि वे चाहते तो लाइफ बोट और छोटी नौकाओं के सहारे अपनी जना बचा सकते थे, मगर अभी भी उन्हें आशा थी कि शायद वे अपने प्रयत्नों से जहाज को पूरी तरह नष्ट होने से बचा सकें और सामानों की रक्षा कर सकें, अतः वे अपने अभियान में जुटे रहे परन्तु उसका कोई प्रतिफल निकलता दिखाई नहीं पड़ रहा था। तभी सामने से एक स्टीमर आते दीखा। तट निकट ही था। इस समय तक इस विकट स्थिति में भी वह लगातार आगे बढ़ता ही रहा था और अब तक बैंकाक तट के काफी निकट आ चुका था। स्टीमर के पहुंचने पर दोनों के कप्तानों ने सलाह की कि जहाज के सभी लोग स्टीमर में आ जायं और उसे रस्से द्वारा स्टीमर के सहारे बांधकर बन्दरगाह तक पहुंचाया जाय। ऐसा ही किया गया, दो घण्टे की कठिन यात्रा के बाद जहाज बैंकाक बन्दरगाह पहुंचा जहां अग्नि शमन दस्ते ने एक घण्टे के भीतर आग पर काबू पा लिया तथा उसमें लदे सामानों को सुरक्षित उतार लिया गया।

ऐसा वस्तुतः कप्तान और नाविकों के मनोबल और जिजीविषा के कारण सम्भव हो सका। यदि उनमें मनःसन्तुलन नहीं होता, जीवन बचाने की चिन्ता होती तो शायद वे अपने जहाज को खो देते एवं मनोबल गंवा दिया होता तो स्वयं भी समुद्र की लहरों में समा गये होते।

समुद्र के अटलांटिक क्षेत्र में एक जहाज पोलरस बर्फ में जा फंसा और एक चट्टान से टकराकर टूट गया। जीवित बचे 19 नाविकों ने एक बहते हुए हिमखण्ड पर सवारी गांठी और मछलियां पकड़ते व खाते जाते। उसी चट्टान पर कई दिन काटते तथा आगे ढकेलते हुए बर्फ की चट्टान को नाव बनाकर वे 196 दिन में 1200 मील की यात्रा करके लैब्रैडोर तट पर पहुंचे और अपने प्राण बचाने में सफल रहे। बर्फ से आच्छादित उस हिमक्षेत्र में जहां प्राण वायु भी बड़ी दुर्लभता से उपलब्ध होती है उन्हें भरपूर मात्रा में अन्तःशक्ति की प्रेरणा मिलती रही, मनोबल बना रहा एवं वे प्रतिकूलताओं से जूझते हुए राह बना सके।

जुलाई 1957 का एक प्रसंग है। पैराटुपर-विंग (जर्मनी) के कमांडर लै. कुर्त एंजील ने जहाज से उड़ान भरी। दुर्भाग्यवश विमान में आग लग गयी, 1500 फीट ऊंचाई से गिरे एंजील का पूरा शरीर चकना-चूर हो गया। अस्पताल में हुए परीक्षणों के उपरान्त डाक्टरों ने घोषणा की कि अब उन्हें बचा सकना बिल्कुल सम्भव नहीं है। इतनी असह्य पीड़ा में भी उनने हिम्मत न हारी। एंजील ने चिकित्सकों के सामने बड़े साहस एवं विश्वास के साथ कहा—‘मैं मर नहीं सकता, अभी मुझे बहुत काम करने हैं। आप सभी अपना कर्तव्य पूरा करें।’ दो महीने बाद जब वे अपनी पूर्व स्थिति में आ पहुंचे तो चिकित्सकों ने उनकी जिजीविषा एवं साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की। व्यक्ति स्वयं अपने हाथों मौत भी बुला सकता है एवं प्रचण्ड मनोबल के सहारे उसे परे भी भगा सकता है, इसका यह एक जीवन्त उदाहरण है।

सन् 1965 की एक घटना है। अमेरिका का एक हवाई जहाज समुद्र पर उड़ते हुए आग लगने के कारण जल गया। उसका पायलट समुद्र में कूद पड़ा। इतनी ऊंचाई से कूदने और समुद्र के जल पर गिरने के कारण उसे चोट भी आयी फिर भी बिना घबराये वह तैरता रहा और बुरी तरह चोट खाये शरीर को खींचता-खांचता 40 घण्टे तक अविराम तैरते हुए किनारे पहुंचा। किनारे पहुंचने पर कुछ लोगों ने उसे देखा तो अस्पताल में भरती कराने ले गये। इतनी अस्वस्थ और आहत दशा में जब लोग उसे इमरजेंसी वार्ड में सर्जरी हेतु ले गये तो जैसे ही सुरक्षा के प्रति उसका मन आश्वस्त हुआ, शरीर की जागृत और सक्रिय शक्तियां पूर्व स्थिति में जा पहुंची और निमोनिया, थकान, चोटों के दर्द और भूख के कारण वह बेहोश हो गया। उसकी हालत शारीरिक दृष्टि से इतनी गम्भीर थी कि डाक्टरों ने उसके अब तक बचे रहने पर आश्चर्य व्यक्त किया। पायलट जब वैसी परिस्थितियों में नहीं मरा तो अस्पताल में भर्ती हो जाने पर तो उसकी मृत्यु हो जाने का कोई प्रश्न ही नहीं था। वह जीवित भी रहा स्वस्थ होने पर पुनः उड़ान भरने लगा। कभी-कभी अनायास छोटी-सी काया में अपरिमित सामर्थ्य न जाने कहां से उद्भूत होने लगता है व उस कार्य को करने पर व्यक्ति स्वयं आश्चर्यचकित हो उठता है। विगोरीज, फ्रांस के एक शिकारी बैरन क्रिस्टोफरसन के घोड़े की टांग आखेट की उछल-कूद में टूट गई। घोड़ा को उस दयनीय स्थिति में छोड़ना क्रिस्टोफर ने उचित न समझा। उसने 425 पौंड भारी घोड़े को कन्धे पर उठाया और डेढ़ मील की दूरी तक उतना भार वहन करते हुए उसे पशु चिकित्सालय तक पहुंचाया। अपने भारवाहक के प्रति सहानुभूति ने ही उसके अंतः के साहस बल को उभारा और उससे यह पुरुषार्थ सम्पन्न करा डाला।

इटली के एक प्रमुख शहर गिऐरुपे में फिनोज पी वेग नामक फोरमैन बारूद के एक कारखाने में काम करता था जहां धातुओं की परतों में बारूद के मिश्रण से छेद किये जाते थे। फिनोज पी वेग एक बरमे के पास जो कि चार फीट लम्बा और तेरह पौंड वजन का था, काम कर रहा था। अचानक कोई खराबी के कारण बरमा बड़े जोर से उचटा और वेग की आंखों के नीचे के भाग को छेदकर मस्तिष्क की हड्डियों को तोड़ता हुआ बाहर निकल गया। उसे अचेत अवस्था में ही एक मील दूर अस्पताल ले जाया गया, जहां चिकित्सकों ने उसकी मरहम पट्टी बड़ी ही निराशा से की, क्योंकि वेग के बचने के कोई आसार उन्हें दिखाई नहीं दे रहे थे। किन्तु रात के दस बजे जब वह होश में आकर बातें करने लगा तो चिकित्सकों ने पूरे मनोवेग से उसकी चिकित्सा करना प्रारम्भ किया और तीन माह में ही वह पूर्ण स्वस्थ होकर घर चला गया।

चिकित्सकों की अन्तिम रिपोर्ट आज के मूर्धन्य चिकित्सकों के लिए अध्ययन व आश्चर्य का विषय है। हावर्ड मेडिकल कालेज में वेग की टूटी खोपड़ी के अस्थिखण्ड व पदार्थ, कागजात व वह बरमा भी सुरक्षित रखा है जो कि वेग की खोपड़ी को तोड़ता हुआ निकल गया था। शरीर विज्ञानियों को सहसा विश्वास नहीं होता कि इतने भयानक मस्तिष्कीय आघात के बाद भी कोई व्यक्ति जीवित रहकर भी अपना सामान्य जीवनक्रम चला सकता है।

साहस के प्रसंगों की श्रृंखला में एक सन् 1891 की घटना है। एक अंग्रेज मछुआरा अपने दल-बल के साथ एक विशालकाय ह्वेल मछली का, जो कि आकलैंड द्वीप के पास दिखाई दी थी—शिकार करने की चेष्टा करने लगा। दो नावों पर सवार मछुओं ने उस पर भाले से आक्रमण किया। ह्वेल ने पलटा खाया तो एक नाव उसकी पूंछ के नीचे आ गई और एक नाविक डूब गया। दूसरे जेम्स वर्टली को ह्वेल निगल गई, साहसी जेम्स वर्टली ने अपना मनोबल नहीं खोया, उसने अपने जेब से शिकारी चाकू को प्रयत्न करके निकाला और पेट में जकड़े रहने पर भी उसने मछली के पेट को काटना प्रारम्भ किया। कुछ घण्टों के परिश्रम के बाद वह सफल हुआ। दो दिन बाद उसे नाविकों ने अचेत अवस्था में समुद्र की सतह पर से निकाला और अस्पताल पहुंचाया, जहां चिकित्सकों के तीन सप्ताह के प्रयास के बाद उसकी बेहोशी टूटी। मछली के पेट में उसका शरीर बुरी तरह क्षत-विक्षत हो गया था, उसे पूरी तरह स्वस्थ होने में दो महीने लगे। अपने धैर्य और मनोबल के कारण ही बर्टली जीवित ह्वेल के पेट में से जीवित निकल सका। प्रेस फोटोग्राफर्स व इण्टरव्यू लेने वालों के लिए वह एक अजूबा बन गया था। उसने प्रमाणित कर दिखाया कि यदि इच्छा शक्ति हो तो किसी भी खतरे से निबटा जा सकता है।
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