प्रखर प्रतिभा की जननी इच्छा शक्ति

मनुष्य में छिपी इच्छा-शक्ति की सामर्थ्य

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संकल्प शक्ति के रूप में मनुष्य को मिला वरदान इतना सामर्थ्यवान है कि वह भौतिक अथवा आत्मिक किसी भी क्षेत्र में प्रगति मार्ग में सम्पन्न होने वाली प्रत्येक बाधा को पैरों तले रौंदकर आगे बढ़ाता तथा सफलताओं को मनुष्य के कदमों में बिछाता देखा जा सकता है।

संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं अथवा जिन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभायें प्रदर्शित की हैं, उसके मूल में उनका दृढ़ संकल्प ही कार्यरत रहा है। यही वह बल है—जिसके आधार पर महान लक्ष्य को लेकर साहसिक यात्रायें सम्पन्न की गयी हैं। नेपोलियन ने इसी के सहारे अजेय आल्पस पर्वत को सेना सहित पैदल पार कर संसार में अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया था। शेरपा तेनसिंह और हिलेरी ने संसार के सर्वोच्च पर्वत शिखर गौरीशंकर (एवरेस्ट) पर जा पहुंचने का दुस्साहस किया था और वहां अपनी विजय पताका फहराते हुए यह उद्घोष किया था कि इस संसार में कुछ भी ऐसा दुष्कर कार्य नहीं है जिसे संकल्प बल से सम्पन्न न किया जा सके।

आत्मिक क्षेत्र में उच्चस्तरीय लक्ष्य तक जा पहुंचने वालों में ध्रुव और सप्त ऋषियों की गणना होती है, जो अभी भी आकाश में ज्योति पुंज बनकर चमकते हैं। दिशा सूचक ध्रुव और आत्मबल की सर्वोच्च सिद्धि करने वाले ऋषि मण्डल अभी भी अपनी गरिमा की ओर जनसाधारण का ध्यान आकर्षित करते हैं और कहते हैं कि सामान्य स्थिति में जन्मे और पले मनुष्य को हमारी तरह अजस्र श्रेय साधने में निश्चित रूप से सफलता मिल सकती है, पर आवश्यकता मात्र एक ही वस्तु की है और वह है—साहसिक सत्संकल्प की।

पूर्व अभ्यासों, आदतों एवं कुसंस्कारों को बदलना कठिन तो है पर इतना नहीं जिसे प्रचण्ड संकल्प शक्ति के सहारे निरस्त न किया जा सके। तुलसी दास, सूरदास युवाकाल तक कामुकता तथा नैतिकता की मर्यादाओं की दृष्टि से हेय जीवन जीते रहे, किन्तु जब उनने अपने को बदल डालने का दृढ़ निश्चय कर लिया तो पुरानी आदतों तथा मान्यताओं को बदलते देरी न लगी। आन्तरिक परिवर्तन प्रस्तुत करने में दृढ़ संकल्प के अतिरिक्त और शक्ति काम नहीं करती। सामान्य लोग असमंजस में पड़े रहते तथा आत्म नियन्त्रण में सफलता न मिलने का रोना रोते रहते हैं, पर दृढ़ संकल्प का आश्रय लेने वाले मनस्वी के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। वाल्मीकि तथा अंगुलिमाल जैसे डाकू सन्त बने हैं। किसी समय का महान क्रूर शासक अशोक जब बदला तो उसने धर्म चक्र प्रवर्त्तक की मूर्धन्य भूमिका निभायी। वासना के दलदल में पड़ी अम्बपाली बदली तो बौद्ध धर्म की महान प्रचारिका बन गयी। आन्तरिक परिवर्तन से वह परम साध्वी कहलायी तथा ऋषियों से श्रद्धा के साथ सराही गयी। अजामिल, सदन जैसे अगणित व्यक्तियों के समय-समय पर ऐसे ही आन्तरिक परिवर्तन उनकी संकल्प शक्ति के माध्यम से ही सम्भव हो सके हैं। असफलतायें सिर्फ यह सिद्ध करती हैं कि सफलता के लिए जो तत्परता बरती जानी चाहिए उसमें कहीं कोई कमी रह गयी है। मनस्वी हारते नहीं वे हर असफलता के बाद दूने साहस—चौगुने उत्साह के साथ-साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। अब्राहम लिंकन 17 बार पराजित होने के उपरान्त चुनाव जीत पाये थे। कठिनाइयों के साथ पग-पग पर संघर्ष करते हुए आगे ही बढ़ते चले गये। जार्ज वाशिंगटन अमरीका के श्रद्धा पात्र राष्ट्रपति बने। जन्म से ही उन्हें घोर गरीबी का सामना करना पड़ा पर अपने ही पुरुषार्थ के सहारे आगे बढ़ते गये।

व्रतशील अपने संकल्पों के प्रति दृढ़ रहते तथा हर हालत में उन्हें पूरा करते हैं। भीष्म ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया और उसे पूरा कर दिखाया। गिरता शरीर नहीं, मन है। मनोबल ऊंचा रहने पर मानसिक दुर्बलताओं की दाल नहीं गलती। पशु प्रवृत्तियां भी सिर पर चढ़ बैठने का साहस नहीं करती हैं। भागीरथ को गंगावतरण अभीष्ट था। वे प्रचण्ड तपश्चर्या में संलग्न होकर उसे पूरा करने में सफल हुए। जगद्गुरु शंकराचार्य की आरम्भिक परिस्थितियां ऐसी नहीं थीं जिनमें उनके द्वारा किसी बड़े उपक्रम की आशा की जा सके, किन्तु उन्होंने अपनी प्रचण्ड प्रतिभा का उपयोग किसी महान प्रयोजन में करने का निश्चय किया और उसमें सफल रहे।

कोलम्बस अपनी नाव लेकर भारत की खोज में निकला। समुद्र यात्रा की प्राण घातक चुनौतियों का सामना करते हुए, नई दुनिया अमेरिका को खोज निकालने में सफल हो सका। यह उसके प्रचण्ड संकल्प की ही परिणति थी। अन्धी, गूंगी, बहरी हेलन केलर का विद्या की मूर्ति भाण्डागार बन सकना, सत्रह विश्व विद्यालयों से डॉक्टर का सम्मान दिला सकना उसकी संकल्प शक्ति का ही चमत्कार है। इसके विपरीत साधन सम्पन्न छात्र भी अपनी असफलता का रोना रोते रहते हैं। इसमें अन्य कारण कम और मनोबल की दुर्बलता ही प्रमुख अवरोध उत्पन्न कर रही होती है।

प्रख्यात अंग्रेजी साहित्यकार एच.जी. वेल्स की माता घरों में बर्तन मांजने की मजदूरी करके अपना और अपने बच्चों का पेट पालती थीं। ऐसी विकट परिस्थितियों में वे बड़े उत्साह से शिक्षा अर्जन के हर अवसर ढूंढ़ते रहे और उस प्रयास से उच्चकोटि के साहित्यकार बने। वैज्ञानिक एडीसन की जीवन गाथा भी वेल्स से मिलती-जुलती है। ढूंढ़ने पर ऐसे अन्य प्रमाण भी देश-विदेश में मिल सकते हैं, जिसमें विषम परिस्थितियों से जूझते हुए मनस्वी लोगों ने इतनी बड़ी-बड़ी सफलतायें पायी हैं, जिन्हें चमत्कार कहा जा सकता है। वस्तुतः संकल्प शक्ति ऐसा दैवी अनुदान है, जिसकी अनुकम्पा से लाभान्वित हो सकना हर किसी के लिये सम्भव है।

नर हो या नारी—बालक हो या वृद्ध— स्वस्थ हो या रुग्ण—धनी हो या निर्धन, परिस्थितियों से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, महत्व शक्ति का है मनस्वी अपने लिए परिस्थितियां स्वयं बनाते तथा सफल होते हैं। समय और श्रम कितना लगा, उसमें अन्तर हो सकता है, पर आत्म निर्माण के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति अपनी आकांक्षा को प्रयत्नों के अनुरूप देर-सवेर पूरा कर लेते हैं। नर की तुलना में नारी की परिस्थितियां, कई दृष्टियों से न्यून मानी जाती हैं, पर यह मान्यता वहीं तक सही है जहां तक कि उनका मनोबल गया-गुजरा बना हुआ है। अपनी गरिमा को समझकर यदि वे संकल्प शक्ति को जगा लें तो कोई कारण नहीं है कि वे पुरुष से किसी क्षेत्र भी में पीछे रहें।

विद्वान कैयट व्याकरण शस्त्र की संरचना में लगे थे। उसकी पत्नी भामती मूंज की रस्सी बंटकर उससे गुजारे का प्रबन्ध करती थीं। साम्यवाद के जनक कार्ल मार्क्स भी कुछ कमा न पाते थे। यह कार्य उनकी पत्नी ‘जैनी’ करती थी। पुराने कपड़े खरीदकर उनमें से छोटे बच्चों के कपड़े बनातीं तथा फेरी लगाकर उनको बेचती थीं। आदर्शों के लिए पतियों को इस प्रकार कष्ट उठाकर भी प्रोत्साहित करने एवं सहयोग देने में उनका उच्चस्तरीय संकल्प बल ही कार्य करता था। बंगाल के निर्धन विद्वान प्रतापचन्द्र राय ने अपनी सारी शक्ति और सम्पत्ति को लगाकर महाभारत का अनुवाद कार्य हाथ में लिया पर बीच में ही चल बसे। उनकी पत्नी ने अवशेष कार्य को अपना संस्कृत ज्ञान बढ़ाकर पूरा किया।

संकल्प बल—एक ईश्वरीय अनुदान

मनुष्य को बुद्धि एवं साधनों के अतिरिक्त संकल्पबल का इतना बड़ा ईश्वरीय अनुदान मिला है जिसके द्वारा वह असम्भव को भी सम्भव करके दिखा सकता है। घटना सन् 1910 की है—एक जर्मनी ट्रेन में एक सोलह वर्षीय किशोर यात्रा कर रहा था। घर से भागकर वह कहीं दूर जाना चाहता था, पैसे के अभाव में वह टिकट न ले सका। टिकट निरीक्षक को देखते ही उसने सीट के नीचे छिपने की कोशिश की, पर वह टिकट निरीक्षक की निगाहों से बच न सका। उसने किशोर से टिकट मांगा, टिकट तो उसके पास था नहीं। पास में अखबार का टुकड़ा पड़ा था, किशोर ने उसे हाथ में उठाया, मन में संकल्प किया कि यह टिकट है और उसने टिकट निरीक्षक के हाथों में वह टुकड़ा थमा दिया। मन कह मन यह संकल्प दुहराता रहा—हे परमात्मा! उसे वह कागज का टुकड़ा टिकट दिखाई पड़ जाय।उसके आश्चर्य का तब ठिकाना न रहा जब देखा कि निरीक्षक ने उस कागज के टुकड़े को वापिस लौटाते हुए यह कहा कि—‘क्या तुम पागल हो गये हो? तुम्हारे पास टिकट जब है तो सीट के नीचे छिपने की क्या आवश्यकता है?’

‘एबाउट माई सेल्फ’ पुस्तक में बुल्फ मेंसिंग नामक एक रशियन परामनोवैज्ञानिक उपरोक्त घटना का उल्लेख करते हुए लिखता है कि ‘उस दिन से मेरा पूरा जीवन बदल गया।’ पहले मैं अपने आप को असमर्थ, असहाय तथा मूर्ख मानता था, पर उस घटना के बाद यह विश्वास पैदा हुआ कि मेरे भीतर कोई महान शक्ति सोयी पड़ी है जिसे जगाया-उभारा जा सकता है—उन प्रयत्नों में मैं प्राणपण से लग गया तथा सफल भी रहा।’

सन् 1910 से 1950 तक मेंसिंग को दुनिया भर में ख्याति मिली। उसकी संकल्प शक्ति की विलक्षणता का परीक्षण अनेकों बार विशेषज्ञ-वैज्ञानिकों के समक्ष किया गया। स्टालिन जैसा मनोबल सम्पन्न व्यक्ति भी मैंसिंग से डरने लगा, भयभीत होकर स्टालिन ने उसे गिरफ्तार करा लिया, स्टालिन को सुनी हुई बातों पर विश्वास न था, मैंसिंग की परीक्षा उसने स्वयं ली। उसने मैंसिंग से कहा—‘तुम मेरे सामने अपनी सामर्थ्य का परिचय दो।’ वह सहर्ष इसके लिए राजी हो गया।

स्टालिन ने आदेश दिया—‘बन्द कमरे से कल दो बजे तुम्हें छोड़ा जायेगा, एक व्यक्ति तुम्हें मास्को के एक बड़े बैंक में ले जायेगा, तुम्हें बैंक के कैशियर से एक लाख रुपये निकलवा कर लाना होगा। पर ध्यान रहे तुम मात्र अपनी वाणी का प्रयोग कर सकते हो—किसी शस्त्र का नहीं।’

दूसरे दिन पूरी बैंक को सैनिकों से घिराव दिया गया। दो व्यक्ति पिस्तौलें लिए छद्मवेश में मैंसिंग के पीछे-पीछे चल पड़े ताकि वह किसी प्रकार की चाल न चल सके। ट्रेजरर के सामने उसे खड़ा कर दिया गया, मैंसिंग ने जेब से एक कोरा कागज निकाला—एकाग्र नेत्रों से देखा तथा ट्रेजरर को दे दिया। ट्रेजरर गौर से उस कागज को उलट-पलट कर देखकर आश्वस्त हो गया कि वह एक चैक है एवं सही है। उसे अपने पास रखकर उसने एक लाख रुपये मैंसिंग को दे दिये, उसे लेकर वह स्टालिन के पास पहुंचा तथा सौंप दिया। सारा विवरण जानकर स्टालिन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा।

इतने पर भी स्टालिन का उसकी संकल्प शक्ति पर पूर्ण विश्वास न हुआ। उधर मैंसिंग वह धनराशि लेकर खजांची के पास पहुंचा, पूरी बात बतायी। उसने चैक समझकर रखे हुए कागज को दुबारा देखा तो वह अब मात्र कोरा कागज था। धनराशि को वापस करते हुए मैंसिंग ने खजांची से कहा—‘महोदय! क्षमा करें, यह संकल्प शक्ति का एक छोटा-सा प्रयोग था। आपको इसका दण्ड भुगतना पड़े इस कारण लौटाने आया हूं।’ वह क्लर्क इस घटना से इतना अधिक हतप्रभ हुआ कि उसे हार्टअटैक का दौरा पड़ा और कई दिनों तक भयावह सपने आते रहे।

इस रहस्य की और भी पुष्टि करने की दृष्टि से उधर स्टालिन ने मैंसिंग को दूसरा आदेश दिया कि सैनिकों की देखरेख में बन्द कमरे से निकल कर वह ठीक बारह बजे रात्रि को स्टालिन से मिले। स्टालिन के लिए सैनिकों की कड़ी सुरक्षा वैसे भी रखी जाती थी, लेकिन यह व्यवस्था और कड़ी करदी गई ताकि किसी प्रकार मैंसिंग निकलकर स्टालिन तक पहुंचने न पाये, पर इन सबके बावजूद भी निर्धारित समय पर वह स्टालिन के समक्ष पहुंचकर मुस्कराने लगा। स्टालिन को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, पर जो सामने घटित हुआ था उससे इन्कार भी कैसे कर सकता था? भय मिश्रित स्वर में उसने मैंसिंग से पूछा कि यह असम्भव कार्य तुमने किस प्रकार, किस शक्ति के सहारे किया—थोड़ा विस्तार में बताओ।

मैंसिंग बोला—यह और कुछ भी नहीं, संकल्पबल का एक छोटा चमत्कार है। मैंने मात्र इतना किया कि मन को एक विचार, एक लक्ष्य के लिए एकाग्र किया—तत्पश्चात दरवाजे पर आकर सैनिक से निर्देश के स्वर में बोला ‘मैं वेरिया हूं।’ ज्ञातव्य है तब वेरिया को रूसी फौज का सबसे बड़ा अधिकारी, स्टालिन के बाद सर्व शक्तिमान अधिकारी माना जाता था।

‘आपसे मिलने की इच्छा जाहिर करते ही सैनिकों की पहली कतार ने मुझे एक कमरे का नम्बर बताया। वहां पहुंचने पर मैंने पुनः अपना परिचय पहले की भांति दिया। सुरक्षा पर तैनात सैनिकों ने एक दूसरे दिशा वाले कमरे की ओर संकेत किया, वहां भी शस्त्र सैनिकों की एक टोली मौजूद थी। जनरल वेरिया का नाम सुनकर व उन्हें प्रत्यक्ष सामने देखकर उस सैनिकों ने भी अभिवादन करते हुए आगे का रास्ता बताया। इस प्रकार सैनिकों की सात टोली पार करने के बाद निश्चित रूप से यह मालूम हुआ कि आप कहां हैं? अपना पूर्व की भांति परिचय देकर मैं यहां आ सकने में सफल हुआ।

मैंसिंग के द्वारा स्टालिन को एक नया सूत्र हाथ लगा कि मनुष्य के भीतर कोई ऐसी अविज्ञात शक्ति विद्यमान है जो प्रत्यक्ष सभी आयुधों से भी अधिक समर्थ है, उसके द्वारा असम्भव स्तर के कार्य भी पूरे किये जा सकते हैं। स्टालिन ने मैंसिंग की अतीन्द्रिय सामर्थ्य के परीक्षण के लिए ‘नामोर’ नामक एक मनःशास्त्री को नियुक्त किया जो अपने समय का मनोविज्ञान का मूर्धन्य विशेषज्ञ माना जाता था। लम्बे समय तक उसने मैंसिंग का अध्ययन किया, अन्ततः उसने घोषणा की कि—‘मन की अचेतन शक्ति चेतन की तुलना में अधिक सबल है, उसे उभारकर अच्छे-बुरे दोनों ही तरह के काम लिए जा सकते हैं। मैंसिंग के भीतर का अचेतन प्रचण्ड रूप से जागृत है, उसी के माध्यम से वह प्रचण्ड संकल्प की प्रेरणा देकर दूसरों को सम्मोहित कर लेता है तथा अपने प्रयोजन में सफल हो जाता है।’

मनःशक्ति का ही है यह चमत्कार

निश्चय ही मनुष्य को ईश्वर प्रदत्त दिव्य अनुदानों में इच्छा शक्ति का स्थान सर्वोपरि है। भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन में सफलताओं का मूल बीज दृढ़ इच्छा शक्ति को ही माना गया है। समस्त शक्तियों का उद्भव प्रबल संकल्प बल के द्वारा ही होता है। ‘द इमोशन्स एण्ड विल’ नामक अपनी पुस्तक में ब्रिटिश मनोविज्ञानी वेन अलेक्जेण्डर ने कहा है कि संकल्प बल की प्रचण्डता मानवी व्यक्तित्व को उच्च सोपानों पर पहुंचा देती है। उनके अनुसार मनुष्य में अनेकों कमजोरियां होती हैं जिनसे पिण्ड छुड़ाने के लिए मनोबल को ऊंचा रखना एवं इच्छा शक्ति को प्रखर बनाना पड़ता है। सफलता वहीं मिलती है जहां इच्छा शक्ति की प्रचंडता होती एवं तद्नुरूप प्रयास किये जाते हैं। प्रबल इच्छा शक्ति मस्तिष्क को अपने ढांचे में ढाल लेती है उसी के अनुरूप शारीरिक-मानसिक गतिविधियां परिचालित होने लगती हैं।

शरीर क्रिया क्षेत्र में आये दिन योगाभ्यासियों द्वारा ऐसे ही क्रिया-कौतुक प्रदर्शित किये जाते रहे हैं जिन्हें देखने से सहज विश्वास तो नहीं होता, पर वैज्ञानिक निरीक्षण-परीक्षणों के दौरान वे बिल्कुल सही पाये गये और उनकी इस क्रिया-कुशलता को सर्वसम्मति से स्वीकारा गया। ऐसा ही एक प्रयोग-परीक्षण ‘हारवर्ड इन्स्टीट्यूट फॉर साइकिक एण्ड कल्चरल रिसर्च’ की ओर से डॉ. थेरेस ब्रोसे नामक एक फ्रांसीसी शरीर विज्ञानी के संरक्षण में आयोजित किया गया। इसके लिए वे अपने मित्र डा. माइलोवेनोविच के साथ योग की विलक्षणताओं की शोध करने के लिए भारत आये। अपने प्रयोगों के दौरान उनने अपने सन्देहों के निवारणार्थ कई प्रकार की जांच-पड़ताल के आधार पर जो निष्कर्ष निकले उसमें दिल की धड़कन बिल्कुल बन्द कर लेने का दावा भी उनने सही पाया। ऐसे योगी तो काफी संख्या में मिले जो सामान्यतया 72 बार प्रति मिनट की धड़कन को 30 तक घटा लेते हैं। 3 दिन से 28 दिन तक बिना सांस लिए बिना अन्न-जल ग्रहण किए बिना मल-मूत्र विसर्जन किए समाधिस्थ रहने वाले योगियों में से अधिकांश के दावे सही पाये गये। उनके संज्ञाशून्य होने की बात उनका हाथ बर्फ में दबाये रहने और आग का स्पर्श कराने पर भी परीक्षायें खरी उतरीं। एक योगी संकल्प बल से जिस भी अंग से कहा जाता उसी से पसीना निकाल सकते थे। इससे उनने पूर्वार्त्त अध्यात्म के मर्म को समझा व पाश्चात्य जगत में भारत के वास्तविक स्वरूप को प्रकट किया। यही नहीं एक बार लन्दन में एक भारतीय योगी ने सन् 1928 में ऐसा ही एक सार्वजनिक प्रदर्शन किया था, उसने नाड़ी की गति को न्यूनतम 20 और अधिकतम 120 करके डॉक्टरों को आश्चर्यचकित कर दिया। वह अपनी मांस-पेशियों और त्वचा को इतनी कड़ी कर लेता था कि सामान्य हथियारों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। पंजाब के राजा रणजीतसिंह ने अंग्रेज गवर्नर को हरिदास नामक साधु के छह महीने लम्बी भूमिगत समाधि का प्रमाण परिचय दिया था। वे साधु पूरे महीने गड्ढे में बन्द रहे, गड्ढे को बन्द करके ऊपर से फसल बो दी गई थी ताकि उसमें किसी चालाकी-हेराफेरी की गुंजाइश न रहे। छह महीने बाद समाधि खोदी गई तो वे साधु जीवित निकले और कुछ समय में पूर्ववत् सामान्य हो गये।

इस सम्बन्ध में—‘हिस्ट्री ऑफ दि सिख्स’ नामक पुस्तक में (लेखक डॉ. मैकग्रेगर) महाराजा रणजीत सिंह के गुरु स्वामी हरिदास द्वारा सन् 1837-38 में किये गये भूमिगत समाधि के प्रदर्शन का विस्तृत विवरण मिलता है। इसका निरीक्षण पंजाब में नियुक्त ब्रिटिश राज्य के तत्कालीन अन्य उच्चाधिकारियों ने भी किया था। स्वामी हरिदास को एक मजबूत सन्दूक में सीलबन्द करके जमीन में खोदे गये गहरे गड्ढे में उतार दिया गया फिर ऊपर से मिट्टी डालकर प्लास्टर से बन्द कर दिया गया। 40 दिन पश्चात् गड्ढा खोद कर सन्दूक बाहर निकालने पर स्वामीजी का शरीर निश्चेष्ट पाया। हृदय और नाड़ी में भी स्पन्दन नहीं था लेकिन सिर में शिखा वाला स्थान इतना तप्त था कि छूते ही हाथ जल जाता था। कान-नाक से मोम निकालकर पूर्व निर्दिष्ट विधि के अनुसार शरीर पर शीतल जल का छिड़काव करते ही उनका शरीर चैतन्य हो उठा तथा सभी उपस्थित लोगों व विशिष्ट अतिथियों से उसी तरह बातचीत करने लगे जैसे समाधि में जाने से पूर्व कर रहे थे।

सन्त हरिदास की दूसरी समाधि की अवधि दस महीने थी। यह प्रदर्शन उन्होंने अदीना नगर में किया था, उस प्रसंग का संस्मरण कैप्टन ओसवर्न ने अपनी पुस्तक ‘रणजीत सिंह’ में दिया है। इस बार सुरक्षा, निगरानी और पहरेदारी सम्बन्धी काफी एहतियात बरते गये। जिस जमीन के भीतर स्वामीजी समाधिस्थ थे उस भूमि पर जौ की फसल बो दी गई ताकि भीतर से निकल भागने की धोखा-धड़ी पकड़ी जा सके लेकिन पूरी सतर्कता के बावजूद ऐसी कोई घटना नहीं घटी।

‘ह्वाट मेक्स ए लाइफ सिग्नीफिकेण्ट’ नामक पुस्तक में सुप्रसिद्ध मनःशास्त्री विलियम मोक्स ने कहा है कि मनुष्य के भीतर अति-मानवी सामर्थ्यं विद्यमान हैं, जिन्हें करतलगत कर सकना हर किसी के लिए सम्भव है। इसका आरम्भिक क्रियात्मक चरण है ढर्रे की गतिविधियों को उलटने तथा दूरदर्शिता युक्त महानता के मार्ग का अवलम्बन करने के लिए अपने संकल्पों को परिपुष्ट तथा दृढ़ करना इच्छा शक्ति को प्रखर बनाना। संकल्प की दृढ़ता पशुवत् अभ्यस्त स्वभावों से छुटकारा पाने तथा आत्म विजय प्राप्त करने का प्रमुख आधार है। इसका सम्पादन तथा अभिवर्धन निरन्तर के अभ्यास से सम्भव है, जो जितना अधिक संकल्पवान् है वह उतना ही अधिक समर्थ है। आकांक्षा, संकल्प दृढ़ता जब सत्प्रवृत्तियों का पक्षधर बन जाती है तो अतिमानवी सामर्थ्य हस्तगत करने का मार्ग क्रमशः प्रशस्त होने लगता है। संसार में कितने ही महामानव हुए हैं जिन्होंने अपने प्रचण्ड संकल्प बल के सहारे असंभव को भी सम्भव कर दिखाया। दृढ़ इच्छा शक्ति का प्रयोग कर कितने ही भटके हुए लोगों को सन्मार्गगामी बनाया है।

गुरु गोरखनाथ से एक कापालिक बहुत चिढ़ा हुआ था, एक दिन आमना-सामना हो गया। कापालिक के हाथ में कुल्हाड़ी थी, उसे ही लेकर वह तेजी से गोरखनाथ को मारने दौड़ा पर अभी कुल दस कदम ही चला था कि वह जैसे का तैसा खड़ा रह गया। कुल्हाड़ी वाला हाथ ऊपर और दूसरा हाथ पेट में लगाकर हाय-हाय चिल्लाने लगा—वह इस स्थिति में भी नहीं था कि इधर-उधर हिलडुल भी सके।

मनस्वी महापुरुषों में संकल्प बल का यही चुम्बकत्व काम करता है, वे इसे इस स्तर तक विकसित कर लेते हैं कि जहां भी जिस भी क्षेत्र में प्रवेश करते हैं वहीं अपने प्रभाव क्षेत्र से अनेकों को लाभ देते देखे जाते हैं।

ईसा मसीह, मुहम्मद, जरथस्तु आदि धार्मिक क्षेत्र के मनस्वी ही थे, जिन्होंने लोगों को अभीष्ट पथ पर चलने के लिए विवश किया। उपदेशक लोग आकर्षक प्रवचन देते रहते हैं, पर उनकी कला की प्रशंसा करने वाले भी उस उपदेश पर चलने के लिए तैयार नहीं होते। इसमें उनके प्रतिपाद्य विषय का दोष नहीं, उस मनोबल की कमी ही कारण है जिसके बिना सुनने वाले के मस्तिष्क में हलचल उत्पन्न किया जा सकना सम्भव न हो सका। नारदजी जैसे मनस्वी ही अपने स्वल्प पुरुषार्थ से लोगों की जीवनधारा बदल सकते थे। वाल्मीकि, ध्रुव, प्रह्लाद, सुकन्या आदि कितने ही आदर्शवादी उन्हीं की प्रेरणा भरी प्रकाश किरण पाकर आगे बढ़े थे।

समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण, परमहंस, विवेकानन्द, गुरुगोविन्दसिंह, दयानन्द, कबीर आदि मनस्वी महामानवों ने अपने समय के लोगों को उपयोगी प्रेरणायें दी थीं और अभीष्ट पथ पर चलने के लिए साहस उत्पन्न किया था। गांधीजी की प्रेरणा से स्वतन्त्रता संग्राम में अगणित व्यक्ति त्याग-बलिदान करने के लिए किस उत्साह के साथ आगे आये—यह अभी पिछले दिनों की घटना है। वस्तुतः ऐसे चमत्कार महामानवों के व्यक्तित्व में घनीभूत इच्छा शक्ति के कारण ही सम्भव हो पाते हैं।
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